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Monday, December 8, 2025

राजधानी दिल्ली का भविष्य खतरे में! 

सर्वोच्च न्यायालय के ताज़ा आदेश ने दिल्लीवासियों और उनकी भविष्य की पीढ़ियों का जीवन खतरे में डाल दिया है। इस आदेश के अनुसार दिल्ली की सीमा से सटी अरावली पर्वत शृंखला की हरियाली पर दूरगामी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले ने अरावली पर्वतमाला को 100 मीटर की ऊंचाई के आधार पर परिभाषित कर दिया है, जिससे इसके विशाल भाग को कानूनी संरक्षण से बाहर रखा जा रहा है। यह फैसला उत्तर-पश्चिम भारत, ख़ासकर दिल्ली एनसीआर के पर्यावरण के लिए खतरनाक साबित हो सकता है, क्योंकि अरावली न केवल रेगिस्तानीकरण की एकमात्र रोक है, बल्कि यह जल संवर्धन क्षेत्र, प्रदूषण के लिए सिंक, वन्यजीवों के आवास और जन स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

अरावली दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है। यह थार मरुस्थल से आने वाली धूल और प्रदूषण को रोकती है। अगर अरावली के बड़े हिस्से को संरक्षण से बाहर रखा गया, तो दिल्ली-एनसीआर में धूल तूफान, वायु प्रदूषण और जल संकट बढ़ सकता है। अरावली की चट्टानों में दरारें प्राकृतिक जल संवर्धन के लिए अहम हैं। यहां प्रति हेक्टेयर दो मिलियन लीटर जल संवर्धन की क्षमता है, जिससे पूरे क्षेत्र का भूजल स्तर बना रहता है। इसके अलावा, अरावली विविध वन्यजीवों का आवास है, जिसमें सैकड़ों प्रजातियां शामिल हैं।


सुप्रीम कोर्ट ने अरावली को केवल उन्हीं भू-आकृतियों तक सीमित कर दिया है जो स्थानीय स्तर से 100 मीटर ऊंचाई पर हैं। इससे अरावली के लगभग 90% भाग को संरक्षण से बाहर रखा गया है, जिसमें छोटे टीले, ढलानें और बफर क्षेत्र शामिल हैं। यह निर्णय खनन, निर्माण और रियल एस्टेट गतिविधियों के लिए दरवाजे खोल देगा, जिससे जैव विविधता, जल संवर्धन और वायु गुणवत्ता पर गंभीर खतरा होगा। 


सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायिक संरक्षण के सिद्धांतों के खिलाफ भी जा सकता है। अदालतें पर्यावरणीय न्याय के लिए जानी जाती हैं। लेकिन इस निर्णय से ऐसा लगता है कि व्यावसायिक और विकासात्मक हितों को पर्यावरणीय और सामाजिक हितों पर प्राथमिकता दी जा रही है। यह भविष्य में अन्य पर्यावरणीय मामलों में भी खराब उदाहरण साबित हो सकता है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों की लूट को और बढ़ावा मिल सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह निर्णय भारत के पर्यावरणीय संतुलन को गहराई से प्रभावित करेगा। 


अरावली पर्वतमाला के संरक्षण का मुद्दा न केवल पर्यावरणीय और आर्थिक है, बल्कि यह नैतिक और न्यायिक भी है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 48A और 51A(g) में पर्यावरण संरक्षण का अधिकार और कर्तव्य शामिल है, जिसके तहत राज्य और नागरिकों की जिम्मेदारी है कि वे प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करें। जानकारों के अनुसार इस नए निर्णय से यह जिम्मेदारी और अधिकार कमजोर हो रहा है, क्योंकि अरावली के बड़े हिस्से को संरक्षण से बाहर रखकर इसकी प्राकृतिक संपदा का दोहन आसान हो जाएगा।  

अरावली के आसपास रहने वाले स्थानीय समुदाय, आदिवासी, किसान और ग्रामीण इस पर्वतमाला की सुरक्षा के लिए सबसे ज्यादा आवाज उठा रहे हैं। उनका तर्क है कि अरावली न केवल उनकी आजीविका का स्रोत है, बल्कि उनकी संस्कृति और पहचान का हिस्सा भी है। अगर इसकी सुरक्षा नहीं होगी, तो इन समुदायों की जीवन शैली, आस्था और भावनाएं भी खतरे में पड़ेंगी। यह निर्णय न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा, बल्कि सामाजिक असमानता और विस्थापन को भी बढ़ावा देगा। 

राजस्थान में जहाँ बादल उठते थे, वहीं अरावली के जंगल उन्हें बरसाते थे। खनन के कारण अरावली का तापमान 3 से 5 डिग्री तक बढ़ जाता है। पहले जयपुर की झालाना डूंगरी में खनन के कारण दोपहर बाद, जयपुर के अन्य हिस्सों की तुलना में, वहाँ का तापमान 1 से 3 डिग्री अधिक रहता था। सर्दियों में भी झालाना का तापमान जयपुर से अलग रहता था।

खनन अरावली की प्रकृति और संस्कृति — दोनों के विरुद्ध है। इससे हमारी पारिस्थितिकी बिगड़ती है। हाँ, कुछ खनन-मालिकों की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है, परंतु अधिकतर लोगों को सिलिकोसिस जैसी भयानक बीमारियाँ हो जाती हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता है और फिर बीमारी के कारण आर्थिक स्थिति भी खराब होने लगती है।

अरावली की हरियाली ही हमारी अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी का आधार है। जैसे हमारे शरीर का आधार हमारी रीढ़ है, वैसे ही अरावली भारत की रीढ़ है, इसलिए इसकी सुरक्षा आवश्यक है। अरावली को खनन-मुक्त करना ही भारत की समृद्धि का मार्ग है। समृद्धि केवल आर्थिक ढाँचा ही नहीं है; हमारे जीवन-ज्ञान ने हमें 200 वर्ष पूर्व तक 32% जीडीपी तक पहुँचाया था, तब भारत में बड़े पैमाने पर खनन नहीं था। हमारी खेती, संस्कृति और प्रकृति ने ही हमें समृद्ध बनाए रखा था।

अरावली की समृद्धि का ढाँचा खनन में नहीं, बल्कि हरियाली में है। हरियाली से बादल रूठकर बिना बरसे कहीं और नहीं जाते; अरावली में ही अच्छी वर्षा करते हैं। वर्षा का पानी खेतों में खेती करने हेतु रोजगार के अवसर देता है। अरावली के जवानों को अरावली के जल के सहारे खेती-किसानी करने का अवसर मिलेगा।

अरावली पर्वतमाला की परिभाषा को केवल ऊंचाई पर आधारित करना भू-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गलत है। इसकी वास्तविक पहचान उसकी भू-आकृति, जैव विविधता, जल संवर्धन क्षमता और पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित होनी चाहिए। वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि अरावली के छोटे टीले और ढलानें भी जल संवर्धन और वायु गुणवत्ता के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन्हें संरक्षण से बाहर रखना पर्यावरणीय विज्ञान के सिद्धांतों के खिलाफ है। अरावली पर्वतमाला की नई परिभाषा न केवल पर्यावरण के लिए खतरनाक है, बल्कि इससे दिल्ली-एनसीआर के लिए जल सुरक्षा, वायु गुणवत्ता और जन स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा होगा। इस फैसले को समीक्षा के लिए तुरंत लाया जाना चाहिए ताकि उत्तर-पश्चिम भारत की जैव विविधता, जल संवर्धन और जन स्वास्थ्य की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

अरावली की सुरक्षा न केवल वर्तमान पीढ़ी की जिम्मेदारी है, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी एक नैतिक दायित्व है। इसकी रक्षा के लिए नागरिक जागरूकता, स्थानीय समुदायों की भागीदारी, वैज्ञानिक सलाह और नीतिगत समीक्षा जरूरी है। यह सिर्फ एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और नैतिक चुनौती है, जिसे हल करने के लिए सभी को एकजुट होना होगा। अरावली की रक्षा भारत की प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करने के बराबर है, जिसके लिए हर नागरिक को जिम्मेदारी लेनी होगी।