इसी हफ्ते गुजरात
उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए सरकार को नोटिस जारी
किया है। याचिकाकर्ता ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह बताने की कोशिश
की है कि देशी गाय के मुकाबले जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
होता है। इसलिए दूध विक्रेताओं को दूध के पैकेट या बोतलों पर यह साफ-साफ
लिखना चाहिए कि जो दूध बेचा जा रहा है, वह देशी गाय का है या जर्सी गाय का।
याचिकाकर्ता चिंतन गोहेल ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि जर्सी गाय का
दूध ए/1 श्रेणी का होता है। जबकि देशी गाय का दूध ए/2 श्रेणी का होता है।
यह दूध स्वास्थ्यवर्धक और पाचक होता है। जबकि ए/1 श्रेणी का दूध न केवल
पाचन में तकलीफ देता है, बल्कि कई रोगों का कारण भी बनता है। याचिकाकर्ता
ने यूरोप, अमेरिका और आस्टेªलिया में हुए कई अनुसंधानों का हवाला देते हुए
अपनी बात रखी है। उल्लेखनीय है कि वैज्ञानिक लेखक कीथ वुडफोर्ड ने अपनी
पुस्तक ‘डेविल इन द मिल्क’ (दूध में राक्षस) में बताया है कि किस तरह जर्सी
गाय का दूध पीने से मधुमेह, शीजोफर्निया, हृदय रोग और मंदबुद्धि जैसी
बीमारियां पनपती हैं। विशेषकर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को जर्सी गाय का
दूध बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिए। चिंता का बात यह है कि मदर डेयरी से
लेकर सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विभिन्न नगरों के दूध विक्रेता खुलेआम
जर्सी गायों का दूध बेच रहे हैं और हमारी पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर रहे हैं।
जिन पर कोई रोकटोक नहीं है। इतना ही नहीं गाय का शुद्ध घी नाम से जो घी
देशभर में बेचा जा रहा है, वो भी देशी गाय का नहीं है। याचिकाकर्ता की मांग
बिल्कुल जायज है कि दूध और घी विक्रेताओं को डिब्बे पर साफ-साफ लिखना
चाहिए कि ‘देशी गाय का दूध’ है या ‘देशी गाय का घी’ है। अगर ऐसा नहीं है,
तो साफ लिखना चाहिए कि ‘जर्सी गाय का दूध’ या ‘जर्सी गाय का घी’। साथ ही यह
चेतावनी भी छापनी चाहिए कि जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
होता है।
पिछले दिनों दादरी में जो गौहत्या को लेकर सांप्रदायिक तनाव बना था और जिसके विरोध स्वरूप कुछ मशहूर लोगों ने मुद्दे को अनावश्यक रूप से धार्मिक असहिष्णुता का मुद्दा बना दिया, उस वक्त ही हमने यह बात कही थी कि देशी गाय कोई धार्मिक या भावनात्मक मुद्दा नहीं है। शुद्ध रूप से वैज्ञानिक और आर्थिक मुद्दा है।
भारत के ऋषियों ने हजारों साल के वैज्ञानिक प्रयोगों के बाद योग, आयुर्वेद, गौसेवा, यज्ञ, संस्कृत पठन-पाठन, मंत्रोच्चारण आदि व्यवस्थाओं को व्यापक समाज के हित में स्थापित किया था। उनकी सोच और उनका दिया ज्ञान आज भी विज्ञान की हर कसौटी पर खरा उतरता है। पर इन मुद्दों को धार्मिक या भावनात्मक बनाकर हिंदू समाज का ही एक हिस्सा अपनी जग हंसाई करवाता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इन सब चीजों के वैज्ञानिक व आर्थिक आधार को जोर-शोर से प्रचारित किया जाय। अगर किसी को यह समझ में आ जाए कि देशी गाय उसके गौरस से बने पदार्थ और उसके गोबर और मूत्र से उस परिवार की संपन्नता, स्वास्थ्य, चेतना और आनंद में वृद्धि होती है, तो कोई क्यों गाय बेचे और काटेगा ? ठीक ऐसे ही अगर देशवासियों को पता चल जाए कि जर्सी गाय का दूध पीने के कितने नुकसान है, तो दूध और घी का धंधा करने वाले ज्यादातर लोगों की दुकानें बंद हो जाएगी।
अब सवाल उठता है कि दूध की तो वैसे ही देश में कमी है और अगर यह बवंडर खड़ा कर दिया जाए, तो हाहाकार मच जाएगा। ऐसा नहीं है। हमारे कत्लखाने उस औपनिवेशिक सोच का परिणाम है, जिसने साजिशन गौमाता का उपहास कर भारत के हुक्मरानों के दिमाग में गौवंश का सफाया करने का माडल बेच दिया है। सरकार किसी की भी हो, देशी गायों और उनके बछड़ों और बेलों की नृशंसा हत्या और मांस का कारोबार दिन दूना और रात चैगुना पनप रहा है। इस पर अगर प्रभावी रोक लगा दी जाए, तो पूरे भारत के समाज को सुखी, संपन्न और स्वस्थ बनाया जा सकता है।
चिंता की बात तो यह है कि परंपराओं और देशी इलाज की पद्धतियों का प्रचार-प्रसार करने वाली कंपनियां भी भारत की परंपराओं से खिलवाड़ कर रही हैं। उनके उत्पादों में आयुर्वेद के शुद्ध सिद्धांतों का पालन नहीं होता। पूरी दुनिया जानती है कि प्लास्टिक और प्लास्टिक से बने पदार्थ पर्यावरण के ऊपर आधुनिक समाज का आणविक हमला जैसा है। पर हर आयुर्वेदिक कंपनी प्लास्टिक के लिए डिब्बों और बोतलों में अपना माल बेचने में लगी है। बिना इस बात की परवाह किए कि यह प्लास्टिक देशभर के गांवों, जंगलों और शहरों में नासूर की तरह बढ़ती जा रही है।
कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि देशी गाय, गौवंश, बिना घालमेल के शुद्ध आयुर्वेदिक परंपरा और भारत की पुरातन प्राकृतिक कृषि व्यवस्था की स्थापना ही भारतीय समाज को सुखी, संपन्न और स्वस्थ बना सकती है। इसके लिए हर समझदार व्यक्ति को जागरूक और सक्रिय होना पड़ेगा। ताकि हम मुनाफे के पीछे भागने वाली कंपनियों के मकड़जाल से छूटकर भारत के हर ग्राम को गोकुल बना सकें।