दूसरी तरफ मनमोहन सिंह अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का चाहे जितना बखान करें, इस बात का कोई उत्तर नहीं दे सकते कि जब वे भारत के वित्त मंत्री थे और नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो सबसे ज्यादा बड़े घोटाले उनकी नाक के नीचे हुये। कैसे होने दिया ऐसा उन्होंने, इसका क्या कोई जवाब उनके पास है? क्या यह सच नहीं है कि डाॅ. सिंह को सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री ही इसलिए बनाया कि वे जनाधार न होने के कारण कभी भी नेहरू खानदान को चुनौती नहीं दे पायेंगे और एक विश्वासपात्र मुलाजिम की तरह नेहरू परिवार की सरपरस्ती में हुकूमत चलाते रहेंगे? यही उन्होंने आज तक किया भी है। जितनी कमजोरी उनके व्यक्तित्व में भाजपा को दिखाई दे रही है, उससे ज्यादा लम्बी फेहरिस्त आडवाणी जी की कमजोरियों की भी प्रकाशित की जा सकती है। इसलिए भाजपा का बार-बार चुनौती देना एक चुनावी स्टंट से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
पर इसका मतलब ये नहीं कि आडवाणी जी या डा¡ सिंह में कोई गुण ही नहीं है। जीवन के छः दशक सार्वजनिक जीवन में जीने वाले इन दोनों नेता-अफसर-नेता के व्यक्तित्व में अनेक ऐसे गुण हैं, जिनके कारण वे आज यहाँ तक पहुँचे हैं। यहाँ उद्देश्य इन दो नेताओं के व्यक्तित्वों का मूल्यांकन कर जनता के सामने परिणाम घोषित करना नहीं है। यह तो इसलिए लिखना पड़ा कि पिछले दो हफ्ते से लोकसभा चुनाव में असली मुद्दों को छोड़कर व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों का जो दौर चल रहा है, वो कोई बहुत अच्छा संदेश नहीं दे रहा। देश का मतदाता इन दो नेताओं की शख्सियत का मोहताज नहीं है। उसे इंका, भाजपा, सपा, बसपा, जेडीयू, वामपंथी दल या दूसरे दलों के बैनरों, नारों, विचारधाराओं, आश्वासनों में कोई रूचि नहीं है। ऐसे तमाम मुद्दे संसद के सामने आते रहे हैं जिनमें ये सब दल अपनी घोषित नीतियों के विरूद्ध अनैतिकता का निर्लज्जता से साथ देते रहे हैं। इसलिए दलों की दलदल अब लोगों को पसन्द नहीं आती। जनता अच्छी और असरदार सरकार चाहती है। लोकतंत्र में उसकी आस्था है। वह अपने प्रतिनिधि से संवेदनशील होने और उनकी समस्याओं का हल ढूंढने की अपेक्षा रखती है। दुर्भाग्य से कुछ अपवादों को छोड़कर हमारे नेता, चाहे किसी दल के क्यों न हों, अपनी उपलब्धियों की कोई उल्लेखनीय छाप जनता के मानस पटल पर नहीं छोड़ पाये हैं। उनकी छवि विदू्रप की बनकर रह गयी है। इसीलिए अब ‘गुड गवर्नेंस’ की बात की जाती है। पढ़े-लिखे समाज में भी और आमलागों के बीच भी। अन्तर इतना है कि पढ़े-लिखे लोग जब ‘गुड गवर्नेंस’ की बात करते हैं तो उन्हें सिविल सोसाइटी, एन.जी.ओ. या सोशल एक्टिविस्ट का खिताब दे दिया जाता है। पर जब ऐसे ही सवाल देहात का कोई साधारण आदमी नेताओं की जनसभा में, दबंगाई से उठाता है तो उसे कोई नाम नहीं दिया जाता। पर अपने हक की माँग करना और नकारा नेतृत्व को सबक सिखाना हिन्दुस्तान के देहातियों को शहरियों के मुकाबले ज्यादा अच्छी तरह से आता है।
दरअसल 1980 में जब विश्वबैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष ने यह देखा कि सरकारें अपने नकारापन, भ्रष्टाचार और गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते विकास के धन का सदुपयोग नहीं कर पा रही है तो उन्होंने ‘गुड गवर्नेंस’ की बात कहनी शुरू की। अब तो यह ‘पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशंस’ के पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण विषय बन चुका है। इस विषय पर दुनिया के अनेक नामी विद्वानों ने लम्बे-चैड़़े साहित्य का सृजन कर डाला है। इन विद्वानों का मत है कि अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही सर्वाधिक स्वीकार्य व्यवस्था है, तानाशाही या सैन्य हुकूमत नहीं। ‘सोशल एक्टिविस्ट’ समाज के एक छोटे से हिस्से को जगा तो सकते हैं। बागी तो बना सकते हैं। उनकी आवाज तो बुलंद करवा सकते हैं। पर देश का निजाम नहीं बदल सकते। सरकार नहीं चला सकते। इसलिए सत्ता परिवर्तन की बात करना ख्याली पुलाव लगता है। चीन और रूस का उदाहरण सामने है, जहाँ जनक्रांति के बावजूद वह सबकुछ हासिल नहीं हुआ जिसकी लोगों को उम्मीद थी। क्यांेकि देश चलाने के अपने मापदण्ड, अपनी समझ और अपना अनुभव होता है जो सामाजिक कार्यकर्ता दो, चार, पाँच गाँवों को बदलने में जीवन खपा देते हैं और कुछ बुनियादी बदलाव भी नहीं ला पाते, वे देश की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक जटिलताओं को कैसे समझ सकते हैं? कैसे उसके निदान खोज सकते हैं? इसलिए इसी लोकतंत्र में से ‘गुड गवर्नेंस’ का रास्ता निकालना होगा। सिर्फ ऐसा नेतृत्व चाहिए जो अपने मतदाताओं से कहे कि मैं तुम्हारे कष्ट दूर नहीं करूँगा पर उन्हें दूर करने के तुम्हारे प्रयास में आने वाले रोड़ों को हटाऊँगा और तुम्हारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को उपलब्ध रहूँगा। बस इतना सा अगर हमारे राजनेता कर सकें तो न तो तंत्र बदलने की जरूरत रहेगी और न राज ही। इसी राजनैतिक व्यवस्था से कल्पनातीत उपलब्धियाँ हासिल की जा सकती हैं, बशर्ते कोई यह करना चाहता हो! दुख की बात है कि इतनी छोटी पर दूरगामी परिणाम लाने वाली बात तो कोई दल नहीं कह रहा बस सब एकदूसरे पर कीचड़ उछालने में जुटे हैं।