सर्वोच्च न्यायालय में सबसे लंबा चला मुकदमा अब फैसले के इंतजार में है। अदालत फैसला 17 नंबवर को आऐगा। दोनों पक्ष दिल थामकर इसका इंतजार कर रहे हैं। यहां इस केस में दोनों पक्षों द्वारा दिये तर्क-वितर्काें का मैं कोई मूल्यांकन नहीं करूँगा। ये अधिकार तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय का है। जाहिर सी बात है कि फैसला जिसके पक्ष में आएगा, दूसरा पक्ष उसका विरोध करेगा। यह भी निश्चित है कि अगर फैसला हिंदूओं के हक में आता है, तो मुसलमानों को उत्तेजित और आन्दोलित करने का भरसक प्रयास उनके राजनेताओं द्वारा किया जाएगा। अगर फैसला मुसलमानों के पक्ष में आता है, तो हिंदू भी सड़कों पर उतर आऐंगे। दोनों ही स्थितियाँ समाज के लिए अच्छी नहीं होंगी। पर जैसा कि 1990 से मैं और मेरे जैसे अनेकों निष्पक्ष पत्रकार लिखते और बोलते आऐ हैं कि जब तक अयोध्या, काशी और मथुरा में हमारे सबसे पवित्र तीर्थस्थलों पर से मस्जिदें नहीं हटेंगी, तब तक दोनों पक्षों के बीच में सद्भाव आ ही नहीं सकता।
मैं ब्रजवासी हूँ। ब्रजवासी होने के नाते स्वाभाविक रूप से श्रीकृष्ण भक्त हूँ और जब से होश संभाला है, तब से श्रीकृष्ण जन्मस्थान मथुरा के दर्शन करने जाता रहा हूँ। हर बार वहां खड़ी विशाल मस्जिद को देखकर मन में एक चुभन होती है और उस क्षण की याद ताजा हो जाती है, जब वहां स्थित भव्य देवालय को आक्रांताओं ने तोड़कर मस्जिद चिनी थी। हम उस दृश्य के साक्षी नहीं है, पर इतिहास पढ़कर और सुनकर कल्पना करते हैं, तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि हमारे आराध्य की जन्मभूमि पर जिस समय उस भव्य मंदिर को तोड़ा जा रहा होगा, तो वहां मौजूद भक्तों, संतों और ब्रजवासियों कोे कितनी मानसिक यातना हुई होगी। यह भाव मेरी आने वाली पीढ़ियों को भी वैसा ही होगा जैसा हमारी पीढ़ी या हमसे पिछली पीढ़ियों को होता आया है। वह भी तब जबकि हम धर्मान्ध या कट्टरवादी नहीं हैं और दूसरे धर्मों का भी सम्मान करना हमें हमारे माता-पिता ने बचपन से सिखाया है। पर अपने हिंदू धर्म के प्रति हमारी गहरी आस्था है। इसलिए अयोध्या ही नहीं, हम तो मथुरा और काशी से भी इन मस्जिदों को हटाना चाहते हैं। आशा करते हैं कि ऊपर भगवान और नीचे इस देश के शासक सदियों की हमारी इस पीड़ा को शीघ्र दूर करेंगे।
इसलिए मैं बार-बार अपने मुसलमान भाईयों से बड़ी विनम्रता से यही निवेदन करता आया हूं कि वे इस पीड़ा को समझे और भविष्य में आपसी सौहार्द् का वातावरण बनाने के लिए स्वयं ही हिंदू धर्म की इन तीन दिव्य स्थलों से अपनी मस्जिदों को ससम्मान दूसरी जगह ले जाएं। तुर्की की राजधानी इस्तानबुल में मध्य युग की एक ऐतिहासिक इमारत जिसे ‘सोफिया मस्जिद’ कहते थे, मौजूद है। दरअसल ये एक भव्य चर्च था, जिसे मुस्लिम शासकों ने जबरन कब्जा कर मस्जिद बना दिया था। पर तुर्की के दूरदृष्टि वाले आधुनिक शासकों ने इसकी संवेदनशीलता को समझा और उसे मुसलमानों की इबादत के लिए बंद कर दिया। इतना ही नहीं मुस्लिम आक्रंताओं ने यीशू मसीह के जीवन से संबंधित दीवारों पर जो विशाल भव्य चित्र बने थे, उन पर कई सदियों पहले पलस्तर करके उन्हें छिपा दिया था। पर अब वह सब हटा दिया गया है और ‘सोफिया चर्च’ जनता के दर्शनार्थ खोल दिया गया है। जहाँ जाकर आपको मस्जिद होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। ये उस देश में हुआ, जो मुस्लिम देश है। तो भारत में, जहाँ हिंदू धर्म की परंपरा इस्लाम से 4000 वर्ष से भी पहले की है और जहाँ की बहुसख्यंक आबादी हिंदू है, वहाँ ये क्यों नहीं हो सकता?
अगर अदालत का फैसला हिंदूओं के पक्ष में आता है, तो उन्हें संयम बरतना चाहिए। हर्ष और उत्साह के अतिरेक में ऐसा कुछ न करे जिससे समाज में वैमनस्य फैले और हिंसक संघर्ष हो। बल्कि मुस्लिम समाज को आश्वासन देना चाहिए कि वे अयोध्या में उनकी नई मस्जिद के निर्माण में तन, मन और धन से सहयोग करेंगे। अगर अदालत बहुसंख्यक हिंदूओं की भावना और वकीलों के तर्क को दरकिनार कर फैसला मुसलमानों के पक्ष में दे देती है, तो इसे अपनी कानूनी जीत मानकर, मुसलमानों को एक उदार भाई की तरह हिंदूओं को राम जन्मभूमि सौंप देनी चाहिए। यह कहते हुए कि हम कानून की लड़ाई जीत गये, पर अब हम आपका दिल जीतने का काम करेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि फैसला जो भी आऐ, समाज में सौहार्द बना रहे और बहुसंख्यक हिंदूओं की आस्था के इतने बड़े केंद्र पर भविष्य में तनाव की जगह भजन और भक्ति का वातावरण बने।
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