अयोध्या में श्री राम मंदिर के निर्माण की मांग को लेकर विश्व हिंदू परिषद की चेतावनी यात्रा उत्तर प्रदेश से जब दिल्ली पहुंची तो जनता में इसे लेकर कहीं भी उत्साह दिखाई नही दिया। यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले नगरों और गांवों में आम जनता में यात्रा को कौतुहलवश देख भले ही लिया हो पर किसी के मन में यात्रा के प्रति न तो आकर्षण था और न सम्मान। हर आदमी यही कह रहा था कि ये यात्रा महज स्टंट बाजी है और उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा को मदद करने का विहिप का एक शगूफा। देहात के लोगों ने तो संत चेतावनी यात्रा को ढोंग तक बताया और साफ कहा कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। लोगों का कहना था कि भाजपा हिंदू धर्म का कार्ड खेलकर अब हिंदुओं को और मूर्ख नहीं बना सकती। हर आदमी को पता चल चुका है कि भाजपा हिंदू धर्म के सवालों को उठाकर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करती आई है। पर सत्ता में आने के बाद उसके तमाम वरिष्ठ नेताओं ने हिंदू धर्म के मुद्दों से पल्ला झाड़ लिया। ‘जय श्रीराम’ के गगनभेदी नारे लगाने वाले भाजपाइयों ने सत्ता में आते ही इस नारे को भुला दिया। कई वर्ष बाद जब संत चेतावनी यात्रा में ये नारे फिर से लगाए गए तो जनता ने इन्हें नहीं दोहराया। इससे पहले भी विहिप के कई कार्यक्रम असफल हो चुके हैं। श्री कृष्ण जन्मभूमि की मुक्ति के लिए मथुरा में विहिप द्वारा बुलाया गया सम्मेलन और यज्ञ अनुष्ठान का कार्यक्रम फ्लाप ही रहा था।
पिछले दिनों दिल्ली के देहाती इलाकों में आयोजित जनसभाओं में संघ के प्रचारकों को ‘धार्मिक प्रवचन’ करते हुए देखा जा सकता था। ये जनसभाएं स्थानीय आबादी को धर्म के नाम पर आकर्षित करके 27 जनवरी के कार्यक्रम में भेजने को प्रेरित करने के लिए थीं। इन जनसभाओं में संघ के प्रचारकों ने जनता को अयोध्या के महत्व, मंदिर निर्माण की आवश्यकता और भक्ति में शक्ति के संकेत दिए। इस सभा में आई हुई साधारण महिलाओं को यह कह कर लुभाने की कोशिश की गई कि वे 27 जनवरी को दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में ज्यादा से ज्यादा तादाद में पहुंच कर संतों का आशीर्वाद प्राप्त करें। महिलाएं स्वभाव से ही धार्मिक और भावुक होती हैं। हर किसी को जीवन की समस्याओं ने घेर रखा है। इसीलिए लोग धर्म स्थानों और साधु संतों की शरण में जाते हैं। ताकि उन्हें आशीर्वाद मिल सके और उनके जीवन के कष्ट कुछ कम हो सके। इसलिए संघ के प्रचारकों ने विशेषकर महिलाओं को लुभाने की कोशिश की। पर यहां भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इस तरह विहिप द्वारा आयोजित संत चेतावनी यात्रा अपने उद्देश्य में असफल रही। मीडिया ने भी इस यात्रा को विशेष तरजीह नहीं दी। यात्रा के दौरान जिन नगरों में इसका स्वागत, सत्कार हुआ भी उनमें भी केवल वहीं लोग शामिल थे जो भाजपा के पदाधिकारी थे या उसके कार्यकर्ता। जिन्हें इस यात्रा से राजनैतिक लाभ कमाने की उम्मीद थी। संत चेतावनी यात्रा की इस असफलता के कारण भाजपा के खेमों में चिंता व्याप्त है। सार्वजनिक रूप से भाजपाई नेता भले ही उत्तर प्रदेश चुनाव में अपनी सफलता की घोषणाएं कर रहे हों पर वे भी जानते हैं कि मंदिर के सवाल पर अब उत्तर प्रदेश के हिंदुओं को बरगलाया नहीं जा सकता। वैसे ंिहंदुओं के मन में अपने धर्म और संस्कृति के प्रति राजनैतिक चेतना जागृत करने में विहिप व भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। वैदिक संस्कृति के शाश्वत ज्ञान को समसामयिक संदर्भ में सार्थक उपयोग करने के लिए यह जरूरी है कि सत्ता में बैठे लोग धर्म निरपेक्षता के नाम पर वैदिक संस्कृति के बहुमूल्य खजाने की उपेक्षा न करें। भाजपा से ऐसी उम्मीद थी जो पूरी नहीं हो रही है। इसलिए विहिप और आडवाणी जी को भी इस विषय पर मंथन करना होगा ताकि बहुजनहिताय गाड़ी फिर से ढर्रे पर चल सके।
दरअसल पिछले तीन वर्षों में, जबसे केंद्र में राजग की सरकार बनी है, तब से इसके प्रमुख घटक भाजपा का हिंदुओं के प्रति रवैया बड़ा विचित्र रहा है। भाजपा के जो बड़े नेता अयोध्या आंदोलन के दौरान पूरे देश में घूम-घूम कर जनसभाओं में सिंह गर्जना करते थे कि, ‘सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनाएंगे।’ या ‘बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का’, वही नेता सत्ता में आने के बाद यह कहने लगे कि मंदिर हमारा मुद्दा नहीं है। इससे पूरे देश में बहुत गलत संदेश गया। हिंदुओं को लगा कि भाजपा ने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। कहां तो राम रथ यात्रा, अयोध्या कार सेवा और शिलान्यास के लिए हर हिंदू के घर से सहयोग लिया गया था। राम राज्य लाने के सपने दिखाए गए थे। हर गांव से शिलापूजन करके अयोध्या भेजी गई थी। कहां अब ये हाल हो गया कि अयोध्या का नाम तक लेने में भाजपा के नेता बचने लगे। जिस समय अयोध्या आंदोलन की शुरूआत हुई उस समय आम जनता में भाजपा के नेताओं की अच्छी छवि थी। भाजपा को अनुशासित, राष्ट्रनिर्माण के लिए समर्पित और भ्रष्टाचार मुक्त राजनैतिक दल माना जाता था। कई दशकों तक भाजपा ने विपक्ष में रह कर सड़कों पर लड़ाई लड़ी थी। इसलिए जनता में उसकी जुझारू छवि भी थी। इसलिए जनता को बड़ी उम्मीद थी कि भाजपा जब सत्ता में आएगी तो एक नए किस्म की शासन व्यवस्था देखने को मिलेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। इससे भी लोगों के दिल टूट गए। चूंकी एक एक करके सभी दल सत्ता में आ चुके हैं और किसी ने भी ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे वह दूसरे से बेहतर सिद्ध होता इसलिए अब जनता के मन में किसी भी दल के प्रति आकर्षण या सम्मान नहीं बचा है। बेचारी जनता मजबूरी में ताश के पत्तों की तरह दलों को फंेटती रहती है। इसके चलते जातिवाद और तेजी से बढ़ रहा है। आम लोगों के मन में ये बात बैठ रही है कि फायदा तो उन्हें किसी भी दल से नहीं मिलना तो क्यों न अपने ही जाति वाले को वोट दो ? नतीजतन उत्तर प्रदेश के चुनाव में अलग-अलग जातियों के प्रभुत्व के अनुसार दर्जनों दल सक्रिय हैं। चुनाव के बाद का परिदृश्य बहुत लुभावना नहीं होगा। विधायकों की खरीद-फरोख्त सब्जी मंडी की तरह होगी। जिससे प्रशासन में और भी भ्रष्टाचार और लूट-खसोट बढ़ेगी। इसलिए कुछ चुनाव विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि उत्तर प्रदेश की जनता ऐसी परिस्थिति में किसी एक दल को बहुमत देकर सबको चैंका न दे। वह दल कांग्रेस भी हो सकता है। ठीक वैसे ही जैसे मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में सबने कांग्रेस को साफ कर दिया था और भाजपा की सरकार बनने के दावे बढ़-चढ़ कर टीवी चर्चाओं में किए जा रहे थे। दावा करने वाले भाजपाई नेता नहीं बल्कि टीवी के मशहूर चेहरे थे। पर जब मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम आए तो हर आदमी भौचक्का रह गया। वहां की जनता ने दुबारा सत्ता कांग्रेस के हाथ में सौप दी। ऐसा उत्तर प्रदेश में भी अगर होता है तो कोई अजीब बात नहीं होगी अलबत्ता यह जरूर है कि जनता कांग्रेस से आकर्षित होकर कम और दर्जनों दलों कि साझी सरकार बनने की संभावना से डर कर ज्यादा कांग्रेस को वोट दे सकती है। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। प्रियंका के आने पर इसकी संभावना बढ़ जाएगी।
जहां उत्तर प्रदेश में भाजपा को पांच वर्ष के शासन में चार बार मुख्यमंत्री बदले पड़े। गुजरात में केशूभाई पटेल और नरेन्द्र मोदी के बीच लगातार युद्ध होता रहा। आखिरकार केशूभाई पटेल को जाना पड़ा। वहीं केरल में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हों या मध्य प्रदेश, दिल्ली या राजस्थान में, बेखटक लगातार राज भी कर रहे हैं और कुछ नया करने की कोशिश भी कर रहे हैं। इससे देश की जनता में यह संदेश जा रहा है कि कांगे्रस ही देश को सुगमता से चला सकती है। जबकि दूसरे सभी दल सत्ता में आते ही सिर फुटव्वल शुरू कर देते हैं। जिससे जनता का भला होना तो दूर राजनैतिक अनिश्चितता बनी रहती हैं। इसके साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है कि इंका की प्रांतीय सरकार भी चालू व्यवस्था में कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला पा रहीं हैं। इतना जरूर है कि उसके कई मुख्यमंत्रियों की कार्यशैली और छवि भाजपा के मुख्यमंत्रियों के मुकाबले कहीं बेहतर है।
जहां तक भाजपा के हिंदू वोट बैंक के भाजपा से निराश होने का सवाल है तो इस पर भाजपा नेतृत्व का स्पष्टीकरण बड़ा रोचक है। वे कहते हैं कि बहुमत के अभाव में हम संघ और भाजपा के मूल एजेंडा को लागू करने में असमर्थ हैं। फिर भी जो कर सकते हैं कर रहे हैं। इसके लिए वे जनता से पूर्ण बहुमत देने की मांग करते हैं। पर इस बात का भाजपा नेतृत्व के पास कोई उत्तर नहीं कि गोविन्दाचार्या सरीखे समर्पित स्वयं सेवकों को दरकिनार कर व मल्टीनेशनल्स् के दलालों को अपना नेता बना कर उनका दल क्यों दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहा है? क्या भाजपा के पास इससे बेहतर लोग नहीं हैं ? या फिर भाजपा भी सत्ता के माया जाल में फंस चुकी है और उन लोगों के इशारे पर नाच रही है जो स्वार्थपूर्ति के लिए देश और समाज के हित का बलिदान देने को भी हमेशा तैयार रहते हैं। हो सकता है कि ऐसे लोगों से दल को वित्तीय मदद मिलती हो, पर क्या यह इतनी बड़ी उपलब्धि है कि इसके लिए संघ के लोगों की भावनाओं का भी तिरस्कार कर दिया जाए ? उन लोगों का जो दशकों से त्याग, तपस्या का जीवन जीकर संगठन को खड़ा करते आए हैं। अगर भाजपा का तर्क यह है कि अल्पमत में होने के बाद, सत्ता चलाने के लिए अनेक तरह के दबावों में काम करना पड़ता है तो प्रश्न उठेगा कि फिर भाजपा दूसरे दलों से बेहतर दल कहां रहा ? इस पर अगर भाजपा यह स्वीकार भी कर लेती है कि उसका दल दूसरे दलों से गुणात्मक रूप में बेहतर नहीं तो फिर उसे समर्थन ही क्यों दिया जाए ? फिर तो सभी दल एक से हैं। ऐसे तमाम सवाल आज उत्तर प्रदेश की जनता के मन में उठ रहे हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनावों को लेकर कोई भी तस्वीर साफ नहीं है।
दलों में आंतरिक लोकतंत्र का लोप होना, एक व्यक्ति का दो पद स्वीकारना, दलों में नैतिक नेतृत्व को दरकिनार करना, बिना आम आदमी को राहत दिए दुनिया विकसित देशों से होड़ करना, कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें सत्ता में आने के बाद हर दल करता है। यही उसके पतन का कारण बनते हैं। चुनाव जीतने और सत्ता पर काबिज होने के लिए कुछ जोड़-तोड़ करना या कुछ अनैतिक काम करना अगर दलों की मजबूरी है, तो उससे बचा नहीं जा सकता। पर इसके साथ यह भी जरूरी है कि दल के समर्पित लोगों को पूरा सम्मान और महत्व दिया जाए और सत्ता का अधिक से अधिक विक्रेंद्रीकरण किया जाए। यदि ऐसा होता है तो पारस्परिक दबाव और अंकुश से कोई भी दल अपनी गरिमा बचाए रख सकता है और जनता को भी फायदा पहुंचा सकता है, चाहे भाजपा हो या इंका या सपा। कहने को तो हमारे यहां लोकतंत्र है पर दुर्भाग्य से हमारे राजनैतिक दल प्राइवेट लि. कंपनी की तरह काम कर रहे हैं। ऐसे में इस देश का लोक और तंत्र दोनों राम भरोसे ही है।