Sunday, June 22, 2008

बिना भ्रष्टाचार के कैसे जिएं राजनेता ?


आम जनता, पत्रकार और समाज सुधारक सब राजनेताओं को ही कोसते हैं। पर उनका दर्द कोई नहीं जानना चाहता। क्या वे जन्म से भ्रष्ट होते हैं या हालात भी उन्हें भ्रष्ट होने पर मजबूर कर देते हैं ? इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या बिना भ्रष्ट हुए चुनाव लड़ा जा सकता है या राजनीति की जा सकती है। दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों में क्या व्यवस्था है ? सच्चाई ये है कि राजनीति में लोग जन सेवा की भावना से ही आते रहे हैं। पर राजनैतिक दलों ने इन लोगों की जिंदगी की हकीकत को अनदेखा किया। इसलिए राजनीति का स्तर इतना गिरा।

एक ग्रामीण प्राथमिक विद्यालय के निर्धन शिक्षक का बेटा संघ में आता है और फिर भाजपा में पहुंचते हजारों करोड़ का आदमी कैसे बन जाता है ? उसे दल के पुराने नेताओं से ज्यादा अहमियत कैसे मिलती है ? राम मनोहर लोहिया की वैचारिक आग में तपा एक अदना सा सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति के शिखर पर पहुंच कर अपराध और अपहरण का पर्याय कैसे बन जाता है ? सर्वहारा की दयनीय हालत पर आंसू बहाने वाले वामपंथी नेता कैसे निजी जीवन में पांच सितारा ऐशो आराम का मजा लेते हैं ? गांधी की विरासत को आगे बढ़ाने का दावा करने वाली कांग्रेस के नेता राजनीति में सफल होते ही हजारों करोड़ की दौलत कैसे इकठ्टा कर लेते हैं ?

एक कार्यकर्ता अगर सच्चाई और ईमानदारी से समाज में काम करता है तो उसे न तो अपने बड़े राजनेताओं का दुलार मिलता है और नाही जनता से कोई आर्थिक मदद। ऐसे में अगर राजनैतिक कार्यकर्ता के कंधों पर अपने परिवार का बोझ भी हो तो वो अपना परिवार कैसे पाले ? मजबूरन उसे दलाली करनी पड़ती है। एक बार दलाली में सफलता मिली तो वह समाज सेवा भूल कर केवल शुद्ध दलाली करने में व्यस्त हो जाता है। इसी तरह चुनाव लड़ने के लिए हर प्रत्याक्षी को मोटी रकम चाहिए। आप कितने भी अच्छे व्यक्ति क्यों न हो और आप समाज के बारे में कितना ही अच्छा सोचते हो पर ईमानदारी से चुनाव नहीं लड़ सकते। इसलिए अगर आप विधानसभा या लोक सभा का चुनाव लड़ने का  फैसला करो तो चुनाव के खर्चे के लिए मोटी रकम उद्योगपति या राजनैतिक दल ही देता है। कितनी रकम इकठ्ठा होती है, कोई नहीं जानता। जाहिर है कि चुनाव की अफरा-तफरी में कोई नहीं पूछता कि तुमने चुनाव के नाम पर कितनी रकम इकठ्ठा की और कितनी खर्च की ? ऐसा पैसा प्रायः प्रत्याक्षी ही हड़प कर जाता है। इस समस्या का एक बेहतर विकल्प है और यह विकल्प दुनिया के बड़े लोकतंत्रों में अपनाया जा रहा है।

अगर राजनैतिक दल अपने समर्पित कार्याकर्ता की आर्थिक सुरक्षा की गारंटी नहीं कर सकता तो उसे अपने कार्यकर्ता को साधन इकठ्ठा करने की छूट दे देनी चाहिए। हर कार्यकर्ता को छूट होनी चाहिए कि वह एक धर्मार्थ ट्रस्ट का पंजीकरण करवा लें। जिसमें उसके परिवार के दो से अधिक सदस्य न हों। शेष सदस्य समाज के अन्य क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्ति हों। जो भी धन इकठ्ठा किया जाए वह इसी ट्रस्ट में जमा हो। इसमें से एक निश्चित सीमा तक धन राजनेता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निकाला जाना मान्य हो। शेष धन समाज के कार्यों या चुनाव पर खर्च किया जाए। अमरीका में सेनेटर का चुनाव लड़ने वाले कुछ ऐसी ही व्यवस्था के चलते आराम से अपना राजनैतिक जीवन चला ले जाते हैं।

अभी तक राजनैतिक दलों ने या सरकार ने यहां तक कि चुनाव आयोग ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया है। भारत में ट्रस्ट का पंजीकरण कराना हो तो यह घोषणा करनी होती है कि इसके माध्यम से कोई राजनैतिक कार्य नहीं किया जाएगा। यानी सरकार राजनैतिक कार्य को व्यवसाय मानती है धर्मार्थ कार्य नहीं। फिर ये क्यों कहा जाता है कि राजनेता समाज के लिए कार्य करते हैं। अगर राजनीति धर्मार्थ कार्य नहीं है तो फिर क्या यह भी एक धंधा है ?

चुनाव आयोग व सरकार को चाहिए कि नियमों में बदलाव करें और राजनैतिक जीवन जीने वालों की जरूरतों को ध्यान में रखकर कानून बनाए। जैसे ट्रस्ट के पंजीकरण में उसके गैर राजनैतिक होने की अनिवार्यता न हो। ऐसे ट्रस्टों को दिए गए धन पर कर से छूट हो। धर्मदा आयुक्त यह सुनिश्चित करें कि ट्रस्टी ट्रस्ट के पैसे का दुरूपयोग न करें। राजनैतिक कार्यकर्ता की निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रावधान इस न्यास के संविधान में हों।

इस तरह जो व्यवस्था बनेगी उसमें पारदर्शिता ज्यादा होगी। राजनेता को बेईमानी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उसके मन में असुरक्षा की भावना नहीं रहेगा। जनता को भी पता होगा कि उनका विधायक या संासद अपना जीवन कैसे जी रहा है ? राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चिंता जताने में कोई पीछे नहीं रहा है। सर्वोच्च अदालत, संसद व स्वयं प्रधानमंत्री तक इस पर अनेक बार वक्तव्य दे चुके हैं। पर लगता है कि राजनैतिक भ्रष्टाचार से निपटने का रास्ता किसी के पास नहीं है। ऐसे में ट्रस्ट के इस विकल्प पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

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