Friday, January 25, 2002

सिर्फ कानून बनाने से नहीं मिलेगी सबको शिक्षा

एक तरफ तो दुनिया में आगे बढ़ने की होड़ लगी है। वैश्वीकरण की आंधी चल रही है। हम दुनिया के विकसित देशों से मुकाबला करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि फास्ट ट्रक हाईवे पर जब 140 कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से गाडियां दौड़े तो कोई जाहिल गंवार आदमी रास्ते में न आ जाए। हम चाहते हैं कि हर गांव में कंप्यूटर लगा हो और पूरा देश उस कंप्यूटर के जरिए गांव से जुड़ा हो। हम चाहते हैं कि हमारे देश का आम आदमी अपने कर्तव्यों और अधिकारांे को समझे और दकियानूसी जिंदगी से निकलकर प्रगतिशील बने। हम यह भी चाहते हैं कि महिलाओं के हक, नशाबंदी, एड्स, मतदान के अधिकार जैसी सूचनाओं को हर आदमी समझें। पर ये सब होगा कब और कैसे ? जब देश का हर नागरिक शिक्षित होगा। इसी उद्देश्य से हाल ही में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने शिक्षा को मूलभूत अधिकार बना दिया है। ऐसा संविधान में संशोधन करने के बाद हुआ है। नए कानून के मुताबिक 6 से 14 वर्ष के हर बच्चे को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देना, सरकार की जिम्मेदारी है। साथ ही हर माता-पिता का यह कर्तव्य घोषित कर दिया गया है कि वे अपने बच्चों को मुफ्त शिक्षा के लिए भेजें।



आजादी के 52 वर्ष बाद ही सही पर इस कदम के लिए सत्ता और विपक्ष की तारीफ की जानी चाहिए। दरअसल संयुक्त मोर्चा की सरकार ने 1997 में यह बिल पेश किया था। जिसके तुरंत बाद इन्द्र कुमार गुजराल की सरकार गिर जाने के कारण बिल पास नहीं हो सका। पर जिस रूप में मौजूदा कानून बना है उसमें न सिर्फ बहुत सी खामियां हैं बल्कि इस बात में भी संदेह है कि इस कानून के बाद भारत के करोड़ों बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था हो पाएगी।



सबसे पहली बात तो यह है कि यह कानून सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अवहेलना करता है। 1993 में दिए गए एक आदेश के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने 14 वर्ष तक के हर बच्चे के लिए मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी बताया था। मौजूदा कानून में इस बात की अनदेखी करके केवल 6 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा का ही जिम्मा लेने की बात की गई है। 6 वर्ष तक के बच्चे कहां धक्के खाएंगे इसकी चिंता किसी को नहीं।



इस कानून की दूसरी सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें माता-पिता पर बच्चों को शिक्षा दिलाने की जिम्मेदारी को एक अनिवार्य कर्तव्य के रूप में स्थापित कर दिया गया है। इससे स्थानीय प्रशासन के हाथ में एक अतिरिक्त हथियार आ गया है जिसका दुरूपयोग करके वे देहातों में रहने वाले गरीब और निरक्षर लोगों को प्रताडि़त कर सकता है। बच्चों को स्कूल न भेजने के जुर्म में देश भर में 17 हजार गरीब माँ-बाप पर मुकदमें कायम हो चुके हैं। गरीब और बेराजगार माँ-बाप पर इस तरह का कानून थोपना न सिर्फ अमानवीय है बल्कि कानून बनाने वालों के मानसिक दिवालियापन का सूचक है। मुफ्त शिक्षा से सरकार का क्या मतलब ? क्या इतना ही कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की फीस नहीं देनी पड़ेगी ? पर इतने से कैसे काम चलेगा? गरीब माँ-बाप के लिए अपने बच्चों को मुफ्त शिक्षा दिलाना भी सरल नहीं। वो कैसे कपड़े पहन कर स्कूल जाएगा ? उनके बस्ते एवं किताबों की कीमत की भरपाई कहां से होगी ? उसे स्कूल जाने-आने में कितना खर्चा लगेगा ? वो स्कूल में दिनभर क्या खाएगा ? अगर वो स्कूल न जाता तो माँ-बाप की कमाई में कुछ योगदान करता। अब उसकी भरपाई कौन करेगा ? ऐसे तमाम सवालों के जवाब खोजे बिना ही कानून निर्माताओं ने माँ-बाप पर ये भार डाल दिया है। कानून के इस मकड़जाल को खत्म किया जाना चाहिए वरना लाखों गरीब लोग स्थानीय प्रशासन की उदंडता का शिकार बनेंगे।



जिस मुफ्त शिक्षा की बात सरकार कर रही है उसके स्वरूप को लेकर भी तमाम सवाल जनता के मन में हैं। देश में 4 लाख स्कूलों और 40 लाख शिक्षकों की जरूरत हैं। जब तक इनकी व्यवस्था नहीं होती शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाना बेमानी है। जो स्कूल आज हैं भी उनकी दुर्दशा पर पिछले 52 वर्षों में तमाम रपट प्रकाशित हो चुकी है। उन पर फिल्में भी बन चुकी हैं। सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी है। हजारों सेमिनार हो चुके हैं। दर्जनों आयोग अपनी सिफारिशें सरकार को दे चुके हैं। पर गांवों के स्कूलों की दशा सुधरी नहीं। कहीं स्कूल के भवन ही नहीं हैं, तो कहीं शिक्षक नहीं। कहीं जाड़े, गर्मी, और बरसात में पेड़ों के नीचे स्कूल चलते हैं, तो कहीं एक ही कमरे में पांच कक्षाओं के बच्चे बैठते हैं। कहीं एक ही टीचर पूरे स्कूल को संभालता है और कहीं आठवीं फेल टीचर पांचवीं के बच्चों को पढ़ाता है। शिक्षा के आधुनिक साजो-सामान, नई सोच, शिक्षकों का प्रशिक्षण, पुस्तकालय और खेल की सुविधाएं हैं ही नहीं। इन हालातों में देश के गरीब बच्चों को शिक्षा ने नाम पर क्या मिल रहा है उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसी शिक्षा के होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है ?



अक्सर सरकारें साधनों की कमी का रोना रोती आई हैं। जबकि हकीकत में ये है कि अपने शिक्षा बजट में कुल सकल राष्ट्रीय उत्पादन का मात्र 0.7 फीसदी इजाफा करके सरकार अपने फर्ज को पूरा कर सकती है। इतने बड़े राष्ट्र के विकास के लिए पूरे समाज का शिक्षित होना अनिवार्य शर्त है। शिक्षा हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। दूसरी योजनाएं और काम इंतजार कर सकते हैं लेकिन हम दुनिया की सबसे बड़ी अशिक्षित आबादी के भारी बोझ को लेकर विकास के रास्ते पर नहीं बढ़ सकते। यह आश्चर्य की बात है कि साधनों का रोना रोने वाली सरकारें जो करना चाहती हैं उसके लिए साधनों की कमी आड़े नहीं आती। सरकार को लोगों में कंप्यूटर को लोकप्रिय बनाना था तो आज गली-गली कंप्यूटर पहुंच गया। यही हाल एसटीडी बूथ और अब इंटरनेट सर्विस का भी हो रहा है। इसलिए शिक्षाविद्ों को लगता है कि सरकार चाहती ही नहीं कि लोग शिक्षित बनें। शायद उन्हें डर है कि यदि सारा समाज शिक्षित हो गया तो लोग अपना हक मांगने लगेंगे और तब सरकारी ठाट-बाट और फिजूलखर्ची पर उंगलियां उठने लगेंगी। लोगों के जाहिल बने रहते में ही सरकार का फायदा है। जाहिल लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बहका कर चुनाव जीते जा सकते है। उन्हें समझदार बनाकर नहीं। इसीलिए आजादी के 52 वर्ष बाद भी भारत में औपचारिक शिक्षा अभी तक लोगों को नहीं मिली। 



नेशनल एलाइंस फाॅर फंडामेन्टल राईट्स टू एजुकेशनके संयोजक संजीव कौरा फिर भी हताश नहीं हैं। मल्टीनेशलन कंपनी में चार्टेड एकाउंटेन्सी की शानदार नौकरी छोड़कर इस काम में जुटे हैं। उनके युवा मन में उत्साह है। पिछले डेढ वर्षों में इस एलाइन्स के साथ देश भर की 2400 से ज्यादा स्वयं सेवी संस्थाएं जुड़ गई हैं। 28 नवंबर 2001 को जब संसद में शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाए जाने के बिल पर बहस हो रही थी तब दिल्ली की सड़कों पर देश भर से आए 50 हजार माँ-बाप प्रदर्शन कर रहे थे। जिन्हें जागृत और संगठित करने का काम इस एलाइन्स ने किया था। संजीव को इस बात का एहसास है कि 100 करोड के इस देश में सबको शिक्षा दिलाने का लक्ष्य तो शायद 30 वर्ष में भी पूरा न हो पर वे इस कानून के आ जाने को भी एक उपलब्धि मानते हैं। उनका कहना है कि, ‘‘आज 52 वर्ष के बाद कानून तो बना। आने वाले दिनों में इस कानून के लागू करने में हो रही खामियों को भी दूर किया जाएगा।’’ जबकि पिछले 52 वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में अपना जीवन लगा देने वाले अनेक सुप्रसिद्ध शिक्षविद बहुत उत्साही नहीं हैं। ये सब वे लोग हैं जो संजीव की तरह ही देश-विदेशों में उच्च पदों को त्याग कर सबको शिक्षादिलाने के काम में जुटे थे। इन्होंने आम आदमी के लिए सस्ती, सुलभ और वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान करने के अनेक प्रयोग भी किए और नए माॅडल भी विकसित किए। ये व्यवस्था से दूर देहातों में भी रहे और व्यवस्था में सलाहकार बनकर उसे सुधारने के प्रयास भी किए। इन्हें सफलता, कीर्ति और प्रोत्साहन भी मिला और विरोध भी। पर तीन-चार दशकों तक त्यागमय जीवन जीने के बाद भी इनका अनुभव यही रहा है कि नौकरशाही और राजनेता देश को जाहिल ही रखना चाहते हैं और साधन और सक्षम लोग होने के बावजूद शिक्षा को सबके लिए सुलभ नहीं करना चाहते।



ऐसे लोग यह मानने को तैयार नहीं है कि कोई भी सरकार इस देश के सौ करोड लोगों को साक्षर और शिक्षित बनाने का काम ईमानदारी से करेगी। इसीलिए ये सब हताश बैठे हैं। इनकी हताशा जायज है। पर जहां चाह वहां राह। हो सकता है कि पिछली सदी इस काम के लिए ठीक न रही हो। पर अब संचार और सूचना के फैलते जाल के बाद लोगों को मुख्य धारा से अलग-थलग रखना सरल न होगा। जनआकांक्षाएं इतनी बढ़जाएंगी कि शिक्षा का महत्व सबकी समझ में आ जाएगा। इसी उम्मीद के साथ व्यवस्था के अंदर और बाहर रहने वाले सभी जागरूक और कर्तव्यनिष्ठ लोगों को शिक्षा के वितरण का पुण्य कार्य यथाशक्ति करना चाहिए। इसमें ही हमारे राष्ट्र का कल्याण निहित है।

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