Friday, January 24, 2003

बड़े अफसरों की बीबियां


पिछले दिनों एक परिचित 35 साल भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहकर रिटायर हुए। जब तक वे सत्ता में रहे, काफी व्यस्त रहे। इतने व्यस्त कि उन्हें अपने मित्रों और परिजनों के लिये भी समय नहीं मिला। अब अचानक उन्हें उनकी याद आई तो एक एक कर सबसे मिलने जाने लगे। कुछ और करने को भी नहीं है उनके पास। अकेलापन खाये जा रहा है। ऐसे में रिश्तेदारों के घर जाकर कुछ मन बदल जाता है। ऐसा नहीं कि वे इन लोगों से मिलना नहीं चाहते थे। आखिर जिस कस्बे में किसी का बचपन गुजरा हो, जिन यारों के साथ पतंग उड़ाई हो, मोहल्ले के जिन बुजुर्गों को चाचा-ताऊ कहकर जय रामजी की कही हो, उन्हें कोई अचानक भूल थोड़े ही सकता है। जब फिजी और माॅरीशस का प्रधानमंत्री बनने के बाद भी एक व्यक्ति तीन सौ साल पुराने अपने पूर्वजों की जड़ें खोजने अपने पैतृक गांव चला आता है और मुक्त हृदय से अपने दरिद्र कुटुम्बियों से मिलता है तो किसी नौकरी में जाते ही कोई कैसे इतना रूखा हो सकता है ? दरअसल कोई भी बड़ी नौकरी क्यों न हो उसमें जाने वाला व्यक्ति तो अपनी काबिलियत और मेहनत के बूते पर ही वहां पहंुचता है। पर एक बार जब पहंुच जाता है तो उसको उसके परिवेश से काटने का काम शुरू होता है। पहले तो प्रशिक्षण के दौरान ही उसको बता दिया जाता है कि अब वह सामान्य नागरिक नहीं, भारत के समाज की क्रीम है यानि मलाई अैर मलाई तो ऊपर तैरती है। तो उसे आम लोगों से क्या काम ? फिर वो चाहे उसके मित्र और नातेदार ही क्यों न हों। जो इस झटके को झेल जाते हैं और अपनी जड़ों से नहीं कटते उन्हें उनकी बेगमें पकड़ लेती हैं। उन्हें उनके मित्रों और नातेदारों से काट देती हैं। इस तरह कि फिर वे अपनी नौकरी के दौरान कभी सामान्य नहीं रह पाते। जिस किसी का अपने परिवार या सामाजिक दायरे में ऐसे हाकिमों से पाला पड़ा है उसने महसूस किया होगा कि अफसरों से ज्यादा अफसरी उनकी बीबी दिखाती हैं। अंग्रेज चले गये पर ये खुद को आज भी मेमसाहब कहलवाने में गौरवान्वित महसूस करती हैं। वह दूसरी बात है कि मेमसाहबों की जमात में वे अपने व्यक्तित्व के कारण कई बार आया जैसी नजर आती हैं। पर हाकिम की पत्नी है, इतना ही उनकी ठसक के लिये काफी है।
अंग्रेजों के शासनकाल में भारत में तैनात रहे साहबों और मेमसाहबों की जीवन शैली पर इंग्लैण्ड और भारत में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। कई व्यंग्यात्मक भी हैं। आजादी को पचास साल हो चुके हैं। अब जरूरत है काले साहबों और काली मेमसाहबों की जीवन शैली पर ऐसी किताबें लिखे जाने की। इन काली मेमसाहबों का सरकारी नौकरों की फौज पर आतंक रहता है। सरकारी नौकरों की यह फौज अवैध रूप से घर पर तैनात की जाती है। सरकारी गाडि़यां इनके दुरुपयोग के लिये कतारबद्ध रहती हैं। अपने पति के अधीनस्थ अधिकारियों पर घरेलू जरूरतें पूरी करने के लिये ये काली मेमसाहबें ऐसी हुक्म चलाती हैं, मानो वे उनके खरीदे गुलाम हों। ये अधीनस्थ अधिकारी भी फर्शी सलाम करने में पीछे नहीं रहते। अगर मैडम खुश तो साहब के नाखुश होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। चूंकि अब देश में भ्रष्टाचार और नैतिकता तो कोई मुद्दा ही नहीं है इसलिये यहां तक तो ठीक है। पर जब इन काली मेमसाहबों की हाकिमी पति के मित्रों और नातेदारों को झेलनी पड़ती है तो उनका दिल टूट जाता है। जिन्हें उनसे किसी मदद की आस होती है वो तो खून का घूंट पीकर भी ऐसी बेगमों के दरवाजों पर बार बार दस्तक देते रहते हैं। पर जो स्वाभिमानी होते हैं वो एक बार अपमानित होकर फिर उधर मुंह नहीं करते। उन्हें पता है कि अगर वे अपने प्यार का इजहार करने जायेंगे भी तो उन्हें यथोचित सम्मान नहीं मिलेगा। मसलन किसी अफसर के बेटे की शादी में मेमसाहब का ध्यान उन लोगों पर लगा होता है जो गिफ्ट के तौर पर भारी भरकम रिश्वत देने आते हैं। ऐसी शादियों में घर के रिश्तेदारों को यतीमखाने का सा व्यवहार मिलता है। अगर इन काली मेमसाहबों को मजबूरन परिवार के उत्सवों में शामिल होना पड़े तो इनकी मंशा यही होती है कि ये अपनी ठसक बनाये रखें। ये नातेदारों के घरों के उत्सव में सहज होकर शामिल नहीं होतीं। इस तरह की निजी यात्रा को भी सरकारी यात्रा बनाकर सरकारी तामझाम के साथ रहना पसंद करती हैं। पर इनका ये ऐश्वर्य अचानक एक दिन इनसे छीन लिया जाता है। जिस दिन पतिदेव सेवानिवृत्त होकर घर आते हैं उस दिन से इन काली मेमसाहबों की दुनिया अचानक बदल जाती है। अब न तो लाल बत्ती की सरकारी गाड़ी उन्हें सब्जी खरीदवाने आती है। न पहले जैसे पांच सितारा दावतों के न्यौते आते हैं। न घर पर चपरासियों की फौज खड़ी होती है। इतना ही नहीं बिजली, टेलीफोन और पानी जैसे विभाग के छोटे छोटे मुलाजिम तक उन्हें छका देते हैं। काली मेमसाहब ये समझ ही नहीं पातीं कि भारत सरकार के संचार सचिव पद से रिटायर हुए उनके पति से घर का टेलीफोन तक क्यों नहीं ठीक करवाया जाता ? अगर इन्हें यात्रा करनी पड़े तो अर्दलियों का काफिला इनके साथ नहीं होता। गंतव्य पर इन्हें लेने अधिकारियों की बारात नहीं खड़ी होती। ट्रेन से उतरकर आम आदमी की तरह टैक्सी लेनी पड़ती है। ऐसे में वो रिश्तेदार या दोस्त देवता बनकर प्रकट होते हैं जो अपनी कार में इन्हें लेने स्टेशन या हवाई अड्डा आ जाते हैं।
पति के रिटायर होने के बाद इन काली मेमसाहबों को पता चलता है कि अपना कौन है और पराया कौन ? अब अगर उन्हें अपने दूसरे बेटे की शादी करनी पड़े तो वह सब कुछ गायब हो चुका होता है जिसकी शान शौकत में नौकरी के दौरान उन्होंने अपने पहले बेटे की शादी की थी। अब तो एक आम आदमी की तरह हर बात का इंतजाम खुद करना पड़ता है। तब नातेदार और मित्र याद आते हैं। अब शादी के स्वागत समारोह में भारी भरकम गिफ्ट लेकर आने वालों की लम्बी कतार नहीं होती। केवल परिवार के मित्र और रिश्तेदार ही वहां मौजूद होते हैं। भारी अंतर होता है तब और अब के आयोजनों में। ऐसे में काली मेमसाहबों को अपने रिश्तेदार बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि अगर वे भी न आते तो उनका रंग बिल्कुल फीका पड़ जाता। ये तो गनीमत है कि ये नातेदार और मित्र पिछली शादी में मिली उपेक्षा को याद नहीं रखते। बदले माहौल में आनंद के रस में डूब जाते हैं और अपनी गर्मजोशी और नाच गाने से उत्सव को चार चांद लगा देते हैं। तब न सिर्फ काली मेमसाहब को बल्कि उनके रिटायर पतिदेव को भी अपनी गलती का अहसास होता है। उन्हें मन ही मन इस बात की शर्म महसूस होती है कि उन्होंने अपने वैभव के दिनों में अपनों से इतनी दूरी क्यों बनाये रखी ? वे अपने और पराये का भेद क्यों नहीं समझ सके ? पर अब पछताय होत क्या जब चिडि़या चुग गयी खेत। ये तो भारत की संस्कृति की महानता है कि कोई परिवार अपने सदस्य से विमुख नहीं होता। दूरियां भावनाओं को खत्म नहीं कर पातीं। घर के लोग निस्वार्थ प्रेम बांटने में संकोच नहीं करते। सुबह का भटका शाम को घर लौट आये तो उसे खुले हृदय से स्वीकार लेते हैं। 
पर इसका मतलब ये नहीं कि उनके प्रेम का नाजायज फायदा उठाया जाए। काली मेमसाहबांे को जरा सोचना चाहिये कि उनका व्यवहार अपने नातेदारों और मित्रों के प्रति कैसा होना चाहिये ? मेडीकल सांइस की तरक्की के कारण औसत आयु बढ़ती जा रही है। अक्सर लोग रिटायर होने के बाद भी दस-बीस बरस तक जी लेते हैं। बुढ़ापे के इस दौर में बेटे-बेटी काम आयें न आयें, निकट के नातेदार और मित्र हमेशा काम आते हैं। बेहतर हो कि उन्हें सारे जीवन यथोचित सम्मान और प्यार दिया जाए ताकि जब कोई और साथ न खड़ा हो तब ये लोग हौसला बुलंदी के लिये आपके साथ खड़े रहें। भाई भतीजावाद करना या रिश्वत का पैसा नातेदारों में बांटना कोई सर्वमान्य सिद्धांत नहीं हो सकता। यह तो नैतिक पतन का परिचायक होगा। पर अपने रिश्तेदारों और मित्रों की अपनी क्षमता अनुसार आवश्यकता पूरी करना हरेक साधन सम्पन्न भारतीय का फर्ज माना जाता है। इतना भी अगर न कर सके तो उसके बड़े होने या पढ़ने लिखने का क्या लाभ ?
दरअसल काली मेमसाहबों को अपने रवैये में भारी परिवर्तन करने की जरूरत है। अब वो जमाने नहीं रहे जब हाकिमों की हुकूमत चला करती थी। वैश्वीकरण, उदारीकरण और उपभोक्तावाद के दौर में अब पूछ उनकी होगी जो बड़े औद्योगिक या व्यवसायिक प्रतिष्ठानों से जुड़े होंगे। जिनमें हुनर होगा, काबिलियत होगी, जीवन मे आगे बढ़ने की आग होगी। ऐसे में आने वाले समय में काली मेमसाहबों को बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ेगा। बेहतर हो कि वे इस यथार्थ को समय रहते पहचान लें और अपने रवैये को बदलें। जिस तरह कोई जज घर में निर्णय नहीं सुना सकता। कोई पत्रकार घर की खबर बाहर नहीं छाप सकता। कोई वैज्ञानिक रसोई को प्रयोगशाला नहीं बना सकता। इसी तरह अफसरी और हाकिमी अपने कार्य क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये होती है, नातेदारों पर रौब गांठने के लिये नहीं। काली मेमसाहबों को अपने नातेदारों और मेहमानों के प्रति मानवीय व्यवहार करना चाहिये। उनका यथोचित सम्मान करना चाहिये।उनके दुख दर्द में शामिल होना चाहिये। इससे न सिर्फ उनके चाहने वालों का दायरा बढ़ेगा बल्कि उन्हें जीवन में कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा। विस्तृत परिवार हमारी सामाजिक व्यवस्था का एक सुदृढ़ स्तम्भ है। प्रसिद्ध अमरीकी समाजशास्त्री तालकाॅट पार्सन ने भारतीय समाज की इस विशेषता को उसका आधार स्तम्भ बताया है। उनका मानना कि तमाम संघर्षों और तनावों के बावजूद अगर भारतीय समाज आज भी एकजुट खड़ा तो वह इसी विस्तृत परिवारवादी भावना का परिणाम है। इसे तोड़ देने से हम अपनी आने वाली पीढि़यों को विरासत में मात्र शून्य देकर जायेंगे। अगर रिटायरमेंट के बाद लम्बे समय तक अकेले रहना पड़ा, बच्चे हुए तो भी अमरीका जा बसे, तो बेरुखी काली मेमसाहब क्या करेंगी ? किसके दरवाजे पर जाकर दस्तक देंगी ? नौकरी में रहकर नौकरी का सा जीवन स्तर बनाये रखना और अपने पति के साथ काम करने वाले अफसरों से मिलना जुलना कोई अपराध नहीं है। यह तो सामान्य सी बात है पर असमान्य तब हो जाती है जब सत्ता के मद में होकर हम अपनों को भूल जाते हैं। उन्हें याद रखना और अपने बच्चों को सही संस्कार देना गृहलक्ष्मी का फर्ज है। इसलिये अफसरों से ज्यादा उनकी बेगमों को सुधरने की जरूरत है।

Friday, January 17, 2003

क्या रेल मंत्रालय में भी भ्रष्टाचार है


रेल मंत्री श्री नीतीश कुमार की छवि एक साफ-सुथरे राजनेता की है। इसलिए उनके मंत्रालय की तरफ खोजी पत्रकारों की निगाह नहीं जाती। पर जब रेल मंत्रालय में भ्रष्ट और नाकारा अधिकारियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दिए जाने की सूचना मिलती है तो यह सवाल जरूर पैदा होता है कि श्री नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति यह सब कैसे होने दे रहा है ? मंत्रालय में हो रहे घोटालों की जो खबरें दीवारों के बाहर पहुंच रही हैं क्या वे रेल मंत्री के कानों तक नहीं पहुंचतीं ? इसी जिज्ञासा में कुछ पड़ताल की तो कई रोचक सवाल खड़े हुए। जिनके जवाब श्री नीतीश कुमार को देश की जनता को देने चाहिए।

पिछले दिनों एक अजीब वाकया हुआ। एक टैªवल एजेंट ने एक पत्रकार से ये वायदा किया कि अगर वो दिल्ली-मुंबई की 3 टीयर की रेल टिकट पर 300 रूपए अतिरिक्त दे दें तो उसी दिन के दिन कन्फर्म टिकट मिल जाएगी। क्योंकि यात्रा की तिथि अनिश्चित थी इसलिए उन्हें ये तनाव बना हुआ था कि दिन के दिन टिकट कैसे कन्फर्म होगी ? यूं पत्रकार भी राजनेताओं और रेल अफसरों की तरह आपात्कालिक स्थिति में रेल मंत्रालय के कोटे से आरक्षण कन्फर्म करा लेते हैं। पर इधर कई बार ऐसा अनुभव हुआ कि रेल मंत्री के कोटे से कराई गई उनकी टिकट भी कन्फर्म नहीं हुई। इसलिए उन्होंने प्रयोग के तौर पर ट्रवेल एजेंट की बात मान ली और आश्चर्य हुआ ये देखकर कि टैªवल एजेंट ने वायदे के मुताबिक दिन के दिन कन्फर्म टिकट करवा दी। उत्सुकता हुई कि ऐसा कैसे हुआ ? तहकीकात की तो पता चला कि इस तरह टिकट बुक कराने का एक बहुत बड़ा जाल देश में बिछा हुआ है ।  टैªवल एजेंट ने बताया कि वो 25 हजार रूपया महीना रेलवे अधिकारियों को इसी बात का देता है। अगर एक ट्रवेल एजेंट इतनी रकम दे रहा है तो पूरे देश के हजारों टैªवल एजेंटों से कितनी रकम रेल मंत्रालय के अधिकारियों के पास हर महीने पहुंच रही होगी ? दूर की छोडि़ए मिन्टो ब्रिज से आते हुए पहाड़ गंज की तरफ से जब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में प्रवेश करते हैं तो स्टेशन की एक तरफ बने रेलवे क्वाटरों में तमाम टैªवल एजेंसियां अवैध रूप से चल रही हैं। जानकार बताते हैं कि इस तरह से सरकारी मकानों में यह धंधा इसलिए बेरोक टोक चलता है क्योंकि इसमें रेलवे के ही लोग शामिल हैं और रेलवे के बड़े अधिकारियों वगैरह के लिए हवाई टिकटों, होटलों और सैर सपाटों का खर्चा ये लोग उठाते रहते है। टैªवल एजेंट वाले अनुभव का जिक्र उस पत्रकार ने रेल मंत्री श्री नीतीश कुमार के एक निकटम अधिकारी से किया तो वे चैंक गए। सवाल उठता है कि रेलवे की आरक्षण व्यवस्था में जो भ्रष्टाचार का यह सुगठित तंत्र देश में चल रहा है क्या उसकी कोई माकूल समीक्षा और निदान श्री नीतीश कुमार ने आज तक किया या नहीं ? क्या इसके लिए उन्होंने कभी किसी बाहरी जांच एजेंसी को जिम्मदारी दी कि वो इस भ्रष्टाचार के कुछ सबूत पकड़ कर उन्हें दे। क्योंकि मंत्रालयों की अपनी सतर्कता एजेंसियां तो खुद ही भ्रष्टाचार की कब्रगाह हैं।

इसी तरह रेलवे में पास देने की प्रथा का बहुत दुरूपयोग होता आया है। पिछली कई सरकारों में रेल मंत्री अपने चहेतों को रेलवे के पास बांट-बांट कर उपकृत करते आएं है। क्या यह सही है कि पिछले वर्ष ही लगभग 7 सौ अल्पकालिक रेलवे पास रेल मंत्री ने अपने चहेतों को बांटे ? जिनमें काफी पास ए.सी. प्रथम श्रेणी के भी थे। क्या इस तरह के पास बांटने की कोई स्पष्ट नीति है या केवल ये मनमर्जी का सौदा ? इसी तरह हेड क्वाटर के आरक्षण कोटा का सवाल है। एक लोकतांत्रिक देश में जनता के साथ इस भेद को क्यों रखा जाए। जो पहले टिकट खरीदे वो पहले सीट पाए। हां सरकारी ड्यटी, फौज की डयूटी और पत्रकारिता के काम से जाने वाले लोगों को इस आरक्षण की सुविधा मिलती रह सकती है। बशर्ते कि ये आरक्षण सिर्फ संबंधित व्यक्ति को ही मिले उसके परिवार को नहीं। इसी तरह रेलवे के अधिकारियों के पास का सवाल है। अक्सर हर बड़ा अधिकारी अपने रेलवे के पास का खूब दुरूपयोग करता है। रेलवे चैकिंग स्टाफ बताता है कि एक ही पास पर ये लोग बार-बार यात्रा करते हैं । पर कनिष्ठ कर्मचारी डर के मारे कुछ नहीं कहते। इस समस्या का बेहतर निदान हो कि रेल मंत्रालय सभी पास रद्द कर दे और जिस व्यक्ति को उसकी यात्रा का भुगतान करना चाहे वो उसकी टिकट की एवज में करें। यानी अगर किसी रेल अधिकारी को साल में तीन बार परिवार सहित मुफ्त यात्रा की सुविधा मिली है तो हर बार वह अपने पैसे से टिकट खरीदे और यात्रा के बाद उसकी वसूली मंत्रालय से कर ले। इसी तरह जिस पत्रकार या राजनेता को रेल मंत्रालय मुफ्त रेल यात्रा कराना चाहता है वह भी टिकट खरीदे, यात्रा करें और बाद में अपनी यात्रा का रेल मंत्रालय के लाभ के लिए किए गए इस्तेमाल का विवरण देते हुए इस टिकट की एवज में पैसा वसूल कर लें। इस तरह पास संस्कृति पूरी तरह समाप्त हो जाएगी।

दरअसल, पैसिंजर रेल सेवा तो रेल मंत्रालय का वो विभाग है जिस पर देशभर की निगाह लगी रहती है। क्योंकि करोड़ों यात्रियों को रोज ढोने का काम ये सेवा करती है। हर किस्म के यात्री होते हैं, धनी, गरीब, प्रभावशाली, साधारण, वकील, पत्रकार सबकी निगाह इस सेवा की गुणवत्ता पर लगी होती है। इसलिए ये मीडिया की सुर्खियों में भी बनी रहती है। पर रेलवे की असली कमाई रेलवे फ्रेटिंग सर्विस से होती है। यानी माल की ढुलाई। इस काम में रेलवे का बहुत बड़ा हिस्सा जुटा रहता है और सबसे ज्यादा घोटाले इसी सेवा में होते आए हैं। क्या रेल मंत्री देश की जनता को बताएंगे कि उनके कार्यकाल में रेल की फ्रेटिंग सेवा की आमदनी कितनी बढ़ी ? अगर उसमें उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई तो इस सेवा में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए उन्होंने क्या कदम उठाए हैं ? अगर नहीं तो क्यों नहीं 

इसी तरह रेलवे में आजकल नए-नए निगमों के सृजन की बहार आई हुई है। जैसे केटरिंग काॅरपोरेशन, कंटेनर काॅरपोरेशन, इंडियन रेलवे फाइनेंस काॅरपोरेशन, सिलिकन केेबिल काॅरपोरेशन जैसे कई नए निगम रेल मंत्रालय ने खड़े कर दिए हैं। इरकाॅन  और राॅइट्स जैसे निगम पहले से ही थे। जो ठेके पर काम लेकर देश और विदेश में अच्छी कमाई कर रहते आए हैं । उनकी सफलता देखकर ही शायद ये नए निगम शुरू किए गए। पर इन निगमों से रेल मंत्रालय को कितना आर्थिक लाभ हुआ है इसकी सही समीक्षा किए जाने की जरूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इन निगमों का सारा काम तो रेल मंत्रालय कर रहा हो और मुनाफा निगमों के नाम पर दिखाया जा रहा हो। ताकि इस मुनाफे पर मौज-मस्ती की जा सके। इस तरह झूठा मुनाफा दिखाकर निगमों में तैनात अधिकारी अपने परिवारों को और राजनैतिक आकाओं को निगमों के खर्चें पर ऐश करवा रहे हों ? क्योंकि जब निगम बन जाता है तो उसमें तैनात सरकारी अधिकारियों के खर्चांे और सैर, सपाटांे पर कोई बंदिश नहीं रहती। वो बंदिशें जो मंत्रालय के अधीन रहते हुए उन्हें सरकारी नियमों के तहत माननी पड़ती है। निगम में आने के बाद आप लाखों रूपए गुलछर्रों पर उड़ाइए और राजनेताओं को खुश रखिए फिर कोई पूछने वाला  नहीं है। भारत में केंद्रीय और राज्य स्तर पर जितने निगम बने उनमें से ज्यादातर इसी भ्रष्टाचार के कारण घाटे में आते गए और बर्बाद हो गए। बिचारी जनता के कर का पैसा उसकी सेवा की बजाए भोग विलास में बर्बाद कर दिया गया। क्या ये सही है कि पिछले हफ्ते ही रेल मंत्रालय के एक निगम के छोटे से समरोह में पांच सितारा होटल में 27 लाख रूपए खर्च किए गए। जबकि समारोह में शायद 50 से भी कम लोग शामिल हुए । अगर ये सच है तो यह बहुत चिंता का विषय है। क्या किसी बाहरी जांच एजेंसी को इन निगमों की बैलेंस शीट्स को स्वतंत्रता से जांचने की छूट है ? इसलिए रेल मंत्री को इन निगमों की पारदर्शिता की जांच करवा कर आश्वस्त हो जाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य में उन्हें किसी असहज स्थिति का सामना करना पडे़।

देश की जनता को शायद ये पता न हो कि रेलवे केटरिंग काॅरपोरेशन भारत की संसद में जो केटरिंग सेवा करती है उसमें जनता का करोड़ों रूपया बर्बाद कर देती है। जानकार बताते है कि पिछले साल ही लगभग 28 करोड़ रूपए की सब्सिडी इस मद में दी गई। यही कारण है कि संसद में 15 रूपए में मुर्गा खाने को मिल जाता है। इस सब्सिडी का क्या औचित्य है ? उदारीकरण और नई आर्थिक नीतियों की बात करने वाली सरकार के रेल मंत्री, सांसदों के चमचों, मित्रों और अतिथियों के स्वागत में 28 करोड़ रूपए क्यों बर्बाद करते हैं ? क्यों नहीं रेलवे अपनी केटरिंग सेवा का उचित दाम वसूलती हैं और उस मुनाफे से रेलवे में सुविधाओं का विस्तार करती हैं ? इतना ही नहीं प्रधानमंत्री निवास की केटरिंग पर ही रेलवे केटरिंग काॅरपोरेशन ने पिछले वर्ष 15 करोड़ रूपया खर्च किया बताते हैं। ये बर्बादी रेल मंत्रालय के जिम्मे क्यों ? क्यों नहीं रेल मंत्रालय इन सेवाओं से हाथ खींच लेता ?

इसी तरह देश में चल रही बहुत सारी रेलवे आउट एजेंसियांें का सवाल है। शिमला, पहलगांव, बद्रीनाथ, अण्डमान निकोबार जैसी जगहों पर चलने वाली इन आउट एजेंसियांें की उपयोगिता पर क्या रेल मंत्रालय ने कभी गंभीरता से विचार किया है ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये रेल मंत्रालय के घाटे का स्थायी कारण बनी हुई है ? इन्हंे क्यों नहीं आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया जाता ? इसी तरह रेलवे हर साल ऊंटी, दार्जलिंग, शिमला जैसी सैलानी रेल व्यवस्था पर 2 हजार करोड़ रूपया बर्बाद करती है। अगर ये सैलानी रेल सेवा इतनी लोकप्रिय है कि पर्यटन की दृष्टि से इन्हंे बंद करना उचित न होगा तो क्यों नहीं इनका भी निजीकरण कर दिया जाता ? जो कंपनी रेल मंत्रालय को सही किराया दे इन्हें उसे सौपा जा सकता है। तब खर्चा भी नहीं होगा और मुनाफ भी हो जाएगा। दरअलस, ये रेल सेवा इतनी खर्चीली है कि सही दाम देकर इसे लेने को कोई तैयार नहीं है।  फिर भी रेलवे के आला हाकिम इसे चलाए रखना चाहते हैं क्योंकि इस सेवा के निरीक्षण के बहाने वे पहाड़ों या दूसरे पर्यटन स्थलों पर अपने परिवार को लेकर मौज-मस्ती करने जाते हैं और खर्चा पड़ता है देश की जनता पर । क्या नीतीश कुमार जी इस बात का सर्वेक्षण करवाएंगे कि गर्मियों में कितने रेल अधिकारियों ने सपरिवार जाकर पहाड़ों पर चलने वाली इस तरह की रेल सेवा का निरीक्षण किया और कितनों ने शेष साल भर। अगर ये जांच हो तो पता चलेगा कि निरीक्षण के नाम पर र्गिर्मयों में मौज मारने ही पहाड़ों पर जाया जाता है। उनकी थोड़ी सी मौज और देश की जनता का हजारों करोड़ रूपया इन सेवाओं पर बर्बाद हो जाता है। ऐसे तमाम सवालों पर रेल मंत्री को विचार करना चाहिए और आर्थिक दबावों से निपटने के लिए रेलवे की फिजूलखर्ची घटाकर मुनाफा कमाने की सोचना चाहिए। मंत्रालय में भ्रष्टाचार अगर है तो उसे रोकने की जिम्मेदारी भी रेल मंत्री की है।

Friday, January 10, 2003

कृष्ण भक्तों को चुनौती


राजकोट (गुजरात) के स्वामी नारायण गुरूकुल के वरिष्ठ सन्यासी श्री माधवप्रिय स्वामी से जब गुजरात के चुनावों के दौरान चर्चा हुई तो मैंने उनसे ब्रज क्षेत्र की दुर्दशा का फिक्र किया। पिछले दिनांे अहमदाबाद और नागपुर में दिए गए मेरे दो सार्वजनिक वक्तव्य गुजरात और महाराष्ट्र के लोकप्रिय अखबारों में प्रमुखता से छपे। जिसमें मैंने भाजपा पर आरोप लगाया था कि भाजपा हिंदुत्व की वकालत तो करती है पर हिंदू संस्कृति और आस्था के केन्द्र तीर्थ स्थलों की दुर्दशा सुधारने के लिए कुछ ठोस नहीं करती। मुगल काल में भी जब हिंदू धर्म को राजाश्रय नहीं प्राप्त था तब भी इन्हीं केन्द्रों के कारण हिंदू संस्कृति बच पाई। इस वक्तव्य को पढ़कर विहिप के केन्द्रीय निदेशक मंडल के सदस्य आचार्य श्री धर्मेन्द्र जी ने फोन पर मुझसे ब्रज की दुर्दशा और उसके सुधार के विषय में चर्चा की। विहिप के अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल जी के अनुज व सांसद श्री बी.पी. सिंहल ने भी बताया कि केन्द्रीय पर्यटन मंत्री श्री जगमोहन ब्रज के बारे में एक विस्तृत विकास योजना शुरू करने जा रहे हैं। श्री सिंहल ने इस बारे में सुझाव मांगे। उधर स्वामी नारायण के श्री माघवप्रिय स्वामी ने भी इसी हफ्ते फोन पर बताया कि हाल ही में हैदराबाद में संघ, विहिप और भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं से उनकी इस विषय पर चर्चा हुई। खासकर, वृंदावन और गोवर्धन के विनाश को रोकने की बात उन्होंने इन नेताओं के सामने रखी। स्वामी जी ने भी सुझाव मांगे जिन्हें वे राजग सरकार को भेज सकें। चूंकि भगवान् श्री कृष्ण के भक्त भारत के हर प्रांत में ही नहीं पूरी दुनिया में बसे हैं इसलिए मुझे लगा कि जो कुछ मैं स्वामी जी से कहना चाहता हूं वो क्यों न देश के आस्थावान पाठकों से भी बांटा जाए। क्योंकि यह तो सबकी रूचि का मामला है।

ब्रज क्षेत्र का महत्व शेष हिंदू तीर्थ स्थलों से कहीं ज्यादा है। ब्रज शब्द ही बना है ब्रह्म के ब्रऔर रज के को जोड़कर, अर्थात् वह क्षेत्र जहां भगवान् के श्रीचरणों की रज बिखरी पड़ी हो। यही कारण है कि ब्रज क्षेत्र में प्रवेश करते ही सभी वैष्णव ब्रजरज को न केवल तिलक रूप में मस्तक पर धारण करते हैं बल्कि प्रसाद रूप में अपनी जिव्हा पर रख कर उसका आस्वादन भी करते हैं। क्योंकि ये ब्रज ही है जहां सोलह कला संपूर्ण पुरूषोत्तम भगवान श्री कृष्ण ने अपनी बाल लीलाएं रच कर अपने भक्तों को कृतार्थ किया था। भारत की सभी भाषाओं में इन बाल लीलाओं पर रचे गए पद, गीत और भजन बड़े आनंदपूर्वक गाए और सुने जाते हैं। 

कृष्ण कथा पढ़ने और सुनने वालों को ब्रज (वृंदावन, मथुरा, बरसाना, नंदगांव, गोकुल, गोवर्धन आदि) का नाम आते ही हरे-भरे कुंजों, रमणीक सरोवरों, ऊंचे वृक्षों से आच्छादित पर्वत शिखरों, नीले पानी वाली निश्छल बहती यमुना, सुगंधित पुष्पों की बयार, मोर, तोते और हिरण जैसे वन्य पशु-पंक्षियों की किलकारियां, दूध से बोझल थन लिए आनंद में विचरण करते हुए गायों के झुंड, ग्वाल-बालों ओर दही-दूध की मटकी लेकर डोलती हुई ब्रज गोपांगनाओं के चित्र का स्मरण हो आता है। हो भी क्यों न सदियों से भक्त कवियों, गायको, चित्रकारों व शिल्पकारों ने ब्रज का यही रूप तो भक्तों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। काश ! ब्रज ऐसा ही होता तो आधुनिक जीवन के तनावों से ग्रस्त लोगों को शांति और आनंद दोनो दे पाता। पर बड़े दुख की बात है कि ब्रज क्षेत्र में पहली बार प्रवेश करने वाले देशी और विदेशी कृष्ण भक्तों का हृदय धक्क रह जाता है। चारो ओर कूड़े के ढेर, टूटी सड़केें, बेतरतीब टैªफिक और शोर, धर्म स्थलों पर भू-माफियाओं के कब्जे और अराजकता का वातावरण ही दिखाई देता है। सुख की तलाश में आने वाले तीर्थयात्रियों को यहां आकर इतनी तकलीफ मिलती है कि उनका मन टूट जाता है। वे यह नहीं समझ पाते कि उ.प्र. की सरकारें ब्रज के पर्यावरण और वहां मौजूद पुरातात्विक महत्व और आस्था के केन्द्र सैकड़ों भव्य मंदिरों का समुचित संरक्षण क्यों नहीं कर पाती ? इनमें अवैध कब्जा करके हजारों लोग कैसे रह रहे हैं? रह ही नहीं रहे इनकी भव्य जालियां और पत्थर की नक्काशियों तस्करों की मदद से विदेशों में बेची जा रही हैं। भागवत में जिनका उल्लेख आया है ऐसे वनों को भी काटकर कालोनियां बनाई जा रही हैं या अवैध कब्जे किए जा रहे हैं। पौराणिक महत्व के अनेक सरोवर या तो लुप्त हो चुके हैं या उन पर कब्जे हो चुके हैं, या उनमें आज कूड़ा  फिंकता है। सबसे ज्यादा दुख की बात तो यह है कि पौराणिक महत्व के पर्वतों को डायनामाइट लगा कर तोड़ा जा रहा है और पत्थर का व्यापार किया जा रहा है। जरा कल्पना कीजिए कि यदि अष्ठसखी पहाडि़यां इस तरह के खनन से लुप्त हो गई तो सौ करोड़ रूपया खर्च करके भी उस पहाड़ी का निर्माण दुबारा नहीं किया जा सकता। इसलिए इस विनाश को तुरंत रोकने की जरूरत है। कथा वाचक श्री रमेशभाई ओझा, महावन के संत श्री गुरूशरणानंद व तीर्थ विकास ट्रस्ट दिल्ली के साझे सहयोग से गोवर्धन की परिक्रमा मार्ग पर विकास के कुछ कार्य हुए हैं। पर इसकी सीमित भूमिका है। असली विकास या विनाश तो सरकारी हाथों से होता है। परेशानी ये है कि तीर्थ स्थल का विकास कैसे हो इसकी समझ शुद्ध राजनीति करने वालों या प्रशासन चलाने वालों को प्रायः नहीं होती। जिसे वे विकास मानते हैं अक्सर वह तीर्थ के विनाश का कारण बनता है। इसका उदाहारण है गोवर्धन और वृंदावन की परिक्रमा मार्ग पर बनाई गई पक्की सड़क। जो तीर्थ यात्रियों के कष्ट का कारण बन गई है। इतना ही नहीं इन सड़कों ने ब्रज के प्राकृतिक सौंदर्य को काफी हद तक लील लिया है। इसलिए तीर्थ क्षेत्रों का विकास शुद्ध भक्तों और विरक्त संतों की इच्छा और आज्ञानुसार होना चाहिए। सरकार को चाहिए कि ऐसे संतों की एक सलाहकार समिति बना कर उनके मार्ग दर्शन में ही तीर्थों का विकास करे। 

इस संदर्भ में बहुत खोज के बाद जो एक नाम जांच-परख कर सामने आया है वह है बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा जी। जो ब्रज की दुर्दशा सुधारने के लिए व्यग्र हैं और प्रचार से बच कर ठोस काम कर रहे हैं। वे न तो चंदा मांगते हैं और न सरकार की तरफ मुंह ताकते हैं। उन्होंने ब्रज में पर्यावरण और धार्मिक धरोहरों के संरक्षण का एक नायाब तरीका खोजा है। इस काम के लिए उन्होंने गांव-गांव पैदल भ्रमण कर, साधारण ब्रजवासियों का, विशेषकर ग्रामवासियों का एक वृहद कार्य दल गठित किया है। जो कारसेवा, प्रभात फेरियां और श्रमदान द्वारा पुराने सरोवरों, वनों और पहाडि़यों के संरक्षण में जुट गया है। ब्रज का महत्व इन्हीं से है। मंदिर तो बनते-टूटते रहते हैं। पर कृष्ण लीला के साक्षी तो ब्रज रज, ब्रज के वन, नदियां, सरोवर और पहाड़ हैं। इनका संरक्षण किए बिना अगर सरकार विकास की कोई भी योजना लाती है तो उससे केवल निहित स्वार्थों को मुनाफा होगा, ब्रज का सही विकास नहीं। बाबा के अथक प्रयास से ये काम इतनी निष्ठा और उत्साह से हो रहा है कि लगता है अब ब्रज के सही विकास का समय आ गया है। सरकारें आती-जाती रहेंगी, वैसे भी वो दिवालिया हो चुकी हैं। राजनेता वोटों की राजनीति के लिए बयानबाजी करते रहेंगे। वातानुकूलित कमरों और कालीनों पर बैठने वाले महंत धनी लोगों को कंठी पहनाने के चक्कर में जुटे रहेंगे और ब्रज के संरक्षण के लिए अपने चेलों से कौड़ी भी खर्च नहीं करवाएंगे या अपने आश्रम के नाम पर रंग महल बनवाते जाएंगे तो ब्रज का विनाश ही होगा। इसलिए कृष्ण भक्तों को अगर ब्रज की सच्ची सेवा करनी है तो फावडे़, कुदाल लेकर खुद को ब्रज की सेवा में झोंक देना होगा। हम दर्शन और परिक्रमा करने तो जाएं पर धाम की सेवा न करें तो धाम दर्शन योग्य भी नहीं रह पाएगा। कृड़े के ढेर में बदल जाएगा। जो लोग पिछले 20-30 वर्षों से नियमित गोवर्धन की परिक्रमा कर रहे हैं उन्होंने इस विनाश को खूब नजदीक से दखा है। 

ब्रज में जाकर हम धन तो खूब दान देते हैं पर यह नहीं जान पाते कि वो धन कहां खर्च होता है। जितना धन ब्रज में आता है उसी का अगर सदुपयोग हो तो ब्रज का चेहरा निखर जाए। यूं तो रमेश बाबा किसी से कोई भी आर्थिक सहायता की मांग नहीं करते। वो चाहते हैं कि लोग जो भी सहयोग करना चाहें वो स्वयं अपने हाथों से खर्च करें। पर इस तरह के काम में तमाम तरह की आवश्यकता होती है। मसलन, ब्रजवासियों को सुबह-सुबह जगा कर प्रभातफेरी के लिए ले जाने को कम से कम 150 मेगा माइक तुरंत चाहिए जिन्हें ब्रज के डेढ सौ गांवों में बांटा जा सके। इसी तरह आध्यात्मिक महत्व के प्राचीन कंुडों के उद्धार के लिए कृष्ण भक्तों का प्रेम ही नहीं श्रम ओर धन दोनो चाहिए। रमेश बाबा खुद तो दान लेंगे नहीं पर ब्रज का इतना अध्ययन उन्होंने कर लिया है कि वो ये जरूर बता देंगे कि अपना तन, मन और धन ब्रज सेवा में हम कहां लगाएं? देश के किसी भी कोने में कहीं भी जो कृष्ण भक्त हों वे ऐसी सलाह लेने के लिए अगर श्री रमेश बाबा, गहवर वन, बरसाना (जिला मथुरा) फोन (05662) 246343 से संपर्क करते हैं तो उन्हें निराशा नहीं होगी। हां गहवर वन में आपका 56 भोग से राजसी स्वागत तो नहीं होगा बल्कि वनवासियों का सा सत्कार होगा। फिर सब कृष्ण भक्त मिलकर अपने ठाकुर की लीला स्थलियों का उद्धार कर सकेंगे। इससे आने वाली पीढि़यां भक्ति रस के इस सर्वोच्च केन्द्र का रसास्वादन तो करेंगी ही हम भी कुछ रचनात्मक उपलब्धि का संतोष और कृष्ण कृपा प्राप्त कर सकेंगे। फिर चाहे विहिप, संघ, भाजपा, इंका, सपा या बसपा जैसे संगठन और राजनैतिक दल इस महायज्ञ में आहूति देने सामने आएं या न आएं, ब्रज क्षेत्र का विकास नहीं रूकेगा। रमेश बाबा की तपस्या, निस्वार्थ सेवाभावना, सादा जीवन और भजन गाने की विशिष्ट शैली से सुसज्जित मधुर कंठ कृष्ण भक्तों को विभोर कर देगा। हो सकता है कि हम सब जल्दी ही ब्रज में कारसेवा करते हुए एक-दूसरे के कंधे से कंधा, हृदय से हृदय और हरिनाम कीर्तन की लय से लय मिलाते हुए जमा हों। पिछले दिनों पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री केपीएस गिल भी मेरे साथ कई बार जाकर रमेश बाबा से मिले। उन्हें भी बाबा के काम ने प्रभावित किया। श्री गिल का प्रस्ताव है कि अगर कृष्ण भक्त आगे बढ़ते हैं तो वे भी पंजाब से सिक्ख निहंगों और भक्तों की टोलियां लेकर ब्रज की कार सेवा करने में अपना सहयोग देंगे। 

हमें सिक्ख भाईयों से सीखना चाहिए जो बड़े छोटे का भेद माने बिना गुरूद्वारों की छोटी-सी छोटी सेवा करने में संकोच नहीं करते। हमें ईसाईयों और मुसलमानों से भी सीखना चाहिए कि वे अपने धर्म स्थालों को कितना साफ और व्यवस्थित रखते हैं और दूसरी तरफ हम हैं जो हिंदू होने का गर्व तो करते हैं पर अपने तीर्थ स्थलों में कूड़े के ढेर, गंदगी, धक्का-मुक्की व लाउडस्पीकरों का शोर सौगात में देकर आते हैं। अब जागने और कुछ ठोस करने का समय है बाकी हरि इच्छा।

Friday, December 27, 2002

न्यायपालिका और वकील

सर्वोच्च न्यायालय की एक संवैधानिक पीठ ने वकीलों की हड़ताल पर पाबंदी लगा दी है। उन्हें किसी भी कीमत पर हड़ताल करने नहीं दी जाएगी। अपरिहार्य परिस्थितियों में जब ऐसा करना जरूरी हो तो वे जिला जज या मुख्य    न्यायधीश की अनुमति से एक दिन की हड़ताल पर जा सकते हैं। 16 दिसंबर 2002 को आए इस निर्णय के बावजूद बाॅर काउंसिल आफ इंडियाके आह्वाहन पर 17 दिसंबर, 2002 को वकीलों ने देशव्यापी हड़ताल की।

सर्वोच्च न्यायलय का मानना है कि कानून की सेवा अनिवार्य सेवाओं के अतंर्गत आती है इसलिए इस सेवा में लगे लोगों को हड़ताल पर नहीं जाना चाहिए। बल्कि आधी रात भी लोगों को न्याय दिलाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है कि वकील, डाक्टर, पुलिस, बिजली, पानी, टेलीफोन, सफाई जैसे विभागों को हड़ताल पर जाने की छूट नहीं होनी चाहिए। क्योंकि इससे जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अराजकता फैलती है और आम आदमी को भारी तकलीफ का सामना करना पड़ता है। चूंकि हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है और राष्ट्रपिता ही हमको सत्याग्रह, हड़ताल और धरने देना सिखा गए हैं इसलिए हर हिंदुस्तानी हड़ताल को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। पूरे देश में हजारों जगह हड़ताल धरने और सत्याग्रह चलते रहते हैं। बंगाल इस मामले में सबसे आगे है। जिसका नतीजा है आज बंगाल आर्थिक प्रगति में काफी पिछड़ गया है। अपने काम की दशा से संतुष्ट न होने पर विरोध कराना तो एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जिसे नकारा नहीं जा सकता। पर हमारे देश में हड़ताल कामचोरों का कवच बन गई है। अक्सर बेतुके मुद्दों पर भी हड़ताल हो जाती है और कई दिन चलती रहती है। अंत में इससे किसी को लाभ नहीं होता सिवाए मुट्ठी भर नेताओं के। पर ये नेता ही मजबूर कर देते हैं हड़ताल करने पर। हड़ताल करने का नायाब तरीका खोजा है जापान के लोगों ने। जापान के मेहनती और देशभक्त लोग भी हड़ताल करते हैं, पर सड़कों पर उतर कर नहीं। काम छोड़कर नहीं। बल्कि अपने काम को अजीब ढंग से अंजाम देकर। मसलन, अगर एक जूता बनाने वाली फैक्ट्री में हड़ताल होनी है तो उसके कर्मचारी तय कर लेंगे कि वे काम तो पूरे टाइम करेंगे और उसी तन्मयता से करेंगे पर दो पैर की जगह एक ही पैर के जूते का निर्माण करेंगे। जरा सोचिए कि अगर किसी कारखाने में एक पैर के जूते का ढेर लगता जाए तो क्या माल पैक करके बाजार में भेजा जा सकता है ? आमतौर पर जापान के कर्मचारी हाथ में विरोध स्वरूप एक फीता बांध कर हड़ताल करते हैं और वहां की व्यवस्था भी इतनी संवेदनशील है कि विरोध के इस सभ्य तरीकों को गंभीरता से लेती है और विवाद सुलझाने की कोशिश करती है।

हर आर्थिक मोर्चे पर पूरी तरह पिट रहे भारत में क्या हम जापान के उदाहारण का अनुसरण नहीं कर सकते? मसलन, अगर डाक्टरों को हड़ताल करनी हो तो वे अपने सफेद कोट की जगह पाजामा कुर्ता पहन कर अस्पताल चले आएं। वकीलों को हड़ताल करनी हो तो वे हड़ताल के दिन विरोध स्वरूप अपना काॅलर बैंडन पहने या काला कोट उतार कर न्यायधीश के सामने जाएं। हर न्यायधीश को पता चल जाएगा कि वकील हड़ताल पर हैं। विश्वविद्यालय, कालेज या स्कूल के शिक्षकों को हड़ताल करनी हो तो वे क्लास में तो जाएं पर विषय न पढ़ाकर छात्रों की व्यक्तिगत समस्याएं सुने और उनका निपटारा करें। जब तक उनकी सुनी न जाए विरोध का यही तरीका अपनाते रहें। इससे छात्रों का उनके प्रति आकर्षण बढ़ेगा और प्रशासन व अभिभावकों को बेचैनी। यदि पुलिस वालों को हड़ताल करनी हो तो वे हड़ताल के दिन अपनी टोपी उल्टी करके पहन लें।

कहने का मतलब ये कि अगर आपको व्यवस्था से नाराजगी है और आप उसके विरूद्ध हड़ताल करना चाहते हैं तो उसका तरीका ऐसा होना चाहिए जिससे अनिवार्य सेवाओं में कोई व्यवधान न पड़े पर साथ ही आपके विरोध पर सबका ध्यान सहज खिंचा चला जाए। इस विषय पर देश में सभी कर्मचारियों और विभागों के लोगों को गंभीरता से सोचना चाहिए इससे उन्हें जनता के आक्रोश और तानों का शिकार भी नहीं होना पड़ेगा और उनके विरोध का कारण सहज ही लोगों तक पहुंच जाएगा।

जहां तक बात वकीलों के हड़ताल करने की है तो यह वाकई एक गंभीर सवाल हैं। इसलिए कि न्यायव्यवसथा इस देश के लोकतंत्र का एक अहम् खंभा है और सौ करोड जनता न्यायपालिका से न्याय मिलने की उम्मीद करती है। पर अगर उसे आए दिन वकीलों के हड़ताल के कारण न्याय मिलने में देरी हो, समय और पैसा बर्बाद हो तो जनता के लिए बहुत कष्टदाई स्थिति होगी।

सवाल उठता है कि  न्यायव्यवसथा दिनोदिन असामान्य परिथतियां क्यों पैदा होती जा रही हैं? कभी उच्च न्यायलय के जज सैक्स स्कैंडल में फंस जाते हैं। कभी जमीन घोटाले में। कभी अपने बच्चों को रिश्वत देकर नौकरी दिलवाने में और कभी छूठे बिल देकर सरकार से फायदा उठाने में। यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण  मुकदमों में यह कह कर देश को सकते में डाल देते हैं कि उन पर इस मामले को दबाने के लिए भारी दबाव पड़ रहा है और कोई व्यक्ति उनसे लगातार मिलता रहा है। आश्चर्यजनक रूप से न तो वे उस व्यक्ति का नाम देश को बताते हैं और न उसके खिलाफ अदालत की अवमानना की कार्रवाही करते हैं। जब वहीं व्यक्ति उन्हीं जजों से अपने अवैध संबंधों की जानकारी मीडिया को देता है तो  भी ये जज उसके खिलाफ मानहानी का मुकदमा नहीं चलाते क्यों ? इससे भी खौफनाक बात यह है कि भारत के मुख्य न्यायधीश ने खुल कर स्वीकारा है कि न्यायपालिका के उच्च स्तरों पर भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है और मौजूदा कानून उससे निपटने में नाकाफी हैं। हाल ही में बने भारत के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति वी. एन. खरे का भी एक बयान पिछले दिनों अखबार में छपा था। जिसके अनुसार उन्होंने माना था कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार इसलिए हैं कि न्यायपालिका में लोग वकालत के पेशे से आते हैं।  जब तक वकीलों में भ्रष्टाचार रहेगा तब तक न्यायपालिका में भी रहेगा। यह बात जितनी सरलता से कही गई है उतनी ही गंभीर है और खतरनाक भी। क्या यह सही नहीं है कि हर वकील अपने मुंशी की मार्फत अपने मुवक्किलों से कचहरी के कर्मचारियों को रोज रिश्वत दिलवाता है। यानी वह रिश्वत देने का जुर्म करता है। वकालत से न्यायपालिका में आया कोई भी व्यक्ति क्या ईमानदारी से यह कह सकता है कि उसनें इस तरह से रिश्वत देने में कोई भूमिका नहीं निभाई है ? अगर उत्तर हां में है तो न्यायपालिका के ऐसे सभी सदस्य अतीत में रिश्वत देने का जुर्म तो किए ही बैठे हैं। जो व्यक्ति थोड़ी सी तकलीफ न सह कर रिश्वत देकर काम जल्दी करवाने में विश्वास करता हो उससे ये कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह किसी बड़े प्रलोभन को छोड़कर पूर्ण ईमानदारी और नैतिकता से निर्णय देगा ? शायद यही कारण है कि न्यायपालिका लगातार जनता कि आलोचना का शिकार बनती जा रही है। यह गंभीर स्थिति है।
लोकतंत्र की बुनियाद न्यायपालिका पर टिकी है। उच्च न्यायपालिका को स्वायतत्ता देने के अनेक संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं। उम्मीद ये की गई थी कि न्यायपालिका के सदस्य मानवीय स्तर से ऊपर उठ कर पंच-परमेश्वर की भावना से काम करेंगे। पर जो देखने में आ रहा है वह बहुत निराशाजनक है। ऐसा नहीं है कि सभी न्यायधीश भ्रष्ट हैं पर जैसाकि स्वयं भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश ने माना है कि न्यायपालिका के उच्च स्तर पर भी भ्रष्टाचार है। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि वकीलों और जजों के बीच जो छोटी-मोटी टकराहट होती है उसका कारण कुछ इसी तरह का अनैतिक लेन-देन होता हो। क्योंकि वकील भी इस बात का दावा नहीं करेंगे कि सब निर्णय केवल तथ्यों और कानून के आधार पर ही दिए जाते हैं। ऐसे तमाम प्रमाण प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि तथ्यों को अनदेखा करके निर्णय दिए गए और वो भी राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामलों पर। ऐसे में न्यायपालिका के सुधार की भी सबसे ज्यादा जरूरत है। वकीलों की हड़ताल पर प्रतिबंध लगाने से ही काम नहीं चलेगा। न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही की जरूरत आज पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है। अदालत की अवमानना कानून को ढाल बना कर अगर न्यायपालिका अपने भ्रष्ट और अनैतिक आचरण का बचाव करती रहेगी तो इसके गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं। न्यायपालिका का सीधा संबंध आम आदमी से है। आम आदमी का अभी भी न्यायपालिका में विश्वास बना हुआ है। उसके मन में न्यायपालिका के प्रति सम्मान भी है। पर उसे भी तब निराशा होती है जब वह देखता है कि गरीब को न्याय नहीं मिलता और अमीर अपराध करके भी छूट जाते हैं। यदि देश के आम लोगों को न्यायपालिका के गिरते आचरण की जानकारी मिलने लगी तो उसकी आस्था इस तंत्र में नहीं बचेगी और फिर वो अपने आक्रोश को अपने तरीके से अभिव्यक्त करने को मजबूर होगा। बिहार की जातिगत सेनाएं हो या नक्सलवादी, ये पुलिस व्यवस्था के निकम्मेपन का परिणाम हैं। पुलिस ने जब गरीब की परवाह नहीं की और पैसे वालों का साथ दिया तो शोषित युवाओं ने कानून अपने हाथ में ले लिया और बंदूक उठा ली। सरकार लाख कोशिश करे पर इन जुनूनी नौजवानों से जीत नहीं पाती है। जिसने सिर पर कफन बांध लिया उसे कौन रोक पाएगा ? न्यायपालिका को इन सवालों पर सोचना चाहिए।

अदालत की अवमानना कानून को केवल अदालत की प्रतिष्ठा के लिए ही इस्तेमाल करना चाहिए। इस कानून से किसी न्यायधीश के व्यक्तिगत दुराचरण की रक्षा करना अपनी इज्जत अपने हाथ खोना है। अवश्यकता इस बात की है कि वकील और जज मिल कर इसमें बदलाव की सोंचे और कुछ पहल करें।

Friday, December 20, 2002

राजनीति में धर्म हो: धर्म में राजनीति नहीं

धर्म और राजनीति के संबंध को लेकर भारत में बहुत भ्रांति चल रही है। मुट्ठी भर लोग हैं जो धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहते हैं । वे अपने को अनेक नामों से पुकारते हैं। मसलन धर्मनिरपेक्ष। दूसरा विशाल समूह मानता है कि धर्मविहीन जो भी सत्ता होगी वो दानवी होगी। इसमें भी दो श्रेणी के लोग हैं। एक तो वो जो स्वयं अधर्म का आचरण करते हैं और धर्म के नाम पर द्वेष और अशांति पैदा करते हैं। इसी श्रेणी में दूसरे वे लोग हैं जो ईमानदारी से एक आध्यात्मिक समाज की स्थापना करना चाहते हैं जैसी पांच सौ वर्ष पूर्व भक्ति युग के महान् संतों ने कोशिश की थी। जिनमें श्रीचैतन्य महाप्रभु, कबीर, नानक, तुकाराम और सूफी संत प्रमुख हैं। तबके हालात में इनसे समाज को बहुत शंाति व सुख मिला। क्योंकि तब भी भ्रष्ट शासकों ने आज जैसे ही हालात पैदा कर दिए थे।

पहली श्रेणी में जो भी लोग हैं यानी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग उन्होंने अपने कारनामों से सिद्ध किया है कि उनकी धर्मनिरपेक्षता तो वास्तव में अपने विरोधियों को सत्ता से दूर रखने के लिए एक औजार मात्रा है। इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों में जितनी साम्प्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्राीयता है उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। क्या वजह है कि पिछले 50 वर्षों में धर्मनिरपेक्षता का ढि़ंढोरा पीटने वाले बुद्धिजीवियों, नेताओं और अफसरों के रहते देश में धर्मांधता व साम्प्रदायिक हिंसा इतनी तेजी से बढ़ी कि पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए। मजेदार बात ये है कि धर्मनिरपेक्षता का बैनर लेकर चलने वाले बहुत से लोग खुलेआम अपनी धार्मिक भावनाओं का भी प्रदर्शन करते आए हैं । यहां तक कि कम्युनिस्ट सरकारों के मंत्री व मुख्यमंत्री तक भी चुनावी अभियान की शुरूआत किसी मंदिर में सार्वजनिक पूजा करने के बाद ही करते हैं । क्यों ? इसलिए कि धार्मिक भावनाएं भारत के लोगों में बहुत गहरी व्याप्त है। किंतु राजाश्रय या उचित मार्ग दर्शन के अभाव में हीरे और कंकड़ आपस में मिल गए हैं। ये हीरे हंै जिन्होंने इतनी उठा-पटक, दानवी राज शक्तियों, वीभत्स भ्रष्टाचार, व्यापक शोषण और लूट के बावजूद आज तक भारतीय समाज को टिकाए रखा है। ये कंकड़ हैं जो समाज को अनचाहे ही स्वार्थी व सत्ता-लोलुप नेताओं के भड़काने पर अवांछित संघर्ष की आग में झांेक देते हैं। अंत में समाज का बहुसंख्यक हिस्सा इन नेताओं द्वारा बार-बार ठगे जाने के कारण घाटे में रहता है। इसलिए अब राजनीति में धर्म की भूमिका की और उपेक्षा करना देश और समाज के लिए घातक ही होगा।

यदि ऐसा नहीं किया गया तो राष्ट्र घाटे में रहेगा। क्योंकि जो दूसरा वर्ग है, जो उन लोगों का है, जो लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़का कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकते हैं। समाज में अंधविश्वास, जातिवाद और साम्प्रदायिकता व संकीर्णता फैलाने के काम में जुटें हैं। इनके कारण कुछ लोगों में यह भ्रम पैदा हो रहा है कि धर्म पर आधारित राजनीति से देश का नुकसान होता है।

दरअसल आज जरूरत इस बात की है कि आम आदमी की धर्म के बारे में भ्रांतियों को दूर किया जाए। उसमें हर धर्म के प्रति या कम से कम अपने धर्म के प्रति गहरी समझ पैदा की जाए। सरकार में बैठे स्वार्थी तत्व ये कभी नहीं करेंगे। क्योंकि इससे उनकी ‘बांटो और राज करो’ की साजिश को खतरा पैदा हो जाएगा। यह काम तो जागरूक नागरिकों को ही करना होगा। इस काम के लिए पहले हर धर्म के ऐसे लोग चुने जाएं जिनमें अपने धर्म की गहरी समझ हो। जिनका जीवन उनके प्रवचनों से मेल खाता हो। आज देश में धर्म की दुकानदारी करने वालों की भी एक लंबी जमात पैदा हो गई है। इसलिए सही-गलत की पहचान भी मुश्किल काम है। पर निर्मल हृदय और आध्यात्मिक समझ वाले लोगों की पारखी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं। ऐसे आध्यात्मिक संत जनों को ढूंढा जाए जिनकी शिक्षाओं से उनके अनुयायिओं के जीवन में प्रशंसनीय बदलाव आया है। ऐसे सभी संत जनों से फिर राष्ट्र की रक्षा के लिए समाज का मार्ग निर्देशन करने की याचना की जाए। उनके मार्ग निर्देशन में देश के सभी धार्मिक स्थलों के जीर्णोद्धार का काम शुरू किया जाए। मसलन सामूहिक प्रयास से इन स्थानों की साज-सफाई की व्यवस्था की जाए। हर धार्मिक स्थान में समाज के गरीब वर्ग के लोगों के लिए दोनों वक्त मुफ्त भोजन की व्यवस्था की जाए। जिसके खर्चे का भार उस धर्म के धनी लोग वहन करें। यह असंभव नहीं है। सारे देश के गुरूद्वारों में यह होता ही है। इस प्रकार समाज के लोगों में पारस्परिक सद्भाव तो बढ़ेगा ही, सामूहिक समस्याओं पर सामूहिक समझ भी पैदा होगी।

शास्त्रों में कहा गया है कि जिस राष्ट्र में शासक अधर्मी होता है, वो राष्ट्र अपनी प्रजा समेत नष्ट हो जाता है।

यत्र त्वेते परिधासाज्यन्ते वर्णदूषकाः।
राष्ट्रिके तदराष्ट्रं क्षिप्रमेव विनाशयति।।

गीता का सांख्ययोग भी जिस धर्म की परिभाषा देता है वो समाज और व्यक्ति को व आत्मा और परमात्मा को आपस में जोड़ता है। विज्ञान से तकनीक पाई जा सकती है, भौतिक उपलब्धियां हो सकती हैं मगर समाज की गति नहीं बदलती। विज्ञान को भी इसीलिए धर्म की बहुत जरूरत है। अल्बर्ट आइंस्टीन और एल्फ्रेड नोबल जैसे वैज्ञानिक तक इसे स्वीकार करते है।

धर्म और समाज दोनों आदि काल से एक दूसरे से संबद्ध चले आ रहे हैं। इनमें से किसी को अलग नहीं कर सकते। हमारे यहां प्राचीन काल से आज तक जितने भी नीति के ग्रंथ और शास्त्र लिखे गए हैं, सब में समान रूप से धर्मगत और समाजगत आचार की मान्यता और प्रमाणिकता बताई गई है। हमारे देश में धर्म ने समाज को और समाज ने धर्म को बहुत गहराई और व्यापक रूप में प्रभावित किया है। धर्म और समाज के बीच यह आपसी निर्भरता भारत में अन्य देशों की अपेक्षा अधिक मिलेगी।

आमतौर पर किसी भी देश अथवा समाज का इतिहास कुछ विशिष्ट चुने हुए व्यक्तियों के कार्यकलाप, उनकी सफलता अथवा असफलता का वर्णन ही होता है। इसमें प्रायः शेष समाज की गतिविधियों का चित्रण अप्रत्यक्ष रूप से ही होता है। इसलिए पूरे समाज के जीवन को आंदोलित करने वाली बलवती शक्तियां हमारी आंखों से ओझल हो जाती हैं। जिनके कारण व्यक्तित्व का निर्माण होता है, नए मूल्य बनते हैं, पुराने रूढ़ और जर्जर मूल्य ध्वस्त होते हैं। पर इनसे यह बात तो साफ होती ही है कि यदि समाज में सभी लोग अपने-अपने धर्म का पालन करें, तो सारा समाज सुखी और समृद्ध बन जाएगा। ऐसा पूर्ण रूप से कभी न हो पाया और आज भी ऐसा नहीं हो रहा है। पर जब कभी समाज के बहुसंख्यक लोग धार्मिक व आध्यात्मिक हुए तो समाज ने, राष्ट्र ने आर्थिक, सांस्कृतिक व तकनीकी उन्नति की है। उसे उस समाज का स्वर्ण युग माना गया। आज धर्म का स्थान गौणातिगौण हो गया है। इसलिए सुख और समृद्धि भी गूलर का फूल हो गई है। समाज में कुछ स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिए सभी साधन सामग्री का संचयन करके अपने गोदाम में रख देते हैं। अपना धर्म निभाते नहीं। वे सबल बन जाते हैं। निर्बलों पर उनका दबाव रहता है। वे मनमाने दाम बढ़ाते हैं। मनमाने कर लगाते हैं। सज्जनों तथा सदाचारी लोगों के मार्ग में हर कदम पर रोड़े अटकाते हैं। ऐसा न हो इसलिए धर्म पर आधारित बुद्धि के विकास की आवश्यकता है। तभी समाज की व्यवस्था में सुधार होने की संभावना है।

समाज के सामने आत्मज्ञान और अभेद दर्शन का आदर्श रहे। वैयक्तिक और सामूहिक जीवन का मूल मंत्र संघर्ष की जगह सहयोग हो। सबको अपनी योग्यताओं के अनुसार विकास का अवसर मिले। यदि ऐसी व्यवस्था हो, तो धर्म को स्वतः प्रोत्साहन और सुरक्षा का वातावरण मिल जाएगा। इसके साथ ही यह भी आप ही होगा कि जिन लोगों की बुद्धि फिलहाल धर्म पर आधारित नहींे है। यानी अभी सद्बुद्धि नहीं है, वे समाज की बहुत क्षति न कर सकेंगे।

समाज में न्याय और सत्य का आचरण सामूहिक रूप में कार्यान्वित हो जाना चाहिए। तभी समाज श्रेष्ठ होगा। इससे धर्म की रक्षा होगी। कबीर का कहना था कि जीवन धर्म और अधर्म के बीच एक समझौता है। धर्म संपूर्ण जीवन पद्धति है। धर्म जीवन का स्वभाव है। धर्म ज्ञान और विश्वास में नहीं, आचरण में बसता है। यदि हम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं तो इस विश्वास का सबूत हमारे आचरणों में मिलना ही चाहिए। पूजा और अनुष्ठान की विधियां धर्म के बाह्यरूप है। मंदिर और मस्जिद, तीर्थव्रत, रोजे और पंडे तथा पुरोहित की प्रथा, ये धर्म के ढकोसले हैं, यदि ये मानव की वृत्ति न बदल सकंे। सच पूछो तो सभी धर्म एक है। धर्म की साधना का स्थान मंदिर या मस्जिद में ही नहीं, बल्कि वे सारी जगहें भी हैं, जहां मनुष्य स्वच्छ हृदय से निस्वार्थ हो कोई काम करता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि मध्यकालीन समाज मोक्ष और मुक्ति के पीछे दौड़ रहा था।

आधुनिक समाज मनुष्य की महिमा पर जोर दे रहा है। अगला कदम सामूहिक मुक्ति का है- सब प्रकार के शोषणों से मुक्ति का। अगली मानवीय संस्कृति मनुष्य की समता और सामूहिक मुक्ति की भूमिका पर खड़ी होगी। इतिहास के अनुभव इस सिद्धि के साधन बन कर कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद हो सकते हैं।समाज का संघठन धर्ममूलक होना अनिवार्य है। समय के साथ धर्म के ऊपरी रूप बदलते रहते हैं। परंतु उसके मूलतत्व अटल रहते हैं। जो काम ईश्वर को कंेद्र में रखकर हो, पारस्परिक सहयोग वर्धक हो, वह धर्म है। जो काम अपनी संकुचित ‘‘स्व’’ पर केंद्रित रहता है, वह अधर्म है। जिस समाज में कोई जन्म के कारण ऊंचा, कोई जन्म के कारण नीचा न माना जाएगा और अयोग्य व्यक्ति कुल के आधार पर ऊंचे पद से न जाएगा, जिस समाज में तप, त्याग, आदर्श, मूल्यों और विद्या का स्थान सर्वोपरि होगा, वह समाज धर्म की नींव पर खड़ा है। वहां फिर प्रजा दुखी नहीं होगी।