Friday, March 7, 2003

शिमला का संदेश


हिमाचल प्रदेश का चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण था इसलिए सारे देश की निगाह इस पर लगी थी। गुजरात के बाद जहां भाजपा में हिंदुत्व के एजेंडे पर अति उत्साह था वहीं इंका असमंजस में थी कि वो क्या करे ? नर्म हिंदुत्व अपनाए या धर्मनिरपेक्षतावाद पर ही चलती रहे। हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों ने यह सिद्ध किया कि केवल हिन्दुत्व के नाम पर मतदाता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। कुशल और पारदर्शी प्रशासन देना भी उतना ही जरूरी है जितना भविष्य के सुनहरे सपने दिखाना। हिमाचल प्रदेश के 99 फीसदी मतदाता हिन्दू हैं और भाजपा हिमाचल प्रदेश को अपना गढ मानती आई है फिर भी वहां के मतदाताओं ने कांग्रेस की सरकार बनाना तय किया और भाजपा को धूल चटा दी।

प्रधानमंत्री इसके लिए पार्टी की आंतरिक कलह को दोषी ठहराते हैं। यह सही है कि आज भाजपा में जितनी आंतरिक कलह है उतनी चार-पांच वर्ष पहले नहीं थी। अगर कोई मतभेद थे भी तो वे शीर्ष स्तर के राजनेताओं के बीच में थे। भाजपा का सामान्य कार्यकर्ता हिंदुत्व के लिए समर्पित था। त्याग करने को तैयार था और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कड़ी टेªनिंग के कारण कम खर्चे मेें काम चलाने का अभ्यस्त था। वाजपेयी जी को सोचना चाहिए कि उनका कार्यकर्ता आज देश सेवा की उसी भावना से काम क्यों नहीं कर रहा ? शायद वाजपेयी जी को मालूम हो कि जबसे केन्द्र और राज्यों में भाजपा की सरकार बनी है तब से भाजपा की सरकारों ने भ्रष्टाचार के पुराने सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं। सत्ता की मोहिनी अच्छे-अच्छे तपस्वियों का ईमान डिगा देती है। भाजपा से जुड़ा हर व्यक्ति जानता है कि इस भ्रष्टाचार की नदी में डूबने वाले भाजपा के हर स्तर के नेता अपने कार्यकर्ताओं से रिश्वत और लूट की रकम नहीं बांटते। भाजपा के जो नेता सत्ता में रह लिए है उनका जीवन स्तर रातो रात कई गुना बढ़ गया है। जबकि आम कार्यकर्ता जस के तस हैं। इससे उनके मन में भारी आक्रोश है। भाजपा में चल रही अंदरूनी गुटबाजी का यही कारण है। पुरानी कहावत है कि, ‘हम भी खेलेंगे, नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे।सो, इन कार्यकर्ताओं ने भाजपा का हिमाचल प्रदेश में खेल बिगाड़ दिया। अन्य राज्यों में भी भाजपा की स्थिति कोई अच्छी नहीं। वहां भी इसी तरह की अंतर-कलह चल रही है। जिसे अगर रोका न गया तो भाजपा को हिमाचल प्रदेश से भी ज्यादा बड़ी पराजय का मुंह देखना पड़ सकता है।

मुश्किल ये है कि एक तरफ तो संघ है जो त्याग, तपस्या और राष्ट्रनिर्माण की शिक्षा देता है और दूसरी तरफ सत्ता की मोहिनी है। जिसकी काजल कोठरी में जो भी जाता है वह हाथ काले किए बिना नहीं रहता। यहां तक कि संघ से आए हुए राजनेता भी भाजपा में आकर वहीं करते हैं, जो एक सामान्य भ्रष्ट राजनेता करता है। पर उपदेश कुशल बहुतेरेइस उक्ति को चरितार्थ करने वाले भाजपाई नेता आए दिन अपने कार्यकर्ताओं को देश और धर्म के लिए बड़े-बड़े त्याग करने का आह्वाहन करते रहते हैं और खुद पांच सितारा जिंदगी का मजा उड़ाते हैं।

संघ की भी अजीब प्रवृत्ती है। इसके वरिष्ठ नेता केवल अपनी महानताका महिमा मंडनसुनना चाहते हैं। उनकी आलोचना करने वाले शुभचिंतक भी उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते। जबसे भाजपा प्रांतों और केन्द्र के सत्ता में आई है तब से हर जिले में संघ के ही कुछ नेता सत्ता की दलाली करने में ही लग गए हैं, यह बात उन शहरों के आम मतदाता भी जानते हैं। इसलिए यह मानने का कोई कारण नहीं कि संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी इस पतन से अनभिज्ञ हों। दुख की बात तो ये है कि सब जानते हुए भी वे खामोश रहते हैं और सुधार का कोई प्रयास नहीं करते। अब से कुछ वर्ष पहले तक तो संघ वाले अपनी आलोचना तक सुनने को तैयार नहीं होते थे। अब चिंतन शिविरों में स्वयं सेवकों को बंद कमरे में अपनी भड़ास निकालने दी जाती है। पर यह जरूरी नहीं कि इस तरह सामने आईं कमियों को दूर करने का कोई प्रयास किया जाए। इसीलिए भाजपा और उससे जुडे़ संगठनों में दरार पड़ती जा रही है। गुटबाजी बढ़ रही है।

गुजरात का चुनाव एक अजीबो-गरीब माहौल में लड़ गया। लोगों की भावनाएं भड़काने की पुरजोर कोशिश की गई। पर बाकी राज्यों में ऐसे हालात बन पाएंगे, कहना मुश्किल है। हिमाचल प्रदेश उसका ताजा उदाहारण है। जहां एक तरफ इंका और उसके सहयोगी दलों को इस बात का संतोष है कि हिमाचल प्रदेश के मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी ब्रांड पाॅलिटिक्सको अस्वीकार कर दिया वहीं भाजपा की चिंता का विषय है कि अब वो ऐसा क्या करें कि मतदाताओं को लुभाया जा सके। हिंदुत्व के मुद्दे के अलावा उसके पास दूसरा कोई एजेंडा नहीं है जो इस देश के करोड़ों मतदाओं का मन जीत सके। पर हिंदुत्व के नाम पर भाजपा के शिखर नेतृत्व ने सत्ता में आने के बाद जो रवैया अपनाया था उससे हिदुवादियों का मन टूट गया। नरेन्द्र मोदी की रणनीति अगर गुजरात में सफल न हुई होती तो भाजपा का शिखर नेतृत्व अभी भी धर्म के मामले में भ्रामक और अतंरविरोधी बयानबाजी करता रहता। भाजपा की चिंता का यह अहम विषय है कि अब वो किस रास्ते चले। जो जनता को एक बार फिर बहका कर सत्ता में बने रहा जाए।

अनेक पत्रकारों ने अपने स्तंभों के माध्यम से समय-समय पर भाजपा को उसके गिरते ग्राफ के प्रति सचेत किया है पर भाजपा का नेतृत्व सत्ता के दलालों से इस तरह घिरा है कि उसे सही और गलत का फर्क नजर नहीं आता। केवल चुनाव हारने के बाद मंथन किया जाता है, जीतने के बाद नहीं। दरअसल अपने संगठन को चुस्त-दुरूस्त बनाना भाजपा के लिए कोई असंभव कार्य नहीं था बशर्ते कि उनकी मंशा ऐसी होती। कम्युनिस्टों के अलावा संघ के पास ही समर्पित कार्यकर्ताओं की एक लंबी फौज मौजूद है। पर जब उन्हें गंगोत्री में से पतनाला बहता हुआ दिखाई देता है तो वे भी निराश हो जाते हैं। पार्टी महासचिव श्री प्रमोद महाजन ने भावी चुनावों की रणनीति बनाने पर जो दिया है। भाजपा का ध्यान अब मध्य प्रदेश और राजस्थान की तरफ लगा है। दोनों प्रमुख हिन्दी भाषी राज्य है। इन प्रांतों में भाजपा धार्मिक मुद्दे उछाल कर मतदाताओं को मोहना चाहती है। पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह सरीखे इंका नेता, भाजपा को उसके ही मुद्दों में उलझा कर पटकनी देने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में भाजपा की राह आसान न होगी।

उधर इंका नेता श्रीमती सोनिया गांधी का यह कहना कि हिमाचल प्रदेश की हार भाजपा के हिंदुवादी एजेंडे ही हार है, ठीक नहीं है। दरअसल, श्रीमती गांधी को कहना यह चाहिए था कि भाजपा की हार उसके छद्म हिंदुवाद की हार है। अगर भाजपा वास्तव में हिन्दू धर्म के लिए समर्पित दल है तो क्या वजह है कि बहु संख्यक हिंदू संत समाज  भाजपा से इतना नाराज है कि अब पहले की तरह उसके मंचों पर उसका समर्थन करने को तैयार नहीं हैंै। श्रीमती गांधी को केवल धर्मनिरपेक्षता का राग ही नहीं अलापना चाहिए। इस मामले में हिन्दुओं की भावनाओं की भी कद्र की जानी चाहिए। चाहे वह गौ हत्या का प्रश्न हो या मंदिर निर्माण का, सच्चाई तो यह है कि इंका के तमाम वरिष्ठ नेता भाजपा और संघ के नेताओं से धार्मिक मामलों में कहीं पीछे नहीं है बल्कि कई जगह तो आगे हैं। पर इंकाई नेता         धर्मनिरपेक्षता के बैनर तले अपनी धार्मिक भावनाओं को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त नही करना चाहते। उन्हें डर लगता है कि इससे कहीं अल्प संख्यक नाराज न हो जाएं। दरअसल अब समय आ गया है कि जब इंका अपनी         धार्मिक नीति में थोड़ा बदलाव लाए और सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारे कि भारत की जनता की धार्मिक मान्यताओं की उपेक्षा करके समाज में शांति और सौहार्द पैदा नहीं किया जा सकता। साम्प्रदायिकता का विरोध हो,  धर्मांधता को कुचला जाए पर देश की रूहानियत को दबाया नहीं, बढ़ाया जाना चाहिए। बड़ी अजीब बात है कि व्यक्तिगत रूप से हम सब किसी न किसी आध्यात्मिक सोच से ऊर्जा और शांति लेते हैं पर समूचे राष्ट्र के लिए धर्महीनता का नारा बुलंद करते हैं। इंका के आदर्श शिखर पुरूष महात्मा गांधी तक ने यह लिखा है कि धर्मनिरपेक्ष कोई नहीं हो सकता। एक कलम भी नहीं, उसका धर्म लिखना है। आग का धर्म जलाना है। जल का धर्म प्यास बुझाना है। मां का धर्म बालक को पालना है। इसी तरह मानव का भी धर्म है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।

जैसे विकास के सवाल हैं। रोजगार के सवाल हैं। भ्रष्टाचार के सवाल हैं वैसे ही धर्म के भी सवाल हैं। भाजपा केवल धर्म के सवाल को लेकर ही चलती रही है। इसलिए उसकी ऐसी पहचान बनी। पर इंका दूसरे सवालों को लेकर चलती रही है। पर धर्म के मामले में उसने अपनी छवि ऐसी बना ली मानो वह धर्म विरोधी दल हो। जबकि सच्चाई यह है कि धर्म के मामले में जितना काम कांग्रेस की सरकारों में हुआ है वैसा भाजपा नहीं कर पाई। जो केवल गाल बजाती रही। इसलिए दोनों प्रमुख दल इंका और भाजपा को आत्म विश्लेषण करने की जरूरत है। क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में यही दो प्रमुख दल रहने वाले हैं। हिमाचल प्रदेश का नतीजा तो गुजरात के जख्मों में मरहम है। आने वाले चुनावों में अपनी जीत को लेकर न इंका  आश्वस्त है और न भाजपा। दोनों को ही मुकाबले के लिए डटकर तैयारी करनी पडे़गी।

Friday, February 28, 2003

विहिप की रणभेरी


राम मंदिर को लेकर विहिप पहले भी कई बार कड़े तेवर दिखा चुकी है। पर मामला सिरे नहीं चढ़ा। इस बार के तेवर न सिर्फ ज्यादा कड़े हैं बल्कि बदली परिस्थिति में नई संभावनायें लिये हुए हैं। अब तक भाजपा ही नहीं चाहती थी कि मंदिर का सवाल जोर शोर से उठाया जाए। उसे राजग के टूटने का खतरा था। पर अब तो सरकार अपने कार्यकाल का बड़ा हिस्सा पूरा कर चुकी है। आने वाले महीने चुनाव की तैयारी के हैं। आर्थिक मोर्चों पर विफल राजग सरकार के पास जनता को देने के लिये कुछ भी नहीं है। झूठे आश्वासन तक नहीं। इसलिये मंदिर का मुद्दा ही उसे  संकट मोचक लगता है। हिमाचल प्रदेश में अटल जी का बयान और बदले तेवर इसका संकेत मात्र हैं। आने वाले दिनों में यह तेवर और मुखर होकर सामने आएगा। पर क्या जनता भाजपा के इस नये तेवर को बिना संदेह के स्वीकार कर लेगी ? अगर गुजरात के नतीजे ध्यान में रखकर देखा जाए तो ऐसा माहौल बन सकता है कि जनता एक बार फिर मंदिर के सवाल पर आंदोलित हो जाए। पर उसकी बुनियादी दिक्कतें इस कदर बढ़ी हैं कि वह केवल धर्म के नाम पर अपना भविष्य दांव पर लगाने को शायद आसानी से तैयार न हो। 

इस माहौल में ही नई दिल्ली में हुई दसवीं धर्म संसद से राम जन्मभूमि मुद्दे को एक बार फिर से गर्माने की कोशिश की गयी है। बरसों तक सरकार, राजनेताओं और अदालत के चक्रव्यूह में फंसे रहने के बाद अब साधु-संतों ने अयोध्या में मंदिर निर्माण का बीड़ा खुद ही उठाने का ऐलान कर दिया है। विश्व हिन्दू परिषद के प्रवीण तोगडि़या तथा आचार्य धर्मेन्द्र जैसे फायरब्रांड नेताओं ने अपने भाषणों से संतों में भगवान राम के प्रति श्रद्धा और विश्वास को और मुखर कर उन्हें निर्णायक लड़ाई के लिये तैयार रहने को कहा है। दिल्ली के रामलीला मैदान में धर्म संसद के दौरान जुटे हजारों साधु-संतों ने भी एक स्वर से वाजपेई सरकार द्वारा अपना वायदा पूरा नहीं किये जाने पर नाराजगी जताई और कहा कि अब वह किसी के बहकावे में आने वाले नहीं। उनका कहना है कि उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि सरकार के मुखिया अटल बिहारी वाजपेई राजग के घटक दलों से कैसे तालमेल करके अपना वायदा निभाते हैं। उनका तो बस एक ही ध्येय है कि अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बने। इसके लिये वे समर्पित भाव से कुछ भी करने को तैयार हैं। उन्हें मलाल तो इस बात का है कि बहुसंख्यक हिन्दू आबादी वाले देश भारत में भी वे अपने आराध्य के मंदिर को भव्य रूप नहीं दे पा रहे हैं जबकि केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार काबिज है जो खुद को हिन्दु हितों की एकमात्र रक्षक होने का दावा करती है। बरसों तक सरकार के आश्वासनों की घुट्टी पीकर ऊबे संतों ने जिस गर्मजोशी से मंदिर निर्माण की कमान अब अपने हाथों में लेने का फैसला किया है उससे टकराव के आसार बढ़ते नजर आ रहे हैं। अदालत में चल रहे मुकदमे का निर्णय आने तक संत इंतजार करने के मूड में नहीं दिखते।

उधर भाजपा भी इस मुद्दे पर खुलकर विहिप तथा संतों का साथ देने का मन बना रही है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के विरोधी कहे जाने वाले राजग के कुछ घटक दलों के सामने बड़ी असमंजस की स्थिति है। उनके सामने सीमित विकल्प होने के कारण राजग में बने रहना उनकी मजबूरी है। इसलिये ये दल चाहे जनता के बीच जाकर मंदिर का कितना ही विरोध क्यों न करें, मंदिर के सवाल पर भाजपा से समर्थन वापस नहीं लेंगे। उधर भाजपा अब और ज्यादा दिनों तक संतों को नाराज करने का खतरा मोल लेना नहीं चाहती। वह जानती है कि यदि हिन्दु उससे नाराज हो गये तो यह उसके लिये भारी नुकसानदेह साबित हो सकता है। पिछले चार वर्षाें में उसके नेता खुद को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने के लिये चाहे जो बयान देते रहें पर यह सच है कि उसकी राजनीति हिन्दुत्व की राजनीति पर ही टिकी है। जब तक हिन्दू मतदाता उसके साथ हैं तब तक उसकी स्थिति मजबूत बनी रहेगी। 

उधर भाजपा के आलोचकों का मानना है कि सिर्फ हिन्दुओं को साधकर ही सत्ता चलाना उसके लिये आसान नहीं होगा। चूंकि भारत में सिर्फ हिन्दू ही नहीं रहते बल्कि दूसरे तमाम धर्म भी मौजूद हैं और उनके मानने वालों की संख्या करोड़ों में है इसलिये यहां पर राज करने वाली पार्टी को हिन्दु ही नहीं बल्कि मुसलमानों, ईसाईयों, सिखों समेत यहां रहने वाले सभी लोगों की भावनाओं का ख्याल रखना होगा। 

गुजरात चुनावों में भारी ऊहापोह के बीच हिन्दुत्व के बलबूते पर अविश्वसनीय जीत हासिल कर भाजपा के हौसले बुलंद हैं और वह हिमाचल प्रदेश सहित चार राज्यों में अभी हाल में होने वाले चुनावों में भी गुजरात जैसा प्रदर्शन करना चाहती है और इसके लिये उसके पास सबसे अच्छा मुद्दा फिर से हिन्दुओं को राम मंदिर के नाम पर जगाने का ही है। परन्तु समीक्षकों का मानना है कि इस बार उसकी मंजिल आसान नहीं रहेगी। हर बार चुनावों से पहले ही राम जन्म भूमि मुद्दे को हवा देेने के भाजपा, विहिप और संघ के फार्मूले को हिन्दू मतदाता अच्छी तरह समझ चुके हैं। वह जान गये हैं कि उनकी भावनाओं को हवा देकर सत्ता में आने का जो खेल भाजपा खेल रही है उसमें विहिप और संघ के नेतृत्व का परोक्ष समर्थन हासिल है। वहीं विहिप के नेताओं के सामने दोहरी मुश्किल है। एक तो उसे वाजपेई के नेतृत्व वाली सरकार की मुश्किलों को आसान बनाना है वहीं हिन्दुओं को भी साधकर रखना है।

उधर मतदाताओं के सामने दूसरी अनेक समस्यायें हैं जिनका भी वह सरकार से समाधान चाहते है। सबसे बड़ी समस्या तो बेरोजगारी की है। हर कस्बे और गांव में बड़ी तादाद में नौजवान रोजगार की तलाश में खाली बैठे हैं जिससे उनमें भारी निराशा फैल रही है। इन नौजवानों का साफ कहना है कि मंदिर या आतंकवाद का मुद्दा नहीं बल्कि नौकरी मिलना ही उनके लिये सबसे बड़ा सवाल है। हर सरकार चाहे वह कांग्रेस की हो या भाजपा की, अपने चुनाव पूर्व एजेण्डे में बेरोजगारी खत्म करने का दावा करती है। परन्तु सत्ता में आने के बाद सरकार कितने बेरोजगारों को नौकरी दिला पाती है यह किसी से छिपा नहीं है। यही कारण है कि उच्च शिक्षा प्राप्त होनहार युवा भारत के बजाय विदेशों में नौकरी करना ज्यादा पसंद करते है। किसानों की दशा पिछले कुछ वर्षों में काफी तेजी से बिगड़ी है। सूखे ने कमर तोड़ दी और उपज के लिये खरीदार नहीं हैं। इस तरह गरीब वर्ग दोहरी मार झेल रहा है। यही वे लोग हैं जो मतदान केन्द्र तक वोट डालने जाते हैं। भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक व्यापारी समुदाय रहा है। पिछले चार वर्षों में आर्थिक मंदी के चलते भारत में उद्य़ोगों के बंद होने की गति बहुत बढ़ गयी है। जबकि दूसरी तरफ चीन की औद्योगिक प्रगति सारी दुनिया के लिये उत्सुकता का विषय बन चुकी है। राजग सरकार की आर्थिक नीतियों ने न सिर्फ उद्योगपतियों और व्यापारियों को तंग किया बल्कि पेंशन याफ्ता वर्ग के लिये भी ब्याज दरें घटाकर बड़ी मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। एक तरह से उनकी जेब पर डाका डाला है। इस उम्र में आमदनी अब बढ़ तो सकती नहीं। अपने बुढ़ापे के लिये जो भी रकम बैंकों में जमा की थी उसका ब्याज गिर जाने से उनकी आमदनी अचानक घट गयी। उधर महंगाई घटी नहीं। नतीजतन यह वर्ग जिसकी संख्या लाखों में है, राजग सरकार से बहुत दुखी है। भाजपा मंदिर के अलावा आतंकवाद को भी एक बड़ी समस्या के रूप में पेश कर रही है। पर आतंकवाद से निपटने में हर मोर्चे पर विफल हो रही है। भाजपा के आलोचकों का कहना है कि भाजपा के शासनकाल में आतंकवाद न सिर्फ बढ़ा है बल्कि आतंकवादियों के हौसले इतने बुलंद हो गये हैं कि अब वे सीधे संसद पर हमला करने की जुर्रत भी कर पा रहे हैं। हां यह जरूर है कि आतंकवाद के विरुद्ध बने अंतर्राष्ट्रीय माहौल ने भारत को नई शक्ति दी है कि वह भी अब बिना संकोच के आतंकवाद से लड़ सकता है। अब तक अल्पसंख्यकों की भावनाओं का हवाला देकर उसे बहुत कुछ करने से रोका गया। पर अब शायद यह संभव न हो। इसीलिये बांग्लादेशियों को निकालने का सवाल हो या दूसरे मुद्दे, अल्पसंख्यकों को अब कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। जिसका भावनात्मक लाभ भाजपा को मिल सकता है। क्योंकि हिन्दू समाज अल्पसंख्यकों के साथ किये जा रहे विशेष व्यवहार से हमेशा उद्वेलित रहा है। मौजूदा माहौल में अगर समान नागरिक संहिता जैसे सवाल खड़े किये जायेंगे तो उन्हें व्यापक जन समर्थन मिल सकता है। भाजपा जानती है कि अल्पसंख्यकों का वोट तो उसे मिलने से रहा, इसलिये वह ऐसे सवालों को उठाने से अब संकोच नहीं करेगी

कुल मिलाकर स्थिति साफ है। भाजपा, विहिप और संघ जमकर हिन्दुवादी एजेंडा चलायेंगे। हिमाचल के नतीजे तय करेंगे कि यह एजेंडा शेष भारत में भी चलेगा या नहीं। मतदाता न तो भाजपा से खुश हैं और ना ही उसे दूसरे दलों से आशा है। इसलिये चुनाव में वोट भावनायें भड़काकर ही लिये जा सकते हैं। जाहिर है कि इस काम में भाजपा बहुत माहिर है और वो हर संभव कोशिश करेगी कि देश का बहुसंख्यक समाज भावनात्मक रूप से उसके साथ जुड़ जाये। जनता की इस भावना को फिर वोट में बदलते उसे देर नहीं लगेगी। किसी ठोस कार्यक्रम और जुझारू नेतृत्व के अभाव में भाजपा का प्रमुख विरोधी दल इंका पसोपेश में है। उसकी इस कमजोरी का फायदा उठाने में भाजपा पीछे नहीं रहेगी। पर यह भी याद रखना चाहिये कि भारत में लोकतंत्र है। जहां किसी भी परिस्थिति का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। आखिर ऊंट किस करवट बैठेगा ? यह जनता ही तय करेगी।

Friday, February 21, 2003

रोते क्यों हो क्रिकेट प्रेमियों


भारत की टीम वल्र्ड कप में आस्टेªेलियाई टीम से बुरी तरह पिटी। इस खबर ने हिंदुस्तान के क्रिकेट प्रेमियों को निराश ही नहीं नाराज भी कर दिया। कहीं कैफ के घर कालिख पोती गई तो कहीं गांगुली का ज़नाजा निकाला गया। खिलाडि़यों के घर पर गुस्साई भीड़ ने पत्थर तक फेंके। मोबाइल फोनों में एसएमएस संदेश भेजने वालों ने भारत की टीम को जम कर कोसा। लाखों लोगों ने भारतीय क्रिकेट खिलाडि़यों को लेकर विज्ञापन करने वालों के उत्पादन न खरीदने का फैसला किया। ये सिलसिला अभी जारी है। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड वाले हैरान है कि जनता में इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया क्यों हुई ? क्या हिंदुस्तानी ये नहीं जानते कि क्रिकेट के खेल में अगर दो दल खेलेंगे तो जीतेगा सिर्फ एक दल ही ? खेल, खेल की भावना से खेला जाएगा तो हार जीत का कोई मायना नहीं रहेगा, क्योंकि सारा ध्यान बढि़या खेलने वाली टीम पर केंद्रित होगा। खिलाडि़यों की तारीफ या आलोचना खेल के मैदान पर उनके प्रदर्शन पर आधारित होगी। पर जब खेल, खेल की भावना से नहीं बल्कि मोर्चा फतह करने की भावना से खेला जाएगा तो हार को बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल होगा। वो हार किसी खेल की सामान्य हार से हट कर राष्ट्रीय गौरव की हार होगी। जाहिरन जनता को इससे ठेस पहुचेगी। जिसकी प्रतिक्रिया आक्रामक भी हो सकती है और हिंसक भी, जैसी पिछले दिनों देखने को मिली। 

जब क्रिकेट में मैच फिक्सिंग का मामला उछला था हमने तब भी इस काॅलम में कहा था अब तो जागो क्रिकेट प्रेमियों।पर कुछ दिन जाग कर देश फिर सो गया। रात गई, बात गई। सब भूल गए, आरोप प्रत्यारोपों को। सब बरी हो गए, जैसे बड़े-बड़े घोटाले करने के बाद भी राजनेता बरी हो जाते हैं। सबूत धरे रह जाते हैं और अदालतें कह देती हैं कि सबूत है ही नहीं। क्रिकेट में मैच फिक्सिंग का मामला उठने से कई वर्ष पहले मेरे सहयोगी रजनीश ने बताया कि क्रिकेट में मैच फिक्सिंग होती है और अच्छा या बुरा खेल सट्टेबाजों के इशारे पर खेला जाता है। आम भारतीय नौजवानों की तरह रजनीश भी पागलपन की हद तक क्रिकेट प्रेमी रहा था। बाद में उसने एक ऐसे व्यक्ति के यहां 1990-91 में नौकरी की जो अपने मुख्य व्यवसाय के अलावा क्रिकेट की सट्टेबाजी भी करता था। रजनीश ने देखा कि किस तरह एक मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी के पिता मैच के दौरान टेलीफोन पर इस सट्टेबाज से डील कर रहे थे। रजनीश को टीवी पर यह देख कर हैरानी हुई कि उस खिलाड़ी ने डील के मुताबिक ही ओवर खेला। उस दिन से उसका क्रिकेट से मोहभंग हो गया। चूंकि ऐसी बात मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी इसलिए मुझे रजनीश की बात पर यकीन नहीं हुआ। लेकिन बाद के वर्षों में जब मैच फिक्सिंग  का घोटाला उछला तो सारी बात सामने आई। अक्सर अदालतों से बरी होने वाले बड़े या मशहूर लोग यह कह कर जनता को गुमराह करते हैं कि उनके खिलाफ कोई सबूत ही नहीं है। जबकि रोचक तथ्य ये है कि जब रिश्वत देने वाला कहता है मैंने रिश्वत दी और रिश्वत लेने वाला राजनेता कहता है कि मैंने रिश्वत ली तब भी अदालत यह कह देती है कि इस मामले में कोई सबूत ही नहीं है। ये बात दूसरी है कि भारत के मुख्य न्यायघीश न्यायमूर्ति एसपी भरूचा अपने पद पर रहते हुए यह कह चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी 20 फीसदी भ्रष्ट लोग हैं।इसलिए सिर्फ अदालत से अगर कोई मशहूर व्यक्ति छूट भी जाए तो यह जरूरी नहीं कि वो निर्दोंष ही हो। यहां यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि जिस क्रिकेट मैच पर आज भी करोड़ों के सट्टे लग रहे हों और ऐसे इक्का-दुक्का सट्टेबाजों को पकड़े जाने की खबरें अखबारों में छप रही हों तो संदेह होना स्वाभाविक है। 

हो सकता है सेनचुरियन (दक्षिण अफ्रीका) में भारत आस्ट्रेलिया के बीच खेले गए मैच में कोई मैच फिक्सिंग न हुई हो। हो सकता है हमारे खिलाड़ी वाकई आस्ट्रेलिया के हाथों पिटे हों। हो सकता है कि उनका खेल प्रदर्शन बहुत घटिया दर्जे का रहा हो। पर क्या उस पर हम हिंदुस्तानियों का इतना नाराज होना जायज है ? दरअसल, क्रिकेट के पूरे मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। जिस तरह औपनिवेशिक शासकों ने भारत पर मैकाले की शिक्षापद्धति थोपी, जिस तरह करोड़ों हिंदुस्तानियों के मुंह से स्वाथ्यवर्द्धक पेय शिकंजी, दूध, छाछ व रस छुड़वा कर उन्हें चाय, काफी और कोका कोला की लत डाली, उसी तरह भारत के पारंपरिक खेल जैसे खोखो, कबड्डी व कुश्ती जैसे स्वास्थवर्द्धक खेल छुड़वाकर उन्हें क्रिकेट का दिवाना बनाया ताकि उनके दिमागों को नियंत्रित किया जा सके। वल्र्ड कप न हो गया कोई बवाल हो गया। पिछले दिनो हर ओर धूम बची थी भारत की टीम अफ्रीका जाएगी और भारत के सिर पर जीत का सेहरा लेकर आएगी। इतना शोर, इतने विज्ञापन, इतना माहौल बनाया गया मानो अपनी टीम क्रिकेट खेलने नहीं पाकिस्तान की सीमा पर युद्ध जीतने जा रही हो। मुट्ठी भर खिलाडि़यों के खेल को टीवी मीडिया पर इस कदर प्रचारित किया गया कि करोड़ों लोग अपना काम, व्यायाम और खेल भूल कर टीवी से चिपक गए। जब अपेक्षाएं इतनी बढ़ जाएंगी तो जाहिरन असफलता गले नहीं उतरेगी। पर क्रिकेट का धंधा करने वालों को तो तभी फायदा होगा जब करोड़ों लोग क्रिकेट के दीवाने हो जाएं। सौरभ गांगुली को भगवान् मानने लगें। भगवान गलती थोड़े ही कर सकता है। पर जब सौरभ गांगुली टाॅय-टाॅय फिस्स करके मैदान से भागते हैं तो उनके भक्त उनके परिवार के सामने उनका जनाजा निकालने में भी नहीं हिचकते। बेचारे की पत्नी और मां पर क्या गुजरी होगी जब उन्होंने अपने घर की बालकनी से अपने नौजवान बेटे का चित्र अर्थी पर रखे और रामनाम सत्य है का उद्घोष करती भीड़ को देखा होगा। दरअसल क्रिकेट का दीवानापन पैदा करने का, एक ही मकसद होता है, माल बेचना और मुनाफा कमाना। टीवी, बिस्कुट, पेप्सी, वाशिंग मशीन जैसे तमाम उत्पादनों को बेचने के लिए ऐसे लोगों की जरूरत होती है जिनके पीछे जनता दीवानी हो। इसलिए पहले इन खिलाडि़यों को सितारा बनाकर पेश किया जाता है और फिर इनको करोड़ों रूपए देकर इनसे विज्ञापनों में छूठे बयान दिलवाए जाते हैं। पैसे के लिए अपने ईमान को बेचने का दौड़ चरम सीमा पर है। फिर उसमें सितारे ही पीछे क्यों रहें ? चाहे फिल्मों के हों, चाहे खेल जगत के हों। हरकोई तो बैंडमिंटन के विश्व चैपियन फुलैला गोपिचन्द की तरह संस्कारवान और ईमानदार होता नहीं। जो विज्ञापन से मिलने वाले बेहिसाब पैसे का लोभ रोक पाए। फुलैला गोपिचन्द को जब एक साॅफ्ट ड्रिंक कंपनी ने अपनी विज्ञापन फिल्म में काम करने का प्रस्ताव किया तो आंध्र प्रदेश के इस मध्यवर्गीय युवा सितारे ने यह कह कर प्रस्ताव ठुकरा दिया कि जिस चीज को मैं खुद नहीं पीता और अच्छी नहीं समझता उसका विज्ञापन मैं कैसे कर सकता हूं ? कितने शहरों के खेलप्रेमियों ने फुलैला गोपिचन्द को अपने शहर बुलाकर नागरिक अभिनंदन किया। आखिर गोपिचन्द तो बैडमिंटन में विश्व चैम्पियन का खिताब जीत कर आया था। इसलिए भारत के क्रिकेट प्रेमियों को बहुत कुछ समझने की जरूरत है।
क्रिकेट भी दूसरे ही खेलों की तरह एक सामान्य खेल है। कोई दैविक सागर मंथन नहीं जिसके पीछे पागल पन की हद तक दीवाना होकर रहा जाए। सौ करोड़ भारतीयों में से क्रिकेट खेलने वाले एक-डेढ दर्जन युवा हैं। वे अच्छा भी खेल सकते हैं और बुरा भी। वे जीत भी सकते हैं और हार भी सकते हंैं। वे ईमानदारी से भी खेल सकते हैं और मैच फिक्सिंग करके पैसे भी कमा सकते हैं। जो कुछ कमजोरियां किसी भी आम हिंदुस्तानी में हो सकती हैं वही कमजोरियां क्रिकेट खिलाडि़यों में भी हों तो इसमें अचंभा कैसा ? यह जनते हुए कि विज्ञापन एजेंसियां उनसे जो कुछ कहलवाती हैं वह अक्सर सच नहीं होता। फिर हम क्यों उनके माया जाल में फंस जाते हैं ? आस्ट्रेलिया से करारी हार के बाद बहुत से क्रिकेट पे्रमियों ने एसएमएस पर लाखों संदेश भेजे जिनमें कहा गया कि क्रिकेट खिलाडि़यों द्वारा जिस वस्तु का भी विज्ञापन टीवी पर आता है उसे कोई न खरीदे। खेल छोड़कर विज्ञापनों के पीछे भागने वाले खिलाडि़यों को भी इससे सबक मिलेगा। 

सब जानते हैं कि तंबाखू खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और इससे कैंसर तक हो जाता है। पर खाने वाले फिर भी नहीं मानते। यही हाल भारत के क्रिकेट दीवानों का है। आलू बेचने वाले से लेकर राजनेता तक मैच के दौरान हर शहर और कस्बे में यही पूछते मिलेंगे कि अरे भई क्या स्कोर है ?’ चाहे उनका क्रिकेट से कोई नाता हो या न हो। उन्हें कोई कितना ही समझाए कि क्रिकेट देखने से कहीं अच्छा है उतनी देर व्यायाम किया जाए, योग या ध्यान किया जाए, जिससे हम सबका मन, मस्तिष्क और शरीर स्वस्थ्य हो, पर वे फिर भी नहीं मानते। पता नहीं इस लेख के पाठक कितना सहमत होंगे पर यह सत्य है कि क्रिकेट के खेल को इतना बढ़ावा इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि यह सबसे बेहतर खेल है या इस खेल को देखने से दर्शकों का मनोरंजन होता है। बल्कि इसलिए बढ़ावा दिया जाता है कि लोग इस कदर दिवाने हो जाएं कि उन्हें क्रिकेट के अलावा और कुछ सूझे ही नहीं। उनकी इस दिवानगी का फायदा उठा कर बड़ी कंपनियां अपना माल बेच लें और करोड़ों का मुनाफा कमा लें। चाहे उपभोक्ता को उससे कौड़ी का फायदा हो या न हो। कहते हैं बेगानी शादी में अब्दुल्ला दिवाना, ऐसे मनमौजी को मुश्किल है समझाना। विज्ञापन एजेंसियां, बड़े उद्योगपति, टीवी कंपनियां और खिलाड़ी सब मुनाफा कमाते हैं। पर लुटता कौन है ? केवल दीवाने दर्शक। फिर भी हम लुटने को तैयार हों तो कौन रोक सकता है?

Friday, February 14, 2003

लोकतंत्र में असहाय होता आम आदमी


कहने को तो अमरीका और भारत में लोकतंत्र है और सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है। बालने व लिखने की आजादी है। पर क्या वाकई लोगों की सुनी जाती है ? इराक पर मंडराते अमरीकी हमले के सवाल को ही लें। अमरीका इराक के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता सद्दाम हुसेन को नेस्तोनाबूत करना चाहता है। शायद इसलिए कि सद्दाम हुसेन अमरीका के सामने नस्तमस्तक होने को तैयार नहीं है। इराक के नागरिक ही नहीं पूरी दुनिया इस संभावित युद्ध के बारे में सोच कर चिंतित है और इसका विरोध कर रही है। यहां तक कि अमरीका के भी ज्यादातर नागरिक नहीं चाहते कि अमरीका इराक पर हमला करे। विश्व समुदाय की चिंता बहुत स्वाभाविक है। इस फिजुल के युद्ध में जानमाल की जो हानी होगी, उसका भार तो केवल इराक और अमरीका पर पड़ेगा पर इस युद्ध के कारण सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में भारी वृद्धि जिसके कारण माल की ढुलाई का खर्चा भी बढ़ जाएगा और इस तरह महंगाई भी बहुत बढ़ जाएगी। सवाल है कि अपनी प्रजा सहित विश्व समुदाय की संभावित युद्ध रोकने की मांग को राष्ट्रपति बुश का प्रशासन क्यों उपेक्षा कर रहा है? अमरीकी राजनीति और अर्थव्यवस्था के जानकार बताते हैं कि अमरीका में सशत्र उत्पादक उद्योगों के मालिक बहुत प्रभावशाली हैं और अमरीकी सरकार पर उनका तगड़ा शिकंता कसा रहता है। अमरीका की विदेश नीति निर्धारण में आम्र्स लाॅबीअहम भूमिका निभाती है। इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि दुनिया में अनेक छोटी-बड़ी लड़ाइयों के पीछे इस लाॅबी के निहित स्वार्थ छिपे रहते हैं क्योंकि हर युद्ध से इस लाॅबी को बेहतद मुनाफा होता है। आपस में लड़ने वाले देश लड़ाई के लिए भारी मात्रा में सशत्र और गोला-बारूद खरीदते हैं जिससे जाहिरन सशत्र उत्पादक उद्योगा को मुनाफा होता है। एक शोध के अनुसार पूरे दुनिया के आयुद्ध उत्पादन पर मुट्टी भर अमरीकी औद्योगिक घरानों का कब्जा है, कहीं ये प्रत्यक्ष और कहीं ये अप्रत्यक्ष। इसी शोध के अनुसार हर युद्ध के बाद इन औद्योगिक घरानों की हैसियत कई गुना बढ़ा जाती हैं। यदि अमरीका ओर इराक के बीच युद्ध होता है तो जाहिरन इन उद्योगपतियों को भारी मुनाफा होगा। इसलिए विश्व समुदाय कुछ भी कहे, अमरीका के नागरिक कुछ भी कहें पर राष्ट्रपति बुश अंततोगत्वा वहीं करने पर मजबूर होंगे जो आम्र्स लाॅबी चाहती हैं। 

पिछले दिनों मेरा परिचय स्वीट्जरलैंड के एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जो पूरी दुनिया के सबसे धनी लोगों की संपत्ति और धन का प्रबंधन करने हैं। अरबों रूपया कहां लगाया जाए जहां सुरक्षित भी रहे और उससे आमदनी भी होती रहे। इन सज्जन से मैंने पूछा कि तुम तो रोज ही दुनिया के अरब-खरबपतियों से मिलते हो, क्या तुम्हें ऐसा लगा कि उनके सीने में भी किसी मानव का दिल है ? अगर है तो क्या वजह है कि मुनाफा कमाने के लालच में वे इतने अंधे हो जाते हैं कि दुनिया का हित और अहित भी उन्हें ध्यान नहीं रहता। वे जानते हैं कि उनके उत्पादन समाज के लाभ के लिए नहीं है फिर भी वे उस व्यवसाय को नहीं छोड़ते। चाहे घातक कीटनाशक हों, रासायनिक खाद्य हो, जहरीली गैस हों ऐसी तमाम चीजों का उत्पादन करते ही जाते हैं, आखिर क्यों ? उन स्विज बैंकर का जवाब था कि, ‘‘इंसान की हवस की कोई सीमा नहीं होती।’’ चाहे जितना मिल जाए फिर भी हमें कम ही लगता है। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि अधिक कमाने का अर्थ यह तो नहीं कि आमदमी काम करना बंद कर दे। पर सवाल है कि ऐसा काम क्यों किससे समाज की हानी हो

इराक पर युद्ध हो या न हो ये तो बहुत दिनों तक रहस्य नहीं रह पाएगा। पर ऐसे तमाम सवाल उन लोगों के मन में घुमते रहते हैं जो इस लोकतंत्र में आम आदमी के अधिकारों को लेकर चिंता करते हैं।  भारत की ही बात लें यहां फलता-फुलता लोकतंत्र है। हर किस्म की आजादी है। काम न करने की, जनता को मूर्ख बनाने की, झूठ बोलने की, खुलेआम रिश्वत लेने की। पर क्या वास्तव में इस देश के नीतियों के निर्धारण में आम आदमी के हितों को ध्यान रखा जा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली सहित अनेक महानगरों में लाखों लोग जिन नारकीय स्थिति में रह रहे हैं उसके लिए उन्होंने कोई सपना नहीं संजोया था। उनके जंगत, जमीन, नदी, पहाड़ उनसे छीन लिए गए और औद्योगिक विकास के नाम पर उन्हें बेघरबार कर दिया गया। पेट की आग बुझाने को मजबूर ये लाखों लोग बड़े शहरों में आगर बस गए, इस उम्मीद में कि कुछ न कुछ काम करके पेट पाल लेंगे। इसी तरह लाखों लोग झुग्गियों में रह रहे हैं। ये कैसा लोकतंत्र है जो इन लोगों को जिने की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं देता और उसी शहर में, इन्हीं लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सत्ता में बैठकर राजा-महाराजाओं सा जीवन जीते हैं। इतना ही नहीं हर राजनैतिक दल अपने बेटे, भाई, भतीजे और बहु को ही उत्तराधिकारी बनाता है। किसी राजनैतिक दल में आमदनी और खर्चे का कोई ठीक हिसाब नहीं रखा जाता। किसी भी राजनैतिक दल में कनिष्ठ कार्यकर्ताओं को वरिष्ठ नेताओं के विरूद्ध कुछ भी कहने की आजादी नहीं है। ऐसा कहने वाले दल से निकाल दिए जाते हैं। ये कैसा लोकतंत्र है जिसमें गरीबों को समाजवाद, साम्यवाद, गांधीवाद या हिंदू राष्ट्र के सपने दिखा कर वोट मांगे जाते हैं पर जब उनके वोटों से विधायक चुन लिए जाते हैं तो वो सरेबाजार लाखों रूपए में अपनी कीमत लगवा कर मेंढकों की तरह दल बदलते रहते हैं। इतना ही नहीं हर दल अब तो बाकायदा खुलल्मखुल्ला बड़े उद्योगपतियों को ही राज्यसभा में लेकर आता है। जाहिर है करोड़ों रूपए का लेनदेन होता है। उद्योगपतियों के राज्य सभा में जाने से भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती हैं आखिर में भी वो भी इस देश के नागरिक हैं पर अगर यही प्रवृत्ति चलती रही तो राज्यसभा इस देश के 100 करोड आम हिंदुस्तानी का नहीं आधा फीसदी अति संपन्न वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करेगी। फिर ये कैसा लोकतंत्र है ?
ये कैसा लोकतंत्र है जहां मानव अधिकारों के हनन करने वाले घोटालेबाज न्यायधीश बिना सजा पाए बच निकलते हैं। बच ही नहीं निकते हैं बल्कि मानव अधिकारों के रक्षा के लिए तैनात कर दिए जाते है। ये कैसा लोकतंत्र है जहां कानून की निगाह में सब बराबर हैं पर सजा केवल छोटे अपराधिओं को की मिलती है। बड़े  अपराध या घोटाले करने वालों को प्रमुख राजनैतिक पद दिए जाते हैं। कहने वाले ये भी कहेंगे कि ये तो नजरिए का सवाल है किसी को बोतल आधी भरी दिखाई देती हैं और किसी को आधी खाली। यह बात ठीक है कि इन सब कमियों के बावजूद भारत का लोकतंत्र दूसरे देशों के मुकाबले बहुत पीछे नहीं है। पर यहां लोकतंत्र चुनावच के बाद समाप्त हो जाता है। क्योंकि चुनाव हो जाने के बाद जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों पर नियंत्रण नहीं रख पाती और वे निरंकुश होकर सत्ता सुख भागते हैं और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय निहित स्वार्थों के हाथों में खेलते हैं।

ऐसे माहौल में जब लोगों के घर और जमीन छीन लिए जाए, रोजगार के अवसर न मिलें, पुलिस     अपराधियों से मिली हो, न्यायपालिका भ्रष्टाचार के प्रभाव में आ चुकी हो, तो एक नौजवान नक्सलवादी या आतंकवातदी बनने के सिवाए क्या कर सकता है ? इसलिए जब वाजपेयी जी दुनिया के देशों से आतंकवाद के मामले पर दोहरी चाल न चलने की चेतावनी देते हैं तो बड़ा अटपटा लगता है। फिलहाल भारत का माहौल कुछ ऐसा बनता जा रहा है मानो आतंकवाद और मंदिर निर्माण के अलावा कोई दूसरे अमह मुद्दे देश के सामने हैं ही नहीं। टीवी के चैनलों पर आने वालेे कार्यक्रम देखिए या अखबारों में छपने वाले लेख। सारा ध्यान इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित किया जा रहा है। जबसे टेलीविजन चैनलों की भरमार हुई है तब से लोक क्या सोचें ये मीडिया तय कर रहा है। वो क्रिकेट के बारे में सोचे या किसी और अंतर्राष्ट्रीय घटना के बारे में इसका फसला मीडिया मुगल करते हैं और मीडिया मुगल औद्योगिक घराने की बाजारनीतियों से नियंत्रित होते हैं। जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं से नहीं। यानी लोकतंत्र का चैथा खंभा भी अब आम आदमी का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा। ऐसे माहौल में कैसे माना जाए कि हमारी लोकतांत्रित परंपराएं मजबूत हो रही है। हर ओर एक धुंध सी छाई है। हड़बड़ाहट है रातों रात धनी और मशहूर बनने की। निजी लाभ के लिए सांस्कृतिक, आधयात्मिक व पारंपरिक मूल्यों को पीछे धकेला जा रहा है। प्रतिस्पर्धा का एक नकली माहौल तैयार किया जा रहा है। जनता को लगातार तनाव व आर्थिक असुरक्षा के माहौल में रहने को मजबूर किया जा रहा है। समाज का सूख-चैन छीना जा रहा है। उसे आनंद की नई परिभाषाएं बताई जा रही है। जिससे युवाओं में भारी हताषा फैल रही है। हर गांव, गस्बों में सैकड़ों-हजारों बेरोजगार नौजवान पैसे के लिए आंतकवादी और तस्तकर तक बनने के लिए तैयार हो रहे हैं। यह भयानक स्थिति है। हम सीमा पार के आतंकवाद से तो जरूर लड़ें पर अपने घर के भीतर पैदा हो रहे इन हालातों को नजरंदाज करते जाएं तो आतंकवाद घटेगा नहीं बढ़गा ही। यदि हमें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गर्व है तो देश के बहुत सारे लोगों को आगे बढे कर यह सुनिश्चित करना होगा कि लोकतंत्र की जड़े बजबूत हों। ये महज नारा न रह कर हकीकत बने। हर आम मतदाता की सुनी जाए, उसकी प्राथमिकताओं का निर्धारण उसकी मर्जी से हो। ऊपर से थोपा न जाए, मौजूदा हालात में इसकी संभावना क्षीण होती जा रही है। यह चिंता की बात है।