Rajasthan Patrika 14 Aug |
श्रीमती सोनिया गाँधी की बीमारी को लेकर देशभर में उत्सुकता बनी हुई है। आधिकारिक सूचना न होने के कारण तमाम तरह की अटकलों का बाजार गर्म है। गम्भीर किस्म की असाध्य माने जानी वाली बीमारी तक का कयास लगाया जा रहा है। राष्ट्रीय नेताओं के जीवन के कुछ पक्षों की क्या इस तरह की गोपनीयता लोकतंत्र में सही ठहरायी जा सकती है? इस पर कई सवाल खड़े होते हैं। गोपनीयता के पक्ष में जो सबसे बड़ा तर्क मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन में सुना वह सी.एन.एन. के उस अमरीकी संवाददाता का था, जो 9/11 के आतंकी हमले के दौरान अमरीका के राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास व्हाईट हाउस को कवर कर रहा था। सी.एन.एन. के एंकर पर्सन ने उससे बार-बार पूछा कि व्हाईट हाउस में क्या हो रहा है? पर वह बताने से कतराता रहा। यह वो वक्त था जब वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतें ध्वस्त हो चुकी थीं। पेंटागाॅन पर हमला हो चुका था। यात्रियों का एक हवाई जहाज आतंकियों ने ध्वस्त कर दिया था। पूरे अमरीका में अफरा-तफरी मची थी। इस आपातकालीन दौर में सुपरपावर अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश कहीं टी.वी. पर नजर नहीं आ रहे थे। टी.वी. चैनल अटकलें लगा रहे थे कि वे जान बचाने के लिए या तो बंकर में घुस गये हैं या अपने अत्यंत सुरक्षित विमान में अमरीका के आसमान में चक्कर लगा रहे हैं या हमले में मारे जा चुके हैं। ऐसी अनिश्चितता के समय में जाहिर है कि व्हाईट हाउस को देखने वाले संवाददाता से कुछ आधिकारिक और असली खबर की अपेक्षा होती। पर जब उससे एंकर पर्सन ने झुंझलाकर पूछा कि तुम गत् 18 वर्षों से व्हाईट हाउस के भीतर की खबरें देते रहे हो तो अब क्यों कुछ नहीं बताते? संवाददाता का उत्तर था कि, ‘‘क्योंकि मैं 18 वर्षों से व्हाईट हाउस कवर करता रहा हूँ, इसीलिए मैं वह सबकुछ लोगों को नहीं बता सकता, जो मैं जानता हूँ। यह देशहित में नहीं होगा।’’ इस घटना के बाद मैंने बहुत चिंतन किया। मेरी वृत्ति एक ऐसे बेखौफ खोजी पत्रकार की रही, जिसने तथ्य हाथ में आने के बाद बड़े से बड़े ताकतवर लोगों को बेनकाब करने में एक मिनट की देरी नहीं की। मुझे लगा कि सब जानने का मतलब, सब बताना नहीं है। कई बार राष्ट्रहित में चुप भी रह जाना होता है।
आज के दौर में जब टी.वी. चैनलों और एस.एम.एस. के माध्यम से झूठ को सच बताने का सिलसिला आम हो चला है, बे्रकिंग न्यूज के नाम पर अफवाहों का बाजार गर्म कर दिया जाता है, तिल का ताड़ बना दिया जाता है, तब तो यह और भी जरूरी है कि जिनके पास महत्वपूर्ण सूचनाऐं हैं, वे सोच-समझकर उन्हें लीक करें। ऐसा नहीं है कि राजनेताओं के विषय में ही गोपनीयता बरती जाती हो, औद्योगिक जगत के मामलों में तो यह अभ्यास पूरी दुनिया में आम है। भारत में ही जब धीरूभाई अंबानी सघन चिकित्सा कक्ष में थे, तो कहते हैं कि उनकी मृत्यु की घोषणा, अंबानी समूह ने और अंबानी बंधुओं ने अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक फैसले लेने के बाद की। अमरीका के मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन की मौत आज भी रहस्य बनी हुई है। इंग्लैंड की राजकुमारी डायना स्पैंसर्स की पैरिस की सुरंग में कार दुर्घटना में हुई मौत पर आज भी कयास लगाये जाते हैं। जॉन एफ.कैनेडी की हत्या की गुत्थी अमरीका की सरकार आज तक सुलक्षा नहीं पायी या सुलझाना नहीं चाहा।
इसलिए इस तर्क में भी वजन कम नहीं कि लोकतंत्र में अपने राजनेताओं के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रसंगों और घटनाओं को जानने की जिज्ञासा ही नहीं, जनता का हक भी होता है। पर लोकशाही में भी जो सत्ताधीश हैं, उनकी वृत्ति राजशाही जैसी हो जाती है। वे सामान्य घटना को भी रहस्यमय बनाकर रखते हैं।
हमारे देश में ऐसी अनेक दुर्घटनाऐं हो चुकी हैं, जिन्हें रहस्य के परदे के पीछे छिपा दिया गया है। जनता इन घटनाओं की असलियत आज तक नहीं जान पायी। सरकार ने भी जानने की कोशिश के नाटक तो बहुत किए, पर हकीकत कभी सामने नहीं आयी। शुरूआत हुई नेताजी सुभाषचन्द बोस के गायब होने से। वे विमान दुर्घटना में मरे या अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें किसी संधि के तहत भारत से बाहर किसी देश में निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर कर दिया, इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ‘ताशकंद’ (रूस) में किन परिस्थितियों में असामायिक मौत हुई, इसे देश नहीं जान पाया। मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर जनसंघ के वरिष्ठ नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव रेल में सफर करते समय मिला, उनकी हत्या कैसे हुई, इस रहस्य पर आज तक परदा पड़ा है। बिहार में एक जनसभा में तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की विस्फोट में हत्या, नागरवाला कांड के अभियुक्त की मौत, देश की प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी व राजीव गाँधी की हत्या के कारणों पर आज तक प्रकाश नहीं पड़ा। उधर पड़ोसी देश पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो की हत्या, नेपाल के राजवंश की हत्या, बंग बंधु मुजिबुर्रहमान की बांग्लादेश में हत्या, दक्षिण एशिया के इतिहास के कुछ ऐसे काले पन्ने हैं, जिनकी इबारत आज तक पढ़ी नहीं गई।
क्या ये माना जाए कि इन देशों की जाँच ऐजेंसियां इतनी नाकारा हैं कि वे अपने राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों और राजाओं की हत्याओं की गुत्थियां तक नहीं सुलझा सकतीं? या यह माना जाए कि इन महत्वपूर्ण राजनैतिक हत्याओं के पीछे जो दिमाग लगे होते हैं, वे इतने शातिर होते हैं कि हत्या करवाने से पहले ही, हत्या के बाद की स्थिति का भी पूरा नियन्त्रण अपने हाथ में रखते हैं। नतीजतन आवाम में असमंजस की स्थिति बनी रहती है। कहावत है, ‘‘हर घटना विस्मृत हो जाती है’। इसी तरह शुरू में उत्सुकता, बयानबाजी व उत्तेजना के प्रदर्शन के बाद आम जनता धीरे-धीरे इन दुर्घटनाओं को भूल जाती है और अपने रोजमर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती है। लगता है कि सत्ता और विपक्ष, दोनों की रजामंदी सच पर राख डालने में होती है। इसलिए विपक्ष भी एक सीमा तक शोर मचाता है और फिर खामोश हो जाता है। शायद वह जानता है कि अगर सत्तापक्ष की गठरी खुलेगी तो उसकी भी खुलने में देर नहीं लगेगी। इन हालातों में यही कहा जा सकता है कि जो दिखता है, वह सच नहीं होता और जो सच होता है, वह दिखाया नही जाता। फिर भी हम मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोपरि है। यह लोकतंत्र की विडम्बना है।
आज के दौर में जब टी.वी. चैनलों और एस.एम.एस. के माध्यम से झूठ को सच बताने का सिलसिला आम हो चला है, बे्रकिंग न्यूज के नाम पर अफवाहों का बाजार गर्म कर दिया जाता है, तिल का ताड़ बना दिया जाता है, तब तो यह और भी जरूरी है कि जिनके पास महत्वपूर्ण सूचनाऐं हैं, वे सोच-समझकर उन्हें लीक करें। ऐसा नहीं है कि राजनेताओं के विषय में ही गोपनीयता बरती जाती हो, औद्योगिक जगत के मामलों में तो यह अभ्यास पूरी दुनिया में आम है। भारत में ही जब धीरूभाई अंबानी सघन चिकित्सा कक्ष में थे, तो कहते हैं कि उनकी मृत्यु की घोषणा, अंबानी समूह ने और अंबानी बंधुओं ने अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक फैसले लेने के बाद की। अमरीका के मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन की मौत आज भी रहस्य बनी हुई है। इंग्लैंड की राजकुमारी डायना स्पैंसर्स की पैरिस की सुरंग में कार दुर्घटना में हुई मौत पर आज भी कयास लगाये जाते हैं। जॉन एफ.कैनेडी की हत्या की गुत्थी अमरीका की सरकार आज तक सुलक्षा नहीं पायी या सुलझाना नहीं चाहा।
इसलिए इस तर्क में भी वजन कम नहीं कि लोकतंत्र में अपने राजनेताओं के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रसंगों और घटनाओं को जानने की जिज्ञासा ही नहीं, जनता का हक भी होता है। पर लोकशाही में भी जो सत्ताधीश हैं, उनकी वृत्ति राजशाही जैसी हो जाती है। वे सामान्य घटना को भी रहस्यमय बनाकर रखते हैं।
हमारे देश में ऐसी अनेक दुर्घटनाऐं हो चुकी हैं, जिन्हें रहस्य के परदे के पीछे छिपा दिया गया है। जनता इन घटनाओं की असलियत आज तक नहीं जान पायी। सरकार ने भी जानने की कोशिश के नाटक तो बहुत किए, पर हकीकत कभी सामने नहीं आयी। शुरूआत हुई नेताजी सुभाषचन्द बोस के गायब होने से। वे विमान दुर्घटना में मरे या अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें किसी संधि के तहत भारत से बाहर किसी देश में निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर कर दिया, इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ‘ताशकंद’ (रूस) में किन परिस्थितियों में असामायिक मौत हुई, इसे देश नहीं जान पाया। मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर जनसंघ के वरिष्ठ नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव रेल में सफर करते समय मिला, उनकी हत्या कैसे हुई, इस रहस्य पर आज तक परदा पड़ा है। बिहार में एक जनसभा में तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की विस्फोट में हत्या, नागरवाला कांड के अभियुक्त की मौत, देश की प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी व राजीव गाँधी की हत्या के कारणों पर आज तक प्रकाश नहीं पड़ा। उधर पड़ोसी देश पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो की हत्या, नेपाल के राजवंश की हत्या, बंग बंधु मुजिबुर्रहमान की बांग्लादेश में हत्या, दक्षिण एशिया के इतिहास के कुछ ऐसे काले पन्ने हैं, जिनकी इबारत आज तक पढ़ी नहीं गई।
क्या ये माना जाए कि इन देशों की जाँच ऐजेंसियां इतनी नाकारा हैं कि वे अपने राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों और राजाओं की हत्याओं की गुत्थियां तक नहीं सुलझा सकतीं? या यह माना जाए कि इन महत्वपूर्ण राजनैतिक हत्याओं के पीछे जो दिमाग लगे होते हैं, वे इतने शातिर होते हैं कि हत्या करवाने से पहले ही, हत्या के बाद की स्थिति का भी पूरा नियन्त्रण अपने हाथ में रखते हैं। नतीजतन आवाम में असमंजस की स्थिति बनी रहती है। कहावत है, ‘‘हर घटना विस्मृत हो जाती है’। इसी तरह शुरू में उत्सुकता, बयानबाजी व उत्तेजना के प्रदर्शन के बाद आम जनता धीरे-धीरे इन दुर्घटनाओं को भूल जाती है और अपने रोजमर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती है। लगता है कि सत्ता और विपक्ष, दोनों की रजामंदी सच पर राख डालने में होती है। इसलिए विपक्ष भी एक सीमा तक शोर मचाता है और फिर खामोश हो जाता है। शायद वह जानता है कि अगर सत्तापक्ष की गठरी खुलेगी तो उसकी भी खुलने में देर नहीं लगेगी। इन हालातों में यही कहा जा सकता है कि जो दिखता है, वह सच नहीं होता और जो सच होता है, वह दिखाया नही जाता। फिर भी हम मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोपरि है। यह लोकतंत्र की विडम्बना है।