Friday, January 4, 2002

युद्ध के लिए चाहिए अमरीका की हरी झंडी

कोई भी देश अपनी सार्वभौमिकता का कितना ही दावा क्यों न करे हकीकत यह है कि अब दुनिया में अमरीका की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो या न हो इसका फैसला भी शायद अमरीका की मर्जी के बिना नहीं हो पाएगा। यूं युद्ध के हालात बनते जा रहे हैं। दोनों तरफ से तैयारी जोरों से चल रही है। भारतीय फौजों को सीमा तक पहुंचने में अभी तीन हफ्ते और लगेंगे। पर सवाल है कि क्या वाकई युद्ध होगा ? जानकारों का कहना है कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अमरीका की मंशा क्या है ? अगर अमरीका नहीं चाहता कि युद्ध हो तो युद्ध नहीं होगा। चाहे दोनों तरफ भावनाओं का कितना ही उबाल उठता रहे। आज की तारीख तक पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर अमरीका के विमान तैनात हैं जिन्हें अफगानिस्तान पर हमला बोलने के लिए लगाया गया था। पाकिस्तान के हवाई अड्डों से अमरीकी सैन्य सामग्री को हटाये बिना भारत पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर हमले नहीं कर सकता। अमरीका इन्हें तब तक नहीं हटायेगा जब तक यह उसकी सामरिक रणनीति को पूरा करने में काम आ रहे। अमरीकी विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि अमरीका आजतक पाकिस्तान को एक सहयोगी के रूप में देखता आया था। पर पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि पाकिस्तान हमेशा से दोगली नीति चलता रहा है। पूरी दुनिया खासकर यूरोप के देश अब इस बात से आश्वस्त हो गये हैं कि दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद को पूरी मदद और संरक्षण पाकिस्तान से ही मिलता रहा है। जब तक इस्लामी आतंकवाद का निशाना भारत जैसे दूसरे देश थे तब तक धनी देशों को कोई चिन्ता न थी। पर वर्ड ट्रेड सेन्टर पर 11 सितम्बर को हुए हमले के बाद अब यह साफ हो गया कि यूरोप और अमरीका के देश इस्लामी आतंकवाद के निशाने पर हैं। आतंकवादी कभी भी कहीं भी हमला करने में सक्षम हैं। फिदाई आतंकवादियों ने यूरोप और अमरीका के लोगों की नींद हराम कर दी है। 11 सितम्बर के बाद अमरीका की अर्थव्यवस्था को अभूतपूर्व झटका लगा है। उसकी वायु सेवाऐं भंवर में फंस गई हैं। बाजारों पर मंदी छा गई है। पर्यटन उद्योग हिल गया है। यूरोप और अमरीका अब यह समझ गये हैं कि अगर आतंकवाद पर काबू न पाया गया तो उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। इसलिए वे हाथ-धोकर इस्लामी आतंकवादियों के पीछे पड़ गये हैं।

अमरीका को डर यह है कि पाकिस्तान के पास आणविक हथियारों का जो जखीरा है वह कहीं आतंकवादियों के हाथ न पड़ जाए। ऐसा हुआ तो दुनिया को भयावह परिणाम झेलने पड़ेंगे। इसलिए अमरीका हर कीमत पर पाकिस्तान पर अपना नियंत्रण और दबाव बनाये रखना चाहता है। अगर भारत-पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान कमजोर होता है, टूटता है, विभाजित होता है तो अब उसके लिए दुनिया में आंसू बहाने वाला कोई नहीं। कहते हैं कि दूसरे के लिए कुआं खोदने वाला खुद खाईं में गिर जाता है। अफगानिस्तान में तालिबान को समर्थन देकर पाकिस्तान ने सोचा था कि वो अफगानिस्तान को ढाल की तरह इस्तेमाल करेगा। इस तरह उसकी आतंकी गतिविधियों पर पर्दा पड़ा रहेगा और अफगानिस्तान ही दुनिया में आतंकी देश के नाम से जाना जायेगा। इस काम के लिए पाकिस्तान ने आर्थिक तंगी के बावजूद सैकड़ों करोड़ रूपया पानी की तरह बहाया। यही काम उसने कश्मीर की घाटी में भी किया। पर उसकी ये नीति आज उसके गले का फंदा बन गई। तालिबान के पतन के बाद ये तमाम पैसा तो बर्बाद हुआ ही दुनिया के सामने उसकी पोल खुल गई। वो आतंकवादी देश के रूप में उभर कर सामने आया। अब पाकिस्तान के शासक बुरी तरह घिर गये हैं। अगर वे अमरीका का साथ छोड़ते हैं तो गृह-युद्ध में मारे जायेंगे और अगर अमरीका का साथ निभाते हैं तो अब भविष्य में आतंकवाद को समर्थन नहीं दे पायेंगे। कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान की विदेश नीति बुरी तरह विफल हुई है। लेकिन अमरीका को मात्र इससे सन्तोष नहीं होगा । जब तक पाकिस्तान के आणविक हथियारों को नष्ट नहीं किया जाता या उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण में नहीं रखा जाता तब अमरीका और यूरोप के देश चैन की नींद नहीं सो सकते। भारत-पाक युद्ध से अगर यह मकसद पूरा होता है तो अमरीका भारत को न सिर्फ युद्ध की अनुमति देगा बल्कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद भी करेगा। अगर ऐसा नहीं होता तब शायद उसकी रुचि दक्षिण एशिया में शान्ति बनाये रखने की ही हो।
हर युद्ध का इतिहास बताता है कि युद्ध लड़ने के कई गुप्त कारण भी हुआ करते हैं। हर युद्ध से सबसे ज्यादा लाभ हथियारों के सौदागरों को होता है। चाहे वे घरेलू हों या विदेशी। अगर भारत-पाक युद्ध होता है तो निःसन्देह कमजोर अर्थव्यवस्था की मार झेल रहे भारत पर अनावश्यक आर्थिक बोझ बढ़ेगा। किन्तु इससे भारत में रक्षा उपकरणों और हथियारों की मांग तेजी से बढ़ जायेगी जिसका फायदा उठाने से कोई नहीं चूकेगा। न तो देशी सौदागर न विदेशी। आज की परिस्थितियों में यदि भारत-पाक युद्ध होता है तो उसका सीधा लाभ अमरीका को मिलेगा। क्योंकि भारत उससे हथियार खरीदेगा। जिससे अमरीका की अर्थव्यवस्था में उछाल आयेगा। इधर युद्ध से ध्वस्त हुई दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर आने में कुछ वक़्त लगेगा। इस दौर में घरेलू मांग को पूरा करने के लिए भी इन देशों को भारी मात्रा में आयात करना पड़ेगा। जिसका फायदा अमरीका उठायेगा ही। इतना ही नहीं चीन भी इस मौके पर फायदा उठाने से नहीं चूकेगा। भारत की भौगोलिक सीमाओं से जुड़ा होने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि भारत के घरेलू बाजार को अपने माल से पाटना चीन को बहुत सुविधाजनक लगेगा। इसलिए उसकी रुचि इस युद्ध के हो जाने में ही होगी। यह सही है कि चीन दक्षिण एशिया में भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनते हुए नहीं देख सकता। पर भारत-पाक युद्ध से उभर कर भारत कूटनीतिज्ञ सफलता भले ही प्राप्त कर ले, उसकी ताकत ज्यादा नहीं बढ़ेगी। वैसे भी चीन और पाकिस्तान के बीच कोई रक्षा समझौता तो है नहीं जो चीन पाकिस्तान की मदद को दौड़ा आये। चीन अब क्या मदद को आयेगा जब 1971 में ही नहीं आया। तब तो भारत इतना शक्तिशाली भी नहीं था। फिर भी जब भारतीय फौजें पूर्वी क्षेत्र में पूर्वी पाकिस्तान (बंगला देश) के भीतर बढ़ रही थीं तब अगर चीन पूर्वी क्षेत्र में अपनी हलचल बढ़ा देता तो भारत के लिए विकट स्थिति खड़ी हो जाती। उसे अपनी सीमित फौजों को कई मोर्चों पर लड़वाना पड़ता। पर चीन ने ऐसा नहीं किया। इसलिए अब ऐसा नहीं लगता कि चीन पाकिस्तान की मदद को दौड़ा आयेगा । वैसे भी इस्लामी कट्टरवाद पूर्व के सोवियत यूनियन के चेचन्या जैसे इलाकों में फैल रहा है। उससे चीन का सर्तक होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि पश्चिमी चीन के कई प्रान्त मुस्लिम आबादी वाले हैं। अगर इन प्रान्तों में भी इस्लामी कट्टरवाद फैल गया तो चीन के लिए मुश्किल खड़ी हो जायेगी। इसलिए ऊपर से चाहे जितना मीठा बने, चीन इस लड़ाई में पाकिस्तान की ठोस मदद नहीं करेगा।

भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने इजराइल से अपने जो संबंध पिछले वर्षों में विकसित किए हैं वे भी इस युद्ध में काम आ सकते हैं। लेबनान के आतंकवाद से त्रस्त इजराइल ऐसी परिस्थिति में भारत की मदद करने से नहीं चूकेगा। बहुत आश्चर्य नहीं होगा अगर इजराइल अपनी पैट्रीयाट मिसाइल भारत को दे दे। इस तरह भारत-पाक युद्ध में अगर भारत की निर्णायक जीत होती है तो इसमें शक नहीं कि देश में आतंकवाद काफी हद तक घट सकता है। क्योंकि तब उसे पाकिस्तान की सरपरस्ती नहीं मिलेगी। इसलिए गृहमंत्री का ताजा बयान महत्वपूर्ण है कि अगर लड़ाई होती है तो निर्णायक हो। उधर जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां के भाजपाईयों में यह चर्चा चल पड़ी है कि अगर भारत-पाक युद्ध होता है तो इसका पूरा लाभ उन्हें चुनाव में मिलेगा। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि सत्तारूढ़ दलों की रुचि इस युद्ध के हो जाने में ही है। कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब में यह साफ कहा कि आतंकवाद इस चुनाव में मुद्दा बनेगा। जब उनसे पूछा गया कि क्या अयोध्या में मन्दिर का निर्माण भी उनका चुनावी मुद्दा होगा तो उनका उत्तर था कि मन्दिर कभी चुनावी मुद्दा नहीं रहा। दरअसल भाजपा के नेतृत्व की सोच में आये इस अप्रत्याशित बदलाव की पृष्ठभूमि में यह तथ्य है कि पिछले एक वर्ष में अयोध्या मन्दिर के सवाल को लेकर विहिप के सभी प्रयास जन-भावनाऐं उकसाने में विफल रहे हैं। इसलिए उन्हें यह मुद्दा अब चुनाव के लिए सार्थक नहीं लगता। उत्तर प्रदेश की जनता के बीच विपक्षी दल गुपचुप यह प्रचार करने में जुटे हैं कि भारत-पाक के बीच युद्ध का माहौल चुनावों को ध्यान में रख कर बनाया जा रहा है। शायद यही कारण है कि भाजपा के नेता उत्तर प्रदेश में भीड़ को आकर्षित करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। देश में इस बात की चर्चा है कि अगर इस मौके पर केंद्रीय गृह मंत्री आईएसआई की गतिविधियों पर एक श्वेतपत्र जारी कर दें तो उससे लोगों की भ्रांती काफी दूर होगी और उन्हें मौजूदा हालात में सरकारी कदमों की सार्थकता का औचित्य समझ में आ जाएगा। वैसे जन-भावनाओं का कोई भी आकलन इस समय नहीं किया जा सकता। मूलतः भावावेष में बहने वाली भारतीय जनता का हृदय कब पलट जाये, नहीं कहा जा सकता। युद्ध की मानसिकता राजनैतिक दुश्मनों को भी मित्र बना देती है। फिर जनता तो बिचारी आसानी से भावावेश में आ सकती है।

कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि युद्ध होगा कि नहीं, साफ नहीं कहा जा सकता। पर इतना तय है कि इसका फैसला वाशिग्टन से हरी झंडी मिलने के बाद ही होगा। अगर युद्ध होता है तो उसमें सबसे ज्यादा तबाही पाकिस्तान की होगी। पाकिस्तान यह बखूबी जानता है, इसलिए वहां युद्ध को लेकर कोई उत्साह नहीं है। जबकि भारत में इस बात पर गंभीर चिंतन चल रहा है कि अगर इस मौके का फायदा उठाकर भारत ने पाकिस्तान की लगाम नहीं कसी तो भविष्य में शायद ऐसा मौका जल्द नहीं आए।

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