Rajasthan Patrika 29-06-2008 |
जस्टिस सब्बरवाल के मामले में इस बात के अनेक संकेत मिल रहे हैं कि उन्होंने दिल्ली में अवैध निर्माणों के खिलाफ जो आक्रामक तेवर दिखाया उसके पीछे उनके पुत्रों के व्यवसायिक हित छिपे थे। इन प्रमाणों को देख कर ही केंद्रीय सतर्कता आयोग ने यह ऐतिहासिक कदम उठाया है। अब जब ये पहल हो ही गयी है तो आवश्यकता इस बात की भी है कि जिन पूर्व न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के मामले पहले सामने आ चुके हैं उन्हें भी बक्शा न जाए। केवल सब्बरवाल के खिलाफ ही कारवाई ही क्यों हो ? केंद्रीय सतर्कता आयोग को चाहिए कि वह कालचक्र में छपी इन तथ्यात्मक रिपोर्टों के आधार पर बाकी पूर्व न्यायाधीशों के खिलाफ भी ऐसी ही कारवाई करें। एक तरह के अपराध को जांचने के दो माप दण्ड नहीं हो सकते।
आज तक यही होता आया है कि अदालत की अवमानना कानून का दुरूपयोग करके अनेकों भ्रष्ट न्यायाधीश विरोध के स्वर दबा देते हैं। खुद आपराधिक मामलों में लिप्त ये न्यायाधीश दूसरों के आचरण पर फैसला सुनाते है। जिसका इन्हें कोई नैतिक अधिकार नहीं है। पर आम जनता क्या करें ? किसके पास जाएं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोए ? जो उसे भ्रष्ट या अनैतिक न्यायाधीशों से राहत दिलाए। खुद न्यायपालिका ऐसे न्यायाधीशों के विरुद्ध कारवाई करती नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट बाॅर ऐसोसिएशन शोर मचाने से ज्यादा कुछ करना नहीं चाहती। संसद महाभियोग चलाती नहीं है। नतीजतन अनैतिक आचरण के बावजूद ऐसे न्यायाधीश अपना कार्यकाल पूरा करके ही हटते हैं। ऐसे में कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि सेवा निवृत्त हो चुके भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ सीबीआई केस दर्ज करे और अगर आरोप सिद्ध हो जांए तो उन्हें सजा दिलवाए। जब उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव ए.पी सिंह भ्रष्टाचार के मामले में जेल जा सकते हंै, तमिलनाडु और बिहार के मुख्यमंत्री जेल जा सकते हैं, सेना के वरिष्ठ अधिकारी जेल जा सकते हैं, तो न्यायपालिका के सदस्य क्यों नहीं ? आखिर वे भी तो इंसान हैं और उनमें भी वो सारी कमजोरियां हो सकती हैं जो एक आम आदमी में होती है। अगर दो-चार को भी सजा मिल गई तो बाकी के दिल में डर बैठ जाएगा। आखिर इटली में 90 के दशक में ऐसा हुआ ही था।
यहां एक और बात महत्वपूर्ण है कि भारत के मौजूदा कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज न्यायायिक आयोग के अपने प्रस्ताव पर आत्म सम्मोहित हैं। इस प्रस्ताव के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग बनेगा जो पदासीन न्यायाधीशों के दुराचरण की जांच कर उनके खिलाफ कारवाई करेगा। देश के कई जाने माने कानूनविद् भी इस आयोग का जम कर समर्थन कर रहे है। आश्चर्य की बात है न तो ये न्यायविद् और न ही कानून मंत्री इस प्रस्ताव की सीमाओं को समझ पा रहे हैं। इस प्रस्ताव के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश को भ्रष्टाचार से अछूता मान लिया गया है। पर यह नहीं सोचा जा रहा कि अगर मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट होगा तब यह आयोग कैसे काम करेगा ? मसलन मैंने दो मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण का उनके पद पर रहते हुए पर्दाफाश किया था। ऐसी परिस्थति में यह आयोग क्या करेगा ? आवश्यकता इस बात की है कि इस तथ्य को नजर अंदाज न किया जाए और आयोग के ढांचे पर चिंतन करते समय ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थति के समाधान का भी प्रावधान रखा जाए। वरना यह न्याय आयोग भी नाकारा सिद्ध होगा।
मुंशी प्रेमचन्द की मशहूर कहानी ’पंच परमेश्वर’ में यह संदेश मिलता है कि न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर गांव का एक साधारण व्यक्ति भी निजी राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है और निष्पक्ष न्याय करता है। पर आज नैतिकता के वो मान दण्ड नहीं है। ऐसे में न्यायपालिका के सुधार की दिशा में कोई नया कदम उठाने से पहले काफी सोचने की जरूरत है। यह चिंतन न्यायपालिका के सदस्य भी करें और सरकार भी तो कोई बेहतर विकल्प निकल आएगा।
फिलहाल तो देश को चाहिए कि वह केंद्रीय सकर्तता आयोग को इस पहल के लिए बधाई दे और साथ ही सरकार पर यह दबाव बनाए कि जस्टिस सब्बरवाल के मामले में कोई रियायत न दी जाए। वे आज एक आम आदमी है और आम आदमी की तरह अपने अपराध की सजा पाने के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो न्यायपालिका में कैंसर की तरह फैलते भ्रष्टाचार पर स्वतः अंकुश लग जाएगा।