Sunday, October 26, 2003

नैनीताल से सबक लें


आज जब देश के हर शहर में कूड़ें के अंबार लगते जा रह हैं और नगरपालिकाएं उसे साफ कर पाने में नाकाम स्द्धि हो रही हैं तब यह प्रश्न उठता है कि क्या ये कूड़ा इसी तरह हमारी जिंदगी की हिस्सा बन कर रहा जाएगा ? क्या प्लास्टिक के लिफाफे हमारे परिवेश, प्राकृतिक सौंदर्य और पर्यावरण में एक बदनुमा दाग की तरह सीना तान कर यूं ही लहराते रहेंगे ? क्या नगरपालिका का निकम्मापन और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी इस विकराल होती समस्या से कभी निपट भी पाएगी  ? क्या हम फिर से स्वच्छ पर्यावरण में जी पाएंगे ? इन सभी सवालों का जवाब हां में हैं और वो इसलिए कि हिमालय की चोटियों पर बसे शहर नैनीताल ने यह कर दिखाया है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि पर्यटन का इतना बड़ा केंद्र होते हुए भी नैनीताल में प्लास्टिक के लिाफाफों का प्रचलन बिलकुल नहीं है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि प्लास्टिक के लिफाफों में सामन रखना ज्यादा सुविधाजन और कीफायती होता है। खासकर तरल पदार्थ और गीले फल व सब्जियां पर नैनीताल में एक भी दुकानदार कोई भी वस्तु प्लास्टिक के थैले में रख कर नहीं बेचता, सब पुराने अखबार के बने लिफाफे प्रयोग करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि नैनीताल का मौसम बारहों महीने बरसात का सा रहता है। चाहे जब बादल घुमड़ आते हैं और जब उनका जी चाहे बरस जाते हैं। ऐसे नमी वाले वातावरण में पुराने अखबारों के लिफाफोें में कितना दम होता होगा इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी नैनीताल के फल वाले हों या सब्जी वाले, मिठाई वाले हों या किराना वाले, हर वस्तु इन्हीं पुराने अखबारों के लिफाफों में ग्राहकों को देते हैं। इन लिफाफों की कमजोरी जानते हुए नैनीताल के नागरिक खरीदारी करने जब निकलते हैं तो पहले जमाने की तरह घर से कपड़े का बना थैला लेकर निकलते हैं और यह व्यवस्था बड़ें सूचारू ढंग से चल रही हैं। पिछले कई वर्षों से नैनीताल में प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग बंद हैं। अखबार के लिफाफे इस्तेमाल करने से निर्धन लोगों को रोजगार भी मिला है और चूंकि अखबार पर्यावरण में स्वयं ही घुलमिल जाता   इसलिए इससे कोई प्रदूषण भी नहीं होता। यह व्यवस्था इतनी ईमानदारी व शक्ति से लागू की गई है कि प्लास्टिक का लिफाफा इस्तेमाल करने वाले पर फौरन चालान हो जाता है। नैनीताल  के जिलाधिकारी श्री एके घोस बताते हैं कि इस सफल प्रयोग के लिए सबसे ज्यादा श्रेय नैनीताल के जागरूक नागरिकों को है जिन्होंने कई बरस पहले प्लास्टिक के लिफाफों के कारण पर्यावरण पर हो रहे हमले के लिए खतरों को भांप लिया था तभी उन्होंने प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग स्व-प्रेरणा से ही बंद कर दिया। इसमें नैनीताल के व्यापार मंडल की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रही, बाद में सारे शहर ने इस अलिखित कानून को स्वीकार कर लिया। इसका सीधा प्रभाव नैनीताल और आसपास की पहाडि़यों पर पड़ा है। नैनीताल के बीचोबीच स्थित मशहूर नैनी झील अब पूरी तरह प्रदूषण से मुक्त है। उसकी सतह पर अब प्लास्टिक के लिफाफे नहीं तैरते। बल्कि पन्ने के जैसे रंग का खूबसूरत हरा-हरा पानी चारों ओर अपनी छटा बिखेरती हैं। नैनीताल के पर्यटन स्थलों के आसपास भी अब गंदगी के घेर नहीं दिखाई देते। यह उन लोगों के लिए आंख खोलने वाली बात हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों में, पर्यटन या तीर्थाटन के लिए प्रसिद्ध शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था देखते हैं। नैनीताल के उदााहारण से यह स्पष्ट है कि जनता और प्रशासनिक सहयोग से देश के सभी नगरों कीे गंदगी साफ की जा सकती है। लोगों को अपने परिवेश की सफाई सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन प्रेरित कर सकता है और प्लास्टिक पर सामूहिक राय से प्रतिबंध लगाया जा सकता है। चूंकि नैनीताल वासियों ने ऐसा संभव कर दिखाया है।  इतना ही नहीं उत्तांचल की सरकार ने पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए नैनीताल में भवन निर्माण को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया है। यूं नैनीताल के आसपास बसे बनोरम पर्यटक स्थल भीमताल आदि में काॅटेज निर्माण तेजी से जारी है पर इसका वैसा दूष्परिणाम यहां दिखाई नहीं देता जैसा शिमला जैसे शहरों में दिखता है जो कि अब पूरी तरह सीमेंट के जंगल में बदल चुका है। नैनीताल और आसपास के पहाड़ों पर संघन वृक्षों की मौजूदगी इस बात को सिद्ध करती है कि जनता द्वारा शुरू किए गए चिपको आंदोलन जैसे प्रयासों से वनों की अवैध कटाई को रोक दिया जा सकता हैं और देश की पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है। 

आज जबकि देश के अनेक इलाकों में पहाड़ों पर वनों की अवैध कटाई ने भू-खलन जैसी बड़ी समस्याएं पैदा कर दी हैं वहीं उत्तरांचल राज्य की नागरिकों की जागरूकता ने वनों की अवैध कटाई पर पूरी तरह प्रतिबंध लगवा दिया है। उत्तरांचल राज्य के लोगों को उम्मीद है कि अनुभवी प्रशासक और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ श्री नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तरांचल का क्रमशः विकास होगा। स्थानीय नागरिक कहते हैं कि पूरे उत्तर प्रदेश पर कई बार शासन कर चुके तिवारी जी के लिए उत्तरांचल राज्य तो बहुत छोटा है और इसमें कार्य क्षमता दिखाने का बहुत मौका उनके पास है। 

कुछ वर्ष पहले जब गुजरात के शहर सूरत में प्लेग फैला था तब पूरे प्रदेश में भगदड़ मच गई थी। तब जाकर  देश को पता चला कि सूरत में वर्षों से कूड़ें के अंबार लगे पड़ें हैं और कोई उसे उठाने वाला नहीं है।  उसी समय एक प्रशासनिक अधिकारी श्री राव ने बीड़ा उठाया और सूरत नगरपालिका के झंड़े तले असंभव को संभव कर दिखाया। आज सूरत का साफ-सूरत चेहरा देख कर कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता कि कभी यह शहर इतना गंदा भी रहा होगा। इससे साफ जाहिर है कि प्रशासनिक अधिकारी और स्थानीय जनता मिलकर यदि प्रयास करें तो अपने शहर को साफ कर सकते हैं। इस लेख लिखने का मकसद भी यही है कि जिन-जिन प्रांतों में यह लेख पढ़ा जाता है, उन प्रातों के नगरवासी नैनीताल से प्रेरणा लें कर अपने व्यापार मंडल और नगरपालिका के एक-एक प्रतिनिधि को नैनीताल भेज कर पूरी व्यवस्था को समझें और अपने यहां लागू करें। 

ऐसा नहीं है कि नैनीताल में सब कुछ सर्वोच्च कोटि का है। कुछ बातें वहां भी पर्यटकों को अखरती हैं। मसलन, मिनरल वाटर की बोतलें, बिस्कुट, चाॅकलेट व जूस जैसे खाने के सामानों के रंगीन पैकेट और पान मसाले के पाउच, आज भी नैनीताल और उसकी आसपास की पहाडि़यों पर बदनुमा दाग की तरह पड़े दिखाई दे जाते हैं। इस संबंध में नैनीताल की नगरपालिका को भी एक प्रयोग करनी चाहिए जिससे यह समस्या दूर हो सके। उन्हें चाहिए कि वे मिनरल वाटर बेचने वाली कंपनियों को इस बात का नोटिस दें कि वे अपने उत्पादों के कचड़े को उठाने की व्यवस्था स्वयं करें। ये कंपनियां पीने का पानी बेच कर अरबों रूपए कमा रही हैं और देश की पर्यावरण पर भार बनती जा रही हैं। इस संदर्भ में अमरीका का वह उदाहारण सार्थक रहेगा जिससे कोका कोला कंपनी ने ये पहल की थी। वहां कोका कोला कंपनी ने यह विज्ञापन दिए कि जो कोई भी नागरिक या बच्चा कोका कोला के दस खाली कैन (डिब्बे) लाकर वितरक के काउंटर पर देगा उसे एक भरा कैन मुफ्त मिलेगा। इसीतरह  जिन कंपनियों के उत्पादन आज नैनीताल में कचड़ा फैला रहे हैं उनको भी प्रेरित किया जा सकता है कि वे भी कुछ ऐसे ही स्कीम चला कर हिमालय की इन चोटियों को गंदा होने से बचाएं। जो कंपनी सहयोग न करे उसके उत्पादनों की बिक्री को नगरपालिका प्रतिबंधित कर दे या स्थानीय नागरिक उसका बहिष्कार कर दें। इस तरह नगरपालिका बिना अतिरिक्त आर्थिक भार बढ़ाए अपने पर्यावरण को साफ रख सकेगी। ऐसा ही प्रयोग देश के अन्य शहरों में भी किए जा सकते हैं। 

दूसरी जो बात नैनीताल में खलती है वो ये कि वहां की लोकप्रिय और सबसे ज्यादा भीड़ वाली माॅल रोड पर 24 घंटे कारों की आवाजाही लगी रहती है। इनमें से ज्यादातर कारें सरकारी हाकिमों की होती हैं।  इससे सैलानियों और स्थानीय नागरिकों को बेहद तकलीफ होती है। अब से कुछ वर्ष पहले तक इस सड़क पर वाहनों का आना-जाना प्रतिबंधित था। इतना ही नहीं आजादी के पहले तो इस सड़क पर भारतीय लोगों का भी चलना प्रतिबंधित था। केवल अंग्रेज इस पर घूमा करते थे और सड़क के शुरू में एक तखती टंगी रहती थी जिस पर लिखा होता था कि भारतीय लोगों और कुत्तों का प्रवेश निषेद।’’ आजादी मिली तो इस अपमानजनक प्रतिबंध से भी छुट्टी मिली पर आजादी का मतलब ये तो नहीं की हमें अपने परिवेश से मनमानी करने की छुट मिल जाए ? ये तो साझी धरोहर है। जो आज हमे सुख दे रहे हैं कल आने वाली पीढि़यों को सुख देगी। बशर्तें की हम इसका समूचित संरक्षण कर सकें। 

आज जब चारों ओर निराशा के बादल छाएं हैं राजनैतिक दल जोड़तोड़ में लगे रहते हैं। प्रशासनिक व्यवस्थाएं फिजूलखर्ची की मार से बेदम होती जा रही हैं ऐसे में सूरत और नैनीताल जैसे सफल प्रयोग आशा की किरन बन कर आती है। और वो प्रेरणा देते हैं हम सबको कि अभी भी सब कुछ नहीं लुटा जो बाकी हैं उसे भी अगर बचा लोगे तो खुद तो सुखी होगे ही तुम्हारी आने वाली पीढियां भी सुख पाएगी। व्यवस्था में दोषों का बखान करना सरल हैं पर व्यवस्था बना कर उसे चलाना बहुत दुष्कर। नैनीताल के नागरिक तो बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने अपने शहर की खूबसूरती बढ़ाने में इतना सहयोग किया पर साथ ही यह चुनौती उन सभी शहरों के लिए हैं जो गंदगी के ढेरों के बीच नारकीय जीवन जी रहे हैं, इस उम्मीद में कि कभी कोई मसीहा पैदा होगा और वो उन्हें उनके चारों तरफ की गंदगी से निजात दिलाएगा। ऐसे ख्याली पोलाव पकाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

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