Friday, February 21, 2003

रोते क्यों हो क्रिकेट प्रेमियों


भारत की टीम वल्र्ड कप में आस्टेªेलियाई टीम से बुरी तरह पिटी। इस खबर ने हिंदुस्तान के क्रिकेट प्रेमियों को निराश ही नहीं नाराज भी कर दिया। कहीं कैफ के घर कालिख पोती गई तो कहीं गांगुली का ज़नाजा निकाला गया। खिलाडि़यों के घर पर गुस्साई भीड़ ने पत्थर तक फेंके। मोबाइल फोनों में एसएमएस संदेश भेजने वालों ने भारत की टीम को जम कर कोसा। लाखों लोगों ने भारतीय क्रिकेट खिलाडि़यों को लेकर विज्ञापन करने वालों के उत्पादन न खरीदने का फैसला किया। ये सिलसिला अभी जारी है। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड वाले हैरान है कि जनता में इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया क्यों हुई ? क्या हिंदुस्तानी ये नहीं जानते कि क्रिकेट के खेल में अगर दो दल खेलेंगे तो जीतेगा सिर्फ एक दल ही ? खेल, खेल की भावना से खेला जाएगा तो हार जीत का कोई मायना नहीं रहेगा, क्योंकि सारा ध्यान बढि़या खेलने वाली टीम पर केंद्रित होगा। खिलाडि़यों की तारीफ या आलोचना खेल के मैदान पर उनके प्रदर्शन पर आधारित होगी। पर जब खेल, खेल की भावना से नहीं बल्कि मोर्चा फतह करने की भावना से खेला जाएगा तो हार को बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल होगा। वो हार किसी खेल की सामान्य हार से हट कर राष्ट्रीय गौरव की हार होगी। जाहिरन जनता को इससे ठेस पहुचेगी। जिसकी प्रतिक्रिया आक्रामक भी हो सकती है और हिंसक भी, जैसी पिछले दिनों देखने को मिली। 

जब क्रिकेट में मैच फिक्सिंग का मामला उछला था हमने तब भी इस काॅलम में कहा था अब तो जागो क्रिकेट प्रेमियों।पर कुछ दिन जाग कर देश फिर सो गया। रात गई, बात गई। सब भूल गए, आरोप प्रत्यारोपों को। सब बरी हो गए, जैसे बड़े-बड़े घोटाले करने के बाद भी राजनेता बरी हो जाते हैं। सबूत धरे रह जाते हैं और अदालतें कह देती हैं कि सबूत है ही नहीं। क्रिकेट में मैच फिक्सिंग का मामला उठने से कई वर्ष पहले मेरे सहयोगी रजनीश ने बताया कि क्रिकेट में मैच फिक्सिंग होती है और अच्छा या बुरा खेल सट्टेबाजों के इशारे पर खेला जाता है। आम भारतीय नौजवानों की तरह रजनीश भी पागलपन की हद तक क्रिकेट प्रेमी रहा था। बाद में उसने एक ऐसे व्यक्ति के यहां 1990-91 में नौकरी की जो अपने मुख्य व्यवसाय के अलावा क्रिकेट की सट्टेबाजी भी करता था। रजनीश ने देखा कि किस तरह एक मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी के पिता मैच के दौरान टेलीफोन पर इस सट्टेबाज से डील कर रहे थे। रजनीश को टीवी पर यह देख कर हैरानी हुई कि उस खिलाड़ी ने डील के मुताबिक ही ओवर खेला। उस दिन से उसका क्रिकेट से मोहभंग हो गया। चूंकि ऐसी बात मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी इसलिए मुझे रजनीश की बात पर यकीन नहीं हुआ। लेकिन बाद के वर्षों में जब मैच फिक्सिंग  का घोटाला उछला तो सारी बात सामने आई। अक्सर अदालतों से बरी होने वाले बड़े या मशहूर लोग यह कह कर जनता को गुमराह करते हैं कि उनके खिलाफ कोई सबूत ही नहीं है। जबकि रोचक तथ्य ये है कि जब रिश्वत देने वाला कहता है मैंने रिश्वत दी और रिश्वत लेने वाला राजनेता कहता है कि मैंने रिश्वत ली तब भी अदालत यह कह देती है कि इस मामले में कोई सबूत ही नहीं है। ये बात दूसरी है कि भारत के मुख्य न्यायघीश न्यायमूर्ति एसपी भरूचा अपने पद पर रहते हुए यह कह चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी 20 फीसदी भ्रष्ट लोग हैं।इसलिए सिर्फ अदालत से अगर कोई मशहूर व्यक्ति छूट भी जाए तो यह जरूरी नहीं कि वो निर्दोंष ही हो। यहां यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि जिस क्रिकेट मैच पर आज भी करोड़ों के सट्टे लग रहे हों और ऐसे इक्का-दुक्का सट्टेबाजों को पकड़े जाने की खबरें अखबारों में छप रही हों तो संदेह होना स्वाभाविक है। 

हो सकता है सेनचुरियन (दक्षिण अफ्रीका) में भारत आस्ट्रेलिया के बीच खेले गए मैच में कोई मैच फिक्सिंग न हुई हो। हो सकता है हमारे खिलाड़ी वाकई आस्ट्रेलिया के हाथों पिटे हों। हो सकता है कि उनका खेल प्रदर्शन बहुत घटिया दर्जे का रहा हो। पर क्या उस पर हम हिंदुस्तानियों का इतना नाराज होना जायज है ? दरअसल, क्रिकेट के पूरे मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। जिस तरह औपनिवेशिक शासकों ने भारत पर मैकाले की शिक्षापद्धति थोपी, जिस तरह करोड़ों हिंदुस्तानियों के मुंह से स्वाथ्यवर्द्धक पेय शिकंजी, दूध, छाछ व रस छुड़वा कर उन्हें चाय, काफी और कोका कोला की लत डाली, उसी तरह भारत के पारंपरिक खेल जैसे खोखो, कबड्डी व कुश्ती जैसे स्वास्थवर्द्धक खेल छुड़वाकर उन्हें क्रिकेट का दिवाना बनाया ताकि उनके दिमागों को नियंत्रित किया जा सके। वल्र्ड कप न हो गया कोई बवाल हो गया। पिछले दिनो हर ओर धूम बची थी भारत की टीम अफ्रीका जाएगी और भारत के सिर पर जीत का सेहरा लेकर आएगी। इतना शोर, इतने विज्ञापन, इतना माहौल बनाया गया मानो अपनी टीम क्रिकेट खेलने नहीं पाकिस्तान की सीमा पर युद्ध जीतने जा रही हो। मुट्ठी भर खिलाडि़यों के खेल को टीवी मीडिया पर इस कदर प्रचारित किया गया कि करोड़ों लोग अपना काम, व्यायाम और खेल भूल कर टीवी से चिपक गए। जब अपेक्षाएं इतनी बढ़ जाएंगी तो जाहिरन असफलता गले नहीं उतरेगी। पर क्रिकेट का धंधा करने वालों को तो तभी फायदा होगा जब करोड़ों लोग क्रिकेट के दीवाने हो जाएं। सौरभ गांगुली को भगवान् मानने लगें। भगवान गलती थोड़े ही कर सकता है। पर जब सौरभ गांगुली टाॅय-टाॅय फिस्स करके मैदान से भागते हैं तो उनके भक्त उनके परिवार के सामने उनका जनाजा निकालने में भी नहीं हिचकते। बेचारे की पत्नी और मां पर क्या गुजरी होगी जब उन्होंने अपने घर की बालकनी से अपने नौजवान बेटे का चित्र अर्थी पर रखे और रामनाम सत्य है का उद्घोष करती भीड़ को देखा होगा। दरअसल क्रिकेट का दीवानापन पैदा करने का, एक ही मकसद होता है, माल बेचना और मुनाफा कमाना। टीवी, बिस्कुट, पेप्सी, वाशिंग मशीन जैसे तमाम उत्पादनों को बेचने के लिए ऐसे लोगों की जरूरत होती है जिनके पीछे जनता दीवानी हो। इसलिए पहले इन खिलाडि़यों को सितारा बनाकर पेश किया जाता है और फिर इनको करोड़ों रूपए देकर इनसे विज्ञापनों में छूठे बयान दिलवाए जाते हैं। पैसे के लिए अपने ईमान को बेचने का दौड़ चरम सीमा पर है। फिर उसमें सितारे ही पीछे क्यों रहें ? चाहे फिल्मों के हों, चाहे खेल जगत के हों। हरकोई तो बैंडमिंटन के विश्व चैपियन फुलैला गोपिचन्द की तरह संस्कारवान और ईमानदार होता नहीं। जो विज्ञापन से मिलने वाले बेहिसाब पैसे का लोभ रोक पाए। फुलैला गोपिचन्द को जब एक साॅफ्ट ड्रिंक कंपनी ने अपनी विज्ञापन फिल्म में काम करने का प्रस्ताव किया तो आंध्र प्रदेश के इस मध्यवर्गीय युवा सितारे ने यह कह कर प्रस्ताव ठुकरा दिया कि जिस चीज को मैं खुद नहीं पीता और अच्छी नहीं समझता उसका विज्ञापन मैं कैसे कर सकता हूं ? कितने शहरों के खेलप्रेमियों ने फुलैला गोपिचन्द को अपने शहर बुलाकर नागरिक अभिनंदन किया। आखिर गोपिचन्द तो बैडमिंटन में विश्व चैम्पियन का खिताब जीत कर आया था। इसलिए भारत के क्रिकेट प्रेमियों को बहुत कुछ समझने की जरूरत है।
क्रिकेट भी दूसरे ही खेलों की तरह एक सामान्य खेल है। कोई दैविक सागर मंथन नहीं जिसके पीछे पागल पन की हद तक दीवाना होकर रहा जाए। सौ करोड़ भारतीयों में से क्रिकेट खेलने वाले एक-डेढ दर्जन युवा हैं। वे अच्छा भी खेल सकते हैं और बुरा भी। वे जीत भी सकते हैं और हार भी सकते हंैं। वे ईमानदारी से भी खेल सकते हैं और मैच फिक्सिंग करके पैसे भी कमा सकते हैं। जो कुछ कमजोरियां किसी भी आम हिंदुस्तानी में हो सकती हैं वही कमजोरियां क्रिकेट खिलाडि़यों में भी हों तो इसमें अचंभा कैसा ? यह जनते हुए कि विज्ञापन एजेंसियां उनसे जो कुछ कहलवाती हैं वह अक्सर सच नहीं होता। फिर हम क्यों उनके माया जाल में फंस जाते हैं ? आस्ट्रेलिया से करारी हार के बाद बहुत से क्रिकेट पे्रमियों ने एसएमएस पर लाखों संदेश भेजे जिनमें कहा गया कि क्रिकेट खिलाडि़यों द्वारा जिस वस्तु का भी विज्ञापन टीवी पर आता है उसे कोई न खरीदे। खेल छोड़कर विज्ञापनों के पीछे भागने वाले खिलाडि़यों को भी इससे सबक मिलेगा। 

सब जानते हैं कि तंबाखू खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और इससे कैंसर तक हो जाता है। पर खाने वाले फिर भी नहीं मानते। यही हाल भारत के क्रिकेट दीवानों का है। आलू बेचने वाले से लेकर राजनेता तक मैच के दौरान हर शहर और कस्बे में यही पूछते मिलेंगे कि अरे भई क्या स्कोर है ?’ चाहे उनका क्रिकेट से कोई नाता हो या न हो। उन्हें कोई कितना ही समझाए कि क्रिकेट देखने से कहीं अच्छा है उतनी देर व्यायाम किया जाए, योग या ध्यान किया जाए, जिससे हम सबका मन, मस्तिष्क और शरीर स्वस्थ्य हो, पर वे फिर भी नहीं मानते। पता नहीं इस लेख के पाठक कितना सहमत होंगे पर यह सत्य है कि क्रिकेट के खेल को इतना बढ़ावा इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि यह सबसे बेहतर खेल है या इस खेल को देखने से दर्शकों का मनोरंजन होता है। बल्कि इसलिए बढ़ावा दिया जाता है कि लोग इस कदर दिवाने हो जाएं कि उन्हें क्रिकेट के अलावा और कुछ सूझे ही नहीं। उनकी इस दिवानगी का फायदा उठा कर बड़ी कंपनियां अपना माल बेच लें और करोड़ों का मुनाफा कमा लें। चाहे उपभोक्ता को उससे कौड़ी का फायदा हो या न हो। कहते हैं बेगानी शादी में अब्दुल्ला दिवाना, ऐसे मनमौजी को मुश्किल है समझाना। विज्ञापन एजेंसियां, बड़े उद्योगपति, टीवी कंपनियां और खिलाड़ी सब मुनाफा कमाते हैं। पर लुटता कौन है ? केवल दीवाने दर्शक। फिर भी हम लुटने को तैयार हों तो कौन रोक सकता है?

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