Rajasthan Patrika 10-08-2008 |
आजादी के बाद से धर्म निरपेक्षता के नाम पर एक ऐसा माहौल बना दिया गया कि धर्म की बात करना शिष्टाचार के विरुद्ध माना जाने लगा। नतीजा ये हुआ कि हर धर्म के तीर्थस्थल उपेक्षित होते चले गये। गुरू़द्वारों की प्रबंध समितियों ने और अनुशासित सिख समाज वे गुरूद्वारों की व्यवस्था स्वयं ही लगातार सुधारी। मस्जिदों और चर्चो में क्रमबद्ध बैठकर इबादत करने की व्यवस्था है इसलिए भगदड़ नहीं मचती। पर हिंदू मंदिरों में देव दर्शन अलग-अलग समय पर खुलते हैं। इसलिए दर्शनार्थियों की भीड़, अधीरता और जल्दी दर्शन पाने की लालसा बढ़ती जाती है। दर्शनों के खुलते ही भीड़ टूट पड़ती है। नतीजतन अक्सर हृदय विदारक हादसे हो जाते हैं। आन्ध्र प्रदेश में तिरूपतिबाला जी, महाराष्ट्र में सिद्धि विनायक, दिल्ली में कात्यानी मंदिर, जांलधर में दुग्र्याना मंदिर और कश्मीर में वैष्णो देवी मंदिर ऐसे हैं जहां प्रबंधकों ने दूरदर्शिता का परिचय देकर दर्शनार्थियों के लिए बहुत सुन्दर व्यवस्थाएं खड़ी की हैं। इसलिए इन मंदिरों में सब कुछ कायदे से होता है।
जब भारत के ही विभिन्न प्रांतों के इन मंदिरों में इतनी सुन्दर व्यवस्था बन सकी और सफलता से चल रही है तो शेष लाखों मंदिरों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार में धार्मिक मामलों के लिए एक अलग मंत्रालय बने। जिसमें कैबिनेट स्तर का मंत्री हो। इस मंत्रालय का काम सारे देश के सभी धर्मों के उपासना स्थलों और तीर्थस्थानों की व्यवस्था सुधारना हो। केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक वैमनस्य छोड़कर पारस्परिक सहयोग से नीतियां बनाएं और उन्हें लागू करें। ऐसा कानून बनाया जाए कि धर्म के नाम पर धन एकत्रित करने वाले सभी मठों, मस्जिदों, गुरूद्वारों आदि को अपनी कुल आमदनी का कम से कम तीस फीसदी उस स्थान या उस नगर की सुविधाओं के विस्तार के लिए देना अनिवार्य होगा। इसमें बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक धर्मस्थानों के बीच भेद न किया जाए। सब पर एक सी नीति लागू हो। हां इस बात का ध्यान रखा जाए कि किसी एक धर्म या संप्रदाय का चढ़ावा दूसरे संप्रदाय या धर्म पर तब तक न खर्च किया जाए जब तक कि ऐसा करने के लिए संबंधित संप्रदाय के ट्रस्टीगण लिखित अनापत्ति न दे दें। वरना नाहक वैमनस्य बढ़ेगा।
इसके साथ ही हर मठ, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च आदि को भी यह आदेश दिए जाए कि अपने स्थल के इर्द-गिर्द तीर्थयात्रियों द्वारा फेंका गया कूड़ा उठवाने की जिम्मेदारी उसी मठ की होगी। यदि हमारी धर्मनीति में ऐसे नियम बना दिए जाए तो धर्मस्थलों की दशा तेजी से सुधर सकती है। इसी तरह धार्मिक संपत्तियों के अधिग्रहण की भी स्पष्ट नीति होनी चाहिए। अक्सर देखने में आता है कि धर्मस्थान बनवाता कोई और है पर उसके सेवायत उसे निजी संपत्ति की तरह बेच खाते हैं। धर्मनीति में यह स्पष्ट होना चाहिए कि यदि किसी धार्मिक संपत्ति को बनाने वाले नहीं रहते हैं तो उस संपत्ति का सरकार अधिग्रहरण करके एक ट्रस्ट बना देगी। इस ट्रस्ट में उस धर्मस्थान के प्रति आस्था रखने वाले लोगों को सरकार ट्रस्टी मनोनीत कर सकती है। इस तरह एक नीति के तहत देश के सभी तीर्थस्थलों का संरक्षण और संवर्धन हो सकेगा। इस तरह हर धर्म के तीर्थस्थल पर सरकार अपनी पहल से और उस स्थान के भक्तों की मदद से इतना धन अर्जित कर लेगी कि उसे उस स्थल के रख-रखाव पर कौड़ी नहीं खर्च करनी पड़ेगी। तिरूपति और वैष्णों देवी का उदाहरण सामने है। जहां व्यवस्था अच्छी होने के कारण अपार धन बरसता है। इतना कि कई बार प्रांतीय सरकारों को भी ऋण लेने की जरूरत पड़ जाती है।
देश में अनेक धर्मों के अनेकों पर्व सालभर होते रहते हैं। इन पर्वों पर उमड़ने वाली लाखों करोड़ों लोगों की भीड़ को अनुशासित रखने के लिए एक तीर्थ रक्षक बल की आवश्यकता होगी। इसमें ऊर्जावान युवाओं को तीर्थ की देखभाल के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाए। ताकि वे जनता से व्यवहार करते समय संवेदनशीलता का परिचय दें। यह रक्षा बल आवश्यकतानुसार देश के विभिन्न तीर्थस्थलों पर बड़े पर्वों के दौरान तैनात किया जा सकता है। रोज-रोज एक ही तरह की स्थिति का सामना करने के कारण यह बल काफी अनुभवी हो जाएगा। तीर्थयात्रियों की मानसिकता और व्यवहार को सुगमता से समझ लेगा।
देश में अनेक धर्मों के अनेकों पर्व सालभर होते रहते हैं। इन पर्वों पर उमड़ने वाली लाखों करोड़ों लोगों की भीड़ को अनुशासित रखने के लिए एक तीर्थ रक्षक बल की आवश्यकता होगी। इसमें ऊर्जावान युवाओं को तीर्थ की देखभाल के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाए। ताकि वे जनता से व्यवहार करते समय संवेदनशीलता का परिचय दें। यह रक्षा बल आवश्यकतानुसार देश के विभिन्न तीर्थस्थलों पर बड़े पर्वों के दौरान तैनात किया जा सकता है। रोज-रोज एक ही तरह की स्थिति का सामना करने के कारण यह बल काफी अनुभवी हो जाएगा। तीर्थयात्रियों की मानसिकता और व्यवहार को सुगमता से समझ लेगा।
भारत में वर्ग के अनुसार तीनों तरह के तीर्थयात्री हैं। उच्च वर्ग के तीर्थयात्री अनेक तामझामों के साथ कुछ क्षणों के लिए आते हैं और फिर जल्दी ही लौट जाते हैं। जबकि मध्यम वर्ग के तीर्थयात्री कुछ दिन ठहरते हैं और निम्न वर्ग के बहुत बड़ी तादात में आते हैं और सड़क के किनारे चूल्हा बनाकर अपना भोजन तैयार करते हैं। तीनों की आवश्यकताएं और आदतें अलग-अलग होती हैं। धर्म नीति यह तय करे कि सरकार को तीनों वर्गों के लिए कैसे व्यवस्था करनी है। राजस्थान सरकार में देवस्थान विभाग है। जो सभी मंदिरों की सफल व्यवस्था करता है। इसी माॅडल पर राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि व्यवस्था में एकरसता आए।
ऐसा नहीं है कि भाजपा हिंदुओं के तीर्थस्थलों की बेहतर व्यवस्था करती है। ब्रज क्षेत्र में तो भाजपा के शासन काल में, चाहे वो राजस्थान में हो या उत्तर प्रदेश में, चारों ओर विनाश ही विनाश हुआ है। इसलिए इस मुद्दे पर किसी भी दल को राजनीति करने की छूट नहीं है। सबका यह कर्तव्य है कि हमारे देश के धर्मस्थलों को सजाने संवारने में सहयोग दें। क्योंकि ये धर्मस्थल हमारी आस्था के प्रतीक है और हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं। इनके बेहतर रख-रखाव से देश में पर्यटन भी बढ़ेगा और दर्शनार्थियों को भी सुख मिलेगा। बिना किसी धर्म के प्रति विशेष झुकाव दिखाए अगर सभी धर्मों के लिए ऐसी धर्म नीति लागू की जाए तो धर्म जनता का अफीम नहीं बनेगा। वहां आपस में दंगे नहीं करवाएगा। बल्कि देश में पारस्परिक सौहार्द की स्थापना करेगा।