Sunday, April 5, 2009

स्विस बैंकों के गोपनीय खातों पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव


आर्थिक मंदी और ओबामा की ऐतिहासिक सफलता ने दुनिया का एक भला कर दिया। अमरीका ने स्विस बैंकों पर दबाब डालकर अपने देश के ढाई सौ ऐसे धनाढ्य लोगों के गोपनीय खाते खुलवा लिये जिन्होंने अवैध रूप से स्विटजरलैंड के यू.बी.एस. बैंक में 3120 करोड़ रूपया जमा कर रखा था। दुनिया के पाँच देशों का नाम काला धन जमा करने वालों में सबसे ऊपर है। ये हैं: भारत, रूस, इंग्लैंड, यूक्रेन व चीन। आश्चर्य की बात ये है कि इस सूची में न सिर्फ भारत का नाम सबसे ऊपर है बल्कि भारत की स्विस बैंकों में अवैध रूप से कुल जमाराशि शेष दुनिया के देशों के  कुल काले धन से भी ज्यादा है। एक आंकलन के अनुसार भारत का 70 लाख करोड़ रूपया इन बैंकों में जमा है। अमरीका की तरह अगर यह धन भारत में वापिस आ जाता है तो भारत के हर गरीब परिवार को 10 लाख रूपये मिलेंगे। यह धन आने से न सिर्फ भारत की गरीबी भी मिट जायेगी बल्कि  भारत विदेशी ऋण से भी मुक्त हो जायेगा।

इतनी बड़ी रकम का अवैध रूप से बाहर जाना यह सिद्ध करता है कि आजादी के बाद भारत के नेताओं, अधिकारियों, उद्योगपतियों, क्रिकेट और फिल्म सितारों, ड्रग माफियाओं आदि ने भारत को लूट-लूटकर ही यह अकूत दौलत विदेशों में जमा की है। दरअसल स्विस बैंकों का काम करने का तरीका इतना गोपनीय है कि दाहिने हाथ को पता नहीं चलता कि बाँया हाथ क्या कर रहा है? इसलिए भारत के ये भ्रष्ट धनाढ्य भाग-भाग कर अपना अवैध धन स्विस बैंकों में जमा करवाते रहे हैं। इन बैंकों में खाता खोलने का तरीका बड़ा जटिल है। बैंक के मैनेजर और कर्मचारियों तक को नहीं पता होता कि किस खाते में किस व्यक्ति की रकम है। इस व्यवसाय के जानकार बताते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपनी अकूत दौलत स्विस बैंक में जमा करने आता है तो वह बैंक के मैनेजर से संपर्क करता है। यदि मैनेजर को लगता है कि यह ग्राहक ठीक-ठाक है तो वह उसे बैंक के दो ऐसे अधिकारियों से मिलवा देता है जो उस व्यक्ति का खाता खुलवाने का काम करते हैं। ये दो या तीन व्यक्ति उन अधिकारियों में से होते हैं जिनकी विश्वसनीयता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। इन्हें नए खाताधारी का बैंकिंग सचिव कहा जाता है। खाता खोलने की सब औपचारिकताएं ये ही पूरी करवाते हैं और सब कागजात पूरे हो जाने के बाद खाताधारी को स्विस बैंक का एकाउंट नंबर दे देते हैं। किंतु अपनी फाइल में असली खाता नंबर न डालकर एक कोड नाम डाल देते हैं। मसलन अगर खाता खोलने वाले का नाम राजकुमार लालवानी है तो उसके खाते का नंबर हो सकता है प्रिंस रेड 98। खाते का नंबर ग्राहक को बताने के बाद उसका कोड फिर बदल दिया जाता है और अब संबंधित बैंकिंग सचिव इस खाते से संबंधित फाइल को बंद करके एक ऐसे कक्ष में ले जाते हैं जहाँ काउंटर के ऊपर धुंधले कांच की दीवार बनी होती है। इस दीवार की तली में जो बारीक-सी झिरि होती है उसमें से होकर नए खातेदार की यह गोपनीय फाइल दूसरी तरफ सरका दी जाती है। दूसरी तरफ जो व्यक्ति उस फाइल को लेता है उसे यह नहीं पता होता कि यह फाइल किसकी है और शीशे के बाहर से फाइल देने वाले बैंकिंग सचिवों को यह नहीं पता होता कि शीशे के दीवार के पीछे इस फाइल को किसने लेकर लाॅकर में रखा है। इस तरह नए खातेदार के खाते से संबंधित जो पाँच-छह लोग होते हैं उनमें से किसी को भी पूरी जानकारी नहीं होती।

इस काम में जो कर्मचारी लगे होते हैं वे बैंक के विश्वसनीय अधिकारी होते हैं और इस बात के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है कि गोपनीय जानकारी बाहर नहीं जाएगी। मजे की बात तो यह है कि स्विस बैंक में धन जमा करने वालों को ब्याज मिलना तो दूर इस धन के संरक्षण के लिए उन्हें नियमित फीस देनी होती है। इस तरह स्वीट्जरलैंड में अथाह धन जमा हो गया है। आबादी थोड़ी सी, जीवन स्तर में ज्यादा तड़क-भड़क की गुंजाइश नहीं इसलिए उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा धन उनके लिए उपलब्ध है। स्विस नागरिक अब तक यह मानते आए थे कि धन कहाँ से आ रहा है इसका उनसे कोई सारोकार नहीं। उनके लिए हर तरह के धन का रंग समान था और वे किसी का भी धन लेने में संकोच नहीं करते थे। वे बैंकिंग को शुद्ध आर्थिक व्यवसाय के रूप में देखते थे। पर फिर स्थिति बदली।

उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि दुनिया भर मे गरीबी, कुपोषण व भूख बढ़ती जा रही है। दुनिया के तमाम देशों के भ्रष्ट नेता और नौकरशाह अपने भ्रष्ट आचरण के कारण जनता को दुख दे रहे हैं। नशीली दवाओं के सेवन से समाज और बचपन प्रदूषित हो रहे हैं। ऐसे माहौल में स्वीट्जरलैंड दुनिया के प्रति सारोकार से उदासीन होकर नहीं रह सकता। मानवीय संवेदनाओं से शून्य होकर भी नहीं रह सकता। जब दुनिया भर के अपराधी स्वीट्जरलैंड में चोरी का धन छुपाएंगे तो स्वीट्जरलैंड इस अनैतिकता के पाप का भागीगार बने बिना नहीं रह सकता। ऐसे विचारों ने स्वीट्जरलैंड के नागरिकों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया। इसके साथ ही दुनियाभर में स्विसबैंकों के खातों के प्रति जागरूकता और उनमें अवैध रूप से जमा अपने देश का धन वापस देश में लाने की माँग कई देशों में उठने लगी।

इस सबका नतीजा यह हुआ कि स्विस नागरिकों ने अपने संविधान में संषोधन किया। चूंकि स्वीट्जरलैंड दुनिया का सबसे परिपक्व लोकतंत्र है इसलिए वहाँ हर कानून बनने के पहले जनता का आम मतदान कराया जाता है। बहुमत मिलने पर ही कानून बन पाता है। इसलिए जब स्विस नागरिकों को नैतिक दायित्व का एहसास हुआ तो उन्होंने एक कानून बनाया जिसके अनुसार अब स्विसबैंकों में खोले गए खाते गोपनीय नहीं रहे। स्वीट्जरलैंड की या अन्य किसी भी देश की सरकारें इन खातों की जानकारी प्राप्त कर सकती हंै। इसके लिए करना सिर्फ यह होगा कि संबंधित देश को उस व्यक्ति के खिलाफ, जिसके स्विस खाता होने का संदेह है, एक आपराधिक मामला दर्ज करना होगा। इसके बाद उस देश की सरकार स्वीट्जरलैंड की सरकार को आधिकारिक पत्र लिखेगी जिसमें उस व्यक्ति के विरूद्ध दर्ज आपराधिक मामले का हवाला देते हुए स्वीट्जरलैंड की सरकार से अनुरोध करेगी कि वह पता करके बताए कि उस व्यक्ति का कोई गोपनीय खाता स्वीट्जरलैंड के बैंकों में तो नहीं है ? इस पत्र के प्राप्त हो जाने के बाद स्वीट्जरलैंड की सरकार सभी बैंकों इस पत्र की प्रतिलिपियाँ भेजेगी और उन बैंकों से यह जानकारी मांगेगी। अगर किसी बैंक में संबंधित व्यक्ति का गोपनीय खाता चल रहा होगा तो बैंक को उसकी पूरी जानकारी अपनी सरकार को देनी होगी। स्वीट्जरलैंड की सरकार यह जानकारी संबंधित देश में भेज देगी। आवश्यकता पड़ने पर वह गोपनीय खाते में जमा रकम को भी उस देश को लौटा देगी। ऐसा कई मामलों में हो चुका है। इसलिए अब स्विस बैंकों में जमा अवैध धन गोपनीय नहीं रह सकता। बशर्तें कि खाताधारक के विरूद्ध उसके देश में आपराधिक मामला दर्ज हो। 

यह आश्चर्य की बात है कि ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाले हमारे पिछले कई प्रधानमंत्रियों ने स्विस बैंकों से यह जानकारी माँगने की पहल नहीं की। जबकि अन्य कई देश ये पहल कर चुके हैं। भारत से लगभग 80 हजार लोग हर वर्ष स्विट्जरलैंड जाते हैं। इनमें 25 हजार लोग ऐसे हैं जो स्विट्जरलैंड का दौरा साल में कई बार करते हैं। ऐसे लोगों पर खुफिया जाँच करके इनके चाल-चलन से इनके बैंकों तक पहुँचा जा सकता है। बशर्ते कि सरकार यह करना चाहे। ओबामा की पहल से पे्ररित होकर इस चुनाव के पहले भारत में स्विस बैंकों से काला धन वापिस लाने के लिए एक माहौल बनाया जा रहा है। जो एक शुभ लक्षण है। पर चिंता की बात यह है कि यह माहौल वे लोग बना रहे हैं जो सीधे संघ और भाजपा से जुड़े हैं और इनका लक्ष्य कालाधन वापिस लाना नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर हमला बोलना है। ये सिद्ध करना चाहते हैं कि व्यक्तिगत जीवन में ईमानदार रहने वाले मनमोहन सिंह इतने बड़े मुद्दे पर बेईमानों को संरक्षण दे रहे हैं। इससे ज्यादा गम्भीरता इस अभियान की नहीं है। अगर वाकई आडवाणी जी को या वाजपेयी जी को भारत के काले धन की इतनी फिक्र थी तो एन.डी.ए. के 6 साल के शासन के दौरान उन्होंने यह पहल क्यों नहीं की? जबकि स्विट्जरलैंड बैंकों की गोपनीयता से सम्बन्धित अपने कानून में तभी संशोधन कर चुका था। जो भी हो यह मुद्दा भारत के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण है। पर इसको तभी उठाना उचित होगा जब यह आन्दोलन जनता की तरफ से हो और जनता किसी भी राजनैतिक दल को इस आन्दोलन का नेतृत्व न करने दे। पर यह आन्दोलन चुनावों के बाद शुरू हो और तब तक चले जब तक हम अपने देश की इस दौलत को वापिस नहीं ले आते। चुनाव से पहले यह गम्भीर मुद्दा राजनीति का शिकार बनकर रह जायेगा।

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