Friday, February 28, 2003

विहिप की रणभेरी


राम मंदिर को लेकर विहिप पहले भी कई बार कड़े तेवर दिखा चुकी है। पर मामला सिरे नहीं चढ़ा। इस बार के तेवर न सिर्फ ज्यादा कड़े हैं बल्कि बदली परिस्थिति में नई संभावनायें लिये हुए हैं। अब तक भाजपा ही नहीं चाहती थी कि मंदिर का सवाल जोर शोर से उठाया जाए। उसे राजग के टूटने का खतरा था। पर अब तो सरकार अपने कार्यकाल का बड़ा हिस्सा पूरा कर चुकी है। आने वाले महीने चुनाव की तैयारी के हैं। आर्थिक मोर्चों पर विफल राजग सरकार के पास जनता को देने के लिये कुछ भी नहीं है। झूठे आश्वासन तक नहीं। इसलिये मंदिर का मुद्दा ही उसे  संकट मोचक लगता है। हिमाचल प्रदेश में अटल जी का बयान और बदले तेवर इसका संकेत मात्र हैं। आने वाले दिनों में यह तेवर और मुखर होकर सामने आएगा। पर क्या जनता भाजपा के इस नये तेवर को बिना संदेह के स्वीकार कर लेगी ? अगर गुजरात के नतीजे ध्यान में रखकर देखा जाए तो ऐसा माहौल बन सकता है कि जनता एक बार फिर मंदिर के सवाल पर आंदोलित हो जाए। पर उसकी बुनियादी दिक्कतें इस कदर बढ़ी हैं कि वह केवल धर्म के नाम पर अपना भविष्य दांव पर लगाने को शायद आसानी से तैयार न हो। 

इस माहौल में ही नई दिल्ली में हुई दसवीं धर्म संसद से राम जन्मभूमि मुद्दे को एक बार फिर से गर्माने की कोशिश की गयी है। बरसों तक सरकार, राजनेताओं और अदालत के चक्रव्यूह में फंसे रहने के बाद अब साधु-संतों ने अयोध्या में मंदिर निर्माण का बीड़ा खुद ही उठाने का ऐलान कर दिया है। विश्व हिन्दू परिषद के प्रवीण तोगडि़या तथा आचार्य धर्मेन्द्र जैसे फायरब्रांड नेताओं ने अपने भाषणों से संतों में भगवान राम के प्रति श्रद्धा और विश्वास को और मुखर कर उन्हें निर्णायक लड़ाई के लिये तैयार रहने को कहा है। दिल्ली के रामलीला मैदान में धर्म संसद के दौरान जुटे हजारों साधु-संतों ने भी एक स्वर से वाजपेई सरकार द्वारा अपना वायदा पूरा नहीं किये जाने पर नाराजगी जताई और कहा कि अब वह किसी के बहकावे में आने वाले नहीं। उनका कहना है कि उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि सरकार के मुखिया अटल बिहारी वाजपेई राजग के घटक दलों से कैसे तालमेल करके अपना वायदा निभाते हैं। उनका तो बस एक ही ध्येय है कि अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बने। इसके लिये वे समर्पित भाव से कुछ भी करने को तैयार हैं। उन्हें मलाल तो इस बात का है कि बहुसंख्यक हिन्दू आबादी वाले देश भारत में भी वे अपने आराध्य के मंदिर को भव्य रूप नहीं दे पा रहे हैं जबकि केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार काबिज है जो खुद को हिन्दु हितों की एकमात्र रक्षक होने का दावा करती है। बरसों तक सरकार के आश्वासनों की घुट्टी पीकर ऊबे संतों ने जिस गर्मजोशी से मंदिर निर्माण की कमान अब अपने हाथों में लेने का फैसला किया है उससे टकराव के आसार बढ़ते नजर आ रहे हैं। अदालत में चल रहे मुकदमे का निर्णय आने तक संत इंतजार करने के मूड में नहीं दिखते।

उधर भाजपा भी इस मुद्दे पर खुलकर विहिप तथा संतों का साथ देने का मन बना रही है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के विरोधी कहे जाने वाले राजग के कुछ घटक दलों के सामने बड़ी असमंजस की स्थिति है। उनके सामने सीमित विकल्प होने के कारण राजग में बने रहना उनकी मजबूरी है। इसलिये ये दल चाहे जनता के बीच जाकर मंदिर का कितना ही विरोध क्यों न करें, मंदिर के सवाल पर भाजपा से समर्थन वापस नहीं लेंगे। उधर भाजपा अब और ज्यादा दिनों तक संतों को नाराज करने का खतरा मोल लेना नहीं चाहती। वह जानती है कि यदि हिन्दु उससे नाराज हो गये तो यह उसके लिये भारी नुकसानदेह साबित हो सकता है। पिछले चार वर्षाें में उसके नेता खुद को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने के लिये चाहे जो बयान देते रहें पर यह सच है कि उसकी राजनीति हिन्दुत्व की राजनीति पर ही टिकी है। जब तक हिन्दू मतदाता उसके साथ हैं तब तक उसकी स्थिति मजबूत बनी रहेगी। 

उधर भाजपा के आलोचकों का मानना है कि सिर्फ हिन्दुओं को साधकर ही सत्ता चलाना उसके लिये आसान नहीं होगा। चूंकि भारत में सिर्फ हिन्दू ही नहीं रहते बल्कि दूसरे तमाम धर्म भी मौजूद हैं और उनके मानने वालों की संख्या करोड़ों में है इसलिये यहां पर राज करने वाली पार्टी को हिन्दु ही नहीं बल्कि मुसलमानों, ईसाईयों, सिखों समेत यहां रहने वाले सभी लोगों की भावनाओं का ख्याल रखना होगा। 

गुजरात चुनावों में भारी ऊहापोह के बीच हिन्दुत्व के बलबूते पर अविश्वसनीय जीत हासिल कर भाजपा के हौसले बुलंद हैं और वह हिमाचल प्रदेश सहित चार राज्यों में अभी हाल में होने वाले चुनावों में भी गुजरात जैसा प्रदर्शन करना चाहती है और इसके लिये उसके पास सबसे अच्छा मुद्दा फिर से हिन्दुओं को राम मंदिर के नाम पर जगाने का ही है। परन्तु समीक्षकों का मानना है कि इस बार उसकी मंजिल आसान नहीं रहेगी। हर बार चुनावों से पहले ही राम जन्म भूमि मुद्दे को हवा देेने के भाजपा, विहिप और संघ के फार्मूले को हिन्दू मतदाता अच्छी तरह समझ चुके हैं। वह जान गये हैं कि उनकी भावनाओं को हवा देकर सत्ता में आने का जो खेल भाजपा खेल रही है उसमें विहिप और संघ के नेतृत्व का परोक्ष समर्थन हासिल है। वहीं विहिप के नेताओं के सामने दोहरी मुश्किल है। एक तो उसे वाजपेई के नेतृत्व वाली सरकार की मुश्किलों को आसान बनाना है वहीं हिन्दुओं को भी साधकर रखना है।

उधर मतदाताओं के सामने दूसरी अनेक समस्यायें हैं जिनका भी वह सरकार से समाधान चाहते है। सबसे बड़ी समस्या तो बेरोजगारी की है। हर कस्बे और गांव में बड़ी तादाद में नौजवान रोजगार की तलाश में खाली बैठे हैं जिससे उनमें भारी निराशा फैल रही है। इन नौजवानों का साफ कहना है कि मंदिर या आतंकवाद का मुद्दा नहीं बल्कि नौकरी मिलना ही उनके लिये सबसे बड़ा सवाल है। हर सरकार चाहे वह कांग्रेस की हो या भाजपा की, अपने चुनाव पूर्व एजेण्डे में बेरोजगारी खत्म करने का दावा करती है। परन्तु सत्ता में आने के बाद सरकार कितने बेरोजगारों को नौकरी दिला पाती है यह किसी से छिपा नहीं है। यही कारण है कि उच्च शिक्षा प्राप्त होनहार युवा भारत के बजाय विदेशों में नौकरी करना ज्यादा पसंद करते है। किसानों की दशा पिछले कुछ वर्षों में काफी तेजी से बिगड़ी है। सूखे ने कमर तोड़ दी और उपज के लिये खरीदार नहीं हैं। इस तरह गरीब वर्ग दोहरी मार झेल रहा है। यही वे लोग हैं जो मतदान केन्द्र तक वोट डालने जाते हैं। भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक व्यापारी समुदाय रहा है। पिछले चार वर्षों में आर्थिक मंदी के चलते भारत में उद्य़ोगों के बंद होने की गति बहुत बढ़ गयी है। जबकि दूसरी तरफ चीन की औद्योगिक प्रगति सारी दुनिया के लिये उत्सुकता का विषय बन चुकी है। राजग सरकार की आर्थिक नीतियों ने न सिर्फ उद्योगपतियों और व्यापारियों को तंग किया बल्कि पेंशन याफ्ता वर्ग के लिये भी ब्याज दरें घटाकर बड़ी मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। एक तरह से उनकी जेब पर डाका डाला है। इस उम्र में आमदनी अब बढ़ तो सकती नहीं। अपने बुढ़ापे के लिये जो भी रकम बैंकों में जमा की थी उसका ब्याज गिर जाने से उनकी आमदनी अचानक घट गयी। उधर महंगाई घटी नहीं। नतीजतन यह वर्ग जिसकी संख्या लाखों में है, राजग सरकार से बहुत दुखी है। भाजपा मंदिर के अलावा आतंकवाद को भी एक बड़ी समस्या के रूप में पेश कर रही है। पर आतंकवाद से निपटने में हर मोर्चे पर विफल हो रही है। भाजपा के आलोचकों का कहना है कि भाजपा के शासनकाल में आतंकवाद न सिर्फ बढ़ा है बल्कि आतंकवादियों के हौसले इतने बुलंद हो गये हैं कि अब वे सीधे संसद पर हमला करने की जुर्रत भी कर पा रहे हैं। हां यह जरूर है कि आतंकवाद के विरुद्ध बने अंतर्राष्ट्रीय माहौल ने भारत को नई शक्ति दी है कि वह भी अब बिना संकोच के आतंकवाद से लड़ सकता है। अब तक अल्पसंख्यकों की भावनाओं का हवाला देकर उसे बहुत कुछ करने से रोका गया। पर अब शायद यह संभव न हो। इसीलिये बांग्लादेशियों को निकालने का सवाल हो या दूसरे मुद्दे, अल्पसंख्यकों को अब कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। जिसका भावनात्मक लाभ भाजपा को मिल सकता है। क्योंकि हिन्दू समाज अल्पसंख्यकों के साथ किये जा रहे विशेष व्यवहार से हमेशा उद्वेलित रहा है। मौजूदा माहौल में अगर समान नागरिक संहिता जैसे सवाल खड़े किये जायेंगे तो उन्हें व्यापक जन समर्थन मिल सकता है। भाजपा जानती है कि अल्पसंख्यकों का वोट तो उसे मिलने से रहा, इसलिये वह ऐसे सवालों को उठाने से अब संकोच नहीं करेगी

कुल मिलाकर स्थिति साफ है। भाजपा, विहिप और संघ जमकर हिन्दुवादी एजेंडा चलायेंगे। हिमाचल के नतीजे तय करेंगे कि यह एजेंडा शेष भारत में भी चलेगा या नहीं। मतदाता न तो भाजपा से खुश हैं और ना ही उसे दूसरे दलों से आशा है। इसलिये चुनाव में वोट भावनायें भड़काकर ही लिये जा सकते हैं। जाहिर है कि इस काम में भाजपा बहुत माहिर है और वो हर संभव कोशिश करेगी कि देश का बहुसंख्यक समाज भावनात्मक रूप से उसके साथ जुड़ जाये। जनता की इस भावना को फिर वोट में बदलते उसे देर नहीं लगेगी। किसी ठोस कार्यक्रम और जुझारू नेतृत्व के अभाव में भाजपा का प्रमुख विरोधी दल इंका पसोपेश में है। उसकी इस कमजोरी का फायदा उठाने में भाजपा पीछे नहीं रहेगी। पर यह भी याद रखना चाहिये कि भारत में लोकतंत्र है। जहां किसी भी परिस्थिति का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। आखिर ऊंट किस करवट बैठेगा ? यह जनता ही तय करेगी।

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