Friday, November 14, 2003

तलुवा चाटू अफसर और चरमराता लोकतंत्र


हाल ही में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों का दौरा करके लौटे मुख्य चुनाव आयुक्त श्री जे.एम. लिंग्दोह ने इन दोनों राज्यों के कुछ अफसरों के आचरण के बारे में नाराजगी जताई है। श्री लिंग्दोह के अनुसार यह अधिकारी निष्पक्ष नहीं हैं बल्कि सत्तारूढ़ दल इंका के हितों को साधते हुए काम कर रहे हैं।  उन्होंने ऐसे तमाम अधिकारियों को कड़ी चेतावनी दी है। श्री लिंग्दोह ही क्यों, हर भारतवासी चाहता है कि चुनाव निष्पक्ष हों। इसके लिए चुनाव में लगे अधिकारियों का आचरण पारदर्शी होना निहायत जरूरी होता है। पर देखने में आया है कि अनेक अधिकारी चुनावों में निष्पक्ष नहीं रह पाते। यहां मध्यम और निचले दर्जे के अधिकारियों या कर्मचारियों की बात नहीं, बल्कि आला अफसरों की बात की जा रही है। श्रीमती इंदिरा गांधी पर आरोप था कि उस वक्त प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी श्री यशपाल कपूर ने उनके चुनाव में रायबरेली जाकर चुनाव प्रचार का काम संभाला था। इस बात पर श्रीमती गांधी का चुनाव निरस्त कर दिया गया और उनकी काफी भद्द पिटी। यहां तक कि उन्हें इमरजेंसी लगाकर अपनी जान बचानी पड़ी। 

पर तब से गंगा में बहुत पानी बह गया। अगर उस मापदंड को लिया जाए, तो देश के ज्यादातर बड़े नेताओं के चुनाव निरस्त हो सकते हैं। उन नेताओं के जो सत्ता में होते हुए चुनाव लड़ते हैं। मैं एक ऐसे आईएएस अधिकारी को जानता हूं जो अपने मंत्री के चुनाव प्रचार को संभालने के लिए एक महीने के अवकाश पर चले गए। सब काम गोपनीय तरीके से हुआ। पर निकट के लोग तो असलियत जानते ही हैं। एक ही उदाहरण क्यों, पिछले दस सालों में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों में अच्छी-खासी तादाद ऐसे अफसरों की हो गई है, जिन्होंने नैतिकता, नौकरी की मर्यादा और लोक-लाज तीनों का बड़ी निर्लज्जता से परित्याग कर दिया। सुश्री मायावती के साथ जिन अधिकारियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए गए, उन्होंने अगर अपने पद की गरिमा के अनुरूप विवेक से काम किया होता तो उनकी आज यह दुर्गति न होती। गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले भी श्री लिंग्दोह ने गुजरात के तमाम बड़े अधिकारियों पर भाजपा की सरकार के प्रति जरूरत से ज्यादा झुक जाने का आरोप लगाया था। कोई दल इसका अपवाद नहीं है। हर बड़ा नेता चाहता है कि उसके अधीनस्थ आईएएस या आईपीएस अधिकारी उसके निजी गुलाम की तरह काम करें। जो ऐसा करते हैं, उन्हें अपनी सेवा की भरपूर मेवामिलती है। न सिर्फ सेवाकाल में वे सत्ता के केन्द्र बन जाते हैं बल्कि अपने आका की सत्ता छिनने के बाद भी उन्हें मलाई मारने का भरपूर अवसर मिलता है। इस बात का आभास मिलते ही कि उनके आका की सत्ता हाथ से खिसकने वाली है, यह तमाम अधिकारी अपनी पोस्टिंग या तो दूसरे राज्य या केंद्र सरकार में इस प्रकार करवा लेते हैं कि उन पर कोई आंच न आए। या फिर सरकारी वजीफे पर अध्ययन के बहाने विदेश चले जाते हैं। इंतजार करते हैं उस वक्त का जब इनके आका फिर सत्ता में लौटें या फिर तब तक जब तक लोग उनके कारनामे भूल न जाएं। जो अधिकारी अपने आका के साथ बड़े घोटालों में फंस जाते हैं, उन्हें भी कोई खास परेशानी नहीं होती। सब जानते हैं कि चाहे सीबीआई जांच करे, या अदालत मुकदमे सुने। जितने बड़े नेता, उतने बड़े घोटाले और उतनी ही आसानी से कानून के शिकंजों से मुक्ति। जब आका ही छूट जाएंगे तो उनके दाएं-बाएं रहने वाले अधिकारी भी कब तक फंसे रहेंगे। बम्बइया फिल्म की तरह ऐसे हर घोटालों की सुखद समाप्ति होती है। देश को गिरवी रखने वाले बेदाग होकर मालाओं से लदे ढोल-नगाड़ों के बीच विजय का प्रतीक हवा में लहराते हुए विजेता के रूप में अदालतों से बाहर निकलते हैं। फिर चुनाव लड़ते हैं। आश्चर्य है कि जीत भी जाते हैं। शायद जनता भी यह मान ही बैठी है कि जब सभी चोर चोरी कर रहे हैं, तो चोरी कोई जुर्म नहीं। जीतने के बाद ये नेता दुर्दिन में रहे अपने पुराने सेवादारों को वापस सत्ता में खींच लेते हैं। अगर उनका सेवाकाल समाप्त होने को होता है, तो उसे अकारण बढ़वा देते हैं। अगर वे इस बीच सेवामुक्त हो चुके होते हैं, तो उन्हें सलाहकार या विशेष कार्याधिकारी बनवाकर फिर बुला लेते हैं। ठीक ही तो है, नया नौ दिन, पुराना सौ दिन। जिसने पिछले कार्यकाल में लूट के रास्ते साफ किए हों और अपने आका के इशारे पर प्रदेश की जनता के हितों को अनदेखा करने में कोई हिचक न दिखाई हो वैसा अधिकारी ही सब राजनेताओं को रास आता है। किसी एक व्यक्ति का नाम लेने से कोई लाभ नहीं, पर जो लोग रोजाना समाचारों पर निगाह रखते हैं वे जानते हैं कि हर राज्य और केन्द्र सरकार में ऐसे अधिकारियों की भरमार है जिन्होंने अपने राजनैतिक आका को खुश करने के लिए उनके तलुवे चाटना ही अपना जीवन धर्म बना रखा है। यह लोग सेवामुक्त होने के बाद भी अपने इसी गुणके कारण बरसों तक सरकारी बंगले, गाड़ी, हवाई जहाज और वेतन का सुख भोगते रहते हैं। इनमें से जिनकी पकड़ सत्ता पर ज्यादा हो जाती है, वे अनेक महत्वपूर्ण पदों पर भेज दिए जाते हैं। देश में भी और विदेश में भी।

पूरे मामले का निचोड़ यह है कि जो अधिकारी राजनैतिक आकाओं के तलुवे चाटने में हिचक महसूस नहीं करते, वे फायदे में ही रहते हैं। उनका न तो कोई घाटा होता है, न हीं उनके दुर्दिन ज्यादा समय तक रह पाते हैं। इन हालातों में यह स्वभाविक ही है कि अफसरशाही का झुकाव अपने राजनैतिक आकाओं को हर हालत में खुश रखने की तरफ बढ़ता जा रहा है। भौतिकता की इस अंधी दौड़ में जब हर आदमी रातों रात हर तरह की सुविधा जुटा लेना चाहता है तो देश की अफसरशाही क्यों पीछे रहे? जबकि भ्रष्टाचार तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है ही। बहुत थोड़े अधिकारी ऐसे बचे हैं जो अपने काम से काम रखते हैं और बिना विरोध का स्वर मुखर किए अपने राजनैतिक आकाओं को अपने पर हावी नहीं होने देते। पर यह सही है कि ऐसे सभी अधिकारी गैर महत्वपूर्ण पदों को ही सुशोभित करते हैं और शक्तिशाली मंत्रियों या राजनेताओं की नजरों में उनकी कोई उपयोगिता नहीं होती। पर इससे इन निष्ठावान अधिकारियों को कोई असर नहीं पड़ता। न तो ये तबादलों के पीछे भागते हैं और न ही इन्हें साधारण पोस्टिंग से कोई गिला-शिकवा होता है। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई मंत्री या मुख्यमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को अपने निकट रखना चाहे जिसका आचरण पाक साफ हो और जो केवल जनहित में कार्य करने की सोचता हो। 

आला अफसरांे में बढ़ती इस वृत्ति के कारण भारतीय लोकतंत्र बहुत तेजी से कमजोर होता जा रहा है। जब चाटुकारिता, दलाली या घोटाले करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों को केंद्र और राज्य सरकार के मंत्रालयों में महत्वपूर्ण पद मिलेंगे, तो उनसे वे राष्ट्र निर्माण की बात भला क्यूं सोचने लगे? जनता त्राहि-त्राहि करती रहे, उसकी हालत में रत्तीभर सुधार नहीं होता। पर ये चाटुकार अफसर और इनके आका को इससे क्या? इनका तो काम वो योजनाएं बनाना होता है जिससे रातों रात अकूत दौलत पैदा हो जाए। बहुत कम राजनेता होंगे, जो इस लोभ का संवरण कर पाते हैं। इसलिए एक-एक करके लोकतंत्र के सभी खंभे ढहते जा रहे हैं। विधायिका और कार्यपालिका के उपरोक्त आचरण से न्यायपालिका का आचरण भी भिन्न नहीं है। खुद भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा अपने पद पर रहते हुए कह चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। शायद इन्ही भ्रष्ट न्यायाधीशों के कारण भ्रष्ट राजनेता कानून की पकड़ से छूट जाते हैं। जनता में इससे हताशा फैलती है और लोकतंत्र के प्रति उसकी आस्था कमजोर पड़ जाती है। यह बहुत दुखद स्थिति है। 

श्री लिंग्दोह ने केवल छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के अफसरों पर उंगली उठाई है। पर हकीकत यह है कि देश का कोई भी प्रांत इस बीमारी से अछूता नहीं है। जब सजा मिलने का डर ही नहीं रहा, तो फिर चोरी भी चोरी से क्यों की जाए? जहां मौका मिले, हाथ मार दो। काका हाथरसी कहा करते थे, ‘‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर’’। लंबे चैड़े दावों के साथ आगामी विधानसभा चुनाव लड़े जा रहे हैं, पर जीतकर चाहे कोई भी आए आम जनता के हालात में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होने जा रहा। श्री लिंग्दोह भी कहां-कहां पकड़-धकड़ करेंगे?

Friday, November 7, 2003

राजस्थान में चुनाव महारानी और माली के बेटे के बीच मुकाबला

राजस्थान में चुनाव का बिगुल बज चुका है। दोनो सेनाएं आमने-सामने खड़े हैं क्योंकि मुकाबला भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इंका) के बीच है। सभी चुनावी सर्वेक्षण इस बात का आभास दे रहे हैं कि इंका के लिए यह चुनाव बहुत आसान हो चुका है। आकलन है कि इंका को 125 से कम सीट नहीं मिलेगी और भाजपा 60 से ज्यादा सीट किसी भी सूरत में जीत पाने की हालत में नहीं होगी। इसके पीछे कोई मौसमी बुखार या चुनावी हवा काम नहीं कर रही है। अब तक यही माना जाता था कि चुनाव के पहले किसी भी मुद्दे पर हवा बना कर मतदाताओं को बहकाया जा सकता है। कई चुनाव ऐसी हवा बना कर ही जीते गए। पर ज्यों-ज्यों लोगों में जागरूकता बढ़ रही है और उन तक सूचना पहुचाने का तंत्र व्यापक होता जा रहा है। त्यों-त्यों लोगों की राजनैतिक दलों से अपेक्षाएं बढ़ती जा रही है। अब वे नेताओं की कोरी बयानबाजी या भड़काऊं भाषण शैली से प्रभावित नहीं होते है। बल्कि ठोस काम देखना चाहते हैं। राजस्थान में इंका की मजबूत स्थिति के लिए यही बात जिम्मेेदार है। मुख्यमंत्री श्री अशोेक गहलोत ने अपने आचरण से जनता का दिल जीत लिया है। 

जहां भाजपा की नेता श्रीमती वसुंधरा राजे का अतीत, वर्तमान और आचरण उनके लिए बोझ बन गया है वहीं श्री अशोक गहलोत का अतीत, वर्तमान और व्यवहार उनकी ताकत बन कर सामने आया है। श्रीमती राजे महारानी थीं और आज भी राजनीति को राजदरबार की तरह चलाती हैं इसलिए उनके अपने दल के कार्यकर्ता ही उनसे कट चुके हैं तो फिर जनता के पास आने का तो सवाल ही नहीं उठता। दूसरी तरफ श्री अशोक गहलोत एक माली के बेटे थे और मुख्यमंत्री बन कर भी उन्होंने खुद को ऐशो-आराम में नहीं डुबोया बल्कि रात के दो-दो बजे तक काम किया और पूरे कार्यकाल में एक दिन चैन से नहीं बैठे, लगातार भागते रहे। अपने प्रदेश के हर इलाके का दौरा करते रहे। जिससे जनता से उनका संपर्क और संवाद मजबूत हुआ। उनकी यह मेहनत आज चुनाव में काम आ रही है।  अपने विधानसभा क्षेत्र के ही नहीं बल्कि पूरे राजस्थान के हर क्षेत्र के गांव के लोगों से सीधा जुड़ाव और व्यक्तिगत संपर्क आज श्री अशोक गहलोत की बहुत बड़ी ताकत है। वहीं दूसरी तरफ श्रीमती  वसुंधरा राजे यंू तो पिछले 14 वर्षों से झालवाड़ा संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहीं हंै। पर इतने वर्षों में भी अपने आम कार्यकर्ता से नहीं जुड़ पाईं। यहां एक उदाहारण पर्याप्त होगा। श्रीमती राजे ने आकाल के दौरान शोर मचाया कि उनके क्षेत्र में दर्जनों लोग भूख से मर गए। जब सारा मीडिया भाग कर वहां पहुंचा तो पता चला कि उनके आरोपों में कोई तथ्य नहीं था। कुछ महीने पहले तक तो श्रीमती वसुंधरा राजे को लोग राजस्थान में जानते तक नहीं थे। पिछले तीन-चार महीनों में चुनाव के कारण मीडिया में बार-बार उनका नाम आने से कुछ शहरी लोग उन्हें जानने लगे हैं।

आमतौर पर विपक्ष का काम होता है सरकार की गलतियों की तरफ जनता का ध्यान आकर्षित करना। अकाल के दौरान भाजपा ऐसा करने से चूक गई। श्री अशोक गहलोत ने भाजपाईयों से कहा कि वे केन्द्र से राज्य को मदद दिलाने में राजस्थान सरकार की मदद करें और फिर क्षेत्र में जाकर देखें कि उस मदद का सही इस्तेमाल हो रहा है कि नहीं। पर इतनी तकलीफ उठाने को भाजपा नेतृत्व तैयार नहीं था। सो आकाल के दौर में ठंडा पड़ा रहा और अब अपनी चिर-परिचित शैली में ब्लैक पेपर आदि छापकर अकाल के मुद्दे को उठाने की नाकाम कोशिश कर रहा है। राजस्थान के लोगों का कहना है कि लगातार चार वर्ष के अकाल के बावजूद मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत ने जिस कुशलता से राहत कार्यों का संचालन किया उससे उनके आलोचक भी उनके समर्थक बन गए है। श्री अशोक गहलोत ने हर जिले की निगरानी के लिए अपने मंत्रियों और सचिवों को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी। इस दौरान उन्होंने राजस्थान की जीर्ण क्षीर्ण पड़ी सड़कों को सुधारने का व्यापक अभियान चलाया और राजस्थान के धर्म क्षेत्रों को सड़कों से जोड़ दिया। इससे लोगों को रोजगार मिला और राज्य का       आधारभूत ढांचा मजबूत हुआ। शुरु के दौर में भाजपा के नेता श्री ललित चतुर्वेदी विधानसभा में गर्जन करते थे कि राजस्थान की सड़कों पर चल कर उनके हृदय में फफोले पड़ जाते हैं। उनका कहना था कि इन सड़कों पर इतने ज्यादा गढ्ढे हैं कि उन पर सीधा चला ही नहीं जा सकता। पर आज तस्वीर बिलकुल बदल चुकी है। राजस्थान की सड़कें अच्छी तरह सुधार दी गई हैं। जिसने पांच साल पहले इन सड़कों पर यात्रा की होगी वो अब इन सड़कों को देखकर खुद ही अंदाजा लगा सकता है कि कितना काम हुआ। इसी तरह अकाल के दौरान अच्छे अनाज का भी मुक्त हृदय से वितरण हुआ। बहुत सारे जनजातीय क्षेत्रों में जहां लोगों ने पहले अच्छा अनाज नहीं देखा था उन्हें अकाल राहत में खूब अच्छा अनाज बंटा। 

जहां दूसरे राज्यों में बार-बार बिजली की आपूर्ति में कटौती होती रही वहीं राजस्थान में बिजली की आपूर्ति लगातार सुधरती रही। राजस्थान सरकार के विद्युत विभाग के स्रोतों के अनुसार पिछले 50 वर्षों में बिजली का उत्पादन हुआ 3300 मेगावाट जबकि इन पांच वर्षों में उत्पादन हुआ 1800 मेगावाट। बिजली पैदा करने के लिए राजस्थान में जो भी परियोजनाएं लगी उन्होंने समय से पहले बिजली उत्पादन शुरू कर दिया। नतीजतन देहातों में भी सारी रात बिजली देने की व्यवस्था सुनिश्चित की गई। तीन वर्ष वर्ष पहले जब राजस्थान सरकार ने बिजली की दरे बढ़ाई थीं तो वहां भारी विरोध और हंगामा हुआ था। पर पिछले तीन सालों में बिजली की आपूर्ति इतनी संतोषजनक रही कि लोग अब बढे दाम को भूल गए।

आमतौर पर बड़े लोग गंभीर बीमारियों का इलाज खूब पैसे खर्च करके प्राइवेट अस्पतालों या विदेशों तक में करवा लेते हैं पर गरीब कहां जाए। राजस्थान के गरीब लोगों के इस दर्द को पहचान कर श्री अशोक गहलोत ने एक मुख्यमंत्री जीवन रक्षक कोष़ की स्थापना की। इस कोष से उन लोगों के महंगे इलाज की व्यवस्था की जाती हैं जो गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहते हैं और इस तरह का इलाज करवाने में सक्षम नहीं हैं। ऐसे जितने भी लोगों का इलाज पिछले वर्षों में राजस्थान सरकार ने करवाया वे सब लोग श्री अशोक गहलोत के मुरीद हो गए हैं और अपने गांवों में उनका यशगान करते हैं। 

अपने शासन के शुरूआती दौर में ही श्री अशोक गहलोत ने नौकरशाही की लगाम कसनी शुरू कर दी थी। सरकारी धन का अपव्यय रोकने के लिए उन्होंने सरकारी गाडि़यों के निजी इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। इससे नौकरशाही में काफी हड़कंप मचा था। पर जनता में इसका अच्छा संदेश गया। लोगों को लगा कि उनका मुख्यमंत्री जनता के पैसे की बर्बादी रोकने के मामले में गंभीर है। पारंपरिक रूप से भी राजस्थान के लोग सीधे-सच्चे तो होते ही है। पर फिर भी प्रशासन में भ्रष्टाचार न फैल पाए और सभी अधिकारी खुद को जनता के प्रति जवाबदेह माने इसलिए उन्होंने अफसरों पर काफी कड़ाई की है। इसका असर ये हुआ कि राजस्थान की नौकरशाही का रवैया जनता के प्रति सेवा भावी हो गया। इससे आम जनता विशेषकर शहरी लोगों को बहुत सुखद अनुभव हुए।

राजस्थान में यह अब मिथक टूट चुका है कि जनता सत्तारूढ दल से नाराज होकर विपक्षी दल को सत्ता सौप देगी। राजस्थान के लोग वर्तमान सरकार यानी श्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में इंका की सरकार ही बनाए रखना चाहते हैं। असलियत तो चुनावों के बाद ही सामने आएगी। पर ये अवश्य साफ है कि श्री अशोक गहलोत ने नारेबाजी से नहीं बल्कि अपने ठोस काम से जनता का दिल जीत लिया है। उनके नेतृत्व में राजस्थान में इंका को काफी सफलता मिलने की उम्मीद है।

Sunday, October 26, 2003

नैनीताल से सबक लें


आज जब देश के हर शहर में कूड़ें के अंबार लगते जा रह हैं और नगरपालिकाएं उसे साफ कर पाने में नाकाम स्द्धि हो रही हैं तब यह प्रश्न उठता है कि क्या ये कूड़ा इसी तरह हमारी जिंदगी की हिस्सा बन कर रहा जाएगा ? क्या प्लास्टिक के लिफाफे हमारे परिवेश, प्राकृतिक सौंदर्य और पर्यावरण में एक बदनुमा दाग की तरह सीना तान कर यूं ही लहराते रहेंगे ? क्या नगरपालिका का निकम्मापन और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी इस विकराल होती समस्या से कभी निपट भी पाएगी  ? क्या हम फिर से स्वच्छ पर्यावरण में जी पाएंगे ? इन सभी सवालों का जवाब हां में हैं और वो इसलिए कि हिमालय की चोटियों पर बसे शहर नैनीताल ने यह कर दिखाया है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि पर्यटन का इतना बड़ा केंद्र होते हुए भी नैनीताल में प्लास्टिक के लिाफाफों का प्रचलन बिलकुल नहीं है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि प्लास्टिक के लिफाफों में सामन रखना ज्यादा सुविधाजन और कीफायती होता है। खासकर तरल पदार्थ और गीले फल व सब्जियां पर नैनीताल में एक भी दुकानदार कोई भी वस्तु प्लास्टिक के थैले में रख कर नहीं बेचता, सब पुराने अखबार के बने लिफाफे प्रयोग करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि नैनीताल का मौसम बारहों महीने बरसात का सा रहता है। चाहे जब बादल घुमड़ आते हैं और जब उनका जी चाहे बरस जाते हैं। ऐसे नमी वाले वातावरण में पुराने अखबारों के लिफाफोें में कितना दम होता होगा इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी नैनीताल के फल वाले हों या सब्जी वाले, मिठाई वाले हों या किराना वाले, हर वस्तु इन्हीं पुराने अखबारों के लिफाफों में ग्राहकों को देते हैं। इन लिफाफों की कमजोरी जानते हुए नैनीताल के नागरिक खरीदारी करने जब निकलते हैं तो पहले जमाने की तरह घर से कपड़े का बना थैला लेकर निकलते हैं और यह व्यवस्था बड़ें सूचारू ढंग से चल रही हैं। पिछले कई वर्षों से नैनीताल में प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग बंद हैं। अखबार के लिफाफे इस्तेमाल करने से निर्धन लोगों को रोजगार भी मिला है और चूंकि अखबार पर्यावरण में स्वयं ही घुलमिल जाता   इसलिए इससे कोई प्रदूषण भी नहीं होता। यह व्यवस्था इतनी ईमानदारी व शक्ति से लागू की गई है कि प्लास्टिक का लिफाफा इस्तेमाल करने वाले पर फौरन चालान हो जाता है। नैनीताल  के जिलाधिकारी श्री एके घोस बताते हैं कि इस सफल प्रयोग के लिए सबसे ज्यादा श्रेय नैनीताल के जागरूक नागरिकों को है जिन्होंने कई बरस पहले प्लास्टिक के लिफाफों के कारण पर्यावरण पर हो रहे हमले के लिए खतरों को भांप लिया था तभी उन्होंने प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग स्व-प्रेरणा से ही बंद कर दिया। इसमें नैनीताल के व्यापार मंडल की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रही, बाद में सारे शहर ने इस अलिखित कानून को स्वीकार कर लिया। इसका सीधा प्रभाव नैनीताल और आसपास की पहाडि़यों पर पड़ा है। नैनीताल के बीचोबीच स्थित मशहूर नैनी झील अब पूरी तरह प्रदूषण से मुक्त है। उसकी सतह पर अब प्लास्टिक के लिफाफे नहीं तैरते। बल्कि पन्ने के जैसे रंग का खूबसूरत हरा-हरा पानी चारों ओर अपनी छटा बिखेरती हैं। नैनीताल के पर्यटन स्थलों के आसपास भी अब गंदगी के घेर नहीं दिखाई देते। यह उन लोगों के लिए आंख खोलने वाली बात हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों में, पर्यटन या तीर्थाटन के लिए प्रसिद्ध शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था देखते हैं। नैनीताल के उदााहारण से यह स्पष्ट है कि जनता और प्रशासनिक सहयोग से देश के सभी नगरों कीे गंदगी साफ की जा सकती है। लोगों को अपने परिवेश की सफाई सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन प्रेरित कर सकता है और प्लास्टिक पर सामूहिक राय से प्रतिबंध लगाया जा सकता है। चूंकि नैनीताल वासियों ने ऐसा संभव कर दिखाया है।  इतना ही नहीं उत्तांचल की सरकार ने पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए नैनीताल में भवन निर्माण को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया है। यूं नैनीताल के आसपास बसे बनोरम पर्यटक स्थल भीमताल आदि में काॅटेज निर्माण तेजी से जारी है पर इसका वैसा दूष्परिणाम यहां दिखाई नहीं देता जैसा शिमला जैसे शहरों में दिखता है जो कि अब पूरी तरह सीमेंट के जंगल में बदल चुका है। नैनीताल और आसपास के पहाड़ों पर संघन वृक्षों की मौजूदगी इस बात को सिद्ध करती है कि जनता द्वारा शुरू किए गए चिपको आंदोलन जैसे प्रयासों से वनों की अवैध कटाई को रोक दिया जा सकता हैं और देश की पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है। 

आज जबकि देश के अनेक इलाकों में पहाड़ों पर वनों की अवैध कटाई ने भू-खलन जैसी बड़ी समस्याएं पैदा कर दी हैं वहीं उत्तरांचल राज्य की नागरिकों की जागरूकता ने वनों की अवैध कटाई पर पूरी तरह प्रतिबंध लगवा दिया है। उत्तरांचल राज्य के लोगों को उम्मीद है कि अनुभवी प्रशासक और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ श्री नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तरांचल का क्रमशः विकास होगा। स्थानीय नागरिक कहते हैं कि पूरे उत्तर प्रदेश पर कई बार शासन कर चुके तिवारी जी के लिए उत्तरांचल राज्य तो बहुत छोटा है और इसमें कार्य क्षमता दिखाने का बहुत मौका उनके पास है। 

कुछ वर्ष पहले जब गुजरात के शहर सूरत में प्लेग फैला था तब पूरे प्रदेश में भगदड़ मच गई थी। तब जाकर  देश को पता चला कि सूरत में वर्षों से कूड़ें के अंबार लगे पड़ें हैं और कोई उसे उठाने वाला नहीं है।  उसी समय एक प्रशासनिक अधिकारी श्री राव ने बीड़ा उठाया और सूरत नगरपालिका के झंड़े तले असंभव को संभव कर दिखाया। आज सूरत का साफ-सूरत चेहरा देख कर कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता कि कभी यह शहर इतना गंदा भी रहा होगा। इससे साफ जाहिर है कि प्रशासनिक अधिकारी और स्थानीय जनता मिलकर यदि प्रयास करें तो अपने शहर को साफ कर सकते हैं। इस लेख लिखने का मकसद भी यही है कि जिन-जिन प्रांतों में यह लेख पढ़ा जाता है, उन प्रातों के नगरवासी नैनीताल से प्रेरणा लें कर अपने व्यापार मंडल और नगरपालिका के एक-एक प्रतिनिधि को नैनीताल भेज कर पूरी व्यवस्था को समझें और अपने यहां लागू करें। 

ऐसा नहीं है कि नैनीताल में सब कुछ सर्वोच्च कोटि का है। कुछ बातें वहां भी पर्यटकों को अखरती हैं। मसलन, मिनरल वाटर की बोतलें, बिस्कुट, चाॅकलेट व जूस जैसे खाने के सामानों के रंगीन पैकेट और पान मसाले के पाउच, आज भी नैनीताल और उसकी आसपास की पहाडि़यों पर बदनुमा दाग की तरह पड़े दिखाई दे जाते हैं। इस संबंध में नैनीताल की नगरपालिका को भी एक प्रयोग करनी चाहिए जिससे यह समस्या दूर हो सके। उन्हें चाहिए कि वे मिनरल वाटर बेचने वाली कंपनियों को इस बात का नोटिस दें कि वे अपने उत्पादों के कचड़े को उठाने की व्यवस्था स्वयं करें। ये कंपनियां पीने का पानी बेच कर अरबों रूपए कमा रही हैं और देश की पर्यावरण पर भार बनती जा रही हैं। इस संदर्भ में अमरीका का वह उदाहारण सार्थक रहेगा जिससे कोका कोला कंपनी ने ये पहल की थी। वहां कोका कोला कंपनी ने यह विज्ञापन दिए कि जो कोई भी नागरिक या बच्चा कोका कोला के दस खाली कैन (डिब्बे) लाकर वितरक के काउंटर पर देगा उसे एक भरा कैन मुफ्त मिलेगा। इसीतरह  जिन कंपनियों के उत्पादन आज नैनीताल में कचड़ा फैला रहे हैं उनको भी प्रेरित किया जा सकता है कि वे भी कुछ ऐसे ही स्कीम चला कर हिमालय की इन चोटियों को गंदा होने से बचाएं। जो कंपनी सहयोग न करे उसके उत्पादनों की बिक्री को नगरपालिका प्रतिबंधित कर दे या स्थानीय नागरिक उसका बहिष्कार कर दें। इस तरह नगरपालिका बिना अतिरिक्त आर्थिक भार बढ़ाए अपने पर्यावरण को साफ रख सकेगी। ऐसा ही प्रयोग देश के अन्य शहरों में भी किए जा सकते हैं। 

दूसरी जो बात नैनीताल में खलती है वो ये कि वहां की लोकप्रिय और सबसे ज्यादा भीड़ वाली माॅल रोड पर 24 घंटे कारों की आवाजाही लगी रहती है। इनमें से ज्यादातर कारें सरकारी हाकिमों की होती हैं।  इससे सैलानियों और स्थानीय नागरिकों को बेहद तकलीफ होती है। अब से कुछ वर्ष पहले तक इस सड़क पर वाहनों का आना-जाना प्रतिबंधित था। इतना ही नहीं आजादी के पहले तो इस सड़क पर भारतीय लोगों का भी चलना प्रतिबंधित था। केवल अंग्रेज इस पर घूमा करते थे और सड़क के शुरू में एक तखती टंगी रहती थी जिस पर लिखा होता था कि भारतीय लोगों और कुत्तों का प्रवेश निषेद।’’ आजादी मिली तो इस अपमानजनक प्रतिबंध से भी छुट्टी मिली पर आजादी का मतलब ये तो नहीं की हमें अपने परिवेश से मनमानी करने की छुट मिल जाए ? ये तो साझी धरोहर है। जो आज हमे सुख दे रहे हैं कल आने वाली पीढि़यों को सुख देगी। बशर्तें की हम इसका समूचित संरक्षण कर सकें। 

आज जब चारों ओर निराशा के बादल छाएं हैं राजनैतिक दल जोड़तोड़ में लगे रहते हैं। प्रशासनिक व्यवस्थाएं फिजूलखर्ची की मार से बेदम होती जा रही हैं ऐसे में सूरत और नैनीताल जैसे सफल प्रयोग आशा की किरन बन कर आती है। और वो प्रेरणा देते हैं हम सबको कि अभी भी सब कुछ नहीं लुटा जो बाकी हैं उसे भी अगर बचा लोगे तो खुद तो सुखी होगे ही तुम्हारी आने वाली पीढियां भी सुख पाएगी। व्यवस्था में दोषों का बखान करना सरल हैं पर व्यवस्था बना कर उसे चलाना बहुत दुष्कर। नैनीताल के नागरिक तो बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने अपने शहर की खूबसूरती बढ़ाने में इतना सहयोग किया पर साथ ही यह चुनौती उन सभी शहरों के लिए हैं जो गंदगी के ढेरों के बीच नारकीय जीवन जी रहे हैं, इस उम्मीद में कि कभी कोई मसीहा पैदा होगा और वो उन्हें उनके चारों तरफ की गंदगी से निजात दिलाएगा। ऐसे ख्याली पोलाव पकाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

Friday, October 17, 2003

फर्जी संेसर प्रमाण पत्रों पर चल रही हैं अश्लील फिल्में


पिछले एक दशक से देश भर में अश्लील फिल्मों के प्रदर्शन की बाढ़ सी आ गई हैं। चाहे गांव का वीडियों थिएटर हो या शहरों के सिनेमाघर। बड़ी भारी तादात में ये अश्लील फिल्में दिखाई जा रही हैं। दरअसल अश्लील शब्द इनके लिए हल्का पड़ता है। बाकायदा ब्लू फिल्में ही हैं जो देश भर के थिएटरों में खुलेआम धड़ल्ले से चल रही हैं। इनमें वो सब कुछ दिखाया जाता है जिसको ब्लू फिल्म के दायरे में रखा जाता है यानी संभोग और विकृत सेक्स की सभी मुद्राएं खुलेआम सिनेमाहाॅलों में दिखाई जा रही हैं। इन फिल्मों के पोस्टर भी कम उत्तेजक नहीं होते। उन पर बड़ा-बड़ा लिखा होता है, ‘अंगे्रजी फिल्म का हिन्दी रूपांतरण।पोस्टर इतने भड़काऊ होते हैं कि किशोर और किशोरियों को भी सिनेमाहाॅल तक खींच लाते हैं जिससे इन सिनेमाघरों का कारोबार बढि़यां चल रहा हैं। केबल टीवी के आ जाने से जहां साफ सुथरी फिल्मों के दर्शकों की संख्या थिएटर में घटी है वहीं वयस्क फिल्मों के नाम पर चलने वाली इन ब्लू फिल्मों के दर्शकों की तादाद अच्छी-खासी बढ़ गई है। मजे की बात ये है कि जब इन फिल्मों का प्रदर्शन होता है तो पर्दे पर सबसे पहले फिल्म सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र दिखाया जाता है। पर जब फिल्म में कामुक दृश्यों का खुला प्रदर्शन होता है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर फिल्म सेंसर बोर्ड ऐसी फिल्मों को प्रमाण पत्र कैसे दे देता है ? ऐसी 59 फिल्मों की एक सूची जब मुरादाबाद के एडवोकेट श्री संजय कुमार बंसल ने सेंसर बोर्ड को भेजी और उनसे पूछा कि क्या ये सभी फिल्में आपके द्वारा प्रमाणित की गई हैं तो उन्हें जवाब मिला कि उनमें से मात्र 18 फिल्मों को ही सेंसर बोर्ड ने प्रमाण पत्र जारी किया था। साफ था कि 41 फिल्में बिना प्रमाण पत्र के सिनेमाघरों में दिखाई जा रही हैं। इनमें दिखाया जाने वाला सेंसर का प्रमाण पत्र फर्जी था। श्री बंसल ने इसके बाद स्थानीय पुलिस प्रशासन व तत्कालीन केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज को लिखा और उनसे कड़े कदम उठाने की मांग की। पर नतीजा शून्य ही रहा किसी ने कोई कार्यवाही नहीं की।

अक्सर अखबारों में खबर छपती है कि वीसीडी निर्माता के कारखाने में छापा’, ‘भारी मात्रा में ब्लू फिल्में पकड़ी गईं।खबर पढ़कर लगता है कि पुलिस ने वाकई प्रशंसनीय कार्य किया। दरअसल ये धर पकड़ केवल प्रतीकात्मक होती है। अगर पुलिस वास्तव में ब्लू फिल्मों के प्रदर्शन को रोकना चाहती है जिसके लिए वह सक्षम भी है और उसके लिए उसके पास कानूनी अधिकार भी है तो ऐसा कैसे होता है कि उसकी नाक तले शहर के थिएटरों में खुलेआम ब्लू फिल्म चलती रहती है?  ऐसा कैसे होता है कि जब कोई जागरूक नागरिक पुलिस से ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन को रोकने की गुहार करता है तो पुलिस उसे अनदेखा कर देती है ? ऐसा कैसे हो सकता है कि देश के चप्पे-चप्पे पर नजर रखने वाली भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्री को इसकी खबर तक न हो कि देश में अश्लीलता का खुला नंगा नाच हो रहा है ? साफ जाहिर है कि अश्लील फिल्मों का प्रदर्शन भारी मुनाफे का सौदा है और इस मुनाफे में जिम्मेदार लोगों की हिस्सेदारियां बटीं हैं। एक लंबी फेहरिस्त है ऐसी फिल्मों की जिनके पोस्टर खुलेआम देश में लग रहे हैं। जिनके शीर्षक भी बड़े उत्तेजक होते हैं। जैसे बेवफा आशिक’, ‘खूनी कातिल’, ‘नशीली आंखें’, ‘प्यार की तलाशया जोशीली लैला।ऐसे पोस्टरों को देखकर स्थानीय पुलिस फौरन सक्रिय हो सकती है। पर नहीं होती और सेंसरशिप के कानूनों का खुला उल्लंघन होता है। 

चलचित्र अधिनियम 1952 के दंड प्रावधानों को लागू करना राज्य सरकार का कार्य है क्योंकि फिल्मों का प्रदर्शन करने का विषय राज्य से संबंधित है। लोगों के मन को आंदोलित करने वाले मुख्य उल्लंघन कई हैं। यानी व्यस्यक प्रमाण पत्र वाली फिल्म का प्रदर्शन नाबालिगों के लिए करना या एसप्रमाण पत्र वाली फिल्मों का प्रदर्शन स्वीकृत वर्ग की बजाय अन्य वर्ग के लिए करना या प्रमाण पत्र के मिलने के बाद फिल्म के काटे हुए अंशों को पुनः फिल्म में जोड़कर दिखाना। इस तरह के तमाम कानूनी उल्लंघन इन फिल्मों के निर्माताओं व वितरकों द्वारा रोज़ाना किए जा रहे हैं। देश कल्याण समितिनाम के एक जागरूक संगठन ने पिछले महीने 62 फिल्म निर्माताओं और वितरकों के नाम-पतों की सूची भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजी है। जिन्होंने इस तरह की अश्लील फिल्म का निर्माण या वितरण किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री इस मामले में कोई ठोस पहल करेंगे। जहां तक सेंसर बोर्ड का प्रश्न है उसका कहना है कि अगर किसी जागरूक नागरिक को  ऐसी जानकारी मिलती है कि ब्लू फिल्म किसी सिनेमा हाॅल में दिखाई जा रही है तो उसे तुरंत पुलिस को सूचित करना चाहिए और छापा डलवाकर उस फिल्म की रील जब्त कर लेनी चाहिए। फिर उसे सील बंद डिब्बे में सेंसर बोर्ड के पास भेज दिया जानी चाहिए। ताकि ये जांच की जा सके कि फिल्म में काटा गया हिस्सा जोड़ा गया है या नहीं। पर सेंसर बोर्ड को ये कौन समझाए कि सिनेमाहाॅलों से नियमित भत्ता लेकर पुलिस अपनी आंखें बद कर लेती है। छापा डालना तो दूर वो ऐसे सिनेमाघरों की तरफ रूख भी नहीं करेगी। एक बात और जिन फिल्मों को प्रमाण पत्र दिया ही नहीं गया उनको सेंसर बोर्ड कैसे परखेगा? इसलिए जनता असहाय है और सिनेमा मालिकों और स्थानीय पुलिस व प्रशासन दोनो की चांदी कट रही है। मजे की बात ये है कि भारत की प्राचीन संस्कृति, हिन्दू धर्म और नैतिकता की दुहाई देने वाली भाजपा की प्रांतीय और केन्द्रीय सरकारों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश तक में ऐसा होता आ रहा था। वहां श्री बंसल की गुहार की परवाह नहीं की गई। वैसे कोई भी राज्य इससे अछूता नहीं है और यह सभी जागरूक माता-पिता के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। 

1989 में जब हमने देश में पहली बार हिन्दी में स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता की शुरूआत की तो हमारी वीडियों मैगजीन कालचक्रको संेसर बोर्ड ने बार-बार रोका और हमसे महत्वपूर्ण राजनैतिक रिपोर्टों के वे अंश काटने को कहा जो न सिर्फ तथ्यात्मक थे बल्कि देश के राजनैतिक पतन का स्पष्ट प्रमाण देते थे। उस वक्त हमने दो काम किए एक तो समाचारों को सेंसर करने की उसकी नीति को अदालत में चुनौती दी और दूसरा एक रिपोर्ट उसी के कारनामों पर बनाई जिसमें ऐसी फिल्मों के अंश दिखाए जो सेंसर बोर्ड की परिभाषा में प्रदर्शन के योग्य नहीं थे। फिर भी उन्हें पास किया गया। सेटलाइट चैनलों के आ जाने के बाद वीडियों या टीवी समाचारों को सेंसर करना तो कोई मुद्दा ही नहीं रहा पर अश्लील फिल्मों या ब्लू फिल्मों के प्रदर्शन पर नियंत्रण कर पाने की  सेंसर बोर्ड की नाकामी उसके अस्तित्व और उसकी सार्थकता पर प्रश्नचिंह लगा देती है। आश्चर्य की बात है कि जो सरकार, पुलिस और प्रशासन जनहित में सवाल खड़े करने वालों को बेरहमी से कुचल देता है वहीं पुलिस और प्रशासन ब्लू फिल्म दिखाने वालों की कमर क्यों नहीं तोड़ पाता? कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ताधीशों की मन्शा यही हो कि जनता और खासकर किशोर, ऐसे भौंडे मनोरंजन के मोहजाल में फंसे रहे और अपना हक न मांगे। जिस तरह चीन के लोगों को अफीम के नशें की लत डालकर विदेशियों ने चीन का आर्थिक दोहन किया उसी प्रकार भारत के आम लोगों को ऐसी फिल्मों की लत डालकर गुमराह किया जा रहा है। जो भी हो यह चिंता का विषय है और जागरूक माता-पिता इसे अनदेखा करके चुप नहीं बैठ सकते।