Sunday, March 22, 2009

पैट्रोल में घाटा नहीं मुनाफे का खेल जनता की आँखों में धूल झौंक रही है सरकार

Rajasthan Patrika 22 Mar 2009
लोग ये समझ नहीं पा रहे थे कि दुनिया में पैट्रोल और डीजल की कीमतें गिर रही हैं तो भारत में क्यों नहीं? प्रधानमंत्री और तेल मंत्री यही कहते रहे कि तेल कम्पनियाँ घाटे में चलती रहे भले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड आॅयल की कीमतें कम हों परन्तु भारत की तेल कम्पनियों का घाटाबरकरार है। इसलिए पैट्रोल और डीजल की कीमतें कम नहीं की जा सकतीं। उधर सरकार ने उड्डयन टरवाइन फ्यूल (ए.टी.एफ.) जो हवाई जहाज का ईंधन है, उसकी कीमत अगस्त 2008 से जनवरी 2009 के बीच 55 प्रतिशत कम कर दी। किन्तु डीजल पैट्रोल आदि की कीमतें इसी दर से कम करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। जवाब ये था कि इसमें ‘‘घाटा’’ आड़े आ रहा है। 24 फरवरी, 2009 को सरकार ने संसद में एक सवाल के जवाब में कहा कि पैट्रोल, डीजल, किरासिन तेल और एल.पी.जी. की कीमत सरकार आम उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण करते हुए तय करती है किन्तु अन्य पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें आॅयल मार्केटिंग कम्पनियाँ बाजार के व्यापारिक हालत को मद्देनजर रखकर स्वंय तय करती हैं। यहाँ एक रोचक विरोधाभास है, जो कीमत व्यापारिक हालत के आधार पर तय होती है वह तो 55 प्रतिशत कम हो गई और जो उपभोक्ता के हित के संरक्षण के लिये तय की जाती है, उनकी कीमतें केवल 5 रूपया पैट्रोल पर कम की गईं और 2 रूपया डीजल पर कम की गईं। यानि 10 प्रतिशत ही घटाई गईं। क्या यही आम उपभोक्ता के हित संरक्षण का नमूना है?

सरकार की जनहित नीतियों का एक और उदाहरण यह है कि उसने तय किया है कि तेल कम्पनियाँ अपने अर्जित लाभ का 2 प्रतिशत सामाजिक सुधार कार्यों पर व्यय करे। जबकि ये कम्पनियाँ मात्र 0.75 प्रतिशत से 1 प्रतिशत तक ही इस मद में खर्च कर पायी है। यानि जनता को दोहरी मार। लगता है कि सरकार को देश के डीजल व पैट्रोल उपभोक्ताओं से कुछ विशेष ही लगावहै। तभी तो सरकार इन उत्पादों की कीमतें कम करने से सदैव कतराती रही है। ट्रेड पैरिटी प्राइजिंग सिस्टम जिसे खुद सरकार ने ही बनाया था, उसके अनुसार डीजल का दाम 31.83 रूपये प्रति लीटर आंका गया था। फिर भी दिल्ली में डीजल इससे कहीं ज्यादा कीमत पर बेचा जाता रहा। आखिर क्यों?

आश्चर्य है कि केन्द्र सरकार पैट्रोल के मामले में कितनी बहादुरी से झूठ बोलती है फिर वो चाहंे यूपीए की हो चाहें एनडीए की। सारे देश ने अखबारों में पढ़ा कि गत महीनों में देश के प्रधानमंत्री से लेकर पैट्रोलियम मंत्रालय के मंत्री व सचिव तक ने तेल कम्पनियों के घाटे में जाने की बात बार-बार कही। संसद में भी सरकार ने इस झूठ को सच बनाने में कसर नहीं छोड़ी। दिसम्बर, 2008 मंे लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में भी बतलाया गया कि आई.ओ.सी., बी.पी.सी., एस.पी.सी. को अप्रैल से सितम्बर, 2008 के बीच क्रमशः रूपये 6632.00, 3691.96, 4107.04 करोड़ रूपये का कुल घाटा हुआ है। जबकि फरवरी में एक अन्य प्रश्न के उत्तर में सरकार ने इसके बिल्कुल विपरीत बात कही क्योंकि उसे एक जागरूक सांसद ने आंकड़ों के आधार पर कटघरे में खड़ा कर दिया।

यह तो मानी हुई बात है कि पैट्रोलियम क्षेत्र विश्व में उन उद्योगों में से एक है जो अधिकतम लाभकारी उद्योग है। इसलिए देश में भारी अनियमिततायें, भ्रष्टाचार और अकुशलता और सरकारी लूट होते हुए भी यह उद्योग लाभकारी बना हुआ है। शायद इसीलिए इसमें बर्बादी ंभी ऊँचे दर्जे की होती है। गत सात वर्षों के दौरान 2001-2002 से 2007-2008 तक ओ.एन.जी.सी. ने देश में क्रूड आॅयल उत्पादन बढ़ाने के लिए 38,000.72 करोड़ रूपये का विनियोग किया। किन्तु उत्पादन के नाम पर बढ़ोत्तरी मात्र 1.237 मिलियन मीट्रिक टन ही हुई। 2001-2002 के दौरान देश में 24,708 मिलियन मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ था। सरकार की कार्यकुशलताका इससे बेहतर नमूना और क्या होगा कि 38,000 करोड़ रूपये का निवेश करने के बाद मात्र एक मिलियन मीट्रिक टन की ही बढ़ोत्तरी हुई। 

जनता की हितैषी सरकार जनता को मूर्ख बनाकर पैट्रोलियम क्षेत्र से किस प्रकार कर आदि के माध्यम से धन एकत्रित करती है यह भी देखने की बात है। बीते साल को ही हम देखें तो वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार ने 8 प्रकार से कर व उपकर आदि जनता पर लादकर 1,04,134 करोड़ रूपया वसूला। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें भी जनता को लूटने में केन्द्र सरकार से पीछे नहीं रहीं। उन्होंने 5 तरह के कर जनता पर थोप कर 63,445 करोड़ रूपया इकट्ठा किया है। इतना ही नहीं केन्द्र सरकार ने डेवलपमेंट फंड के नाम से प्रति टन क्रूड उत्पादन पर 2500 रूपया कर लगा रखा है। यदि इसे भी केन्द्र सरकार के पैट्रोलियम राजस्व में जोड़े तो यह राशि और भी बढ़ जायेगी। वित्तीय वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार का कुल राजस्व लगभग 6,00,000 करोड़ रूपये का था। उसमें से करीब 25 प्रतिशत पैट्रोलियम क्षेत्र पर कर थोप कर ही वसूला गया है। जबकि दूसरी ओर प्रचार जारी है कि हमारे देश की तेल कम्पनियाँ घाटे में चल रही हैं। अतः पैट्रोल और डीजल की कीमत कम नहीं की जा सकती।

अब जरा वास्तविक उत्पादन मूल्य का अनुमान भी लगा लें। अभी 17 फरवरी, 2009 को सरकार ने संसद में बतलाया कि एक बैरल क्रूड आॅयल के प्रसंस्करण से 17 लीटर पैट्रोल और 65 लीटर डीजल का उत्पादन होता है। यह उत्पादन की औसत दर है जो निम्नतम है। इसे तकनीकि में सुधार लाकर तथा क्रूड आॅयल की गुणवत्ता के आधार पर और बढ़ाने की जरूरत है। इस सरकारी कथन का विश्लेषण करना बहुत जरूरी है। एक बैरल में 159 लीटर क्रूड आॅयल होता है। सरकारी दावे के अनुसार इसमें से 17 लीटर पैट्रोल निकलता है व 65 लीटर डीजल। पर बाकी बचे 77 लीटर क्रूड आॅयल का क्या होता है? अगर 10 से 20 प्रतिशत की हानि भी मान ली जाए तो शेष 60 लीटर क्रूड आॅयल में क्या-क्या उत्पाद पैदा होते हैं इस पर सरकार मौन क्यों है? क्या यह सही नहीं है कि इस बचे क्रूड आॅयल से  प्राकृतिक गैस, किराॅसिन, नेप्त्था, कोलतार एवं अन्य अनेक पैट्रोलियम उत्पाद पैदा होते हैं। यदि इन सभी उत्पादों की कीमत का सही-सही आंकलन किया जाये तो यह साफ हो जायेगा कि पैट्रोल और डीजल की कीमतों में और भी कमी करनी पड़ेगी। यही वह वजह है जिसके कारण पूरी दुनिया ने अरब देशों पर निशाना साधा और उन्हें क्रूड आॅयल के दाम कम करने पर मजबूर किया। भारत सरकार का पैट्रोलियम मंत्रालय इस मामले में हमेशा चुप्पी साधे रहा है।

सरकार के काम में पारदर्शिता होनी चाहिए। प्रश्न उठता है कि यह आयात समता और व्यापार समता मूल्य क्या-क्या हैं? देश में किरासिन और गैस की कीमतें आयात समता अर्थात आयात मूल्य के आधार पर तय की जाती हैं और डीजल व पैट्रोल की कीमतें व्यापार समता के आधार पर तय की जाती हैं। मतलब ये कि आयात$निर्यात का क्रमशः 80 प्रतिशत व 20 प्रतिशत अनुपात के आधार पर इन्हें तय किया जा रहा है। इसके अलावा भी उपभोक्ता को पैट्रोल और डीजल की खरीद पर अतिरिक्त मूल्य देना पड़ता है। क्योंकि व्यापार समता के आधार पर जो मूल्य रिफाइनरियों को दिया जाता है, उसे देने के बाद भी देश में पैट्रोलियम उत्पादों का ढुलाई भाड़ा, व्यापारिक लाभ, फुटकर विक्रेताओं का कमीशन, सरकार का उत्पाद शुल्क तथा मूल्यवर्धक कर व अन्य स्थानीय कर देने पड़ रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि देश का उपभोक्ता पैट्रोल और डीजल के वह मूल्य देने के लिये विवश है जो वास्तविक उत्पादन लागत से बेतहाशा बढ़ा हुआ है।

पैट्रोल और डीजल के मूल्यों का यह मकड़जाल अभी जनता को पता नहीं है। जब वो समझ जायेगी तो सरकार को दौड़ा देगी। क्योंकि केन्द्र में जो भी सरकार हो मुनाफा पैट्रोलियम कम्पनियों को ही करवाती है, जनता को तो केवल उल्लू बनाया जाता है।

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