Sunday, February 17, 2008

नए रिश्तों की तलाश

Rajasthan Patrika 17-02-2008
दशकों तक भारत और सोवियत यूनियन एक दसरे से रक्षा व्यापर बौर विज्ञान के क्षेत्र में गहराई तक गंथे हुए थे। फिर अचानक इतनी बड़ी खाई पैदा हो गई कि पिछले दिनों दिल्ली में रूसी प्रधानमंत्री विक्टर ए जुबकोच को कहना पड़ा कि भारत ओर रूस के निवासी एक दूसरे को अच्छभ् तरह नहीं जानते। दोनों के बीच समाचारों का आदान प्रदान भी संतोषजनक स्तर तक नहीं है। उन्होंने कहा कि हमें अस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों देश के लोगों में एक दूसरे के प्रति काफी रूचि है। दोनों ओर की जनता में एक दूसरे को समझने की जबरदस्त ख्वाहिश है। दोनों के बीच व्यापार, संस्कृति औ विज्ञान के क्षेत्र में आदान प्रदान की व्यापक संभावनाएं है।

जिस सोवियत यूनियन में सब्जी, अनाज, प्रसाधन सामिग्री, खनिज, दवाऐं, इलैक्ट्रोनिक उपकारण औ कपड़ा सब भरत से जाता था। भारत के रक्षा बलों को ज्यादातर आपूर्ति सोवियत यूनियन से होती थी। उसी सोवियत यूनियन का 1991 में 15 देशों में रूस समाजवादी से पूंजीवादी हो गया। पहले वहां सारे व्यपार पर सरकार का निंयत्रण होता था और सरकार सामरिक व आर्थिक दृष्टि से भरत को अपना साथी मानकर भरत से ही ज्यादातर आयात करती थी। पूंजीवाद में बाजार खुल गया। भारत के कई शहरों में इसका बुरा असर पड़ा। जैसे लुधियाना का हौज़री उत्पादन काफी हद तक बंद हो गया।

जहां पहले सोवियत यूनियन में कोई लखपति नहीं होता था वहीं रातें रात अरबपति और खबपति पैदा हो गये। माफया ने रूस की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में ले लिया। पहले डेढ़ सौ रूबल रोजाना एक पर्यटक मास्के में मजे से दिन बिता लेता था। पूंजीवाद के दौर में डेढ़ सौ रूबल में चाय का प्यला Hkh नहीं मिलतk Fkk । जहां पहले बढि़या कार किसीके पास नहीं होती थी। वहां आज यूरोप और अमरीका की सबसे महंगी कारें पेरिस से पहले मास्को की सड़कों पर दौड़ती है। रूस के नवधनाड्य अब फ्रांस, साइप्रस, स्विटजरलैंड और यहां तक कि अमरीका में आलीशान फार्म हाऊस बनवा रहे हैं।

इधर भारत में सोवियत यूनियन से व्यापार का नियंत्रण पहले सरकारी संस्था स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन के हाथ में था। किसी को स्वतंत्र व्यापार करने की छूट नहीं थी । पर 1992 के बाद डा. मनमोहन सिंह की पहल पर भारत में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। हमें वैश्विक बाजार से मुकाबला करना था। इसलिए स्टेट ट्रेडिंग काफरपोरेशन की पकड़ ढीली कर दी गई और भरत के कारोबारयिों को दुनिया की दौड़ में मुक्त छोड़ दिया गया। इन हालातों में रूस हमारे हाथ से छूट गया ।उसे पश्चिमी देशों ने अनेक आर्थिक संधियों में फंसा कर उस पर पूरा नियंत्रण कर लिया। अब वो भारत का माल खरीदने को स्वतंत्र नहीं था। लेकिन अब रूस सभंल गया है। विघटन के बाद के दौर में जिन संधियों में फंस गया था उनसे निकल रहा है। उसकी आर्थिक रीढ़ इसलिए मजबूत है क्योंकि उसके पस बिजली, तेल और वन की विशाल संपदा है। उसकी सैन्य व्यवस्था पहले से ही मजबूत है।

इधर विश्व बाजार की दृष्टि से भारत की स्थिति भी मजबूत हुई है। भारत के लिए यह संतोष की बात है कि अब दुनिया में उसकी हैसियत बहुत बढ़ गई है। पश्चिमी देशों की नजर में भारत अब सपेरों और बजीगरों का देष नहीं बल्कि मजबूत और जेती से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था वाला देश है।

इसी परिस्थिति को समझते हुए दोनों देशों के प्रधान मंत्रियों ने एक दूसरे के देशों की यात्राऐं की। जवाहरलाल नेहरू विरूवविद्यालय के रूसी भाषा के विद्वान प्रो. वरियाम सिंह का मानना है कि अब दानों देशों के के बीच रिश्तों का नया दोर फिर से शुरू होगा। इसका संकेत इसीबात से मिल रहा है कि भारत में अब फिर से रूसी भाषा पढ़ने वाले छात्रों की भीड़ बढ़ने लगी है। वैसे भी भरत में दर्जनों विश्व विद्यालययों में रूसी भाषा वर्षों से पढ़ाई जा रही है। किंतु विछले 15 वर्षों से इन केंन्द्रो में छात्रों की संख्या में काफी गिरावट इा गई थी। भरत रूस व्यापार काफी गिर जाने के कारण रूसी जानने वालों के लिए रोजगार के अवसर भी काफी कम हो गये थे। पर अब रूस से व्यापार भी बढ़ने के हालात पैदा हो गए हैं। रूसी धनाड्य भारत में निवेश करने के लिए घूम रहे हैं। गोवा में तो काफी संपत्तियां रूसियों ने खीद ली है।

यही मौका है जब हस्त कला उद्योग, पर्यटन, स्वास्थ्य सेवाओं, औद्योगिक उत्पादनों, कला? संस्कृति व शिक्षा के क्षेत्र में भरत के डद्यमी रूस में नया बाजार तलाश सकते हैं। दोनों देशों के बीच भौगोलिक दूरी भी इतनी कम है कि ऐसा करना दोनों के लिए फायदे का सौदा रहेगा। यही वजह कि रूसी प्रधानमंत्री विक्टर ए. जबकोव ने दोनों देशों के नागरिकों को एक दूसरे को समझने की जरूरत पर जोर दिया। यह हम पर हे कि हम इस बदली परिस्थति में अपनी संस्कृति इसक मूल्यों से कटे बिना ही दुनिया के आर्थिक रूप से सक्षम देशों से कारोबार करके अपनी आर्थिक दशा को और कितना बेहतर बना सकें।

Sunday, February 10, 2008

राज ठाकरे की राजनीति पहचान का संकट


Rajasthan Patrika 10-02-2008
बैठे ठाले राज ठाकरे ने एक विवाद खड़ा कर दिया। मुम्बई अशांत है। गैर मराठी असुरक्षित महसूस कर रहे है। आम तौर पर चुपचाप धन्धे में जुटा रहने वाला मुम्बई कर सड़कों पर हो रही हिंसा से परेशान है। राजनैतिक दल और उनके नेताहमेशा की तरह बयान बाजी करके घडि़याली आंसू बहारहे है। यह हिंसा और अराजकता का यह दोर ज्यादा दिन नहीं चलेगा। पुलिस का डंडा जनता का दबाब, मीडिया का शोर औरराज ठाकरे के साथियों की हताशा के चलते इसे रूकनाहोगा। तब तक जान माल का काफी नुकसान हो लेगा।

पर यह पहली बार नहीं हुआ कि किसी नेता ने अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए निरीह जनता को हिंसा की बलि चढाया हो। साम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर देश के अलग अलग हिस्सों में ऐसे फायदा होते ही रहे हैं। जब कभी किसी राजनैतिक दल को मीडिया की सुर्खियों रहना होता है। तो वो ऐसी हरकत करने से बाज नहीं आता। उसकी बला से लोग मरे तो मरे लुटे तो लुट, और बर्बाद हो तो हो जायें। उसका स्वार्थ द्धि होना चाहिए। राम जन्म भूमि आन्दोलन में जो मरे उनकी भावनाओं की और उनके बलिदान की भाजपा ने क्या कद्र की ? मुलायम सिंह के समर्थन में लखनऊ में पिछले दिनों शहीद हुए नौजवान को क्या मिला? घडि़याली आंसू? उसकी श्हादत किसी राष्ट्रीय हित या सामाजिक हित के लिए बल्कि एक राजनेता का हित साधने के लिए हुई। गुर्जर आन्दोलन में यही हुआ। जयललिता के लिए अक्सर आत्मदाह करने वालों को क्या मिलता है?

जनता भावुक है। जल्दी बहक जातीहै। नेता ये बखूबी जानते है। इसलिए जनता को बार-बार बहकाकर अपना उल्लू सीधा करते है। धर्म? जाति क्षेत्र ऐसे सम्वेदन “khy मुद्दे है जिन पर जनता को भड़कना आसान होता है। जब कोई दल या नेता जनता को कुछ ठोस दे पता तो ऐसे फालतू के मुद्दों पर आन्दोलन खड़ा कर देता है। राज ठाकरे अभ राजनी में पैर जमाने कि जुगत में लगे है। खुद की कोई राजनैतिक पहचान है नहीं। विरासत में बाल ठाकरे से कुछ मिला नहीं। इसलिए ये बखेड़ा कर दिया ताकि लोग उनके वजूद को पहचाने।
 
पर अब समय बदल गया है। आज जब शीला दीक्षित, नरेन्द्र मोदी, नितीश कुमार जैसे मुख्यमंत्री विकास की सकारात्मक राजनीति करके सफल हो रहे है तो राजनीति में पहली बार कदम रखने वाले राज ठाकरे को Hkh हवा का रूख पहचानना चाहिए। वो दिन लद गए जब उनके काका ने ऐसीवैमनस्यपूर्ण हिंसा भड़काकर शिव सेना को खड़ा किया था। अब जनता नेता से परिणाम चाहतीहै। कोरे वायदे और भड़काउ नारे नहीं। जनता जानती हे कि राजनीति में कोई तप या त्याग करने नहीं बल्कि अपना ?kj भरने सत्ता का मजा लूटने आत है। इसलिए अब कुछ कर दिखाने वाले नेताओं की पूंछ बड़ने लगी है। 

राज ठाकरे के पास अकूत दौलत है। इसका प्रमाण यही है कि उन्होंने शिवसेना मुख्यालय के ठीक सामने अरबों रूपये कीसम्पत्ति अपना मुख्यालय बनाने के लिए खरीदी है। उनकी संगठन क्षमता उद्धव ठाकरे से बेहतर मानी जातीहै। वे युवा है और उनमें आगे बढ़ने की ललक है। अभी राजनीति में उन्हें लम्बी पारी खेलनी है। ऐसली अधीरता गैर जिम्मेदाराना व्यवहार से कोई अच्छ संदेश नहीं जाता। राज ठाकरे मगर दिमाग से काम लेते तो राहाराष्ट्र की राजनीति में ऐसा शगूफा ठोड़ते कि उनकी छवि एक ऐसे नेता बन जायेंगे तो यह उनकी भूल है। क्योंकि उनके काका अब क्षेत्रवाद के इस फार्मूले का घटता प्रभाव देखकर अपनी भाषा सोच बदल चुके है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि राज ठाकरे अपनी भूल lq/kkjsaxs s और लोगों के घावों पर मरहम लगाकर उन्हें अपने योग्य नेता होने का विश्वास दिलायेगें। अगर वे ऐसा नही करते तो उनके नये बने दल की छवि एक गुण्डे और मवालियों के दल के रूप में होगी। जो उकने राजनैतिक शेविशवकाल में ही उनके पतन का कारण बनेगी। राज ठकरे कीह नहीं देष के अन्य प्रान्तों में राजनीति करने वाले को  समझ लेना चाहिए कि आत के हालात में वही आग लगाकर रोटी सेकने वालों के दिन अब लद रहें है।


Sunday, February 3, 2008

नर्म में घोटाला ही घोटाला शहरी विकास पर अरबों की बर्बादी

 Rajasthan Patrika 03-02-2008
पिछले दिनों युवराज राहुल गांधी बुंदेलखण्ड की यात्रा पर ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की विफलता देखकर काफी आग बबूला हुए। ये जगजाहिर है कि गरीबों को रोजगार देने की ये सरकारी योजना केवल कागजों पर चल रही है। चिंता की बात यह है कि पिछले 50 वर्षों से ज्यादातर योजनाओं का यही हाल रहा है। फिर भी सरकार कोई सबक नहीं सीखती या सीखना नहीं चाहती। आज कल देश में जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूएबल मिशन (नर्म) का बहुत शोर मचाया जा रहा है। एक लाख करोड रूपया देश के 63 शहरों के विकास के लिए केन्द्र सरकार देने जा रही है। इन 63 शहरों में से 8 शहर ‘धरोहर शहर’ भी हैं जैसे मथुरा, जयपुर, मैसूर, मदुरै, गया, पुरी, श्रीनगर (कश्मीर) व नैनीताल। अकेले आगरा के लिए ही 7 हजार करोड रूपए दिए गए हैं। 2005 में यह योजना शुरू की गई। पहले 60 शहर के लिए थी फिर तीन और शहर जोड़ दिए गए।

योजना का मकसद इन महत्वपूर्ण शहरों की नागरिक सुविधाओं का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुधार करना है ताकि यहां आने और रहने वाले बेहतर जिंदगी जी सकें। इस योजना में सबसे ज्यादा जोर जल की आपूर्ति, सीवर व्यवस्था, सड़कों की दशा का सुधार, धरोहरों का संरक्षण व शहरी गंदी बस्तियों का सुधार आदि पर है। इसी सूची में लिए गए शहरांे में से 35 तो महानगर हैं और 18 प्रांतों की राजधानियां। सब जानते हैं कि हमारे शहरों की हालत नारकीय होती जा रही हैं। पुरानी सीवर लाइनें मौजूदा दबाव के आगे नाकाफी सिद्ध हो रही हैं। उपभोक्तावाद के चलते पैकेजिंग मैटेरियल की खपत बढ़ी है। जिसने शहरों में ठोस कूड़े का रूप ले लिया है। जिसका निस्तारण एक चुनौती बन गया है। सबमर्सिबिल पम्पों के कारण शहरों में घटती हरी पट्टी के कारण और पहाडो़ के उत्खनन के कारण भू जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा हैं । औद्योगिक ईकाईयों ने धरती के ऊपर और धरती के नीचे सारा जल प्रदूषित कर दिया है। धूएं से शहरों का प्रदूषण बर्दाश्त सीमा से कहीं आगे पहुंच गया है। ऐसे में अगर कुछ शहरों की हालत सुधारने के लिए सरकार एक लाख करोड रूपया खर्च करने जा रही है तो इससे खुश ही होना चाहिए। खासकर उन लोगों को जो उन शहरों में रहते हैं, जो नर्म की सूची में gS ।

पर वास्तव में यह खुशी की नहीं चिंता की बात है कि इतनी महत्वाकांक्षी योजना को केन्द्र सरकार बिना सोचे समझे लागू करने जा रही है। योजना के प्रारूप में ही इतनी सारी कमियां हैं कि अगर इसे लागू कर दिया गया तो इसकी भी वहीं दुर्गति होगी जो ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की हो रही है। इसका कारण है कि नर्म के लिए योजना बनाने वाले सलाहकारों ने अपना मेहनताना तो करोडों रूपया वसूल लिया पर उन्होंने कभी मौके पर जाकर जमीनी हकीकत जानने की कोशिश तक नहीं की। इनमें से ज्यादातर योजनाओं को अधकचरे तरीके से, अपने कार्यालयों में बैठकर और फर्जी आंकडे डालकर तैयार किया गया है। जब योजना बनाने वाले को ही असली समस्याएं नहीं पता तो वह उनका निदान कैसे करेगा ?

पिछले दिनो उ.प्र. सरकार के अनेक ks विभागों के प्रमुख सचिवों की एक बैठक लखनऊ की नर्म योजना पर चिंतन करने के लिए हुई। जिसमें योजना बनाने वाले दिल्ली के विशेषज्ञ अपनी प्रस्तुति करने आए थे। मुझे भी अपनी राय देने के लिए इस बैठक में बुलाया गया। वहां विशेषज्ञों की प्रस्तुति देखकर हमने माथा पकड़ लिया। इस प्रस्तुति में लखनऊ के 45 कुंडों के जीर्णोद्धार के लिए 45 करोड़ रूपए का प्रावधान रखा गया था। हमने विशेषज्ञ महोदय से पूछा कि क्या आपने इन कुंडों का आकार नापा है ? क्या उनके अंदर जमा गाद की मोटाई नापी है ? क्या इन कुंडों के नीचे भू जल स्तर का कोई आकलन किया है ? क्या आपने इन कुंडों के जलस्रोतों का अध्ययन किया है ? क्या आपने इन कुंडों के घाटो की दुर्दशा का कोई मूल्यांकन किया है ? मेरे सवालों पर इन विशेषज्ञों का चेहरा उतर गया। उनका उत्तर था ‘नहीं’। फिर कैसे उन्होंने तय कर लिया कि 45 कुंडों के जीर्णोंद्धार पर 45 करोड रूपया खर्च होगा? इसका जवाब वो नहीं दे सके। साफ जाहिर था कि पूरी योजना फर्जी आंकडों और हवाई ख्यालों से बनाई गई थी।

जब योजना की नींव ही खोखली है तो योजना सफल कैसे होगी ? इसी चिंता में हमने अन्य शहरों की योजनाओं का भी अध्ययन दिल्ली आकर किया और देखकर घोर निराशा हुई कि यहां भी यही हाल था। यह जानते हुए भी कि हर शहर पीने के पानी के संकट से जूझ रहा है, इन विशेषज्ञ योजनाकारों ने इतना भी नहीं सोचा की अरबों रूपया खर्च करके पानी की व्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता। जब तक कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान न दिया जाए। जैसे पीने के पानी और बाकी उपयोग के पानी की अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिए। शौचालयks में फ्लश सिस्टम से बहुत सा कीमती जल बर्बाद हो जाता है। उसकी जगह आधुनिक तकनीकी में वैक्यूम क्लिनर लगने लगे हैं जिनमें पानी की जरूरत ही नहीं होती। शहरी पानी के सीवर जाल को विवेकपूर्ण और इस तरह बनाने की जरूरत हैं कि इस पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा थोड़े से प्रयास से शहर को हरा-भरा बनाने में फिर से प्रयोग में आ जाए। इससे भूजल स्तर भी बढ़ेगा और पानी की बर्बादी भी घटेगी। पर ऐसी कोई समझदारी इन योजनाओं में नहीं है। वही पुराने ढर्रे पर और फर्जी आंकडों से पानी और सीवर की व्यवस्था सुधारने के लिए हजारों करोड रूपयों का प्रावधान कर दिया गया है। जिससे वही हाल होगा जो गंगा एक्शन प्लान और यमुना एक्शन प्लान का हुआ कि अरबों रूपया खर्च करके भी गंगा और यमुना का प्रदूषण नहीं हट सका।

सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि जिन शहरों में यह योजना लागू की जा रही है उन शहरों में शहरी विकास को लेकर जो योजनाएं और कार्यक्रम पहले से इन शहरों में चल रहे हैं उनका कोई उल्लेख इन योजनाओं में नहीं है। उनके साथ कोई सामंजस्य भी नहीं है। साफ जाहिर है कि इससे बहुत बड़े घोटाले होने का रास्ता साफ हो गया है। एक ही काम को दो विभाग वाले दिखा कर दो अलग-अलग योजनाओं के तहत पैसा वसूलेंगे और डकार जाएंगे। होना यह चाहिए था कि जिन शहरों में नर्म की योजना लागू होने जा रही है वहां शहरी विकास की मौजूदा सभी योजनाओं को या तो खत्म कर दिया जाए या इसके साथ जोड़ा जाएं। इसी तरह हैरिटेज यानी धरोहर का भी सवाल है। एक तरफ केंद्रिय सरकार हैरिटेज शहरों को बढ़ावा देकर पर्यटन बढ़ाना चाहती हैं दूसरी ओर इन योजनाओं में घरोहरों की रक्षा या उनके सुधार के लिए कोई समझदारी नहीं दिखाई गई है। पैसों का तो आवंटन कर दिया गया है पर योजनाओं में वहीं पुराना ढर्रा अपनाया गया है जो धरोहरों के लिए काफी खतरनाक है। हमने इस पूरी योजना के खोखलेपन पर 20 पन्नों की एक रिपोर्ट तैयार की है जिसे हम प्रधानमंत्री को इस चेतावनी के साथ सौप रहे हैं कि इन तथ्यों को जानने के बाद भी अगर आप या आपकी सरकार जनता के एक लाख करोड रूपए को बर्बाद ही करना तय करते हैं तो यह साफ हो जाएगा कि यह योजना शहरी विकास के लिए नहीं बल्कि अफसरशाही, नेताओं व ठेकेदारों की जेब भरने के लिए है और इसका नाम जवाहर लाल नेहरू शहरी भ्रष्टाचार वृद्धि योजना होनी चाहिए। फैसला सरकार को करना है।

Sunday, January 27, 2008

सवालों में घिरा गणतंत्र

भारत की पहली महिला राष्ट्रपति राजपथ पर देश की उपलब्धियों की परेड देखकर जाहिरन प्रसन्न होंगी। पर गणतंत्र की उपलब्धियों के साथ अनेक ऐसे सवाल खड़े हैं जिनका जवाब हमारे हुक्मरानों के पास नहीं है। ये मौका कुछ ऐसे ही सवालों और उनके जवाबों को टटोलने का है। पहला सवाल है कि हमारे संविधान में सामाजिक और आर्थिक न्याय का जो वायदा किया गया था वो आज 58 वर्ष बाद भी पूरा क्यों नहीं हुआ ? देश की 70 फीसदी आवादी 80 रुपए प्रतिदिन से भी कम पर जीने को मजबूर क्यों है? 9 फीसदी प्रतिवर्ष की प्रभावशाली आर्थिक प्रगति दर का लाभ मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में ही क्यों कैद है? गरीब किसान की उपजाऊ भूमि बिना उसकी मर्जी के छीन कर सेज को क्यों दी जा रही है? वामपंथी सरकार भी नंदीग्राम की जनता का दर्द क्यों नहीं समझ पा रही? अरबों रूपया खर्च करने वाले खुफिया तंत्र, हजारों करोड़ रूपया खर्च करने वाली फौज, लाखों थाना से गृह मंत्रालय तक फैले पुलिसिया जाल के बावजूद देश के हर कोने में आतंकवादी क्यों छिपे बैठे है और कैसे खतरनाक वारदातों को अंजाम देकर बच जाते हैं? कुदरत जी खोलकर बरसात देती है फिर क्यों भूजल स्तर खतरनाक गति से नीचे जा रहा है? राजस्थान और गुजरात जैसे सूखे इलाके ही नहीं पंजाब भी इस तबाही से हैरान है।


सूचना क्रान्ति और उदारीकरण से शहरों में बढ़ते रोजगार के अवसर भी ग्रामीण नौजवानों की बेरोजगारी क्यों कम नहीं कर पा रहे हैं? हरित क्रान्ति और अनाज के भरे भंडार भी सवा लाख किसानों को आत्म हत्या करने से क्यों नहीं रोक पाए? रोजगार देना तो दूर नई आर्थिक नीति में सब्जीवालों और खुदरा व्यापारियों तक के रोजगार छीनने का इंतजाम क्यों किया जा रहा है? स्वास्थ्य सेवाओं पर अरबों रूपया खर्च होने के बाद भी देश की 56 फीसदी महिलाएं व 79 फीसदी बच्चे रक्त की कमी से पीडि़त क्यों है? क्या वजह है कि बंगाल से शुरू होकर नक्सलवाद झारखंड, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र तक फैल चुका है? अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ते तेल के दाम के बावजूद अविवेकपूर्ण तरीके से पैट्रोलियम की खपत क्यों बढ़ाई जा रही है? बड़े-बड़े बाधों व बिजली कारखानों के बावजूद क्यों सरकारें लोगों को 24 घंटे बिजली नहीं दे पातीं ? जितने जेनरेटर पावर कट के दौरान चलते हैं उतने तेल से तो पूरे शहर को बिजली दी जा सकती है। फिर क्यों इसका हल नहीं खोजा जाता ?


सीबीआई, आर्थिक अपराध निरोधक विभाग, निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक का पूरा तंत्र बिछा है फिर भी भ्रष्टाचार पर काबू क्यों नहीं पाया जा रहा ? बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त ताकतवर लोगों का ये ऐजेंसियां बाल भी बांका नहीं कर पातीं, ऐसा क्यों ? समाज में सामाजिक सौहार्द स्थापित करने और जातिगत भेदभाव समाप्त करने के अनेक प्रावधान संविधान में मौजूद होने के बावजूद हमारा लोकतंत्र जातिवादी राजनीति के चंगुल से क्यों निकल नहीं पा रहा है ? पश्चिमी देशों के उपभोक्तावादी और प्रकृति विरोधी विकास माडल की तमाम नाकामियां सामने आने के बावजूद हमारे हुक्मरान उसी माडल का अंधानुकरण क्यों किये जा रहे हैं ? हमारे गणतंत्र के नामी मैडिकल और तकनीकी संस्थान आज तक देश के संसाधनों और आवश्यकताओं के अनुरूप शोध परिणाम क्यों नहीं दे पा रहे हैं ? इनसे निकले नौजवान क्यों उन कंपनियों के पीछे दौड़ रहे हैं जिन्होंने दुनिया भर में तबाही मचायी है, प्राकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन किया है और पूरे मानव समाज के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया है ? देश और उसके निवासियों की तरक्की और भलाई के लिए एक के बाद एक योजनायें विफल होने के बावजूद इस गणतंत्र का योजना आयोग भारत की आवश्यकताओं और भारतीयों की आकांशाओं के अनुरूप विकास का कोई भारतीय माडल आजतक क्यों नहीं दे पाया ? क्या उसमें समझदार और मौलिक सोच वाले लोगों की कमी है या राजनैतिक इच्छा की ?

इन सारे सवालों का जवाब ढ़ाई हजार वर्ष पहले चिंतक और युगपुरूष आचार्य विष्णुगुप्त यानी चाणाक्य पंडित ने एक वाक्य में दे दिया था। उनका कहना था, जिस देश का राजा महलों में रहता है उसकी प्रजा झोपडि़यों में रहती है और जिस देश का राजा झोपड़ी में रहता है उसकी प्रजा महलों में रहती है। जब तक सत्ताधीश और उनकी नौकरशाही सारी योजना और नीति अपने लाभ को केन्द्र में रखकर बनाते रहेंगे तब तक विकास का यही भौंडा स्वरूप हमारे सामने आता रहेगा। हर राष्ट्रीय पर्व और सेमिनार या सम्मेलनों में इन सवालों पर गत 58 वर्षों से लाखों बार बहस हो चुकी है और आज भी हो रही है। पर इन बहसों में हिस्सा लेने वाले दिल से नहीं जुबान से बोलते है इसलिए उनके वक्तव्यों के बांण निशाने पर नहीं लगते। इर्द गिर्द टकराकर गिर जाते हैं। जिनके पास ठोस और मौलिक विचार हैं, सफल अनुभव हैं, कुछ कर गुजरने के जजबात हैं उनके पास अपनी बात सत्ताधीशों तक पहुंचाने के माध्यम नहीं है, मंच नहीं है व साधन नहीं है। इसलिए वे कुढ़कर रह जाते हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी सभी शक्तियां अपने अहम में उलझ कर बिखरी पड़ी हैं। एक जुट नहीं है। इसलिए एक ताकत नहीं बन पातीं। उनकी आवाज सत्ता के गलियारों में न गूंजकर केवल किसी गांव और कस्बे तक सिमट कर रह जाती हैं। चार दर्जन से ज्यादा समाचार टीवी चैनल भी इस आवाज को ताकत नहीं दे पा रहे और सतही घटनाओं में उलझ कर अपनी ताकत खोते जा रहे है।

उधर सत्ताधीशों में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो इस मुल्क की हकीकत को बारीकी से समझते है और इन सभी समस्याओं के हल जानते हैं या खोजने की क्षमता रखते है। पर नौकरी खोने के डर से ऐसे लोग भी मुखर होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। नौकरी पूरी हो जाने के बाद ही ये लोग हिम्मत दिखाते है पर तब इनके पास कुछ करने की ताकत नहीं रहती। इन सब सवालों से घिरे होने के बावजूद हमारा गणतंत्र आगे बढ़ रहा है। कम से कम ऐसा लिखने और बोलने की छूट तो हमें मिली है। यही क्या कम है। एक दिन वह भी आएगा जब बातें आवाज बनेगी और आवाज नीतियों का रूप लेगी। तब देश के सौ करोड़ से भी ज्यादा चेहरे उसी हर्षोल्लास से अपने घरों में गणतंत्र दिवस को त्योहार के रूप में मनायेंगे जैसे परेड में भाग लेने वाले हजारों लोग राजपथ पर चलते हुए मनाते हैं। यह संभव है। इसी सदी में कई देशों के हुक्मरानों ने अपने कड़े इरादों से अपने अपने मुल्कों में ऐसा कर दिखाया है। इसलिए हम भी इस गणतंत्र दिवस पर पूरी आस्था और विश्वास के साथ आगे बढ़ने का संकल्प लेंगे।

Sunday, January 20, 2008

कथनी और करनी में भेद क्यों ?

Rajasthan Patrika 20-01-2008
आतंकवाद, भ्रष्टाचार, लोकतंत्र, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक विषमता ये कुछ ऐसे विषय है जिन पर सभी बड़े नेता और कुछ नामी विचारक रात दिन बोलते रहते हैं। चाहें टैलीविजन के कार्यक्रम हों या जनसभाऐं या सम्मेलन या फिर संसद। प्रश्न उठता है कि जब इतने बड़े नेता और इतने मशहूर विचारक इन सभी मुदों को लेकर इतने चिंतित हैं और चाहते हैं कि इनका हल निकल जाए तो फिर क्यों ये समस्याएं हल नहीं होती ?

पिछले दिनों एक लोकप्रिय दैनिक अखबार ने दिल्ली में अन्तर्राष्टीय समस्याओं पर एक अन्तर्राष्टीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें देश और दुनिया के तमाम बड़े नेताओं और मशहूर विचारकों ने भाग लिया। देश की राजधानी में ऐसे सम्मेलन करना अब काफी आम बात होती जा रही है। अनेक नामी प्रकाशन समूह बड़े स्तर पर ऐसे सम्मेलनों का आयोजन करने लगे है। इन सम्मेलनों में ऐसी सभी समस्याओं पर काफी आंसू बहाऐ जाते हैै और ऐसी भाव भंगिमा से बात रखी जाती है कि सुनने वाले यही समझे कि अगर इस वक्ता को देश चलाने का मौका मिले तो इन समस्याओं का हल जरूर निकल जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन वक्ताओं में से अनेकों को अनेक बार सत्ता में रहने का मौका मिला और ये समस्यायें इनके सामने तब भी वेसे ही खड़ी थी जैसे आज खड़ी हैं। इन नेताओं ने अपने शासन काल में ऐसे कोई क्रान्तिकारी कदम नहीं उठाये जिनसे देशवासियों को लगता कि वो ईमानदारी से इन समस्याओं का हल चाहते है। अगर उनके कार्यकाल के निर्णयों कोे और बिना राग-द्वेष के मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिन समस्यो पर ये नेता गण आज घडि़याली आंसू बहा रहे है उन समस्याओं की जड़ में इन नेताओं की भी अहम भूमिका रही है। पर इस सच्चाई को बेबाकी से उजागर करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। मजे कि बात यह कि इन गिने चुने लोगेां की बात को भी जनता के सामने रखने वाले दिलदार मीडिया समूह उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। विरोधाभास ये कि प्रकाशन समूह जिन समस्याओं पर अंतर राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करते हैं और दावा करते है कि इन सम्मेलनों में इन समस्याओं के हल खोजे जा रहे है वे प्रकाशन समूह भी इन सम्मेलनों में सच्चाई को ज्यों का त्यों रखने वालों को नहीं बुलाते। इसलिए सरकारी सम्मेलनों की तरह ये अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी एक हाई प्रोफाइल जन सम्पर्क महोत्सव से ज्यादा कुछ नहीं होते।

यह बड़ी चिंता की बात है कि ज्यादातर राष्ट्रीय माने जाने वाले मीडिया समूह अब जिम्मेदार पत्रिकारिता से हटकर जन सम्पर्क की पत्रिकारिता करने लगे हैं। इसलिए पत्रिकारिता भी अपनी धार खोती जा रही है और समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसलिए क्षेत्रीय मीडिया समूह का प्रभाव और समाज पर पकड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में देश के सामने जो बड़ी-बड़ी समस्यायें है उनके हल के लिए क्षेत्रीय मीडिया समूहों को एक ठोस पहल करनी चाहिए। अपने संवाददाताओं को एक व्यापक दृष्टि देकर उनसे ऐसी रिपोर्टों की मांग करनी चाहिए जो न सिर्फ समस्याओं का स्वरूप बताती हों बल्कि उनका समाधान भी। चिंता की बात यह कि आज कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्र भी बयानों की पत्रकारिता पर ज्यादा जोर दे रहे है। ऐसे अखबारों में विकास और समाधान पर खबरें कम या आधी अधूरी होती है और छुटभैये नेताओं के बयान ज्यादा होते हैं। इससे उन नेताओं का तो सीना फूल जाता है पर समाज को कुछ नहीं मिलता, न तो मौलिक विचार और न हीं उनकी समस्याओं का हल। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब आम आदमी तक हर सूचना पहुचंे और समस्याओं के समाधान तय करने में आम आदमी की भी भावना को तरजीह दी जाए। जो मीडिया समूह इस परिपेक्ष में पत्रकारिता कर रहे हैं उनके प्रकाशनों में गहरायी भी है और वजन भी। पर चिंता की बात यह कि देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसे लेाग मीडिया के कारोबार में आ गए है जो आज तक तमाम अवैध धंधे और अनैतिक कृत्य करते आये है। उनका उद्देश्य मीडिया को ब्लैकमेंलिंग का हथियार बनाने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिनसे समाज के हम में किसी सार्थक पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती।


दरअसल देश की समस्याओं के हल के लिए विदेशी विचारको की नहीं बल्कि स्वयं सिद्ध व मौलिक विचारों के धनी ऐसे देशी लोगों की है जो वास्तव में इन समस्याओं के हल प्रस्तुत कर सकें। चिंता की बात यह कि ऐसे ठोस लोगों की बात सुनने के लिए बहुत कम लोग अपना मंच उपलब्ध कराते है। इससे साफ जाहिए है कि देश की समस्याओं पर अंतर्राष्ट्रीय समेलन कराना उस समूह के लिए महज जन संपर्क का माध्यम है। इन सम्मेलनों से ठोस कुछ भी नहीं निकलता क्योंकि इनमें बोलने वालों की कथनी और करनी एक नहीं होती।

Sunday, January 13, 2008

हम तो हैं परदेस देस में निकला होगा चांद

Rajasthan Patrika 13-01-2008
ढाई करोड़ भारतीय मूल के लोग दुनिया के 130 देशों में रहते हैं। इन सबको भारत से प्यार है। ठीक वैसे ही जैसे गांव से एक बेटा शहर पढ़ने और नौकरी करने चला जाता हैं। सफल हो जाता है। वहीं बस जाता है। पर अपनी माटी की सुगंध कभी भूल नहीं पाता। प्रवासी भारतीयों की कुछ अपेक्षाएं हैं। कुछ शिकायतें हैं। कुछ पर सरकार ने ध्यान दिया है और बाकी पर अभी ध्यान देने की जरूरत है। हर वर्ष 8 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाता है। दुनिया भर से लगभग डेढ़ हजार प्रवासी भारतीय इसमें शिरकत करने आते हैं। इस वर्ष प्रधान मंत्री Mk¡ मनमोहन सिंह ने प्रवासी भारतियों को कुछ नई सुविधाएं देकर प्रसन्न किया पर ये नाकाफी है।

सबसे ज्यादा प्रवासी भारतीय मयनमार में रहते हैं। इसके बाद पचास लाख प्रवासी भारतीय खाड़ी के देशों में व बीस लाख अमरीका में रहते है। मलेशिया में रहने वाले प्रवासी भारतीयों में 80 फीसदी तमिल मूल के हैं। कैरेबियन देशों, केन्या, सूरीनाम और इंग्लैड में भी काफी प्रवासी भारतीय रहते हैं। मारीशस की तो आधी आबादी ही प्रवासी भारतीयों की है। कुल तीन तरह के लोग भारत से विदेश गए। एक तो वे जो सौ-डेढ़ सौ साल पहले मजदूर बनकर गए। दूसरे वे जो पढ़ने व नौकरी करने गए और तीसरे वे जो धनी थे और व्यापार करने गए। इनमें भी दो तरह के प्रवासी भारतीय हैं। एक वे जिन्होंने उन देशों की नागरिकता ले ली और दूसरे वे जो रहते तो विदेश में है पर हैं आज भी भारतीय नागरिक ही। जो धनी थे जैसे गुजराती और जिन्होंने विदेशों में जाकर और ज्यादा धन कमा लिया उन्हें ज्यादा दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता। पर जिन्होंने वहीं रहकर पिछले दो दशकों में काफी धन कमाया है उनसे स्थानीय लोगों को खतरा महसूस होने लगा है। क्याकि इन प्रवासी भारतीयों ने सफलता के झंडे गाढ़ दिए है। इससे पश्चिमी जगत का यह भ्रम टूटा है कि भारतीय अनपढ़, आलसी और कम अक्ल होते हैं। प्रवासी भारतीयों की सफलता से स्थानीय लोगों को काफी ईष्या है। अमरीका के न्यूजर्सी इलाके में दो दशक पहले पनपे उद्दंड युवा समूह Mk¡ट बस्टर ने बिन्दी लगाने वाली भारतीय महिलाओं पर हमले किए। बिन्दी को उन्होंने Mk¡ट का नाम दिया। इसी तरह अंग्रेज आज तक औपनिवेशिक मानसिकता से भारत पकिस्तान और बांग्ला देश मूल के लोगों को पाकी कहकर उनपर फब्तियां कसते हैं। मलेशिया में तमिल मूल के पुराने वाशिन्दे तो हिल मिल कर रहते हैं पर मजदूरी करने पिछले वर्षों में वहां गए प्रवासी भारतीयों से स्थानीय लोग बुरा व्यवहार करते हैं।

फिर भी प्रवासी भारतीय अपने दम खम और कड़ी मेहनत के सहारे लगातार आगे बढ़ रहे हैं। वे भारत के विकास में अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार सहयोग करना चाहते है। जो इस्पात जगत के बादशाह लक्ष्मी मितल की तरह अरबों रूपए का विनियोग भारत में करना चाहते हैं वे केन्द्र सरकार स्तर पर तो अपने प्रगाढ़ सबंधों से लालफीताशाही से निपट लेते हैं। पर उनके मैनेजरों को वैसे ही दिक्कतें आती हैं जैसी दूसरे उद्यमियों को। अब हर वक्त तो वे लक्ष्मी मितल को खबर देंगे नहीं। पर इससे प्रवासी भारतीयों का मन खट्टा होता है और वे भारत की बजाय दूसरे देशों में विनियोग करने चले जाते हैं। जबकि दूसरी ओर चीन में कुल विदशी विनियोग का 70 फीसदी चीनी मूल के लोग ही कर रहे हैं। प्रवासी भारतीयों की इसी समस्या का हल निकालकर मौजूदा सरकार ने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं से निपटने के लिए एक अलग मंत्रालय ही बना दिया है। छः महीने पहले ही भारत सरकार ने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं का एक ही जगह निपटारा करने के लिए सिंगिलविंडो फैसिलिटेशन सेंटर की स्थापना की है। साथ ही प्रधान मंत्री ने इस वर्ष मशहूर व योग्य प्रवासी भारतीयों की सलाह लेने के लिए एक समिति भी बनाने की घोषणा की है। इसके पीछे भाव यह है कि हर प्रवासी भारतीय पैसे का ही निवेश नहीं करना चाहते बल्कि बहुत से प्रवासी भारतीय अपने ज्ञान ओर अनुभव को भारत से बांट कर भारत के विकास में सहयोग देना चाहते है। पर यहां की नौकरशाही और लालफीताशाही उन्हें थका देती हैं। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में सभी ढ़ाई करोड़ प्रवासी भारतीय भारत के विकास में अपनी यथाशक्ति भूमिका निभाने के लिए प्रेरित होंगे क्योंकि तब तक सरकार का रवैया और भी उदार हो चुका होगा।

सबसे बड़ी कमी प्रवासी भारतीयों में यह है कि वो भारत की लगभग हर व्यवस्था की पश्चिमी देशों से तुलना करते हैं और बिना कारण जाने अपनी सलाह देने लगते हैं। जबकि असलियत यह है कि प्रवासी भारतीय वे लोग हैं जिन्होंने इस देश को समझा नहीं और यहां की दिक्कतों से घबरा कर विदेश भाग गए। जबकि जिन मेधावी और योग्य लोगों ने यहीं रहकर परिस्थति का सामना किया वे इस देश के मिजाज को बेहतर जानते हैं और इसलिए छोटी छोटी बातों पर उतेजित नहीं होते उनका सामना करते हैं और विषम परिस्थति में मैदान छोड़कर नहीं भागते। इसलिए उन्हें प्रवासी भारतीयों के उपदेश अच्छे नहीं लगते। पर अब समय बदल रहा है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में दूरियां घट रहीं है। इसलिए आर्थिक जरूरत के मुताबिक जो आज प्रवासी है वे कल फिर से भारतीय हो जाएंगे और जिन्होंने आज तक भारत की भौगोलिक सीमा नहीं लांघी थी वे अब विदेशों में कारखाने लगा रहे हैं। जो भी हो प्रवासी भारतीय हमारे ही परिवार के अंग हैं उन्हें भारत के विकास में योगदान करने का पूरा हक है। सरकार को चाहिए कि उनके रास्ते के रोड़ों को दूर करें। पर यर्थाथ यह है कि जब सरकार देश के एक सौ दस करोड़ लोगों की बुनियादी जरूरते भी पूरी नहीं कर पाती तो वह प्रवासी भारतीयों को शेष देश की दशा से अलग हट कर विशिष्ट सुविधाएं कैसे दे सकती है। हर वर्ष जनवरी के दूसरे सप्ताह में प्रवासी भारतीय दिवस एक पर्व के रूप में मनाकर समाप्त हो जाता है। इससे ठोस कुछ निकलना चाहिए।

Sunday, January 6, 2008

भाजपा का दोहरापन ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी


गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधान सभा चुनाव में विजय व रामसेतु की रक्षार्थ दिल्ली में विश्व हिन्दू परिषद की सफल रैली से उत्साहित भाजपा ने अब रामसेतु के मुद्दे पर अपना आंदोलन तेज करने का निर्णय किया है। केन्द्र सरकार को भी चेतावनी दी है कि यदि उसने रामसेतु का विनाश नहीं रोका तो पूरे देश में आक्रामक तेवर के साथ आंदोलन चलाया जाएगा। इसमें गलत कुछ भी नहीं है। 12 अगस्त 2007 के अपने इसी काॅलम में हम रामसेतु के विनाश को रोकने का पुरजोर समर्थन कर चुके हैं। अगर भाजपा रामसेतु की रक्षा के लिए आव्हान करेगी तो सभी धर्म पे्रमी और भारतीय संस्कृति के प्रशंसक इस आंदोलन में भाजपा का साथ देंगे। पर दुख की बात है कि भाजपा को इस आंदोलन को चलाने का कोई नैतिक आधार नहीं है। क्योंकि भाजपा संघ और विहिप के सभी बड़े नेता गत 4 वर्षों से ब्रज चैरासी कोस में स्थित भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़े पर्वतों के वीभत्स विनाश के मूक द्रष्टा बने हुए हैं। तकलीफ इस बात की है कि यह विनाश श्रीमती सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली यूपीए सरकार नहीं करवा रही बल्कि दिल्ली की रैली में रामसेतु की रक्षार्थ गर्जन करने वाले श्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली भाजपा की सरकार करवा रही है।
ब्रज चैरासी कोस में राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग व कांमा तहसील भी आती है। यहां 72 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पर्वतमालाएं हैं जिनका उल्लेख अनेक हिन्दू शास्त्रों में आता है। इन पर्वतों पर भगवान श्रीकृष्ण ने गोचारण किया, वंशीवादन किया व रास रचाया। इन पर्वतों पर भगवान श्रीकृष्ण के अनेक पदचिन्ह अंकित हैं। इन पर अनेक लीला स्थलियां भी मौजूद हैं। कामा को तो काम्यवन या आदि वृन्दावन भी कहा जाता है। दुख की बात है कि श्रीमती वसुन्धरा राजे की सरकार के कार्यकाल में इन दिव्य पर्वतों का खनन 28 फीसदी बढ़ चुका है। यह बात नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी के अध्ययन का आई.आई.टी. रुड़की से विश्लेषण कराने के बाद सामने आई। ब्रज रक्षक दल की पहल पर यह अध्ययन इस लिए कराया गया कि भाजपा नेतृत्व को यह बताया जा सके कि राजस्थान के खानमंत्री श्री लक्ष्मीनारायण दवे अपने नेताओं को कैसे लगातार झूठे आंकड़े देकर गुमराह कर रहे थे। ब्रज रक्षक दल के पर्चों और समय-समय पर जारी अनेक फिल्मों के माध्यम से इस पूरे घोटाले को पूरे देश और दुनिया के सामने लाया गया। ब्रज रक्षक दल के अध्यक्ष व पदाधिकारियों ने भाजपा व विहिप के सभी वरिष्ठ नेताओं से बार-बार मिल कर ब्रज के दिव्य पर्वतों की रक्षा की गुहार लगाई। संविधान क्लब नई दिल्ली में सम्मेलन किए। अनेकों सांसदों से बार-बार मिलकर इस मामले को संसद में उठवाने का प्रयास किया। बाद में राजद के अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद यादव ने पहल की और उनका ही दल तबसे इस मामले को लगातार उठा रहा है। देश-विदेश का मीडिया भी गत 4 वर्षों से लगातार इस मामले को उठाता रहा है। राजस्थान विधान सभा में भी यह मामला उठ चुका है। दुनिया भर के विभिन्न धर्मों के मानने वाले हजारों लोग सन् 2004 से ई.मेल भेजकर ब्रज की इन धरोहरो की रक्षा की मांग कर रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की गई है जिस पर अभी फैसला होना बाकी है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मौके पर जांच करने के बाद नवम्बर 2005 में ही जारी अपनी रिपोर्ट में डींग व कामा में चल रहे खनन को अवैध बताया और इसे फौरन रोकने के आदेश दिए। पर न तो भाजपा की राजस्थान सरकार ने इसकी परवाह की और न ही भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने जिन्हें यह रिपोर्ट तभी दे दी गई थी। जुलाई 2005 में न्यूजर्सी (अमरीका) के हिन्दू सम्मेलन में ब्रज रक्षक दल के अध्यक्ष ने जब इस मामले पर पावर प्वाइंट प्रस्तुति की तो उसे देखने वालों में सरसंघ चालक श्री के.एस. सुदर्शन व संघ के वरिष्ठ नेता श्री राम माधव भी वहां मौजूद थे। इन   4 वर्षों में श्रीमान मन्दिर बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा की पे्ररणा से साधुओं ने इस पूरे इलाके में जनजागरण का अभूतपूर्व कार्य किया। उत्तरांचल के चिपको आंदोलन की तरह यहां भी आम जनता बढ़चढ़ कर इस आंदोलन का साथ दे रही है।
मई 2006 में 40 दिन तक साधुओं और ब्रजवासियों ने दिल्ली के जन्तर-मंतर पर धरना दिया। बाद में ये सब लोग भाजपा मुख्यालय पर धरना देने पहुंच गये जहां उन्हें भाजपा के राजस्थान अध्यक्ष श्री महेश शर्मा ने आश्वासन देकर धरना बन्द करा दिया। जब कुछ नहीं हुआ तो देश के 39 प्रमुख संतों ने राजस्थान की भाजपा सरकार को अगस्त 2006 में खुली चेतावनी देते हुए एक हस्ताक्षर ज्ञापन भेजा जिसके उससे ब्रज के दिव्य पर्वतों का विनाश रोकने की मांग की। पर न तो भाजपा की राजस्थान सरकार के कान पर जूं रेंगी और न ही भाजपा संघ और विहिप के राष्ट्रीय नेतृत्व ने ही कोई परवाह की। इसके बाद नवम्बर 2006 से संत और ब्रजवासी कामा में आमरण अनशन पर बैठ गए। हालात काबू से बाहर होने लगे तो श्रीमती सिंधिया के अनुरोध पर श्री बी.पी. सिंघल ब्रज रक्षक दल के पदाधिकारियों के साथ अनशन स्थल पर गए। पर विडम्बना ये कि वहां भरतपुर के भाजपा अध्यक्ष ने खुद खड़े होकर इनकी कार पर घातक हमला करवाया। कार तोड़ दी। सवारो को खींच कर मारने की कोशिश की और 32 किलोमीटर तक उनका बन्दूकों से पीछा किया। इस मामले में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट पर कोई उल्लेखनीय कार्रवाई आजतक नहीं हुई। आश्चर्य है कि अपने ही दल के पूर्व सांसद व विहिप अध्यक्ष के अनुज पर कातिलाना हमला करने वालों को राजस्थान की सरकार संरक्षण दे रही है। इसीलिए श्री सिंघल राजस्थान की भाजपा सरकार को दानवी सरकारकहते हैं।
यह सारा विवरण इसलिए यहां उल्लेख करना जरूरी है ताकि आम जनता यह जान जाए कि भाजपा की नियत में ही खोट है। गत 4 वर्षों से रातदिन भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थलियों का डायनामाइट से विनाश करने वाली भाजपा रामसेतु के सम्भावित विनाश के लिए यूपीए सरकार को चुनौती कैसे दे सकती है ? उसका नैतिक आधार ही इतना खोखला है कि कोई उस पर यकीन नहीं करेगा। भाजपा रामसेतु पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने की चेतावनी दे रही है। देश भर में होर्डिंग, पर्चे व पोस्टर लगवा रही है। जनसम्पर्क किए जा रहे हैं। अगर यह सब इसलिए हो रहा है कि भाजपा को वाकई हिंदू धर्म की धरोहरों की रक्षा की चिन्ता है तो वह भगवान श्रीकृष्ण की धरोहरों को क्यों तुड़वा रही है ? क्या यह माना जाए कि रामसेतु की रक्षा भाजपा के लिए एक चुनावी मुद्दा है जिसे पकड़ कर वह सत्ता पर काबिज होना चाहती है जैसा पहले राममन्दिर का मुद्दा उठा कर उसने किया था। अगर राममन्दिर आंदोलन के दौरान विशाल रैलियों में भाजपा नेताओं के बयानों की रिकार्डिंग देखी जाए और उसे राजग सरकार के कार्यकाल के दौरान इन्हीं नेताओं के राममन्दिर के विषय में आए विरोधी बयानो को देखा जाए तो यह शंका होगी कि राममन्दिर को भाजपा ने केवल चुनावी मुद्दा बनाया या वह इस मामले में गंभीर भी है ? तो क्या रामसेतु का मुद्दा भी इसी तरह भाजपा की चुनावी राजनीति का मुद्दा बनकर शहीद हो जाएगा ? अगर यह सही है तो देश की करोड़ों जनता को यह फैसला करना होगा कि वे रामसेतु की रक्षा के आंदोलन में तभी शामिल हों जब राजस्थान की भाजपा सरकार ब्रज में पर्वतों का खनन और क्राशिंग पूरी तरह बंद कर दें और इससे स्थापित होने वाले व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों आदि को ब्रज चैरासी कोस की परिधि से दूर हटाकर नए पट्टे जारी कर दे। उन्हें कर व अन्य रियायतें देकर वहां स्थापित होने में मदद करें। देर से ही सही व चुनावी राजनीति की मजबूरी के कारण ही लिया जाए तो भी उसका यही कदम उसे बचाएगा। इससे ब्रज का वैभव बचेगा। ब्रज में पर्यटन और रोजगार बढ़ेगा। संत, भक्त व ब्रजवासी प्रसन्न होंगे। भाजपा के पास रामसेतु की रक्षार्थ आंदोलन चलाने का एक नैतिक आधार बनेगा। अगर भाजपा ऐसा नहीं करती है तो यही मानना चाहिए कि उसका धर्म से कोई लेना देना नहीं। वह तो धर्म को सत्ता हथियाने का एक औजार मानती है। भाजपा की यह छवि उसके व उसके समर्थकों दोनों के लिए ही दुखदायी होगी।