Sunday, August 7, 2011

खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों की असलियत

Rajasthan Patrika 7 Aug
बढ़ती मंहगाई को लेकर विपक्ष का उत्तेजित होना स्वाभाविक है। क्योंकि यह मुद्दा आम जन-जीवन से जुड़ा है। ऐसे मुद्दों पर शोर मचाने से जनता और मीडिया का ध्यान आकर्षित होता है और उसका राजनैतिक लाभ मिलता है। इसलिए भ्रष्टाचार की ही तरह महंगाई एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर जो भी दल केन्द्र सरकार में हो, उसे हमेशा विपक्षी दलों की मार सहनी पड़ती है। ज्यों-ज्यों चुनाव निकट आते जायेंगे, इस मुद्दे का राजनैतिक लाभ लेने की तीव्रता बढ़ती जाएगी। पर इसका मतलब यह नहीं कि महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लोकसभा में बहस करते हुए भाजपा कार्यकाल में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने सरकार को चेताया कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद महंगाई के चलते पिछले 20 महीनों में  देश में गरीबी और तेजी से बढ़ी है। उनकी तीखी चेतावनी इस बात का संकेत था कि भाजपा इस मुद्दे को बार-बार उछालने में परहेज नहीं करेगी।

उधर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी यह सफाई दे रहे हैं कि अन्र्तराष्ट्रीय बाजार में पैट्रोलियम पदार्थों के बढ़ते दामों ने मुद्रास्फीति को बढ़ाने में मदद की है। उन्होंने आश्वासन दिया कि जल्द ही महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा। हालांकि महंगाई को उन्होंने अन्र्राष्ट्रीय समस्या बताया, पर क्या ऐसे बयान देने से गरीब के आँसू पौंछे जा सकते हैं? प्रश्न उठता है कि क्या हमारी सरकार महंगाई पर काबू पाने के लिए दृढ़ संकल्प ले चुकी है? क्या महंगाई का कारण पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि ही है या इसके पीछे कोई माफिया काम कर रहा है? जब पैट्रोलियम के दाम बढ़े नहीं होते, तब भी बाजार से अचानक चीनी का गायब हो जाना, प्याज का अदृश्य हो जाना यह बताता है कि इसके पीछे खाद्यान्न के व्यापार करने वालों की एक सशक्त लाॅबी है जो अपने राजनैतिक आकाओं के अभयदान से देश में ऐसी स्थिति अक्सर पैदा करती रहती है। यह लॉबी इतनी सशक्त है कि केंद्र सरकार सबकुछ जानकर भी इनका बाल-बांका नहीं कर पाती। अन्ततः खामियाजा आम जनता को ही भुगतना पड़ता है।

विपक्ष का यह कहना है कि देश में खाद्यान्न के भण्डार क्षमता के अनुसार भरे पड़े हैं। उधर सरकार का भी यह दावा कि कृषि उत्पादकता बढ़ी है, सरकार के बयानों में विरोधाभासों को प्रकट करता है। अगर खाद्यान्न की उत्पादकता बढ़ी है और सरकार के गोदामों में 65.5 मिलियन टन अनाज भरा पड़ा है, तो महंगाई बढ़ने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। फिर भी सरकार नहीं बता पा रही कि इस महंगाई की वजह क्या है? यह बात दूसरी है कि सरकार के विरूद्ध मत विभाजन में सरकार बच गई क्योंकि उसे 51 के मुकाबले 320 मत प्राप्त हुए। पर इससे जनता की तकलीफ कम नहीं होती। महंगाई के मामले पर अब राजनेता ही नहीं, स्वंयसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता भी सक्रिय होने लगे हैं। इस तरह लोगों की दुखती रग से जुड़े महंगाई के सवाल पर विपक्ष का हमला अगले चुनाव तक जारी रहेगा। उधर सरकार को गहरा मंथन करके इस समस्या का हल खोजना चाहिए। उसे समझना चाहिए कि भूखे को भोजन की तस्वीर दिखाकर सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता। हालांकि सरकार सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध करा रही है और फूड सेफ्टी बिल लाने की तैयारी भी कर रही है, पर महंगाई की मार ऐसी है कि वो केवल उन्हीं लोगों पर नहीं पड़ती जो समाज में सबसे पिछड़े तबके हैं, बल्कि मध्यमवर्गीय शहरी भी इसका दर्द महसूस करता है।

Punjab Kesari 8 Aug 2011
आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई दौर आए हैं जब महंगाई को काबू में लाने के लिए सरकार ने जमाखोरों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की है। आज भी अगर केन्द्रीय और प्रांत सरकारें सतर्क और आक्रामक हो जाऐं तो खाद्यान्न की महंगाई को काबू में लाया जा सकता है। क्योंकि यह बात सही है कि देश में आज खाद्यान्न का कोई संकट नहीं है। सारी समस्या वितरण और भण्डारों से जुड़े भ्रष्टाचार से है।

उधर वामपंथी दलों के तेवर तो महंगाई के मामले पर हमेशा ही कड़े रहते हैं। वे सदन का इस मुद्दे पर बहिष्कार भी कर चुके हैं और जब जरूरत समझेंगे, लाखों मजदूरों की भीड़ जुटाकर सरकार को आईना दिखा देंगे। इसलिए महंगाई के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ही नहीं बल्कि पूरी केबिनेट को कड़े निर्णय लेने चाहिऐं।

उधर महंगाई का एक दूसरा पक्ष भी है, जो उन लोगों का है जो इस महंगाई को गलत नहीं समझते। इनका कहना है कि क्या आप मोटर कार निर्माता से यह पूछते हैं कि 2 रूपये का पेंच 80 रूपये में क्यों बेच रहे हैं? या डबल रोटी में आलू की टिकिया रखकर बर्गर के नाम से बहुराष्ट्रीय कम्पनी 60 रूपये का क्यों बेच रही हैं? इनका कहना है कि इससे साफ जाहिर है कि जब बड़ी कम्पनियां बड़े मुनाफे कमाने के लिए साधारण सी वस्तुओं को भी कई गुने दाम पर बेचती हैं, तब महंगाई को लेकर कोई शोर नहीं मचता। उपभोक्ता चाहें निम्न वर्ग का हो, मध्यम का हो या उच्चवर्ग का हो, परिस्थिति को हंसते-हंसते सह लेते हैं। पर जब खाद्यान्न के दाम बढ़ते हैं तो ऐसे शोर मचाया जाता है मानो आसमान सिर पर टूट पड़ा हो। जबकि खाद्यान्न का उत्पादन करने वाले देश के बहुसंख्यक किसान इस महंगाई से प्रभावित नहीं होते। क्योंकि उन्हें ये चीजें अपने स्थानीय बाजार में सरलता से सही दाम पर उपलब्ध हो जाती हैं। बिचैलियों के कारण शहरों में जब कई गुना महंगी होकर बिकती हैं तो भी उन किसानों को लाभ ही होता है। मार पड़ती है तो शहरी मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग पर। क्योंकि उसकी आवाज मीडिया में सुनी जाती है, इसलिए खाद्यान्न का दाम बढ़ने पर शोर ज्यादा मचता है। वास्तविकता इन दोनों परिस्थितियों के बीच की है। कुल मिलाकर खाद्यान्न के उत्पादन, संग्रहण, वितरण और मूल्य पर सरकार की जैसी पकड़ होनी चाहिए, वैसी नहीं है। इसलिए आम जनता को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। 

Sunday, July 31, 2011

हंगामेदार होगा संसद का यह सत्र

Rajasthan Patrika 31 July
पहली अगस्त से शुरू होने वाला संसद सत्र भारी हंगामे का होगा। वामपंथी दलों सहित सारा विपक्ष सरकार के खिलाफ लामबंद है। इतने सारे मुद्दे हैं कि सरकार के लिए गाड़ी खींचना आसान न होगा। मंहगाई की मार यानि आवश्यक वस्तुओं की मूल्यवृद्धि, पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में बार-बार वृद्धि, डीजल के दामों में वृद्धि आदि किसानों की दिक्कतें बढ़ी हैं और आम मतदाता परेशान है। विपक्ष इसका पूरा फायदा उठायेगा। पाकिस्तान को सोंपी गई मोस्ट वान्टेड लिस्ट के मामले में सरकार ने कोई तत्परता नहीं दिखाई। इस लापरवाही को अनदेखा नहीं किया जाएगा। बाबा रामदेव के धरने में, रामलीला मैदान में, शांतिपूर्वक बैठे लोगों पर केन्द्र सरकार की बर्बर कार्यवाही को लेकर जनता में नाराजगी है। उधर नई भूमि अधिग्रहण नीति-विधेयक मसौदा भी काफी विवादास्पद है। 

ममता बनर्जी का बंगाल के चुनाव में लगे रहना और रेल मंत्रालय का अनाथ होकर चलना व बढ़ती रेल दुर्घटनाओं का होना रेलवे की लापरवाही का ठोस नमूना है। आतंकवाद, नक्सलवाद व आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर नीति पर पुनर्विचार किया जाएगा। हांलाकि इस मामले में सरकार का रिपोर्ट कार्ड एन.डी.ए. की सरकार से बेहतर रहा है। इसलिए विपक्ष के हमले में कोई नैतिक आधार नहीं होगा। अलबत्ता 2जी स्पैक्ट्रम में तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका व कपिल सिब्बल द्वारा रिलायंस कंपनी को नाजायज तरीके से फायदा पहुँचाने से उत्पन्न स्थिति को विपक्ष यूं ही नहीं छोड़ देगा। विपक्षी खेमों में चर्चा है कि यूपीए 1 के दौरान कपिल सिब्बल द्वारा भारतवंशी कामगारों का डाटाबेस बनाने के काम को मैसर्स फीनिक्स रोज एलएलसी मैरीलैंड को ठेका देने में जो कथित धांधली और उक्त फर्म को अधिक धनराशि देने एवं फर्म द्वारा काम में लापरवाही से देश की संपदा को नुकसान हुआ है उसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।

काले धन का मामला पूरी तरह राजनैतिक है। राम जेठमलानी से लेकर संघ और भाजपा काले धन को देश में वापस लाने के मामले में सरकारी उदासीनता को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इस मामले में साफ नीयत नहीं रखता। हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और। देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था व मल्टी ब्रांड रिटेल में एफ.डी.आई यानि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने सम्बन्धी सरकार के प्रस्ताव का विरोध भी विपक्ष करने को तैयार है। यह दूसरी बात है कि वामपंथी व समाजवादी दलों को छोड़कर आर्थिक नीति के मामले में पक्ष और विपक्ष की सोच में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है।

इसके अलावा देश के विभिन्न भागों में बाढ़ और फेल होती सरकारी मशीनरी, ऑनर किलिंग व दिल्ली में लगातार बढ़ती आपराधिक घटनाऐं और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की असफलता जैसे मुद्दे भी विपक्ष उठाएगा। पर इन सब मामलों में कोई एक सरकार या दल जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि सबका हाल लगभग एक सा रहा है। मौके-मौके की बात है। वही अपराध जब अपनी सरकार के दौरान होते हैं तो राजनैतिक दल सारी आलोचनाओं को दरकिनार कर अपनी चमड़ी मोटी कर लेते हैं। वही घटनाऐं जब उनके विपक्षी दल के सत्ता में रहने के दौरान होती हैं, तो उसका पूरा राजनैतिक लाभ लिया जाता है।
 
सबसे रोचक विषय तो लोकपाल बिल रहेगा। जहाँ टीम अन्ना ने सरकारी बिल को मनलोकपाल (मनमोहन सिंह) कहकर इसका मजाक उड़ाया है और सरकार पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया है, वहीं यह बात भी सही है कि सरकारी लोकपाल बिल काफी लचर है और जनता की अपेक्षाओं खरा नहीं उतरता। इसलिए टीम अन्ना इस मामले को लेकर जनता को उत्तेजित करने का प्रयास करेगी। अगर उसे पहले की तरह टी.वी. चैनलों का असामान्य समर्थन मिला तो वह सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा कर सकती है। विपक्षी दल इस मामले में लामबंद हो चुके हैं। वे सरकारी लोकपाल बिल के मसौदे से संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए संसद में इस मामले पर भी सरकार को घेरेंगे। यह बात दूसरी है कि जब टीम अन्ना विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं से मिली तो उसे किसी दल ने भी उसके जन लोकपाल बिल के समर्थन में कोई आश्वासन नहीं दिया। निजी बातचीत में तो हर दल का नेता पत्रकारों से यही कहता रहा कि टीम अन्ना की मांग और तरीका दोनों ही नाजायज हैं। वे कहते हैं, ‘यह सत्याग्रह नहीं, दुराग्रह है।’ पर संसद में राजनैतिक लाभ लेने की दृष्टि से विपक्षी दल इस मुद्दे पर टीम अन्ना के साथ खड़े होने का नाटक जरूर करेंगे।

जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है, एक के बाद एक घोटालों में केन्द्र सरकार के मंत्रियों की जो भूमिका रही है, उससे सरकार की छवि गिरी है। इसमें इलैक्ट्रोनिक मीडिया की काफी सक्रिय भूमिका रही है। जिसने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ‘एक्टिविस्ट’ की तरह सरकार पर हमला बोल रखा है। ऐसे माहौल में भाजपा के लिए येदुरप्पा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाये रखना घाटे का सौदा होता। इसलिए कर्नाटक के लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की दूसरी रिपोर्ट आते ही आनन-फानन में अपने सिपहसलार से इस्तीफा मांग लिया गया और संसद में सत्तापक्ष को हावी न होने देने की जमीन तैयार कर ली गयी। हांलाकि यह सवाल फिर भी उठेगा कि इन्हीं लोकायुक्त की पहली रिपोर्ट के बाद डेढ़ बरस पहले भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व क्यों कान में उंगली दिए बैठा रहा?

उधर सत्तापक्ष कर्नाटक के बाद अब गुजरात की ओर रूख करेगा और नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश की जाएगी। उधर अगले वर्ष राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होने हैं, इसलिए सत्तापक्ष को भाजपा का समर्थन भी चाहिए। यह रस्साकशी उन्हीं समीकरणों को बिठाने के लिए की जाएगी। जिसमें दो ही विकल्प बनते हैं, या तो दोनों दल आपस में भिड़कर मध्यावधि चुनाव की स्थितियाँ पैदा कर दें और या गुपचुप समझौता कर जनता के सामने नूरा-कुश्ती लड़ते रहें। इन हालातों में चुनाव यदि होता है तो जाहिर है इंका को घाटा होगा। पर यह भी स्पष्ट है कि कोई भी दल, यहाँ तक कि एन.डी.ए. एकजुट हो जाता है, तो भी शायद बहुमत लाने की स्थिति में नहीं होगा। इसलिए चुनाव से किसी का लाभ नहीं होने जा रहा। कुल मिलाकर संसद के आगामी सत्र में शोर तो खूब मचेगा पर आम जनता के हाथ कुछ नहीं लगेगा।

Sunday, July 24, 2011

यूरोप का गहराता आर्थिक संकट

Panjab Kesari 25/7/2011
पिछले दिनों ग्रीस की राजधानी एथेंस में हिंसक जनता सड़कों पर उतर आई। विदेशी पर्यटक होटलों में बन्द बैठे रहे। अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानें कई घंटों के लिए स्थगित कर दी गईं। इस सबके पीछे ग्रीस का प्रतिदिन गहराता आर्थिक संकट है। उसके वित्तमंत्री उस दिन संसद में जो बजट प्रस्तुत करने जा रहे थे, वह सादगी भरा था। जिसमें कई ऐसे कड़े कदम लिए गये थे,जिनसे ग्रीस की आम जनता का जीवन यापन करना और भी दुश्कर होता। सरकार अनेक तरह की सामाजिक सेवाओं को समाप्त करने जा रही थी। पहले से आर्थिक बन्दी की मार झेल रहे लाखों बेरोजगार ग्रीसवासी इस बजट को स्वीकार करने को तैयार न थे। इसलिए वे सड़कों पर उतर आए। पर सरकार भी मजबूर थी। उसके पास कोई विकल्प नहीं है। यूरोप में सबसे पहले ग्रीस का गुब्बारा फूटने जा रहा है। उस पर अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद से भी अधिक कर्ज है। मजबूरन सरकार को बजट प्रस्ताव पारित करने पड़े। बाहर पुलिस जनता पर लाठी बरसाती रही।

इधर पिछले दिनों इटली की हालत भी बद से बदतर होती जा रही है। आज इटली पर 2.6 ट्रिलियन डाॅलर का कर्ज है। जो कि इसके सकल घरेलू उत्पादन का 120 फीसदी है। यह ग्रीस, आयरलैंड और पुर्तगाल तीनों के कुल घाटे से तिगुनी राशि है। ऐसे में इटली के प्रधानमंत्री के हाथ-पाँव फूलना स्वाभाविक है। एक के बाद एक यूरोपीय देश मंदी के दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं। उनकी सरकारें कर्जे लेकर चल रही हैं। औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि नगण्य है। बेरोजगारी और युवाओं में हताशा तेजी से फैल रही है। बैंकिंग सैक्टर खुद घबराया हुआ है। नीचे ढरकते हुए इस माहौल में कोई बड़ा निवेशक पैसे लगाकर जोखिम मोल नहीं लेना चाहता। अमरीका कर सकता था पर वह खुद इतने बड़े कर्जे में डूब चुका है कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने देश के ऋण की उच्चतम सीमा को सीनेट से बढ़वाना चाहते हैं ताकि कुछ और कर्ज लेकर कुछ समय खींचा जा सके।

ऐसा नहीं है कि यूरोप के और अमरीका के धनाढ्यों के पास पैसा नहीं है। बहुत पैसा है। इतना कि वे अपने देशों की अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर ला सकते हैं। पर कोई पैसा इसलिए नहीं कमाता कि उसे धर्मार्थ खाते में डाल दे। ये धनाढ्य लोग जानते हैं कि मौजूदा हालात में यूरोप या अमरीका में पैसा लगाना मतलब भारी जोखिम लेना होगा। मुनाफा तो दूर की बात, मूल तक डूबने की नौबत है। ऐसे में ये अपना पैसा चीन और भारत जैसे देशों में लगाने के लिए जमीन तलाश रहे हैं। इस सारे माहौल से यूरोप का नागरिक बहुत बैचेन है। लगभग दो सदी तक दुनियाभर में उपनिवेश स्थापित कर यूरोप वासियों ने दुनिया के देशों का खूब देाहन किया। अपने पक्ष में व्यापार किया। अपनी धन संपदा को बढ़ाया और ऐशो-आराम की जिन्दगी सुनिश्चित की। यह क्रम चलता रहता तो यूरोप वासियों को इतने बुरे दिन न देखने पड़ते। वैसे तो इन औपनिवेशिक मुल्कों की आजादी के बाद ही झटका लग जाना चाहिए था। पर ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नये आजाद हुए ये देश तकनीकि के मामले में आत्मनिर्भर नहीं थे। इसलिए ये अपने औपनिवेशिक शासकों के चंगुल में फंसे रहे। जो इन्हें आजादी देने के बाद भी इनका व्यापारिक शोषण करते रहे। पर पिछले दशक में हालात तेजी से बदले हैं। एशियाई देशों में आयी तकनीकि क्रांति, उद्यमशीलता और दुनिया को मुठ्ठी में बन्द करने की ललक ने समीकरण बदल दिए। अब ये एशियाई देश यूरोपीय देशों पर न तो तकनीकि के लिए निर्भर हैं और न ही उनके खरीदारों पर। इन एशियाई देशों में मध्यम वर्गीय ग्राहक की क्रय क्षमता तेजी से बढ़ी है। नतीजतन अब घरेलू बाजार का ही इतना विस्तार होता जा रहा है कि कल तक जो निर्यात का मुख देखते थे, वे देश में ही अपने बाजार का विस्तार कर रहे हैं। इस तरह यूरोप के कारखानों में बनने वाली वस्तुओं की मांग तेजी से गिरी है। इससे वहाँ आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और हताशा तेजी से फैलती जा रही है। यूरोप के राजनेता भी इस पतन के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। फिजूलखर्ची और शानो-शौकत के जीवन ने इन देशों की सरकारों के खर्चे बहुत बढ़ा रखे थे। आज उन्हें खर्चे घटाने में तकलीफ हो रही है।

भारत के लिए यह परिस्थिति सबक होनी चाहिए। आज भारत में मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की सम्पन्नता इतनी नहीं कि अस्सी फीसदी आम आदमी की बेजारी कम कर सके। पर उसका खर्चा और रहन-सहन इतनी तेजी से ऊपर उठ गया है कि दुनिया के धनी देशों के धनी लोग भी देखकर हैरान हैं। यही हाल हमारे सरकारी खर्च का भी है। फिजूलखर्ची की इंतहा है। एक-एक मद को गिनाने बैठें तो पता चलेगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें किस बेशर्मी से इस देश की गरीब जनता के खून-पसीने की कमाई को बर्बाद करने पर तुली है। आर्थिक प्रगति का जो दावा किया जा रहा है, उसके मूल में है अचानक बढ़ा खनिज निर्यात। कर्नाटक के लोकायुक्त की रिपोर्ट इस बात को प्रमाणित करती है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री की मिलीभगत से रेड्डी बंधु खनिज पदार्थों की लूट का साम्राज्य कब्जा किये बैठे हैं। यही हालत उड़ीसा और देश के दूसरे राज्यों की भी है। इतनी बड़ी तादाद में खनिज का निर्यात करना कोई विकास का प्रमाण नहीं है। इस तरह तो हम चीन जैसे देश के औद्योगिक विकास की वृद्धि में मदद कर रहे हैं। बेहतर होता कि हम अपने खनिज से अपना औद्योगिक उत्पादन करते और उस उत्पादन को दुनिया के बाजार में बेचते। इससे हमारी लागत कम और मुनाफा ज्यादा होता। इस तरह की कमाई थोड़े ही दिन में हमारी सरकार को खतरनाक स्थिति में लाकर खड़ा कर देगी। तब हमारे लिए खर्चे घटाना और जन आकांक्षाओं को पूरा करना इतना ही कठिन होगा जितना आज यूरोप की सरकारों को हो रहा है। अगर हम मजबूती के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें सचेत रहने की और मितव्ययी होने की जरूरत है।

Monday, July 18, 2011

आतंकवाद ने फिर उगला जहर

Punjab Kesari 18 July

मुम्बई में हुए धमाकों ने फिर याद दिला दिया कि आतंकवादी कुछ दिन चुप भले ही बैठ जाएं, पर अपनी नापाक करतूतों से बाज आने वाले नहीं हैं। ऐसे धमाकों के बाद हमेशा ही आरोप की अंगुलियाँ स्थानीय पुलिस और आई.बी. की तरफ उठायी जाती है। बेशक इन दो विभागों पर ही ज्यादा जिम्मेदारी होती है आम आदमी की सुरक्षा को सुनिश्चित करने की। इसलिए धमाके होते ही टी.वी. के ऐंकर पर्सन इन दोनों एजेंसियों की तरफ अंगुलियाँ उठाने लगते हैं। बेशक अगर ये एजेंसियाँ मुस्तैद रहें तो ऐसी वारदातों को काफी हद तक रोका जा सकता है। पर क्या केवल यही दो एजेंसियाँ 121 करोड़ लोगों के मुल्क में हर कस्बे, हर नगर, हर स्टेशन, हर बाजार पर इतनी कड़ी नजर रख सकती है? सम्भव ही नहीं है। 

दरअसल हर बार जब आतंकवादी घटना घटित होती है और मृतकों और घायलों के दिल दहला देने वाले दृश्य दिखाए जाते हैं, तो सभी बैचेन हो जाते हैं। राजनेता बयानबाजी में जुट जाते हैं और पत्रकार घटना का विश्लेषण करने में। पर आतंकवाद की जड़ पर कोई प्रहार नहीं करता। इस काॅलम में हमने बार-बार उन बुनियादी समस्याओं का जिक्र किया है, जिनका हल ढंूढे बिना आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सकता। जरूरत है इन समस्याओं का हल ढूंढने की। पहली समस्या है आतंकवादियों को मिल रहा स्थानीय संरक्षण। दूसरी उन्हंे मिल रहा अवैध धन, जो हवाला कारोबारियों की मार्फत मुहैया कराया जाता है। तीसरा कारण है, आतंकवाद में पकड़े गए अपराधियों के खिलाफ लम्बी कानूनी प्रक्रिया। जिससे सजा का असर नहीं पड़ता। चैथी समस्या है, आतंकवाद से निपटने के लिए स्थानीय पुलिस को खुली छूट न देना, बल्कि आतंकवादियों को राजनैतिक संरक्षण देना।  

आतंकवादियों को मिल रहे स्थानीय प्राश्रय पर आज तक चोट नहीं की गई है। भारत के कई सौ छोट-बड़े शहरों में धर्म स्थलों और तंग गलियों में रहने वाले लोगों के पास अवैध जखीरा भरा पड़ा है। भारत की खुफिया ऐजेंसियाँ सरकार को बार-बार चेतावनी देती रहीं है। इस जखीरे को बाहर निकालने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिए। जो किसी भी राजनैतिक दल के नेताओं में दिखाई नहीं देती। देश के कस्बों और धर्म स्थलों से अवैध जखीरा निकालने का जिम्मा यदि भारत की सशस्त्र सेनाओं को सौंप दिया जाए तो काफी बड़ी सफलता हाथ लग सकती है। यह एक कारगर पहल होगी। पर राजनैतिक दखलअंदाजी ऐसा होने नहीं देगी। अगर ऐसा हो तो साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आतंकवाद से निपटने वाले सैन्य बलों और पुलिस बलों को मानवाधिकार आयोग के दायरे से मुक्त रखा जाए। वरना होगा यह कि जान पर खेल कर आतंकवादियों से लड़ने वाले जांबाज बाद में अदालतों में धक्के खाते नजर आएंगे। 

इसके साथ ही यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि आतंकवादियों को वित्तीय मदद पहुँचाने का काम हवाला कारोबारियों द्वारा किया जाता है। देश में हवाला कारोबार से जुड़े कई खतरनाक कांड सी.बी.आई. की निगाह में आए हैं। पर शर्म की बात है कि इन कांडों की पूरी तहकीकात करने के बजाय सी.बी.आई. लगातार इन्हें दबाने का काम करती आई है। ऐसा क्यों होता है? लोकतंत्र में जनता को यह हक है कि वह जाने कि जिन खुफिया या जाँच एजेंसियों को आतंकवाद की जड़ें खोजने का काम करना चाहिए, वे आतंकवादियों को गैर कानूनी संरक्षण देने का काम क्यों करती आईं हैं? उन्हें सजा क्यों नहीं दिलवा पाती? क्या इसके लिए राजनेता जिम्मेदार हैं? जो खुद भी हवाला कारोबारियों से जुडें हैं और डरते हैं कि अगर हवाला काण्डों की जाँच हुई तो उनका राजनैतिक भविष्य दांव पर लग जाएगा। 

देश की संसद पर आतंकवादी हमले के लिए जिम्मेदार ठहराये गए अफजल गुरू का मामला हो या मुम्बई हमलों के एकमात्र जिंदा बचे आतंकी हमलावर अजमल कसाब का मामला। हमारी अदालतों में कानून की इतनी धीमी और लम्बी प्रक्रिया चलती है कि अपराधिकयों को या तो सजा ही नहीं मिलती और अगर मिलती भी है तो इतनी देर के बाद कि उस सजा का कोई असर समाज पर नहीं पड़ता। जरूरत इस बात की है कि आतंकवाद से जुड़े हर मामले को निपटाने के लिए अलग से तेज अदालतों का गठन हो और हर आतंकवादी के मुकदमें की सुनवाई 6 महीने की समयसीमा के भीतर समाप्त कर दी जाए। जिसके बाद उसे सजा सुना दी जाए।  

इसके साथ ही जरूरत इस बात की भी है कि स्थानीय पुलिस अधिकारियों को आतंकवाद से निपटने की पूरी छूट दी जाए। उनके निर्णयों को रोका न जाए। अगर हर जिले का पुलिस अधीक्षक यह ठान ले कि मुझे अपने जिले से आतंकवाद का सफाया करना है तो वह ऐसे अभियान चलाएगा जिनमें उसे जनता का भारी सहयोग मिलेगा। आतंकवादियों को संरक्षण देने वाले बेनकाब होगें। जिले में जमा अवैध जखीरे के भंडार पकड़े जाएंगे। पर कोई भी प्रांतीय सरकार अपने पुलिस अधिकारियों को ऐसी छूट नहीं देती। पंजाब में आतंकवाद से निपटने के लिए जब के. पी.एस. गिल को पंजाब के मुख्य मंत्री बेअंत सिंह ने तलब किया तो गिल की शर्त थी कि वे अपने काम में सीएम और पीएम दोनों का दखल बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्हें छूट मिली और दुनिया ने देखा कि पंजाब से आतंकवाद कैसे गायब हो गया। मानव अधिकार की बात करने वाले ये भूल जाते हैं कि हजारों लोगों की जिंदगी नाहक तबाह करने वाले के भीतर मानवीयता है ही नहीं। घोर पाश्विकता है। ऐसे अपराधी के संग क्या सहानुभूति की जाए? 

अगर इन चारों समस्याओं का हल ईमानदारी से लागू किया जाए, तो काफी हद तक आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि देश के जागरूक नागरिक, मीडिया और वकील मिलकर सरकार पर दबाव डालें कि वे इन कदमों को उठाने में हिचक महसूस न करें। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हमें कभी भी, कहीं भी आतंकी हमले के शिकार बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा।

Monday, July 11, 2011

भ्रष्टाचार की जड़ पे हमला

Amar Ujala 11 July
शुरू-शुरू में लोगों को लगा था कि लोकपाल कोई रामबाण है या जादुई छड़ी है, जिसे फिराते ही देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इसलिए जब टीवी चैनल वालों ने लोगों को उकसाया तो उनमें से कुछ लोग घरों से निकलकर लोकपाल के समर्थन में टी.वी. कैमरों के आगे नारे लगाने लगे। लेकिन इन चार महीनों में जब अखबारों व टी.वी. के जरिए ‘जन लोकपाल विधेयक’ के प्रारूप की जानकारी लोगों तक पहुंची, तब उन्हें असलियत पता चली। फिर चाहे टी.वी. पर होने वाली बहसों में न्यायविदों, राजनीतिज्ञों या पत्रकारों की टिप्पणियाँ हों या इस विधेयक को बनाने वाली समिति के सदस्य पाँच केन्द्रीय मंत्रियों की मीडिया पर की गयीं प्रस्तुतियाँ हों, इनसे यह साफ होने लगा कि ‘जन लोकपाल विधेयक’ भी आज तक बनते आये काूननों की तरह ही एक और कानून होगा और उससे देश में हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटने में कोई खास कामयाबी नहीं मिलेगी। लोगों के दिल में इस अहसास के घर करते ही उनमें निराशा बढ़ चली है।

चार महीने पहले, जन्तर-मन्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए धरने से देश के शहरों में बड़े कुतूहल का माहौल बना था। रोज-रोज की बहसों और खबरों के बाद आज आलम यह है कि लोग इस दुविधा में पड़ गये हैं कि हजारे और उनके लोग आखिर चाहते क्या हैं? यह भी लोगों को हैरान करने वाली बात है कि राजनेताओं की देशभर में भत्र्सना करने के बाद, लोकपाल विधेयक को लेकर सक्रिय अन्ना हजारे की टीम अब एक-एक कर उनके ही दरवाजे पर क्यों जा रही है? अब वे राजनेताओं को यह बताने में लगे हैं कि उनका प्रस्तावित विधेयक सरकारी विधेयक से ज्यादा कारगर कैसे है।

इन चार महीनों में अन्ना हजारे की टीम जनता के बीच यह सन्देश फैला पायी है कि सरकार प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहती। पर बुधवार को संपादकों से वार्ता में प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया कि उन्हें इससे कोई गुरेज नहीं है। वैसे भी यदि एकबार को यह मान लें कि ‘जन लोकपाल विधेयक’ के सभी प्रस्ताव सही हैं और इसको यथावत स्वीकार कर लिया जाए तो क्या अन्ना की समिति देश को गारण्टी दे सकती है कि कितने दिनों में भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि जो भी प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठता जाएगा, उसे चोर बताकर हटाया जाता रहेगा? और इस तरह दर्जनों प्रधानमंत्री बदलने के बाद कहीं स्थिति यह तो नहीं आ जाएगी कि लोकपाल यह तय करने लगे कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अब कौन बैठेगा?

पिछले दिनों एक अंगे्रजी चैनल के टी.वी. टाॅक शो में इस मुद्दे पर मेरी टीम अन्ना से तीखी बहस हुई। दोनों भूषण पिता-पुत्र, अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे इस बहस में मेरे साथ थे। जब उनसे पूछा गया कि आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि लोकपाल बेदाग हो? तो प्रशांत भूषण इसका जबाव देने की बजाए बोले कि प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता, भारत का मुख्य न्यायाधीश व अन्य सदस्य ईमानदार लोकपाल का चयन करेंगे। अब सवाल यह उठा कि इनके द्वारा चुना गया लोकपाल ईमानदार ही होगा, यह कैसे सुनिश्चित होगा? मैंने उन्हें याद दिलाया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. एएस आनंद के पद पर रहते हुए मैंने उनके छह घोटाले प्रकाशित किए थे। जिसके बाद न तो उनके खिलाफ महाभियोग चला और न ही कोई आपराधिक मामला दर्ज हुआ। हालांकि इस मुद्दे पर देश-विदेश के मीडिया में भारी बवाल मचा और केन्द्रीय कानून मंत्री को भी जाना पड़ा। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री व विपक्ष के नेता ने मिलकर ऐसे अनैतिक आचरण वाले डॉ. आनन्द को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया और तत्कालीन राष्ट्रपति ने इस नियुक्ति पर स्वीकृति की मुहर भी लगा दी। तो फिर क्या गारण्टी है कि लोकपाल के चयन में भी ऐसा नहीं होगा? इस सवाल का टीम अन्ना के पास कोई जबाव नहीं था। अंग्रेजी में हुई यह बहस दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में एक हजार लोगों की मौजूदगी में रिकॉर्ड की जा रही थी और ये वैसे लोग थे जिन्हें टीम अन्ना ही अपने समर्थन के लिए वहाँ लाई थी। पर ऐसे तर्कों को सुनकर इन दर्शकों ने बार-बार सहमति में करतल ध्वनि की। चैनल के अनुसार यह डिबेट इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे दो हफ्ते में कई बार प्रसारित किया गया। साफ जाहिर है कि लोगों तक सही बात पहुंची नहीं है। लेकिन जब उनके सामने पूरी बात ईमानदारी से रखी जाती है, तब उन्हें समझ में आता है कि भावनाऐं भड़काने से और एक और कानून बनाने से भ्रष्टाचार नहीं रोका जा सकता।

ये तो एक चैनल था, जिसने एक घण्टा ऐसी खुली बहस करवायी। पर ज्यादातर टी.वी. चैनलों के पास पूरी बात कहने देने का समय ही नहीं होता। आधी-अधूरी बात में वक्ता चैंचैं लड़ाते ज्यादा दिखते हैं और मुद्दे की बात खुलकर सामने नहीं आ पाती। इसे टी.वी. की मजबूरी माना जा सकता है। पर यहां सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार के कारण और निवारण की बात फिर कौन करे? यूं तो हर व्यक्ति अपनी राय देने के लिए स्वतंत्र है, पर अगर आपको दिल के रोग का इलाज करवाना हो तो क्या आप अस्थिरोग विशेषज्ञ के पास जाएंगे? जाहिर है कि भ्रष्टाचार, जिसे अपराध शास्त्र में ‘व्हाईट कॉलर क्राइम’ कहा जाता है, एक पेचीदगी भरे अध्ययन का विषय रहा है। पुलिस विभागों के अलावा अकादमिक रूप से इसका अध्ययन और अध्यापन मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय के अपराध शास्त्र एवं न्यायायिक विज्ञान विभाग में पिछले चार दशकों से किया जा रहा है। आश्चर्य की बात है कि इतने महीनों से भ्रष्टाचार पर शोर मचाने वालों ने या भ्रष्टाचार के समाधान बताने वालों ने कभी इसके विशेषज्ञों की राय जानने की कोशिश नहीं की।

सामाजिक स्तर पर ही इस कमी को पूरा करने का प्रयास अब किया जा रहा है। राजधानी दिल्ली के कुछ वरिष्ठ पत्रकार, विभिन्न विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, गहरी समझ रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और भ्रष्टाचार से जूझने वाले कुछ योद्धा मिलकर आगामी 16-17 जुलाई को देशभर से उन विशेषज्ञों को दिल्ली बुला रहे हैं, जो इस विषय पर गम्भीर चर्चा करेंगे और अपने अध्ययन और अनुभव से भ्रष्टाचार के कारण और निवारण बताने का प्रयास करेंगे। अब देखना यह है कि यह गम्भीर प्रयास इस समस्या का क्या हल सुझा पाता है?

Sunday, July 10, 2011

मन्दिर का खजाना किसके पास जाए?

Rajasthan Patrika 10 July 2011
तिरूवंतपुरम के सुप्रसिद्ध पद्मनाभ स्वामी मन्दिर के तहखानों से लगभग 1 लाख करोड़ रूपये की सम्पदा अचानक प्रकाश में आयी है, उसको लेकर देशभर में अनेक किस्म की चर्चाऐें चल पड़ी हैं। एक तरफ केरल सरकार है, जो इस मन्दिर का अधिग्रहण कर इसकी सम्पत्ति को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है। दूसरी तरफ केरल के साम्यवादी हैं, जिनकी मांग है कि इस बेशुमार दौलत से केरल के गरीब लोगों के लिए स्कूल, अस्पताल आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए। तीसरी तरफ त्रावणकोर का राजपरिवार है, जिसके पारिवारिक ट्रस्ट की सम्पत्ति यह मन्दिर है। उनका कहना है कि इस सम्पत्ति पर केवल ट्रस्टियों का हक है और किसी भी बाहरी व्यक्ति को इसके विषय में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है। राजपरिवार के समर्थन में खड़े लोग यह कहने में नहीं झिझकते कि इस राजपरिवार ने भगवान की सम्पत्ति की धूल तक अपने प्रयोग के लिए नहीं ली। ये नित्य पूजन के बाद, जब मन्दिर की देहरी से बाहर निकलते हैं, तो एक पारंपरिक लकड़ी से अपने पैर रगड़ते हैं, ताकि मन्दिर की धूल मन्दिर में ही रह जाए। इन लोगों का कहना है कि भगवान के निमित्त रखी गयी यह सम्पत्ति केवल भगवान की सेवा के लिए ही प्रयोग की जा सकती है। इन सबके अलावा हिन्दू धर्मावलंबियों की भी भावना यही है कि देश के किसी भी मन्दिर की सम्पत्ति पर नियन्त्रण करने का, किसी भी राज्य या केन्द्र सरकार का कोई हक नहीं है। वे तर्क देते हैं कि जो सरकारें मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों व अन्य धर्मावलंबियों के धर्मस्थानों की सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकतीं, वे हिन्दुओं के मन्दिरों पर क्यों दांत गढ़ाती हैं? खासकर तब जबकि आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई सरकारें और नौकरशाह सरकारी धन का भी ठीक प्रबन्धन नहीं कर पाते हैं।

Hind Samachar 11 July
जहाँ तक त्रावणकोर रियासत की बात है, स्थानीय लोगों की भावना कुछ और ही है। उनका कहना है कि राजपरिवार ने जनता पर बहुत अत्याचार कर इस धन का संग्रह किया था। उनके खिलाफ बगावतें भी हुईं थीं। इन लोगों का यह भी कहना है कि राजपरिवार जन्म से क्षत्रिय नहीं है। बल्कि ब्राह्मण समाज ने उन्हें क्षत्रीय का दर्जा दे रखा है। जिसकी ऐवज में हर छटे साल राजपरिवार हर ब्राह्मण परिवार को एक-एक स्वर्ण मुद्रा भेंट करता आया है। इन लोगों का यह भी कहना है कि त्रावणकोर रियासत के अत्याचारों के खिलाफ मामला ब्रिटिश संसद में भी गया था। तब भारत की अंग्रेज सरकार ने इस धन के संरक्षण की व्यवस्थाऐं की थीं। इसलिए जो भी धन आज प्रकाश में आया है, उसका प्रयोग त्रावणकोर रियासत के विकास में किया जाना चाहिए।

यह बड़ा संवेदनशील मामला है। त्रावणकोर का राजपरिवार ही क्यों, देश का हर बड़ा पैसे वाला पसीने बहाकर धनी नहीं बनता। प्रकृति के संसाधनों का नृशंस दोहन, करों की भारी चोरी, बैंकों के बिना चुकाए बड़े-बड़े ऋण, एकाधिकारिक नीतियों से बाजार पर नियंत्रण और सरकारों को शिकंजे में रखकर अपने हित में कर नीतियों का निर्धारण करवाकर बड़े मुनाफे कमाए जाते हैं। ऐसे में केवल त्रावणकोर के राजपरिवार को ही सजा क्यों दी जाए? यदि असीम धन संग्रह के अपराध की सजा मिलनी ही है तो वह राजपरिवारों, धर्माचार्यों को ही नहीं, बल्कि उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया के मठाधीशों को भी मिलनी चाहिए। उन सब लोगों को जो अपनी इस विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर समाज के एक बड़े वर्ग का हक छीन लेते हैं।

Jag Baani 11 July
दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना न रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि जहाँ कहीं ऐसा विवाद हो, वहाँ उसी धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की एक प्रबन्धकीय समिति का गठन अदालतों को कर देना चाहिए। इस समिति के सदस्य बाहरी लोग न हों और वे भी न हों जिनकी आस्था उस देव विग्रह में न हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं, उसी प्रकार से पद्मनाभ स्वामी जी के भक्तों की एक समिति का गठन होना चाहिए। जिसमें राजपरिवार के अलावा ऐसे लोग हों, जिनकी धार्मिक आस्था तो हो पर वे उस इलाके की विषमताओं को भी समझते हों। ऐसी समिति दैविक धन का धार्मिक कृत्यों व समाज व विकास के कृत्यों में प्रयोग कर सकती है। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में न तो कोई अशांति होगी और न कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा।

Punjab Kesari 11 July
हाँ, इस समिति की पारदर्शिता और जबावदेही सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश न रहे। इस समिति पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। हिन्दू मन्दिरों का धन सरकार द्वारा हथियाना, हिन्दू समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। अदालतों को हिन्दुओं की इस भावना का ख्याल रखना चाहिए। अभी तो एक पद्मनाभ मन्दिर का तहखाना खुला है। देश में ऐसे हजारों मन्दिर हैं, जहाँ नित्य धन लक्ष्मी की वर्षा होती रहती है। पर इस धन का सदुपयोग नहीं हो पाता। समाज को आगे बढ़कर नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े अन्य तीर्थस्थलों के जीर्णोद्धार और विकास पर करना चाहिए। जिससे भक्तों और तीर्थयात्रियों को सुखद अनुभूति हो। इससे धरोहरों की रक्षा भी होगी और आने वालों को प्रेरणा भी मिलेगी।

Monday, June 27, 2011

गाँधी नहीं हैं अन्ना !

8 जून को दिल्ली के राजघाट पर, जब अन्ना हजारे और उनके साथी उपवास पर बैठे थे तो किरण बेदी ने अपने भाषण में बार-बार अन्ना हजारे को दूसरा महात्मा गाँधी बताया। दरअसल जबसे टी.वी. मीडिया ने सक्रिय होकर अन्ना हजारे के उपवास को सफल बनाया है, तबसे अन्ना हजारे के सहयोगी बहुत उत्साहित हैं। इस उत्साह में वे बार-बार अन्ना हजारे की तुलना महात्मा गाँधी से कर रहे हैं। यह सही है कि अन्ना ने अपना जीवन अपने गाँव के सुधार के लिए समर्पित कर दिया। साथ ही वे भ्रष्टाचार के सवाल पर कुछ खास लोगों के खिलाफ महाराष्ट्र में सत्याग्रह करते रहे हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे बापू जैसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के समकक्ष ठहराये जा सकते हैं। जिनका अध्ययन, ज्ञान, राजनैतिक सूझबूझ, विचारधारा, आचरण, जीवन मूल्य और अनुकरणीय व्यवहार का अन्ना हजारे के व्यक्तित्व से कोई तुलना नहीं है।

गत् 8 जून को दिल्ली के राजघाट पर, बापू की समाधि पर, अन्ना और उनके सहयोगियों ने जिस तरह का आचरण किया, जो भाषण दिये, जो शब्दावली प्रयोग की, उसका दूर-दूर तक बापू की शब्दावली और विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं था। अन्ना और उनके साथियों ने बापू की गरिमा का भी ध्यान नहीं रखा। जो लोग उनके समर्थन में वहाँ जुटे, उन्होंने जिस तरह का हल्कापन और फूहड़पन अन्ना के समर्थन में प्रदर्शित किया, उसे देखकर ऐसा दूर-दूर तक नहीं लगा कि ये लोग आज़ादी की दूसरी लड़ाई में, शमां पर मर मिटने वाले परवाने हैं। टेलीविजन चैनलों के कैमरों को देखकर, जिस तरह का नाच-कूद वहाँ हुआ, उसे देखकर फिरोजशाह कोटला मैदान में होने वाले क्रिकेट के 20-20 मैच के दीवाने दर्शकों की छवि सामने आ रही थी। हमें वहाँ यह देखकर बहुत तकलीफ हुयी। निश्चित रूप से इन लोगों के इस आचरण से बापू की आत्मा को ठेस लगी होगी। इस सबसे तो यही लग रहा है कि अन्ना बापू का अभिनय करने की चेष्ठा कर रहे हैं, पर उनके अभिनय की पटकथा परदे के पीछे से कोई और लिख रहा है।

एक सवाल देश को और झकझोर रहा है। जिसका उत्तर उन्हें देश को देना ही होगा। अन्ना जानते हैं कि आजादी के बाद से आज तक देश में ऐसे हजारों समर्पित व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने देश के गरीब किसानों, भूमिहीनों, आदिवासियों व श्रमिकों के उत्थान के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आज भी वे उसी जीवट से, निःस्वार्थ भाव से, निष्काम भावना से, तकलीफ सहकर, देश के विभिन्न हिस्सों में गाँधी जी के आदर्शोंं पर जीवन जी रहे हैं।

इन गाँधीवादियों ने बिना किसी यश की कामना के, बिना सत्ता की ललक के, बिना अपने त्याग के पुरूस्कार की अपेक्षा के, पूरा जीवन होम कर दिया। ये हजारों लोग बापू के शब्दों में जिन्दा शहीद हैं। क्या वजह है कि ये सब लोग अन्ना के इस नये अवतार में कहीं भी उनके इर्द-गिर्द नहीं दिखाई दे रहे हैं? क्या ये माना जाए कि अन्ना का मौजूदा स्वरूप, कार्यकलाप और वक्तव्य देश के समर्पित गाँधीवादियों का विश्वास नहीं जीत पाया है या अन्ना को उन पर विश्वास नहीं है? अगर अन्ना को गाँधी जी के मूल्यांे और विचारधारा में तिलभर भी आस्था है, तो उनका पहला प्रयास देशभर के गाँधीवादियों को ससम्मान अपने साथ खड़ा करने का होना चाहिए।

हमने 4 और 8 जून को अन्ना हजारे, बाबा रामदेव व इन दोनों के सहयोगियों को दो खुले पत्र लिखे थे। जिनकी प्रतियाँ हमने दिल्ली के मीडिया जगत में भी बंटवायी। इन पत्रों में हमने इन दोनों से ही भ्रष्टाचार विरोधी इनकी मुहिम को लेकर कुछ बुनियादी सवाल पूछे थे। जिसका उत्तर हमें आज तक नहीं मिला। इस बीच अन्ना ने सप्रंग की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी को एक पत्र लिखकर कई नये सवाल खड़े कर दिये हैं। अन्ना ने इस पत्र में श्रीमती सोनिया गाँधी से शिकायत की है कि उनके लोगों ने अन्ना को ‘राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ’ से जुड़ा हुआ बताया है। इसे अन्ना ने निश्चित रूप से अपमानजनक माना है। अन्ना से पूछा जाना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से उन्हें इतना परहेज क्यों है? क्या संध ने देशद्रोह का कोई काम किया है, जिसका प्रमाण उनके पास है? अगर है तो उन्हें देश के सामने प्रस्तुत करना चाहिए ताकि आस्थावान हिन्दू और भारत के नागरिक ऐसे ‘देशद्रोहियों’ के खिलाफ इस लड़ाई को मजबूती से लड़ सकें।

यह तो पता नहीं है कि श्रीमती सोनिया गाँधी को अन्ना ने पत्र में क्या लिखा है? क्योंकि उसकी प्रति शायद उन्होंने सार्वजनिक नहीं की है। लेकिन इस विषय में जो समाचार छपे हैं, उससे ऐसा लगता है कि अन्ना सोनिया जी से अपने गाँधीवादी होने का प्रमाणपत्र चाहते हैं। अन्ना इसे अन्यथा न लें, तो यह उनकी मानसिक कमजोरी का परिचायक है।

अन्ना के सहयोगियों का दावा है कि वे दूसरे महात्मा गाँधी हैं। अन्ना खुद को भी गाँधीवादी मानते हैं और देश में आजादी की दूसरी लड़ाई का शंखनाद कर चुके हैं। ऐसे में देश जानना चाहता है कि केवल संघ से जुड़ा कह देने भर से वे इतने तिलमिला क्यों गये? बापू ने तो सहनशीलता की मिसाल कायम की थी। अन्ना इतने कमजोर क्यों हैं कि किसी के कुछ भी कह देने से उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है?

अन्ना ने 4 लोग साथ लेकर यह कैसे मान लिया कि वे 120 करोड़ हिन्दुस्तानियों के भाग्य नियंता हैं? मीडिया के एक हिस्से के सहयोग से उन्होंने जो माहौल बनाया है, उससे यह कतई दिखाई नहीं दे रहा कि देश की जनता को राहत की कोई किरणें मिलेंगी, सिवाय हताशा और निराशा के बढ़ने के। हमें लगता है कि उन्हें अपनी सोच और रणनीति में बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है।