राहुल गांधी देश के पिछड़े इलाकों में दौरे करके आम आदमी की बदहाली का जायजा ले रहे हैं। इससे पहले सभी दलों के युवा सांसदों ने भी ऐसी ही एक साझी कोशिश की थी। ये युवा सांसद हैरान है कि सरकार की तमाम नीतियां गरीबों के हक में होने के बावजूद जमीनी हकीकत इतनी हृदयविदारक क्यों हैं ? ये बात दूसरी है कि इनमें से सभी बहुत सफल, संपन्न और दीर्घ काल तक सत्ता में रहे राजनेताओं के साहबजादे और साहेबजादियां हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जो बात इस देश के साधारण स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी जानते हैं, उस बात को जानने के लिए विदेशों में पढ़े इन युवा सांसदों को इतनी कवायद करने की क्या जरूरत है ? खुद राहुल गांधी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री यह स्वीकार चुके हैं कि रूपए में 14 पैसे भी आम आदमी तक नहीं पहुंचते। नोबल पुरास्कार विजेता भारतीय मूल के अर्थशास्त्री डा. अमत्र्यसेन भी यही मानते हैं कि भारत में गरीबी का कारण भ्रष्टाचार है। इसलिए देश की गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली पर आंसू बहाने की बजाए इन युवा सांसदों को प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध मोर्चा खोलना चाहिए। क्योंकि गरीबी और बेरोजगारी का कारण है भ्रष्टाचार।
विकास की नीतियां बनाने वालों का जमीन से कोई मतलब नहीं होता। ये नीतियां राजनैतिक फायदे के लिए ज्यादा और आम आदमी को राहत पहंुचाने के लिए कम होती हैं। दूसरी तरफ नीतियां लागू करने वाली राज्य सरकारें और उसकी मशीनरी का मकसद हर योजना के आवंटन का अधिकतम पैसा अपनी जेब में पहुंचाना होता है। इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस बुनियादी समस्या पर चोट नहीं करता। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं। राजनैतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार पर केवल शोर मचाने का नाटक किया जाता है। वैसे भी हर आदमी दूसरे पर ही अंगुली उठाता है और खुद के दामन के दागों को छुपाता हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं। यहां तक कि देश की सर्वोच्च न्यापालिका भी नैतिकता के मामले में दोहरे मानदंडों का समर्थन कर रही है। सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने से न्यायपालिका खुश नहीं है। जबकि न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से निपटने का कोई तरीका आज उपलब्ध नहीं है। फिर भी न्यायपालिका न तो अपने ऊपर अंकुश चाहती है और ना ही जवाबदेही।
जबसे संसद की सलाहकार समिति ने न्यायपालिका को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लेने की सिफारिश की है तब से भारत के मुख्य न्यायाधीश काफी उखड़े हुए हैं। उनका कहना है कि वे संवैधानिक पद पर हैं और संवैधानिक पदों को ऐसे कानून के दायरे में नहीं लिया जा सकता। जबकि लगभग सभी सांसदों और सभी राजनैतिक दलों का मानना है कि न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। लोकतंत्र के चार खम्बों में से एक है न्यायपालिका। जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। बाकी तीन खम्बें हैं कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया। कार्यपालिका की जवाबदेही विधायिका के प्रति होती है और विधायिका की जनता के प्रति और मीडिया की जवाबदेही उसके पाठकों के प्रति होती है। आदर्श स्थिति में ये चारों अंग एक-दूसरें के पूरक और एक दूसरे पर निगाह रखने का काम करें तो लोकतंत्र सुदृढ़ होता है। संविधान के निर्माताओं ने न्यायाधीशों को बाकी तीन अंगों के प्रति जवाबदेह न बना कर न्यायपालिका की गरिमा को स्थापित किया था। पर आज वह गरिमा न्यायपालिका के आचरण से ही टूट रही है। इसलिए देश में यह मांग उठ रही है। न्यायपालिका का आचरण अगर पारदर्शी नहीं होगा तो गरीब को उसका हक कैसे मिलेगा ?
जहां तक सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन का प्रश्न है तो उसका एक दूसरा प्रभावी तरीका हो सकता है कि इन योजनाओं को लागू करने में समाज सेवी और जागरूक लोगों व प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद ली जाए। क्यांेकि ये लोग सेवाभावना से, निष्ठा से और कम खर्चीले तरीके से काम करने के आदी होती है। मुश्किल इस बात की है कि सच्चे और अच्छे लोगों और संस्थाओं को ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाता। एन.जी.ओ. के नाम पर भी आला अफसरों और नेताओं के घरों की महिलाएं और बच्चे संगठन बना लेते हैं और योजनाओं का करोड़ो रूपया डकार जाते हैं। इसलिए देश के गरीब और आदिवासी बदहाल हैं।
कैसी विडंबना है कि सरकार के पास देश की बदहाली दूर करने के लिए हजारों करोड रूपया है। सैकड़ों योजनाएं हैं। लाखों कर्मचारी हैं। पर जमीनी हालत नहीं बदलती। एक तरफ हम विकास की दौड़ में तेजी से बढ़ना चाहते है और दूसरी तरफ हम अपनी बदहाली के कारणों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। इसीलिए कुछ नहीं बदलता। हर नया नेता, नए सपने दिखाकर मतदाताओं को लुभाना चाहता है। राहुल गांधी भी ऐसे ही सपने दिखा रहे हैं। लोग सब समझते हैं। फिर भी कुछ कर नहीं पाते। क्योंकि उनके पास कोई विकल्प है ही नहीं। हां इतना बदलाव जरूर आया है कि अब मतदाताओं को आसानी से ठगा नहीं जा सकता। ठोस काम करने वाला मतदाता की निगाह में चढ़ता जरूर है। इसलिए राहुल गांधी को भी कुछ ठोस कार्यक्रम बनाने चाहिए। जिनसे देश में बदलाव आए। अभी उनके पास काफी वक्त है। वे जोखिम उठा सकते हैं। इसलिए जनता की बदहाली पर आंसू बहाने से बेहतर हो कि वे स्थायी बदलाव की कोशिश करें।
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