Friday, January 17, 2003

क्या रेल मंत्रालय में भी भ्रष्टाचार है


रेल मंत्री श्री नीतीश कुमार की छवि एक साफ-सुथरे राजनेता की है। इसलिए उनके मंत्रालय की तरफ खोजी पत्रकारों की निगाह नहीं जाती। पर जब रेल मंत्रालय में भ्रष्ट और नाकारा अधिकारियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दिए जाने की सूचना मिलती है तो यह सवाल जरूर पैदा होता है कि श्री नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति यह सब कैसे होने दे रहा है ? मंत्रालय में हो रहे घोटालों की जो खबरें दीवारों के बाहर पहुंच रही हैं क्या वे रेल मंत्री के कानों तक नहीं पहुंचतीं ? इसी जिज्ञासा में कुछ पड़ताल की तो कई रोचक सवाल खड़े हुए। जिनके जवाब श्री नीतीश कुमार को देश की जनता को देने चाहिए।

पिछले दिनों एक अजीब वाकया हुआ। एक टैªवल एजेंट ने एक पत्रकार से ये वायदा किया कि अगर वो दिल्ली-मुंबई की 3 टीयर की रेल टिकट पर 300 रूपए अतिरिक्त दे दें तो उसी दिन के दिन कन्फर्म टिकट मिल जाएगी। क्योंकि यात्रा की तिथि अनिश्चित थी इसलिए उन्हें ये तनाव बना हुआ था कि दिन के दिन टिकट कैसे कन्फर्म होगी ? यूं पत्रकार भी राजनेताओं और रेल अफसरों की तरह आपात्कालिक स्थिति में रेल मंत्रालय के कोटे से आरक्षण कन्फर्म करा लेते हैं। पर इधर कई बार ऐसा अनुभव हुआ कि रेल मंत्री के कोटे से कराई गई उनकी टिकट भी कन्फर्म नहीं हुई। इसलिए उन्होंने प्रयोग के तौर पर ट्रवेल एजेंट की बात मान ली और आश्चर्य हुआ ये देखकर कि टैªवल एजेंट ने वायदे के मुताबिक दिन के दिन कन्फर्म टिकट करवा दी। उत्सुकता हुई कि ऐसा कैसे हुआ ? तहकीकात की तो पता चला कि इस तरह टिकट बुक कराने का एक बहुत बड़ा जाल देश में बिछा हुआ है ।  टैªवल एजेंट ने बताया कि वो 25 हजार रूपया महीना रेलवे अधिकारियों को इसी बात का देता है। अगर एक ट्रवेल एजेंट इतनी रकम दे रहा है तो पूरे देश के हजारों टैªवल एजेंटों से कितनी रकम रेल मंत्रालय के अधिकारियों के पास हर महीने पहुंच रही होगी ? दूर की छोडि़ए मिन्टो ब्रिज से आते हुए पहाड़ गंज की तरफ से जब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में प्रवेश करते हैं तो स्टेशन की एक तरफ बने रेलवे क्वाटरों में तमाम टैªवल एजेंसियां अवैध रूप से चल रही हैं। जानकार बताते हैं कि इस तरह से सरकारी मकानों में यह धंधा इसलिए बेरोक टोक चलता है क्योंकि इसमें रेलवे के ही लोग शामिल हैं और रेलवे के बड़े अधिकारियों वगैरह के लिए हवाई टिकटों, होटलों और सैर सपाटों का खर्चा ये लोग उठाते रहते है। टैªवल एजेंट वाले अनुभव का जिक्र उस पत्रकार ने रेल मंत्री श्री नीतीश कुमार के एक निकटम अधिकारी से किया तो वे चैंक गए। सवाल उठता है कि रेलवे की आरक्षण व्यवस्था में जो भ्रष्टाचार का यह सुगठित तंत्र देश में चल रहा है क्या उसकी कोई माकूल समीक्षा और निदान श्री नीतीश कुमार ने आज तक किया या नहीं ? क्या इसके लिए उन्होंने कभी किसी बाहरी जांच एजेंसी को जिम्मदारी दी कि वो इस भ्रष्टाचार के कुछ सबूत पकड़ कर उन्हें दे। क्योंकि मंत्रालयों की अपनी सतर्कता एजेंसियां तो खुद ही भ्रष्टाचार की कब्रगाह हैं।

इसी तरह रेलवे में पास देने की प्रथा का बहुत दुरूपयोग होता आया है। पिछली कई सरकारों में रेल मंत्री अपने चहेतों को रेलवे के पास बांट-बांट कर उपकृत करते आएं है। क्या यह सही है कि पिछले वर्ष ही लगभग 7 सौ अल्पकालिक रेलवे पास रेल मंत्री ने अपने चहेतों को बांटे ? जिनमें काफी पास ए.सी. प्रथम श्रेणी के भी थे। क्या इस तरह के पास बांटने की कोई स्पष्ट नीति है या केवल ये मनमर्जी का सौदा ? इसी तरह हेड क्वाटर के आरक्षण कोटा का सवाल है। एक लोकतांत्रिक देश में जनता के साथ इस भेद को क्यों रखा जाए। जो पहले टिकट खरीदे वो पहले सीट पाए। हां सरकारी ड्यटी, फौज की डयूटी और पत्रकारिता के काम से जाने वाले लोगों को इस आरक्षण की सुविधा मिलती रह सकती है। बशर्ते कि ये आरक्षण सिर्फ संबंधित व्यक्ति को ही मिले उसके परिवार को नहीं। इसी तरह रेलवे के अधिकारियों के पास का सवाल है। अक्सर हर बड़ा अधिकारी अपने रेलवे के पास का खूब दुरूपयोग करता है। रेलवे चैकिंग स्टाफ बताता है कि एक ही पास पर ये लोग बार-बार यात्रा करते हैं । पर कनिष्ठ कर्मचारी डर के मारे कुछ नहीं कहते। इस समस्या का बेहतर निदान हो कि रेल मंत्रालय सभी पास रद्द कर दे और जिस व्यक्ति को उसकी यात्रा का भुगतान करना चाहे वो उसकी टिकट की एवज में करें। यानी अगर किसी रेल अधिकारी को साल में तीन बार परिवार सहित मुफ्त यात्रा की सुविधा मिली है तो हर बार वह अपने पैसे से टिकट खरीदे और यात्रा के बाद उसकी वसूली मंत्रालय से कर ले। इसी तरह जिस पत्रकार या राजनेता को रेल मंत्रालय मुफ्त रेल यात्रा कराना चाहता है वह भी टिकट खरीदे, यात्रा करें और बाद में अपनी यात्रा का रेल मंत्रालय के लाभ के लिए किए गए इस्तेमाल का विवरण देते हुए इस टिकट की एवज में पैसा वसूल कर लें। इस तरह पास संस्कृति पूरी तरह समाप्त हो जाएगी।

दरअसल, पैसिंजर रेल सेवा तो रेल मंत्रालय का वो विभाग है जिस पर देशभर की निगाह लगी रहती है। क्योंकि करोड़ों यात्रियों को रोज ढोने का काम ये सेवा करती है। हर किस्म के यात्री होते हैं, धनी, गरीब, प्रभावशाली, साधारण, वकील, पत्रकार सबकी निगाह इस सेवा की गुणवत्ता पर लगी होती है। इसलिए ये मीडिया की सुर्खियों में भी बनी रहती है। पर रेलवे की असली कमाई रेलवे फ्रेटिंग सर्विस से होती है। यानी माल की ढुलाई। इस काम में रेलवे का बहुत बड़ा हिस्सा जुटा रहता है और सबसे ज्यादा घोटाले इसी सेवा में होते आए हैं। क्या रेल मंत्री देश की जनता को बताएंगे कि उनके कार्यकाल में रेल की फ्रेटिंग सेवा की आमदनी कितनी बढ़ी ? अगर उसमें उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई तो इस सेवा में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए उन्होंने क्या कदम उठाए हैं ? अगर नहीं तो क्यों नहीं 

इसी तरह रेलवे में आजकल नए-नए निगमों के सृजन की बहार आई हुई है। जैसे केटरिंग काॅरपोरेशन, कंटेनर काॅरपोरेशन, इंडियन रेलवे फाइनेंस काॅरपोरेशन, सिलिकन केेबिल काॅरपोरेशन जैसे कई नए निगम रेल मंत्रालय ने खड़े कर दिए हैं। इरकाॅन  और राॅइट्स जैसे निगम पहले से ही थे। जो ठेके पर काम लेकर देश और विदेश में अच्छी कमाई कर रहते आए हैं । उनकी सफलता देखकर ही शायद ये नए निगम शुरू किए गए। पर इन निगमों से रेल मंत्रालय को कितना आर्थिक लाभ हुआ है इसकी सही समीक्षा किए जाने की जरूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इन निगमों का सारा काम तो रेल मंत्रालय कर रहा हो और मुनाफा निगमों के नाम पर दिखाया जा रहा हो। ताकि इस मुनाफे पर मौज-मस्ती की जा सके। इस तरह झूठा मुनाफा दिखाकर निगमों में तैनात अधिकारी अपने परिवारों को और राजनैतिक आकाओं को निगमों के खर्चें पर ऐश करवा रहे हों ? क्योंकि जब निगम बन जाता है तो उसमें तैनात सरकारी अधिकारियों के खर्चांे और सैर, सपाटांे पर कोई बंदिश नहीं रहती। वो बंदिशें जो मंत्रालय के अधीन रहते हुए उन्हें सरकारी नियमों के तहत माननी पड़ती है। निगम में आने के बाद आप लाखों रूपए गुलछर्रों पर उड़ाइए और राजनेताओं को खुश रखिए फिर कोई पूछने वाला  नहीं है। भारत में केंद्रीय और राज्य स्तर पर जितने निगम बने उनमें से ज्यादातर इसी भ्रष्टाचार के कारण घाटे में आते गए और बर्बाद हो गए। बिचारी जनता के कर का पैसा उसकी सेवा की बजाए भोग विलास में बर्बाद कर दिया गया। क्या ये सही है कि पिछले हफ्ते ही रेल मंत्रालय के एक निगम के छोटे से समरोह में पांच सितारा होटल में 27 लाख रूपए खर्च किए गए। जबकि समारोह में शायद 50 से भी कम लोग शामिल हुए । अगर ये सच है तो यह बहुत चिंता का विषय है। क्या किसी बाहरी जांच एजेंसी को इन निगमों की बैलेंस शीट्स को स्वतंत्रता से जांचने की छूट है ? इसलिए रेल मंत्री को इन निगमों की पारदर्शिता की जांच करवा कर आश्वस्त हो जाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य में उन्हें किसी असहज स्थिति का सामना करना पडे़।

देश की जनता को शायद ये पता न हो कि रेलवे केटरिंग काॅरपोरेशन भारत की संसद में जो केटरिंग सेवा करती है उसमें जनता का करोड़ों रूपया बर्बाद कर देती है। जानकार बताते है कि पिछले साल ही लगभग 28 करोड़ रूपए की सब्सिडी इस मद में दी गई। यही कारण है कि संसद में 15 रूपए में मुर्गा खाने को मिल जाता है। इस सब्सिडी का क्या औचित्य है ? उदारीकरण और नई आर्थिक नीतियों की बात करने वाली सरकार के रेल मंत्री, सांसदों के चमचों, मित्रों और अतिथियों के स्वागत में 28 करोड़ रूपए क्यों बर्बाद करते हैं ? क्यों नहीं रेलवे अपनी केटरिंग सेवा का उचित दाम वसूलती हैं और उस मुनाफे से रेलवे में सुविधाओं का विस्तार करती हैं ? इतना ही नहीं प्रधानमंत्री निवास की केटरिंग पर ही रेलवे केटरिंग काॅरपोरेशन ने पिछले वर्ष 15 करोड़ रूपया खर्च किया बताते हैं। ये बर्बादी रेल मंत्रालय के जिम्मे क्यों ? क्यों नहीं रेल मंत्रालय इन सेवाओं से हाथ खींच लेता ?

इसी तरह देश में चल रही बहुत सारी रेलवे आउट एजेंसियांें का सवाल है। शिमला, पहलगांव, बद्रीनाथ, अण्डमान निकोबार जैसी जगहों पर चलने वाली इन आउट एजेंसियांें की उपयोगिता पर क्या रेल मंत्रालय ने कभी गंभीरता से विचार किया है ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये रेल मंत्रालय के घाटे का स्थायी कारण बनी हुई है ? इन्हंे क्यों नहीं आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया जाता ? इसी तरह रेलवे हर साल ऊंटी, दार्जलिंग, शिमला जैसी सैलानी रेल व्यवस्था पर 2 हजार करोड़ रूपया बर्बाद करती है। अगर ये सैलानी रेल सेवा इतनी लोकप्रिय है कि पर्यटन की दृष्टि से इन्हंे बंद करना उचित न होगा तो क्यों नहीं इनका भी निजीकरण कर दिया जाता ? जो कंपनी रेल मंत्रालय को सही किराया दे इन्हें उसे सौपा जा सकता है। तब खर्चा भी नहीं होगा और मुनाफ भी हो जाएगा। दरअलस, ये रेल सेवा इतनी खर्चीली है कि सही दाम देकर इसे लेने को कोई तैयार नहीं है।  फिर भी रेलवे के आला हाकिम इसे चलाए रखना चाहते हैं क्योंकि इस सेवा के निरीक्षण के बहाने वे पहाड़ों या दूसरे पर्यटन स्थलों पर अपने परिवार को लेकर मौज-मस्ती करने जाते हैं और खर्चा पड़ता है देश की जनता पर । क्या नीतीश कुमार जी इस बात का सर्वेक्षण करवाएंगे कि गर्मियों में कितने रेल अधिकारियों ने सपरिवार जाकर पहाड़ों पर चलने वाली इस तरह की रेल सेवा का निरीक्षण किया और कितनों ने शेष साल भर। अगर ये जांच हो तो पता चलेगा कि निरीक्षण के नाम पर र्गिर्मयों में मौज मारने ही पहाड़ों पर जाया जाता है। उनकी थोड़ी सी मौज और देश की जनता का हजारों करोड़ रूपया इन सेवाओं पर बर्बाद हो जाता है। ऐसे तमाम सवालों पर रेल मंत्री को विचार करना चाहिए और आर्थिक दबावों से निपटने के लिए रेलवे की फिजूलखर्ची घटाकर मुनाफा कमाने की सोचना चाहिए। मंत्रालय में भ्रष्टाचार अगर है तो उसे रोकने की जिम्मेदारी भी रेल मंत्री की है।

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