Friday, January 24, 2003

बड़े अफसरों की बीबियां


पिछले दिनों एक परिचित 35 साल भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहकर रिटायर हुए। जब तक वे सत्ता में रहे, काफी व्यस्त रहे। इतने व्यस्त कि उन्हें अपने मित्रों और परिजनों के लिये भी समय नहीं मिला। अब अचानक उन्हें उनकी याद आई तो एक एक कर सबसे मिलने जाने लगे। कुछ और करने को भी नहीं है उनके पास। अकेलापन खाये जा रहा है। ऐसे में रिश्तेदारों के घर जाकर कुछ मन बदल जाता है। ऐसा नहीं कि वे इन लोगों से मिलना नहीं चाहते थे। आखिर जिस कस्बे में किसी का बचपन गुजरा हो, जिन यारों के साथ पतंग उड़ाई हो, मोहल्ले के जिन बुजुर्गों को चाचा-ताऊ कहकर जय रामजी की कही हो, उन्हें कोई अचानक भूल थोड़े ही सकता है। जब फिजी और माॅरीशस का प्रधानमंत्री बनने के बाद भी एक व्यक्ति तीन सौ साल पुराने अपने पूर्वजों की जड़ें खोजने अपने पैतृक गांव चला आता है और मुक्त हृदय से अपने दरिद्र कुटुम्बियों से मिलता है तो किसी नौकरी में जाते ही कोई कैसे इतना रूखा हो सकता है ? दरअसल कोई भी बड़ी नौकरी क्यों न हो उसमें जाने वाला व्यक्ति तो अपनी काबिलियत और मेहनत के बूते पर ही वहां पहंुचता है। पर एक बार जब पहंुच जाता है तो उसको उसके परिवेश से काटने का काम शुरू होता है। पहले तो प्रशिक्षण के दौरान ही उसको बता दिया जाता है कि अब वह सामान्य नागरिक नहीं, भारत के समाज की क्रीम है यानि मलाई अैर मलाई तो ऊपर तैरती है। तो उसे आम लोगों से क्या काम ? फिर वो चाहे उसके मित्र और नातेदार ही क्यों न हों। जो इस झटके को झेल जाते हैं और अपनी जड़ों से नहीं कटते उन्हें उनकी बेगमें पकड़ लेती हैं। उन्हें उनके मित्रों और नातेदारों से काट देती हैं। इस तरह कि फिर वे अपनी नौकरी के दौरान कभी सामान्य नहीं रह पाते। जिस किसी का अपने परिवार या सामाजिक दायरे में ऐसे हाकिमों से पाला पड़ा है उसने महसूस किया होगा कि अफसरों से ज्यादा अफसरी उनकी बीबी दिखाती हैं। अंग्रेज चले गये पर ये खुद को आज भी मेमसाहब कहलवाने में गौरवान्वित महसूस करती हैं। वह दूसरी बात है कि मेमसाहबों की जमात में वे अपने व्यक्तित्व के कारण कई बार आया जैसी नजर आती हैं। पर हाकिम की पत्नी है, इतना ही उनकी ठसक के लिये काफी है।
अंग्रेजों के शासनकाल में भारत में तैनात रहे साहबों और मेमसाहबों की जीवन शैली पर इंग्लैण्ड और भारत में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। कई व्यंग्यात्मक भी हैं। आजादी को पचास साल हो चुके हैं। अब जरूरत है काले साहबों और काली मेमसाहबों की जीवन शैली पर ऐसी किताबें लिखे जाने की। इन काली मेमसाहबों का सरकारी नौकरों की फौज पर आतंक रहता है। सरकारी नौकरों की यह फौज अवैध रूप से घर पर तैनात की जाती है। सरकारी गाडि़यां इनके दुरुपयोग के लिये कतारबद्ध रहती हैं। अपने पति के अधीनस्थ अधिकारियों पर घरेलू जरूरतें पूरी करने के लिये ये काली मेमसाहबें ऐसी हुक्म चलाती हैं, मानो वे उनके खरीदे गुलाम हों। ये अधीनस्थ अधिकारी भी फर्शी सलाम करने में पीछे नहीं रहते। अगर मैडम खुश तो साहब के नाखुश होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। चूंकि अब देश में भ्रष्टाचार और नैतिकता तो कोई मुद्दा ही नहीं है इसलिये यहां तक तो ठीक है। पर जब इन काली मेमसाहबों की हाकिमी पति के मित्रों और नातेदारों को झेलनी पड़ती है तो उनका दिल टूट जाता है। जिन्हें उनसे किसी मदद की आस होती है वो तो खून का घूंट पीकर भी ऐसी बेगमों के दरवाजों पर बार बार दस्तक देते रहते हैं। पर जो स्वाभिमानी होते हैं वो एक बार अपमानित होकर फिर उधर मुंह नहीं करते। उन्हें पता है कि अगर वे अपने प्यार का इजहार करने जायेंगे भी तो उन्हें यथोचित सम्मान नहीं मिलेगा। मसलन किसी अफसर के बेटे की शादी में मेमसाहब का ध्यान उन लोगों पर लगा होता है जो गिफ्ट के तौर पर भारी भरकम रिश्वत देने आते हैं। ऐसी शादियों में घर के रिश्तेदारों को यतीमखाने का सा व्यवहार मिलता है। अगर इन काली मेमसाहबों को मजबूरन परिवार के उत्सवों में शामिल होना पड़े तो इनकी मंशा यही होती है कि ये अपनी ठसक बनाये रखें। ये नातेदारों के घरों के उत्सव में सहज होकर शामिल नहीं होतीं। इस तरह की निजी यात्रा को भी सरकारी यात्रा बनाकर सरकारी तामझाम के साथ रहना पसंद करती हैं। पर इनका ये ऐश्वर्य अचानक एक दिन इनसे छीन लिया जाता है। जिस दिन पतिदेव सेवानिवृत्त होकर घर आते हैं उस दिन से इन काली मेमसाहबों की दुनिया अचानक बदल जाती है। अब न तो लाल बत्ती की सरकारी गाड़ी उन्हें सब्जी खरीदवाने आती है। न पहले जैसे पांच सितारा दावतों के न्यौते आते हैं। न घर पर चपरासियों की फौज खड़ी होती है। इतना ही नहीं बिजली, टेलीफोन और पानी जैसे विभाग के छोटे छोटे मुलाजिम तक उन्हें छका देते हैं। काली मेमसाहब ये समझ ही नहीं पातीं कि भारत सरकार के संचार सचिव पद से रिटायर हुए उनके पति से घर का टेलीफोन तक क्यों नहीं ठीक करवाया जाता ? अगर इन्हें यात्रा करनी पड़े तो अर्दलियों का काफिला इनके साथ नहीं होता। गंतव्य पर इन्हें लेने अधिकारियों की बारात नहीं खड़ी होती। ट्रेन से उतरकर आम आदमी की तरह टैक्सी लेनी पड़ती है। ऐसे में वो रिश्तेदार या दोस्त देवता बनकर प्रकट होते हैं जो अपनी कार में इन्हें लेने स्टेशन या हवाई अड्डा आ जाते हैं।
पति के रिटायर होने के बाद इन काली मेमसाहबों को पता चलता है कि अपना कौन है और पराया कौन ? अब अगर उन्हें अपने दूसरे बेटे की शादी करनी पड़े तो वह सब कुछ गायब हो चुका होता है जिसकी शान शौकत में नौकरी के दौरान उन्होंने अपने पहले बेटे की शादी की थी। अब तो एक आम आदमी की तरह हर बात का इंतजाम खुद करना पड़ता है। तब नातेदार और मित्र याद आते हैं। अब शादी के स्वागत समारोह में भारी भरकम गिफ्ट लेकर आने वालों की लम्बी कतार नहीं होती। केवल परिवार के मित्र और रिश्तेदार ही वहां मौजूद होते हैं। भारी अंतर होता है तब और अब के आयोजनों में। ऐसे में काली मेमसाहबों को अपने रिश्तेदार बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि अगर वे भी न आते तो उनका रंग बिल्कुल फीका पड़ जाता। ये तो गनीमत है कि ये नातेदार और मित्र पिछली शादी में मिली उपेक्षा को याद नहीं रखते। बदले माहौल में आनंद के रस में डूब जाते हैं और अपनी गर्मजोशी और नाच गाने से उत्सव को चार चांद लगा देते हैं। तब न सिर्फ काली मेमसाहब को बल्कि उनके रिटायर पतिदेव को भी अपनी गलती का अहसास होता है। उन्हें मन ही मन इस बात की शर्म महसूस होती है कि उन्होंने अपने वैभव के दिनों में अपनों से इतनी दूरी क्यों बनाये रखी ? वे अपने और पराये का भेद क्यों नहीं समझ सके ? पर अब पछताय होत क्या जब चिडि़या चुग गयी खेत। ये तो भारत की संस्कृति की महानता है कि कोई परिवार अपने सदस्य से विमुख नहीं होता। दूरियां भावनाओं को खत्म नहीं कर पातीं। घर के लोग निस्वार्थ प्रेम बांटने में संकोच नहीं करते। सुबह का भटका शाम को घर लौट आये तो उसे खुले हृदय से स्वीकार लेते हैं। 
पर इसका मतलब ये नहीं कि उनके प्रेम का नाजायज फायदा उठाया जाए। काली मेमसाहबांे को जरा सोचना चाहिये कि उनका व्यवहार अपने नातेदारों और मित्रों के प्रति कैसा होना चाहिये ? मेडीकल सांइस की तरक्की के कारण औसत आयु बढ़ती जा रही है। अक्सर लोग रिटायर होने के बाद भी दस-बीस बरस तक जी लेते हैं। बुढ़ापे के इस दौर में बेटे-बेटी काम आयें न आयें, निकट के नातेदार और मित्र हमेशा काम आते हैं। बेहतर हो कि उन्हें सारे जीवन यथोचित सम्मान और प्यार दिया जाए ताकि जब कोई और साथ न खड़ा हो तब ये लोग हौसला बुलंदी के लिये आपके साथ खड़े रहें। भाई भतीजावाद करना या रिश्वत का पैसा नातेदारों में बांटना कोई सर्वमान्य सिद्धांत नहीं हो सकता। यह तो नैतिक पतन का परिचायक होगा। पर अपने रिश्तेदारों और मित्रों की अपनी क्षमता अनुसार आवश्यकता पूरी करना हरेक साधन सम्पन्न भारतीय का फर्ज माना जाता है। इतना भी अगर न कर सके तो उसके बड़े होने या पढ़ने लिखने का क्या लाभ ?
दरअसल काली मेमसाहबों को अपने रवैये में भारी परिवर्तन करने की जरूरत है। अब वो जमाने नहीं रहे जब हाकिमों की हुकूमत चला करती थी। वैश्वीकरण, उदारीकरण और उपभोक्तावाद के दौर में अब पूछ उनकी होगी जो बड़े औद्योगिक या व्यवसायिक प्रतिष्ठानों से जुड़े होंगे। जिनमें हुनर होगा, काबिलियत होगी, जीवन मे आगे बढ़ने की आग होगी। ऐसे में आने वाले समय में काली मेमसाहबों को बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ेगा। बेहतर हो कि वे इस यथार्थ को समय रहते पहचान लें और अपने रवैये को बदलें। जिस तरह कोई जज घर में निर्णय नहीं सुना सकता। कोई पत्रकार घर की खबर बाहर नहीं छाप सकता। कोई वैज्ञानिक रसोई को प्रयोगशाला नहीं बना सकता। इसी तरह अफसरी और हाकिमी अपने कार्य क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये होती है, नातेदारों पर रौब गांठने के लिये नहीं। काली मेमसाहबों को अपने नातेदारों और मेहमानों के प्रति मानवीय व्यवहार करना चाहिये। उनका यथोचित सम्मान करना चाहिये।उनके दुख दर्द में शामिल होना चाहिये। इससे न सिर्फ उनके चाहने वालों का दायरा बढ़ेगा बल्कि उन्हें जीवन में कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा। विस्तृत परिवार हमारी सामाजिक व्यवस्था का एक सुदृढ़ स्तम्भ है। प्रसिद्ध अमरीकी समाजशास्त्री तालकाॅट पार्सन ने भारतीय समाज की इस विशेषता को उसका आधार स्तम्भ बताया है। उनका मानना कि तमाम संघर्षों और तनावों के बावजूद अगर भारतीय समाज आज भी एकजुट खड़ा तो वह इसी विस्तृत परिवारवादी भावना का परिणाम है। इसे तोड़ देने से हम अपनी आने वाली पीढि़यों को विरासत में मात्र शून्य देकर जायेंगे। अगर रिटायरमेंट के बाद लम्बे समय तक अकेले रहना पड़ा, बच्चे हुए तो भी अमरीका जा बसे, तो बेरुखी काली मेमसाहब क्या करेंगी ? किसके दरवाजे पर जाकर दस्तक देंगी ? नौकरी में रहकर नौकरी का सा जीवन स्तर बनाये रखना और अपने पति के साथ काम करने वाले अफसरों से मिलना जुलना कोई अपराध नहीं है। यह तो सामान्य सी बात है पर असमान्य तब हो जाती है जब सत्ता के मद में होकर हम अपनों को भूल जाते हैं। उन्हें याद रखना और अपने बच्चों को सही संस्कार देना गृहलक्ष्मी का फर्ज है। इसलिये अफसरों से ज्यादा उनकी बेगमों को सुधरने की जरूरत है।

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