Sunday, April 12, 2009

आर्थिक पैकेज या अपराधियों को ईनाम

भारत में हर दल का नेता वोटों के लिए देश की जनता को सपने दिखाने में जुटा है। जबकि हालत यह है कि नये सपने पूरे होना तो दूर मौजूदा हालात में अर्थव्यवस्था को चलाये रखना ही एक बड़ी चुनौती बन चुका है। अभी हमारे देश के लोगों को इस मंदी के कारणों का पूरी तरह से अंदाजा नहीं है। पर जैसे-जैसे दुनिया के समझदार लोग समझते जा रहे हैं, जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। अब यह साफ हो चुका है कि पिछली दशाब्दी की आर्थिक प्रगति एक बहुत बड़ा धोखा था, जालसाजी थी और आम जनता की लूट का सामान था। लोगों को यह समझ में आ रहा है कि अपने अधिकारियों को करोड़ो रूपये महीने के वेतन देने वाली कम्पनियाँ जनता के साथ कैसा धोखा कर रही थीं। भारत में हुआ सत्यम घोटाला तो एक झलक मात्र है। आजकल ई-मेल के माध्यम से पूरी दुनिया में इस खेल के जानकार लोग तमाम तरह की सूचनाऐं एक दूसरे को भेज रहे हैं। जिनमें दुनिया के प्रमुख औद्योगिक घरानों के सत्यम जैसे घोटालों के समाचार फ्लैश किये जा रहे हैं। ये ई-मेल भेजने वाले सवाल कर रहे हैं कि तमाम तथ्य मौजूद होने के बावजूद क्या वजह है कि सरकारें इन कम्पनियों के विरूद्ध जाँच नहीं करवा रही?

क्या वजह है कि भारत में सरकार पर दोष मढ़ने वाले विपक्ष के नेता भी इन मामलों पर खामोश रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि चुनाव के दौर में इन कम्पनियों के मालिकों ने विपक्षी राजनेताओं को भी मोटी थैलियाँ देकर खामोश कर दिया है? इसलिए भ्रष्टाचार की बात तो हर दल का नेता कर रहा है पर अपने वक्तव्यों में सत्यम जैसे घोटाले की जाँच की माँग करने की हिम्मत इनमें से किसी की नहीं है। शायद उन्हें डर है कि इस प्रक्रिया में कहीं उनका औद्योगिक जगत से नाता न बिगड़ जाये।

पर दुनिया के जागरूक नागरिक और चार्टर्ड एकांटेट, जो वित्तीय बाजार के खेल को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस सबसे बहुत उद्वेलित हैं। इनका आरोप है कि पिछली दशाब्दि में जितने भी लोग खरबों रूपये के लाभ कमाकर बड़े पैसे वाले बने हैं, उन्होंने अपने-अपने देश में वित्तीय व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाकर आम जनता को लूटा है। जनता को शेयर बेचकर उसके खून-पसीने की गाढ़ी कमाई बटोरना और उसके ही पैसे से कम्पनियाँ खड़ी करना और ऐशो-आराम की जिंदगी में पैसे को धुएँ में उड़ाना, ये इन रईसों का पेशा रहा है। इसलिए इन वर्षों में शेयर बाजारों में हवाई किले बनाये गये। मसलन अमरीका में पिछले दशक में औद्योगिक जगत का मुनाफा कुल सकल घरेलू मुनाफे का 41 प्रतिशत था। इस तरह आम लोगों में शेयर मार्केट की ललक पैदा की गयी। आम जनता अपने मेहनत की, खून पसीने की कमाई इनके शेयरों में लगाती रही और उसके बैंकर और सलाहकार उसे गुमराह कर शेयरों का तेजी से हस्तांतरण करते और करवाते रहे। इस तरह इन वित्तीय सलाहकारों ने अपने आम निवेशकों को जमकर उल्लू बनाया और अपना उल्लू सीधा किया। अब जब गुब्बारा फूटा तो अर्थव्यवस्था का काल्पनिक रूप से उठना और इतनी नीचाई तक जाकर गिर जाना कितने ही युवाओं और काबिल लोगों को बर्बाद कर चुका है। उनके जीवन भर की कमाई डूब चुकी है। हताशा में ऐसे लोग आत्महत्यायें कर रहे हैं।

दुनिया के कई देशों की जनता में आक्रोश है कि उनकी सरकारों ने ऐसा क्यों होने दिया? क्यों नहीं आम जनता के हक की रक्षा की? बात इतनी सी नहीं है। अब इन घोटालेबाज कम्पनियों की जाँच करने की बजाये या दोषियों को सजा देने की बजाये सरकारें इन कम्पनियों को मोटे-मोटे आर्थिक पैकेज देकर नव जीवन प्रदान कर रही है। इसमें गलत कुछ भी नहीं था अगर ये सामान्य स्थिति में किया जाता। क्योंकि डूबती अर्थव्यवस्था को उबारना सरकार का कर्तव्य होता है। पर अगर आपराधिक रूप से आर्थिक साजिशें करके अर्थव्यवस्था का नकली महल खड़ा किया गया हो और वो धराशायी हो जाये तो इसे अपराध ही माना जाना चाहिए। फिर अपराधियों को सजा मिलनी ही चाहिए। क्योंकि अगर ऐसे आर्थिक अपराधियों को आर्थिक पैकेज देकर बचाया जायेगा तो दो बाते होंगी। एक तो भविष्य के लिए कोई सबक नहीं सीखेगा। दूसरा इन बड़े लोगों के आर्थिक घोटालों और अपराधों का खामियाजा भी आम जनता को ही भुगतना पड़ेगा। क्योंकि जो मोटी रकम इन्हें पैकेज के तौर पर इन्हें बैंकों से मिल रही है वह भी दरअसल छोटे व मझले लोगों की जीवन भर की कमाई है। अब अगर बैंकों में या सरकार के बाॅण्डों में लगा उनका यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विनियोग भी डूब जाता है तो उनकी रही-सही बचत भी हाथ से निकल जायेगी। देश कंगाली के रास्ते पर चल पड़ेंगे।

इस चुनाव में बहुत सारे टी.वी. चैनल जनता की आवाज उठाने का दावा कर रहे हैं। पर आश्चर्य की बात है कि इन सवालों को पूछने के लिए न तो वे वित्तीय जानकारों को बुला रहे हैं और न ही उनका सामना बड़े राजनेताओं से करवा रहे हैं। केवल बयानों की राजनीति और टी.वी. स्टूडियो में बुलाकर नूरा कुश्ती करवाकर ये चैनल जनता का कोई भला नहीं कर रहे। पर यह मुद्दा आज उतना ही गम्भीर है जितना भ्रष्टाचार और आतंकवाद का। चुनाव के दौर में इस पर बहस हो या न हो, पर चुनाव के बाद यही मुद्दा सबके गले की फांस बनने वाला है। कमजोर और मिली जुली सरकार अगर केन्द्र में काबिज होती है तो वह सहयोगी दलों की ब्लैकमेलिंग के आगे कुछ भी ठोस करने में सक्षम नहीं होगी। ऐसे में हालात बद से बदतर होंगे। देश के निष्पक्ष अर्थशास्त्रियों और वित्त विशेषज्ञों को इन सवालों पर जनता के बीच एक बहस खड़ी करनी चाहिए। जनता को सच्चाई बतानी चाहिए। उसे भविष्य के लिए आगाह करना चाहिए। उन्हें ही इस भंवर से निकलने का रास्ता सुझाना चाहिए।

Sunday, April 5, 2009

स्विस बैंकों के गोपनीय खातों पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव


आर्थिक मंदी और ओबामा की ऐतिहासिक सफलता ने दुनिया का एक भला कर दिया। अमरीका ने स्विस बैंकों पर दबाब डालकर अपने देश के ढाई सौ ऐसे धनाढ्य लोगों के गोपनीय खाते खुलवा लिये जिन्होंने अवैध रूप से स्विटजरलैंड के यू.बी.एस. बैंक में 3120 करोड़ रूपया जमा कर रखा था। दुनिया के पाँच देशों का नाम काला धन जमा करने वालों में सबसे ऊपर है। ये हैं: भारत, रूस, इंग्लैंड, यूक्रेन व चीन। आश्चर्य की बात ये है कि इस सूची में न सिर्फ भारत का नाम सबसे ऊपर है बल्कि भारत की स्विस बैंकों में अवैध रूप से कुल जमाराशि शेष दुनिया के देशों के  कुल काले धन से भी ज्यादा है। एक आंकलन के अनुसार भारत का 70 लाख करोड़ रूपया इन बैंकों में जमा है। अमरीका की तरह अगर यह धन भारत में वापिस आ जाता है तो भारत के हर गरीब परिवार को 10 लाख रूपये मिलेंगे। यह धन आने से न सिर्फ भारत की गरीबी भी मिट जायेगी बल्कि  भारत विदेशी ऋण से भी मुक्त हो जायेगा।

इतनी बड़ी रकम का अवैध रूप से बाहर जाना यह सिद्ध करता है कि आजादी के बाद भारत के नेताओं, अधिकारियों, उद्योगपतियों, क्रिकेट और फिल्म सितारों, ड्रग माफियाओं आदि ने भारत को लूट-लूटकर ही यह अकूत दौलत विदेशों में जमा की है। दरअसल स्विस बैंकों का काम करने का तरीका इतना गोपनीय है कि दाहिने हाथ को पता नहीं चलता कि बाँया हाथ क्या कर रहा है? इसलिए भारत के ये भ्रष्ट धनाढ्य भाग-भाग कर अपना अवैध धन स्विस बैंकों में जमा करवाते रहे हैं। इन बैंकों में खाता खोलने का तरीका बड़ा जटिल है। बैंक के मैनेजर और कर्मचारियों तक को नहीं पता होता कि किस खाते में किस व्यक्ति की रकम है। इस व्यवसाय के जानकार बताते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपनी अकूत दौलत स्विस बैंक में जमा करने आता है तो वह बैंक के मैनेजर से संपर्क करता है। यदि मैनेजर को लगता है कि यह ग्राहक ठीक-ठाक है तो वह उसे बैंक के दो ऐसे अधिकारियों से मिलवा देता है जो उस व्यक्ति का खाता खुलवाने का काम करते हैं। ये दो या तीन व्यक्ति उन अधिकारियों में से होते हैं जिनकी विश्वसनीयता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। इन्हें नए खाताधारी का बैंकिंग सचिव कहा जाता है। खाता खोलने की सब औपचारिकताएं ये ही पूरी करवाते हैं और सब कागजात पूरे हो जाने के बाद खाताधारी को स्विस बैंक का एकाउंट नंबर दे देते हैं। किंतु अपनी फाइल में असली खाता नंबर न डालकर एक कोड नाम डाल देते हैं। मसलन अगर खाता खोलने वाले का नाम राजकुमार लालवानी है तो उसके खाते का नंबर हो सकता है प्रिंस रेड 98। खाते का नंबर ग्राहक को बताने के बाद उसका कोड फिर बदल दिया जाता है और अब संबंधित बैंकिंग सचिव इस खाते से संबंधित फाइल को बंद करके एक ऐसे कक्ष में ले जाते हैं जहाँ काउंटर के ऊपर धुंधले कांच की दीवार बनी होती है। इस दीवार की तली में जो बारीक-सी झिरि होती है उसमें से होकर नए खातेदार की यह गोपनीय फाइल दूसरी तरफ सरका दी जाती है। दूसरी तरफ जो व्यक्ति उस फाइल को लेता है उसे यह नहीं पता होता कि यह फाइल किसकी है और शीशे के बाहर से फाइल देने वाले बैंकिंग सचिवों को यह नहीं पता होता कि शीशे के दीवार के पीछे इस फाइल को किसने लेकर लाॅकर में रखा है। इस तरह नए खातेदार के खाते से संबंधित जो पाँच-छह लोग होते हैं उनमें से किसी को भी पूरी जानकारी नहीं होती।

इस काम में जो कर्मचारी लगे होते हैं वे बैंक के विश्वसनीय अधिकारी होते हैं और इस बात के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है कि गोपनीय जानकारी बाहर नहीं जाएगी। मजे की बात तो यह है कि स्विस बैंक में धन जमा करने वालों को ब्याज मिलना तो दूर इस धन के संरक्षण के लिए उन्हें नियमित फीस देनी होती है। इस तरह स्वीट्जरलैंड में अथाह धन जमा हो गया है। आबादी थोड़ी सी, जीवन स्तर में ज्यादा तड़क-भड़क की गुंजाइश नहीं इसलिए उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा धन उनके लिए उपलब्ध है। स्विस नागरिक अब तक यह मानते आए थे कि धन कहाँ से आ रहा है इसका उनसे कोई सारोकार नहीं। उनके लिए हर तरह के धन का रंग समान था और वे किसी का भी धन लेने में संकोच नहीं करते थे। वे बैंकिंग को शुद्ध आर्थिक व्यवसाय के रूप में देखते थे। पर फिर स्थिति बदली।

उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि दुनिया भर मे गरीबी, कुपोषण व भूख बढ़ती जा रही है। दुनिया के तमाम देशों के भ्रष्ट नेता और नौकरशाह अपने भ्रष्ट आचरण के कारण जनता को दुख दे रहे हैं। नशीली दवाओं के सेवन से समाज और बचपन प्रदूषित हो रहे हैं। ऐसे माहौल में स्वीट्जरलैंड दुनिया के प्रति सारोकार से उदासीन होकर नहीं रह सकता। मानवीय संवेदनाओं से शून्य होकर भी नहीं रह सकता। जब दुनिया भर के अपराधी स्वीट्जरलैंड में चोरी का धन छुपाएंगे तो स्वीट्जरलैंड इस अनैतिकता के पाप का भागीगार बने बिना नहीं रह सकता। ऐसे विचारों ने स्वीट्जरलैंड के नागरिकों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया। इसके साथ ही दुनियाभर में स्विसबैंकों के खातों के प्रति जागरूकता और उनमें अवैध रूप से जमा अपने देश का धन वापस देश में लाने की माँग कई देशों में उठने लगी।

इस सबका नतीजा यह हुआ कि स्विस नागरिकों ने अपने संविधान में संषोधन किया। चूंकि स्वीट्जरलैंड दुनिया का सबसे परिपक्व लोकतंत्र है इसलिए वहाँ हर कानून बनने के पहले जनता का आम मतदान कराया जाता है। बहुमत मिलने पर ही कानून बन पाता है। इसलिए जब स्विस नागरिकों को नैतिक दायित्व का एहसास हुआ तो उन्होंने एक कानून बनाया जिसके अनुसार अब स्विसबैंकों में खोले गए खाते गोपनीय नहीं रहे। स्वीट्जरलैंड की या अन्य किसी भी देश की सरकारें इन खातों की जानकारी प्राप्त कर सकती हंै। इसके लिए करना सिर्फ यह होगा कि संबंधित देश को उस व्यक्ति के खिलाफ, जिसके स्विस खाता होने का संदेह है, एक आपराधिक मामला दर्ज करना होगा। इसके बाद उस देश की सरकार स्वीट्जरलैंड की सरकार को आधिकारिक पत्र लिखेगी जिसमें उस व्यक्ति के विरूद्ध दर्ज आपराधिक मामले का हवाला देते हुए स्वीट्जरलैंड की सरकार से अनुरोध करेगी कि वह पता करके बताए कि उस व्यक्ति का कोई गोपनीय खाता स्वीट्जरलैंड के बैंकों में तो नहीं है ? इस पत्र के प्राप्त हो जाने के बाद स्वीट्जरलैंड की सरकार सभी बैंकों इस पत्र की प्रतिलिपियाँ भेजेगी और उन बैंकों से यह जानकारी मांगेगी। अगर किसी बैंक में संबंधित व्यक्ति का गोपनीय खाता चल रहा होगा तो बैंक को उसकी पूरी जानकारी अपनी सरकार को देनी होगी। स्वीट्जरलैंड की सरकार यह जानकारी संबंधित देश में भेज देगी। आवश्यकता पड़ने पर वह गोपनीय खाते में जमा रकम को भी उस देश को लौटा देगी। ऐसा कई मामलों में हो चुका है। इसलिए अब स्विस बैंकों में जमा अवैध धन गोपनीय नहीं रह सकता। बशर्तें कि खाताधारक के विरूद्ध उसके देश में आपराधिक मामला दर्ज हो। 

यह आश्चर्य की बात है कि ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाले हमारे पिछले कई प्रधानमंत्रियों ने स्विस बैंकों से यह जानकारी माँगने की पहल नहीं की। जबकि अन्य कई देश ये पहल कर चुके हैं। भारत से लगभग 80 हजार लोग हर वर्ष स्विट्जरलैंड जाते हैं। इनमें 25 हजार लोग ऐसे हैं जो स्विट्जरलैंड का दौरा साल में कई बार करते हैं। ऐसे लोगों पर खुफिया जाँच करके इनके चाल-चलन से इनके बैंकों तक पहुँचा जा सकता है। बशर्ते कि सरकार यह करना चाहे। ओबामा की पहल से पे्ररित होकर इस चुनाव के पहले भारत में स्विस बैंकों से काला धन वापिस लाने के लिए एक माहौल बनाया जा रहा है। जो एक शुभ लक्षण है। पर चिंता की बात यह है कि यह माहौल वे लोग बना रहे हैं जो सीधे संघ और भाजपा से जुड़े हैं और इनका लक्ष्य कालाधन वापिस लाना नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर हमला बोलना है। ये सिद्ध करना चाहते हैं कि व्यक्तिगत जीवन में ईमानदार रहने वाले मनमोहन सिंह इतने बड़े मुद्दे पर बेईमानों को संरक्षण दे रहे हैं। इससे ज्यादा गम्भीरता इस अभियान की नहीं है। अगर वाकई आडवाणी जी को या वाजपेयी जी को भारत के काले धन की इतनी फिक्र थी तो एन.डी.ए. के 6 साल के शासन के दौरान उन्होंने यह पहल क्यों नहीं की? जबकि स्विट्जरलैंड बैंकों की गोपनीयता से सम्बन्धित अपने कानून में तभी संशोधन कर चुका था। जो भी हो यह मुद्दा भारत के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण है। पर इसको तभी उठाना उचित होगा जब यह आन्दोलन जनता की तरफ से हो और जनता किसी भी राजनैतिक दल को इस आन्दोलन का नेतृत्व न करने दे। पर यह आन्दोलन चुनावों के बाद शुरू हो और तब तक चले जब तक हम अपने देश की इस दौलत को वापिस नहीं ले आते। चुनाव से पहले यह गम्भीर मुद्दा राजनीति का शिकार बनकर रह जायेगा।

Sunday, March 29, 2009

गांधी का ग्राम स्वराज्य वैश्विक चर्चा में

Rajasthan Patrika 29 Mar 2009
अमरीका और यूरोप की अर्थव्यवस्था के स्तम्भ धराशाही हो रहे हैं। फ्रैडीमाई लेहमैन ब्रदर्स, मैरिल लिंच  जैसी बीमा कंपनियां चित्त पड़ी हैं। अमरीका में केवल पिछले महीने में 6 लाख लोग बेरोजगार हो गये हैं। रूस में भी लाखों बेरोजगार अपराध की तरफ बढ़ रहे हैं। उधर जापान की भी हालत बिगड़नी शुरू हो गयी। जपान की कारों और इलैक्ट्रोनिक उपकरणों का सबसे बड़ा बाजार अमरीका था। पर आज के हालात में जब आम अमरीकी अपनी नौकरी ही नहीं बचा पा रहा तो कार कहां से खरीदेगा ? इसलिए इनके निर्यात में 30 फीसदी तक गिरावट आ चुकी है। चूंकि चीन में श्रम सस्ता होने के कारण पश्चिमी देशों के सभी मशहूर ब्राण्डों का उत्पादन चीन में ही हो रहा था। इसलिए आर्थिक मंदी की इस मार का सीधा असर चीन पर पड़ा है। जहां हजारों कारखानें बन्द हो चुके हैं और करोड़ों लोग बेरोजगार हो चुकें है। भारत में मंदी का असर धीरे-धीरे फैलता जा रहा है। पर भारत की ज्यादातर जनता सौभाग्यवशाली है क्योंकि वह आज भी कृषि पर आधारित जीवन जीती है। इसलिए उस पर इस मंदी का वैसा असर नहीं पड़ेगा जैसा विकसित देशों में पड़ रहा है। अलबत्ता भारत के शहरों में रोजगार तेजी से गिरते जा रहे हैं। लगता तो यह भी है कि चुनाव का बुखार उतरते ही अर्थ व्यवस्था का नग्न चेहरा देश के सामने आएगा।

इन हालातों में महात्मा गांधी की लघु पुस्तिका ग्राम स्वराज्यकी सार्थकता और मांग पूरी दुनिया में फिर बढ़ रही है। देखने में तो यह लघु पुस्तिका एक राजनैतिक पर्चे से ज्यादा नहीं है। भाषा भी सरल है। विचार भी सीधे सपाट हैं। पर इसमें जो बातें कहीं गयी हैं वे इतनी सटीक हैं कि आज आठ दशक बाद भी खरी की खरी हैं। लोगों को ही नहीं बल्कि नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों को यह साफ दिख रहा है कि उदारीकरण, औद्यौगिक साम्राज्यों का केन्द्रीय कृतनियंत्रण और वैश्वीकरण आर्थिक संकट से उबारने में सक्षम नहीं है। अब फिर सार्वजनिक क्षेत्रों, कम खर्चीली प्रशासनिक व्यवस्थाओं और अनावश्यक उपभोग पर कटौती करने की जरूरत महसूस की जा रही है। साथ ही यह भी समझ में आ रहा है कि पर्यावरण के साथ भी संतुलन बनाए बिना बेड़ा पर नहीं होगा। इसलिए दशकों बाद गांधी की छोटी सी पुस्तिका ग्राम स्वराज को धूल के ढेर से निकाल कर फिर चाव से पढ़ा जा रहा है। दुनिया भर के अर्थशास्त्री गांधी को समझने की कोशिश कर रहे हैं और उसमें से रास्ता खोज रहे हैं। उधर दुनिया भर के पर्यावरणविद् प्रकृति के साथ किये जा रहे खिलवाड़ को लेकर बहुत चिंतित है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर दुनिया के देशों के हुक्मरान नहीं सुधरे तो आने वाले वर्षों में हर देश मंे गृह युद्ध छिड़ जाएगा। क्योंकि अस्तित्व के लिए आवश्यक खेत, हवा, पानी और जंगल पर भारी संकट छाया है। तकलीफ की बात तो यह है कि इतनी भयावह स्थिति के द्वार पर खड़े होकर भी हमारे हुक्मरान न तो जाग रहे हैं। न सोच रहे हैं और  न कुछ ऐसा नीतिगत बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे भारत पश्चिमी मकड़जाल से निकल कर अपनी क्षमता और अपनी सीमाओं के साथ एक मजबूत राष्ट्र बन सके।

स्वयंसेवी संस्थाओं, बुद्धिजीवियों और जागरूक युवाओं के स्तर पर देशभर में सैकड़ों प्रयास चल रहे हैं। जो गंभीर भी हैं और सार्थक भी। यह हमारा दुर्भाग्य है कि टीवी और प्रिंट मीडिया इन प्रयासों को नजर अंदाज कर रहा है। यह सही है कि गत दस वर्षों में मीडिया की जो भारी तरक्की हुई है वह इस वैश्वीकरण का ही एक हिस्सा है। पर अब जब यह तिलिस्म टूट रहा है तो मीडिया को भी अपना रवैया बदलना पड़ेगा। उसे जमीनी हकीकत को समझना होगा और उसके अनुरूप अपने को ढालना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो हालात उसे मजबूर कर देंगे। प्रमाण सामने है। देश के सर्वाधिक सफल टीवी समाचार चैनलों को आज अपने खर्चों में भारी कटौती करनी पड़ रही है। उनके स्टाॅफ के पांच सितारा जीवन पर लगाम कस रही  है। यहां तक कि घटनाओं का कवरेज करने अब पहले की तरह ओ बी वैन नहीं दौड़ रही। नई भर्तियां बन्द है। वेतन वृद्धि का तो कोई मामला ही नहीं बनता। चुनाव की गर्मी में गाड़ी दो महीने खिंच जाऐगी। पर चुनाव के बाद तो काफी चैनलों के बंद होने के हालात पैदा होने जा रहे हैं।

ऐसे माहौल में समाज के हर क्षेत्र में आत्म विश्लेशण की जरूरत है। क्या हम तीसा की महामंदी से भी बुरे हालात में जाकर ही संभलेंगे ? क्या हमारा समाज सामूहिक आत्म हत्याओं के लिए तैयार हैं या भारत के सनातन सिद्धांत को फिर से समझ कर अपनाने के लिए हम अपना दिमाग खोलने को तैयार हैं ? वे सिद्धांत जो हमें इस भंवर से निकाल कर वास्तविक सुख दे सकते हैं। वो सिद्धांत जो हम सुनते तो बचपन से आए थे पर आचरण नहीं किया। जैसे सादा जीवन उच्च विचार, अगर प्रकृति से जो कुछ  लो तो प्रकृति को वापिस करो, जल, जमीन, जंगल, वायु को भगवान मान इनकी पूजा करो। इनका विवेकपूर्ण दोहन करो, इन्हें बिगाड़ों मत, मौसम और प्रकृति के अनुरूप भोजन करो और श्रम आधारित जीवन जीकर शरीर और मन दोनों को स्वस्थ रखो। हाथी-घोड़े, सोना, चांदी आदि असली धन नहीं हैं। असली धन तो है संतोष धन जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समानइन सिद्धांतों पर चलकर दुनिया का कोई भी देश सुखी हो सकता है। पर यह ज्ञान दुनिया को भारत के सिवाय कौन देगा ? दुख की बात तो यह है कि टीवी चैनलों पर इन सिद्धांतों को रात-दिन बखान करने वाले हमारे धर्माचार्य ही इन सिद्धांतो के विपरीत जीवन जी रहे हैं। पांच सितारा भोगवादी जिंदगी जीने वाले तथा कथित संत-महंत लोगों को सनातन धर्म की क्या शिक्षा देंगे ? इसलिए लोगों को हकीकत बताने वाला कोई नहीं। अब तक पश्चिमी विकास माॅडल की चकाचैंध हमें अपने आकर्षण से खींचे लिए जा रही थी। पर अब वहां अंधेरा है। किसी को रास्ता नहीं सूझ रहा। रास्ता मिलेगा तो भारत के इन्हीं सनातन मूल्यों में से। गांधी के ग्राम स्वराज्य में से। दादी-नानियों के उपदेशों में से। पर कोई सुनने वाला तो हो। अगर नेता, मीडिया, धर्माचार्य व बुद्धिजीवी इन बातों को समझ लेंगे तो सही दिशा की तरफ लौटना सरल हो जाएगा। अगर हम अभी भी पश्चिम के मोह में फंसे रहेंगे तो हालात हमें और हमारे हुक्मरानों को अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर देंगे।

Sunday, March 22, 2009

पैट्रोल में घाटा नहीं मुनाफे का खेल जनता की आँखों में धूल झौंक रही है सरकार

Rajasthan Patrika 22 Mar 2009
लोग ये समझ नहीं पा रहे थे कि दुनिया में पैट्रोल और डीजल की कीमतें गिर रही हैं तो भारत में क्यों नहीं? प्रधानमंत्री और तेल मंत्री यही कहते रहे कि तेल कम्पनियाँ घाटे में चलती रहे भले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड आॅयल की कीमतें कम हों परन्तु भारत की तेल कम्पनियों का घाटाबरकरार है। इसलिए पैट्रोल और डीजल की कीमतें कम नहीं की जा सकतीं। उधर सरकार ने उड्डयन टरवाइन फ्यूल (ए.टी.एफ.) जो हवाई जहाज का ईंधन है, उसकी कीमत अगस्त 2008 से जनवरी 2009 के बीच 55 प्रतिशत कम कर दी। किन्तु डीजल पैट्रोल आदि की कीमतें इसी दर से कम करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। जवाब ये था कि इसमें ‘‘घाटा’’ आड़े आ रहा है। 24 फरवरी, 2009 को सरकार ने संसद में एक सवाल के जवाब में कहा कि पैट्रोल, डीजल, किरासिन तेल और एल.पी.जी. की कीमत सरकार आम उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण करते हुए तय करती है किन्तु अन्य पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें आॅयल मार्केटिंग कम्पनियाँ बाजार के व्यापारिक हालत को मद्देनजर रखकर स्वंय तय करती हैं। यहाँ एक रोचक विरोधाभास है, जो कीमत व्यापारिक हालत के आधार पर तय होती है वह तो 55 प्रतिशत कम हो गई और जो उपभोक्ता के हित के संरक्षण के लिये तय की जाती है, उनकी कीमतें केवल 5 रूपया पैट्रोल पर कम की गईं और 2 रूपया डीजल पर कम की गईं। यानि 10 प्रतिशत ही घटाई गईं। क्या यही आम उपभोक्ता के हित संरक्षण का नमूना है?

सरकार की जनहित नीतियों का एक और उदाहरण यह है कि उसने तय किया है कि तेल कम्पनियाँ अपने अर्जित लाभ का 2 प्रतिशत सामाजिक सुधार कार्यों पर व्यय करे। जबकि ये कम्पनियाँ मात्र 0.75 प्रतिशत से 1 प्रतिशत तक ही इस मद में खर्च कर पायी है। यानि जनता को दोहरी मार। लगता है कि सरकार को देश के डीजल व पैट्रोल उपभोक्ताओं से कुछ विशेष ही लगावहै। तभी तो सरकार इन उत्पादों की कीमतें कम करने से सदैव कतराती रही है। ट्रेड पैरिटी प्राइजिंग सिस्टम जिसे खुद सरकार ने ही बनाया था, उसके अनुसार डीजल का दाम 31.83 रूपये प्रति लीटर आंका गया था। फिर भी दिल्ली में डीजल इससे कहीं ज्यादा कीमत पर बेचा जाता रहा। आखिर क्यों?

आश्चर्य है कि केन्द्र सरकार पैट्रोल के मामले में कितनी बहादुरी से झूठ बोलती है फिर वो चाहंे यूपीए की हो चाहें एनडीए की। सारे देश ने अखबारों में पढ़ा कि गत महीनों में देश के प्रधानमंत्री से लेकर पैट्रोलियम मंत्रालय के मंत्री व सचिव तक ने तेल कम्पनियों के घाटे में जाने की बात बार-बार कही। संसद में भी सरकार ने इस झूठ को सच बनाने में कसर नहीं छोड़ी। दिसम्बर, 2008 मंे लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में भी बतलाया गया कि आई.ओ.सी., बी.पी.सी., एस.पी.सी. को अप्रैल से सितम्बर, 2008 के बीच क्रमशः रूपये 6632.00, 3691.96, 4107.04 करोड़ रूपये का कुल घाटा हुआ है। जबकि फरवरी में एक अन्य प्रश्न के उत्तर में सरकार ने इसके बिल्कुल विपरीत बात कही क्योंकि उसे एक जागरूक सांसद ने आंकड़ों के आधार पर कटघरे में खड़ा कर दिया।

यह तो मानी हुई बात है कि पैट्रोलियम क्षेत्र विश्व में उन उद्योगों में से एक है जो अधिकतम लाभकारी उद्योग है। इसलिए देश में भारी अनियमिततायें, भ्रष्टाचार और अकुशलता और सरकारी लूट होते हुए भी यह उद्योग लाभकारी बना हुआ है। शायद इसीलिए इसमें बर्बादी ंभी ऊँचे दर्जे की होती है। गत सात वर्षों के दौरान 2001-2002 से 2007-2008 तक ओ.एन.जी.सी. ने देश में क्रूड आॅयल उत्पादन बढ़ाने के लिए 38,000.72 करोड़ रूपये का विनियोग किया। किन्तु उत्पादन के नाम पर बढ़ोत्तरी मात्र 1.237 मिलियन मीट्रिक टन ही हुई। 2001-2002 के दौरान देश में 24,708 मिलियन मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ था। सरकार की कार्यकुशलताका इससे बेहतर नमूना और क्या होगा कि 38,000 करोड़ रूपये का निवेश करने के बाद मात्र एक मिलियन मीट्रिक टन की ही बढ़ोत्तरी हुई। 

जनता की हितैषी सरकार जनता को मूर्ख बनाकर पैट्रोलियम क्षेत्र से किस प्रकार कर आदि के माध्यम से धन एकत्रित करती है यह भी देखने की बात है। बीते साल को ही हम देखें तो वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार ने 8 प्रकार से कर व उपकर आदि जनता पर लादकर 1,04,134 करोड़ रूपया वसूला। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें भी जनता को लूटने में केन्द्र सरकार से पीछे नहीं रहीं। उन्होंने 5 तरह के कर जनता पर थोप कर 63,445 करोड़ रूपया इकट्ठा किया है। इतना ही नहीं केन्द्र सरकार ने डेवलपमेंट फंड के नाम से प्रति टन क्रूड उत्पादन पर 2500 रूपया कर लगा रखा है। यदि इसे भी केन्द्र सरकार के पैट्रोलियम राजस्व में जोड़े तो यह राशि और भी बढ़ जायेगी। वित्तीय वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार का कुल राजस्व लगभग 6,00,000 करोड़ रूपये का था। उसमें से करीब 25 प्रतिशत पैट्रोलियम क्षेत्र पर कर थोप कर ही वसूला गया है। जबकि दूसरी ओर प्रचार जारी है कि हमारे देश की तेल कम्पनियाँ घाटे में चल रही हैं। अतः पैट्रोल और डीजल की कीमत कम नहीं की जा सकती।

अब जरा वास्तविक उत्पादन मूल्य का अनुमान भी लगा लें। अभी 17 फरवरी, 2009 को सरकार ने संसद में बतलाया कि एक बैरल क्रूड आॅयल के प्रसंस्करण से 17 लीटर पैट्रोल और 65 लीटर डीजल का उत्पादन होता है। यह उत्पादन की औसत दर है जो निम्नतम है। इसे तकनीकि में सुधार लाकर तथा क्रूड आॅयल की गुणवत्ता के आधार पर और बढ़ाने की जरूरत है। इस सरकारी कथन का विश्लेषण करना बहुत जरूरी है। एक बैरल में 159 लीटर क्रूड आॅयल होता है। सरकारी दावे के अनुसार इसमें से 17 लीटर पैट्रोल निकलता है व 65 लीटर डीजल। पर बाकी बचे 77 लीटर क्रूड आॅयल का क्या होता है? अगर 10 से 20 प्रतिशत की हानि भी मान ली जाए तो शेष 60 लीटर क्रूड आॅयल में क्या-क्या उत्पाद पैदा होते हैं इस पर सरकार मौन क्यों है? क्या यह सही नहीं है कि इस बचे क्रूड आॅयल से  प्राकृतिक गैस, किराॅसिन, नेप्त्था, कोलतार एवं अन्य अनेक पैट्रोलियम उत्पाद पैदा होते हैं। यदि इन सभी उत्पादों की कीमत का सही-सही आंकलन किया जाये तो यह साफ हो जायेगा कि पैट्रोल और डीजल की कीमतों में और भी कमी करनी पड़ेगी। यही वह वजह है जिसके कारण पूरी दुनिया ने अरब देशों पर निशाना साधा और उन्हें क्रूड आॅयल के दाम कम करने पर मजबूर किया। भारत सरकार का पैट्रोलियम मंत्रालय इस मामले में हमेशा चुप्पी साधे रहा है।

सरकार के काम में पारदर्शिता होनी चाहिए। प्रश्न उठता है कि यह आयात समता और व्यापार समता मूल्य क्या-क्या हैं? देश में किरासिन और गैस की कीमतें आयात समता अर्थात आयात मूल्य के आधार पर तय की जाती हैं और डीजल व पैट्रोल की कीमतें व्यापार समता के आधार पर तय की जाती हैं। मतलब ये कि आयात$निर्यात का क्रमशः 80 प्रतिशत व 20 प्रतिशत अनुपात के आधार पर इन्हें तय किया जा रहा है। इसके अलावा भी उपभोक्ता को पैट्रोल और डीजल की खरीद पर अतिरिक्त मूल्य देना पड़ता है। क्योंकि व्यापार समता के आधार पर जो मूल्य रिफाइनरियों को दिया जाता है, उसे देने के बाद भी देश में पैट्रोलियम उत्पादों का ढुलाई भाड़ा, व्यापारिक लाभ, फुटकर विक्रेताओं का कमीशन, सरकार का उत्पाद शुल्क तथा मूल्यवर्धक कर व अन्य स्थानीय कर देने पड़ रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि देश का उपभोक्ता पैट्रोल और डीजल के वह मूल्य देने के लिये विवश है जो वास्तविक उत्पादन लागत से बेतहाशा बढ़ा हुआ है।

पैट्रोल और डीजल के मूल्यों का यह मकड़जाल अभी जनता को पता नहीं है। जब वो समझ जायेगी तो सरकार को दौड़ा देगी। क्योंकि केन्द्र में जो भी सरकार हो मुनाफा पैट्रोलियम कम्पनियों को ही करवाती है, जनता को तो केवल उल्लू बनाया जाता है।

Sunday, March 15, 2009

भाजपा को झटका: जिम्मेदार उसका नेतृत्व


Rajasthan Patarika 15 Mar 2009
11 साल की दोस्ती को नवीन पटनायक ने एक झटके में तोड़ दिया। भाजपा के खेमे में मायूसी छा गयी। उधर तीसरा मोर्चा अपने पर फड़फड़ा रहा है। ऐसा लगता है कि आडवाणी जी का सपना पूरा होने में काफी दिक्कतें हैं। सोचने वाली बात यह है कि एन.डी.ए. में शामिल 24 दलों में से 18 दल भाजपा से पल्ला क्यों झाड़ चुके हैं? क्या वजह है कि सरकार बनाते समय तो इन दलों को भाजपा से कोई परहेज नहीं होता पर चुनाव आते-आते सब कन्नी काटने लगते हैं? सबका कहना होता है कि वे साम्प्रदायिक ताकतों से समझौता नहीं करेंगे। कल तक जो हमसफर थे वो रातों रात साम्प्रदायिक कैसे हो जाते हैं? देखने वाला यही समझेगा कि ये सब दल अवसरवादी हैं। चुनाव में अपने अल्पसंख्यक वोटों को सुनिश्चित करने के लिए भाजपा से कन्नी काट लेते हैं। चुनाव जीतने के बाद चार-पाँच वर्ष उसी भाजपा के साथ सरकार चलाने में कोई खतरा नहीं होता इसलिए फिर साथ हो लेते हैं। पर हकीकत कुछ और भी है। अपनी इस दुर्दशा के लिए भाजपा भी कम जिम्मेदार नहीं है। 

कहने को तो भाजपा हिन्दुओं की हिमायती पार्टी है। जिसका मूल एजेंडा भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना था और दबे स्वर में उसके समर्थक आज भी यही मानते हैं। पर वास्तव में भाजपा का नेतृत्व काफी भ्रमित है। राम जन्मभूमि आन्दोलन के बाद से भाजपा का नेतृत्व अपनी दृष्टि और नीति स्पष्ट नहीं कर पाया है। कभी हिन्दुत्व की तरफ झुकता है तो कभी धर्मनिरपेक्षता की भाषा बोलता है। अपने ही बयानों को बार-बार बदलता है। इससे दोनों पक्ष नाराज होते हैं। हिन्दुओं को लगता है कि भाजपा का नेतृत्व ईमानदार नहीं है और धर्मनिरपेक्षतावादियों को लगता है कि यह उसका छद्म रूप है। असली चेहरा तो वही है जो रामजन्मभूमि आन्दोलन के समय दिखा था। बजरंग दल, विहिप और संघ से जुड़े दूसरे कई संगठन अक्सर देश में हिन्दुत्व के नाम पर जो हंगामे खड़े करते हैं उससे न तो हिन्दुत्व का भला होता है और न ही भाजपा का। इसके विपरीत भाजपा की छवि हर बार बदरंग हो जाती है। संदेश यही जाता है कि इन सब हंगामों के पीछे भाजपा नेतृत्व की मूक सहमति है। 

दरअसल भाजपा नेतृत्व ने कभी भी हिन्दुत्व की मूल भावना और वैदिक सिद्धांतों का न तो गहराई से पालन किया और न ही उनके प्रति उसके मन में कोई आस्था है। क्या वजह है कि जिस वैदिक सिद्धांत को रूस के कम्यूनिस्ट, अमरीका के यहूदी और यहाँ तक कि मुस्लिम देशों के भी तमाम पढ़े-लिखे नौजवान सहजता से स्वीकार लेते हैं और कुछ तो उनका आचरण भी करने लगते हैं, फिर वही सिद्धांत इतने सतही कैसे हो जाते हैं कि उन पर देश में हिंसा और बवेला मच जाए। पिछले दिनों मेरी चर्चा कोयम्बटूर में रहने वाले फ्रांसीसी मूल के यहूदी भारतविद् श्री मिशेल से हो रही थी। श्री मिशेल अरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी से 1977 से जुड़े हैं और भारत के अतीत के प्रति उनकी गहरी आस्था है, गहरा शोध है। उनका भी यह मानना था कि भाजपा वैदिक मूल्यों को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत न कर पाने के कारण बार-बार आलोचना का शिकार होती है। भारत की सनातन परंपरा को पुनस्र्थापित करने के लिए कुछ ठोस नहीं कर पाती। अगर सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों को सहजता से आगे बढ़ाया जाये तो सारी दुनिया उनका पालन करने लगेगी। 

क्या वजह है कि बिना तलवार, बिना प्रचार व बिना मिशनरी भावना के अमरीका के पाँच करोड़ लोग नियमित योगाभ्यास करते हैं? यूरोप के हर शहर में योग की कक्षायें चलती हैं? बाबा रामदेव के प्रवचनों को पाकिस्तान के लाखों नागरिक सुनते और पालन करते हैं? आयुर्वेद हो, खगोलशास्त्र हो, पाकशास्त्र हो या विज्ञान के अनेक अन्य क्षेत्र, अमरीका, जर्मनी, जापान, रूस, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देश दशाब्दियों से इनके गहन अध्ययन में जुटे हैं? धीरे-धीरे सनातन धर्म की अवधारणाओं और सिद्धांतों को विश्व स्वीकार करता जा रहा है? यहाँ तक कि आज विश्वभर में फैली आर्थिक मंदी का समाधान भी वैदिक जीवन पद्धति में उपलब्ध है। अगर इस ज्ञान को राजनैतिक महत्वकांक्षा से अलग रखकर बहुजन हिताय समाज के आगे प्रस्तुत किया जाता तो भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों का जनाधार देश की भौगोलिक और राजनैतिक सीमाओं से पार भी पहुँच जाता। 

भाजपा कहेगी कि वे समाज सुधारक नहीं हैं, राजनैतिक दल हैं। राजनीति का उद्देश्य सत्ता हासिल करना होता है। जिसके लिए हर हथकंडा जायज है। तो फिर प्रश्न उठेगा कि सत्ता उसे मिल कहाँ पाती है? बड़ी मुश्किल से 1998 में सत्ता मिली तो ऐसी कि कुछ भी करने की आजादी नहीं थी। अबकी बार चुनाव में वैसे हालात भी नजर नहीं आते। फिर तो वही हाल हुआ कि दुविधा में दोउ गये, माया मिली न राम! 

जो बात भाजपा पर लागू होती है, वही इस देश के बुद्धिजीवियों और मीडिया पर भी लागू होती है। जो कुछ सनातन है, वह पोंगापंथी है, साम्प्रदायिक है और आधुनिक भारत के लिए निरर्थक है। अंग्रेजों की दी इस सोच से भारत का बुद्धिजीवी आजादी के 60 वर्ष बाद भी मुक्त नहीं हो पाया है। हाँ इतना अंतर जरूर आया है कि जैसे-जैसे पश्चिम भारतीय परंपराओं पर स्वीकृति की मोहर लगाता जा रहा है, यह वर्ग उन परंपराओं केे प्रति क्रमशः आकर्षित हो रहा है। दस वर्ष पहले के साम्यवादियों या धर्मनिरपेक्षवादियों के लेखों को ढूंढकर पढि़ये और आज उन्हीं के द्वारा उन्हीं मुद्दों पर लिखे जा रहे लेख पढि़ये तो आपको यह अन्तर स्पष्ट दिखाई देगा। मुझे याद है, गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव से पहले धर्मनिरपेक्ष टी.वी. चैनलों का सुर क्या था और चुनाव के बाद इन चैनलों के संपादकों ने किस तरह अपने का¡लमों में स्वीकारा कि वे जमीनी हकीकत का सही आंकलन नहीं कर पाये। पाठकों को याद होगा कि इसी का¡लम में हमने जो इस चुनाव से पहले कहा था, वही चुनाव के बाद भी सही निकला। दरअसल जब हम अपने राग द्वेष के चश्मे से हालात को देखने लगते हैं तो आंकलन गलत होता ही है। जरूरत इस बात की है कि बुद्धिजीवी हों, राजनैतिक दल हों या खुद भाजपा का नेतृत्व भारत के सनातन मूल्यों का खुले दिमाग से मूल्यांकन करे और जो कुछ समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी हो, उसे अपनाने में कोई संकोच नहीं करे। 

पर शायद यह हमारी सद्इच्छा से बढ़कर कुछ नहीं है। क्योंकि यदि राजनेता वास्तव में समाज की चिंता करते तो सोने की चिडि़या बनने की क्षमता रखने वाला यह देश विकास के नाम पर आत्मघाती विनाश की ओर इस तेजी से न बढ़ता। इस होली पर देश के अनेक शहरों में गरीब ही नहीं अमीरों ने भी पानी की होली नहीं खेली। क्योंकि पानी उपलब्ध ही नहीं था। यह कैसा विकास है कि हम पानी, साफ जमीन और साफ हवा के लिए मोहताज होते जा रहे हैं? जो पश्चिम अपने ही मकड़जाल में फंसकर त्राहि-त्राहि कर रहा है, उसके विकास का मा¡डल अपनाकर हम अपने गाँव और कस्बों की सदियों से चली आ रही आत्मनिर्भर अर्थ व्यवस्था को तोड़कर बेरोजगारी, हताशा और संताप पैदा करते जा रहे हैं। भाजपा इसलिए दोषी है कि अपने ही संस्थापकों के सपनों के विपरीत इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर भी वह नहीं कर पा रही जो इस देश और संस्कृति के लिए कर सकती थी। कुर्सी की जोड़तोड़ में उसने अपनी अस्मिता को खो दिया है। विडम्बना ये कि कुर्सी भी उसे मिलती नहीं दिखती।

Sunday, March 8, 2009

पाकिस्तान की जम्हूरियत खतरे में

श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर लाहौर में हुए फिदायीन हमले ने पाकिस्तान के अन्दरूनी हालात की कलई खोलकर रख दी है। खुफिया एजेंसियाँ पिछले कुछ दिनों से ये बताने में जुटी थीं कि कट्टरपंथी अब पाकिस्तान के अन्दरूनी इलाकों तक फैल चुके हैं। इस हद तक कि भारत की सीमा पर भी खतरा पैदा हो गया है। उधर अमरीका की खुफिया एजेंसियाँ इस बात से खौफजदा हैं कि तालिबान की निगाह पाकिस्तान के परमाणु अस्त्र पर है। किसी भी कीमत पर वे इसे हासिल करना चाहते हैं। चाहें इसके लिए उन्हें पाकिस्तान की हुकूमत पर ही कब्जा क्यों न करना पड़े। नेपाल के माओवादी संगठनों की तरह पाकिस्तान के तालिबान भी अब हुकूमत का मजा चखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह उनके अपने कारनामों के लिए एक कानूनी मोहर मिल जायेगी।

जिस तेजी से और जिस व्यापकता से तालिबान पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान में फैले हैं, उससे दो बातें साफ होती हैं। एक तो ये कि पाकिस्तान की मौजूदा हुकूमत की मुल्क के निजाम पर कोई पकड़ नहीं है। दूसरा ये कि फौज जानबूझकर मौजूदा हुकूमत को कमजोर करने में जुटी है। फौज और आई.एस.आई. पाकिस्तान में जम्हूरियत देखना नहीं चाहती। उनकी कोशिश जरदारी को नाकारा सिद्ध करने की है। जिससे वे हालात का तकाजा बताते हुए पाकिस्तान के निजाम पर काबिज हो जायें और दुनिया को ये बता दें कि उनके बिना पाकिस्तान को सम्हाला नहीं जा सकता। इसलिए पाकिस्तान में पिछले कुछ महीनों में तालिबान ज्यादा हावी होते जा रहे हैं। साफ है कि फौज जरदारी को हटाकर ही दम लेगी।

ये पाकिस्तान की बद्किस्मती है कि वहाँ जम्हूरियत या लोकतंत्र कभी चल नहीं पाया। पाकिस्तान और भारत दोनों 1947 में एक ही दिन आजाद हुए थे। 1958 तक 11 सालों में भारत में एक ही प्रधानमंत्री रहे: पं0 जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान में इस दौरान 7 प्रधानमंत्री बदल गये। लियाकत अली खाँ, ख्वाजा निजामुद्दीन, मौ0 अली बोगरा, चैधरी मोहम्मद अली, एस.एस.सुहारवर्दी, आई.आई. चंदीगार व मलिक फिरोज खान। फिर आ गयी फौजी हुकूमत। जिसका लम्बा दौर चला। बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी देर के लिए जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ जैसे प्रधानमंत्री बने। पर इन्हें अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया। जुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी चढ़ा दिया। बेनजीर को भ्रष्टाचार में फंसकर हटना पड़ा और नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर दिया गया। अगर कोई हुकूमत लम्बे दौर तक चली तो वह थी फौजी हुक्मरानों की। चाहे वो जनरल अयूब हों या जनरल याहिया खान या जनरल जिया-उल-हक या जनरल परवेज मुशर्रफ। जबकि भारत में लगातार लोकतंत्र चल रहा है और बिना खून-खराबे के सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। नेहरू, इंदिरा गाँधी ने तो लम्बी हुकूमत की। पर बीच-बीच में शास्त्री, देसाई, वाजपेयी या मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री भी आये जो अनुभवी और असरदार लोग थे। इसलिए हमारा लोकतंत्र सफलता से चल रहा है। अगर आपके पड़ोस के घर या पड़ोस के मुल्क अशांति हो तो आप भी चैन से जी नहीं सकते। हमारी चिंता का यही विषय है। पाकिस्तान की अशांति हमारी अशांति का कारण बनती है। भारत में कोई आतंकवाद नहीं है। जो है वो पाकिस्तान की जमीन पर पैदा होता है।

ठीक इसी तरह के हालात बांग्लादेश में भी पैदा हो रहे हैं। 1971 में शेख मुजीबुर्रहमान की लोकप्रियता चरम पर थी। पर पाकिस्तान की फौज को यह गले नहीं उतरा। शेख मुजीबुर्रहमान को कत्ल करवा दिया गया। लम्बे दौर के बाद उनकी बेटी शेख हसीना बांग्लादेश की गद्दी पर काबिज हुई हैं। बांग्लादेश की फौज में जो तत्व उस समय सक्रिय थे, वे खत्म नहीं हुये। पिछले दिनों हुयी बगावत के लिए वही जिम्मेदार हैं। बगावत तो कुचल दी गयी, पर खतरा टला नहीं है। लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयीं शेख हसीना को ये तत्व बर्दाश्त नहीं कर रहे। उन्हें मारकर या हटाकर ही दम लेंगे। बांग्लादेश की यह परिस्थिति भारत के लिए ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पाकिस्तान से तो भारत को कश्मीर वाले हिस्से की सीमा पर ही खतरा रहता है। जबकि बांग्लादेश के साथ भारत के अनेक राज्यों की सीमा जुड़ी है। सीमा में अनेक छेद हैं। दोनों हिस्सों के लोगों का आवागमन कोई बहुत नियन्त्रित नहीं है। वहाँ भारी आबादी और भारी गरीबी है। बांग्लादेश में पैदा हुयी अशांति भारतीय सीमा और सेनाओं के लिए ज्यादा सिरदर्द पैदा कर सकती है। दोनों तरफ कुंआ और खाई है। इसलिए भारत की चिंता स्वाभाविक है। भारत के हक में तो यही है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में जम्हूरियत बनी रहे और इन मुल्कों की आर्थिक प्रगति हो। जिससे वहाँ खुशहाली आये। क्योंकि जब खुशहाली आती है तो आवाम अमन चैन चाहता है, दंगे-फसाद नहीं। चँूकि इन दोनों मुल्कों में कोई तरक्की नहीं हो रही है इसलिए युवाओं में भारी बेरोजगारी है और हताशा है। आतंकवादी संगठन नौजवानों की इस तकलीफ का फायदा उठाकर उन्हें अपने जाल में फंसा लेते हैं। जब रोजगार होगा तो नौजवान अपने परिवार के साथ आनंद लेंगे, न कि जान हथेली पर लेकर बीहड़ों और बर्फीले दर्रों में भटकेंगे।

जहाँ तक क्रिकेट का प्रश्न है, लाहौर में हुए हमले से यह तो साफ हो गया कि अब कोई भी टीम पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं होगी। न्यूजीलैंड ने मना कर ही दिया। भविष्य में भी अब कोई टीम पाकिस्तान की जमीन पर क्रिकेट नहीं खेलेगी। जिसका खामियाजा पाकिस्तान की सरकार, क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और क्रिकेट प्रेमियों को उठाना पड़ेगा। दक्षिण एशिया के क्रिकेट प्रेमियों के लिए भी यह दुःखद समाचार है। क्रिकेट के इतिहास में यह पहली ऐसी घटना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी देशों की सरकार भविष्य में खिलाडि़यों की सुरक्षा को लेकर ज्यादा सतर्क रहेंगी। इससे ज्यादा इसका असर क्रिकेट पर नहीं पड़ेगा। पर पाकिस्तान के लिए यह जरूर खतरे की घंटी है। पहले से ही आतंकवाद से जूझ रहा यह मुल्क इस तरह की घटनाओं से और भी मकड़जाल में फंसता जायेगा। जिसमें से निकलना आसान नहीं होगा।

Sunday, February 22, 2009

क्या संत करेंगे राजनीति की धुलाई ?

देश की राजनीति को सुधारने के लिए आजकल कुछ नामी संत सक्रिय हैं। जिनमें बाबा रामदेव प्रमुख हैं। वे अपनी राजनैतिक जमीन तलाशने में लगे हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। तीन दशक पहले महर्षि महेश योगी को भी राजनीति सुधारने का जुनून चढ़ा था। काफी रूपया भी खर्च किया पर कोई सफलता नहीं मिली तो वह मार्ग छोड़ दिया। दरअसल धन, यश और सत्ता का गहरा नाता है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति तीनों चाहता है। एक भी कम हो तो उसकी तरफ दौड़ता है। बाबा के पास धन और यश दोनों हैं शायद इसलिए उन्हें अब सत्ता की तलब लग रही है। स्वामी रामदेव ने भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की स्थापना भी कर डाली है। जिसका जीवन दर्शन एक 80 पेज की पुस्तिका में देश भर में भेजा जा रहा है। इस पुस्तिका को पढ़ने से स्वामी जी की विचार धारा और भी स्पष्ट होती है। हालांकि इसमें वही विचार हैं जो स्वामी जी रोजाना सुबह टेलीविजन पर व्यक्त करते हैं। पर इस तरह इन विचारों को एक ही जगह संकलित कर उन्हें पुस्तक रूप में छापकर स्वामी जी ने माओ की लाल किताब या गद्दाफी की हरी किताब या लेनिन की किताब जैसी पहल की है।

वे देश को वैकल्पिक राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था देना चाहते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं। सद्इच्छा से किया गया कोई भी प्रयास वंदनीय है। पर प्रश्न उठता है कि क्या केवल सद्इच्छा से ही देश की राजनीति को धोया-पांेछा जा सकता है ? अगर ऐसा होता तो महात्मा गांधी अपने सपनों का भारत बनवा लेते। सुभाष चन्द्र बोस भारत के पहले प्रधानमंत्री होते। करपात्री जी महाराज 70 के दशक में भारत के नेता होते। जयप्रकाश नारायण को हताशा में शरीर नहीं छोड़ना पड़ता। दरअसल सद्इच्छा और जमीनी हकीकत में बहुत दूरी होती है।

अपनी पुस्तक में आठ पेजों में रामदेव जी ने भ्रष्टाचार पर अपने विचार विस्तार से रखें हैं और भ्रष्टाचार को ही देश की अधिकतर समस्याओं की जड़ बताया है। रामदेव जी ही नहीं देश में तमाम सुप्रसिद्ध संत ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार के मामले में युवाओं से अपेक्षा रखते हैं कि वे समझौता नहीं करेंगे।  पर अनुभव यह बताता है कि जब भी कोई युवा बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद करता है तो इनमें से एक भी संत उसकी मदद को सामने नहीं आता। सामने न भी आयें पर पीछे से भी मदद नहीं करते। अगर कोई योद्धा सीधा इनसे टकरा जाए और केवल नैतिक सहयोग ही मांगे तो भी ये सामाने आने की हिम्मत नहीं करते। कोई बयान तक जारी नहीं करते। कारण बड़ा साफ है। यश और धन आने के बाद कोई उसे खोना नहीं चाहता। चाहें वो संत के ही भेष में क्यों न हों। उसे डर लगता है कि अगर मैं ऐसे सीधे संघर्ष में उतरूंगा तो सत्ताधीश मेरा जीना मुश्किल कर देंगे। मेरा साम्राज्य खतरे में पड़ जाएगा। उसे यह भी पता होता है कि उसकी तरक्की में तमाम ऐसे लोगों का धन लगा है जिनके पास बेशुमार दौलत है और यह दौलत उन्होंने उन्हीं तरीकों से कमाई है जिनसे देश में भ्रष्टाचार पनपता है। अगर वह संत इस लड़ाई में कूदेगा तो उसके ऐसे ठोस समर्थक कन्नी काट लेंगे। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि ‘‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आचरही ते नर न घनेरे’’

इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाए या कोई प्रयास कभी सफल ही नहीं होता। पर सच्चाई यह है कि प्रयास करने वाला इतना ठोस नहीं होता कि विपरीत परिस्थितियों को झेलकर अपनी जमीन पर टिका रहे। अगर टिका रहता है तो भी सफलता नहीं मिलती जैसा प्रायः क्रूसेडरों के साथ होता है तो फिर यही मानना चाहिए कि ईश्वर या प्रकृति बदलाव नहीं चाहती। अभी बदलाव का समय नहीं है।

अक्सर देखने में आता है कि शोहरत मिलते ही आदमी को यह गुमान हो जाता है कि वो देश में क्रान्ति ला देगा। जो लोग 1994 से 1997 तक देश के हालात पर नजर रखे थे उन्हें याद होगा कि तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन कैसे तूफान की तरह उठे थे और मध्यम वर्गीय जनता ने उन्हें हाथों हाथ कंधों पर बिठा लिया था। पर वे जल्दी ही गर्द की तरह बैठ गए। उस दौर में मैंने उनके साथ देश के हर कोने में सैकड़ों जनसभाएं संबोधित की थी। उनके द्वारा स्थापित देशभक्त ट्रस्ट के चार ट्रस्टियों में से मैं भी एक था। बाकी दो वे पति-पत्नी और चैथी एक फिल्म निर्माता महिला। इसलिए मुझे उनकी असफलता के कारणों की गहरी समझ है। जिसका उल्लेख यहाँ जरूरी नहीं है। पर यह सच है कि बदलाव की हर लड़ाई कुर्बानी मांगती है। जो अपना यश, धन और सुख त्यागने को तैयार हों वे ही बदलाव ला सकते हैं। हम भौतिक सुख छोड़ना न चाहें और बदलाव की बात करें तो सफलता नहीं मिलेगी। क्योंकि सत्ता का सुख भोग रहे निहित स्वार्थ उन्हें  भला क्यों सफल होने देंगे? क्योंकि ऐसी तथाकथित क्रांति से उन्हें अपने भौतिक सुखों के समाप्त होने का खतरा होगा। 

रामदेव जी ने टी.वी. देखने वाले देश के लोगों पर अच्छी पकड़ बनायी है। आयुर्वेदिक दवाओं का विशाल कारोबार खड़ा कर अपना आर्थिक पक्ष भी मजबूत किया है। संयासी होने के कारण उन पर कोई पारिवारिक दायित्व भी नहीं है। फिर भी मुझे लगता है कि उनकी ये मुहीम शायद बहुत दूर तक नहीं जाये। अगर वे कामयाब हो जाते हैं तो ये हम सब के लिए अपार सुख और शांति की बात होगी कि देश की राजनीति को मजे हुए संत मार्ग निर्देशन करें। ऐसा नहीं है कि संत अपने मिशन में कभी कामयाब नहीं हुए। मराठा सम्राट शिवाजी महान को प्रेरणा देने वाले उनके गुरू संत रामदास ही थे। चन्द्रगुप्त को ज्ञान देने वाले विष्णु पंडित या चाणाक्य किसी संत से कम न थे। तो जो मध्य युग या प्राचीन युग में हुआ वह अब भी हो सकता है। बशर्तें कि देश को सुधारने का संकल्प लेने वाले संत निष्काम हांे और हर त्याग के लिए तैयार हों। यह तो वक्त ही बताएगा कि बाबा रामदेव किस श्रेणी के संत हैं और कहां तक अपने राजनैतिक मिशन में सफल होते हैं। हमें तो ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह सद्मार्ग बताने वाले संत इस तपोभूमि पर भेजता रहे और हम ऐसे संतों के मार्ग निर्देशन में अपना जीवन और राष्ट्र का जीवन सुधारते रहें।