Friday, January 11, 2002

ऐसे भी हैं मुख्यमंत्री


आज जबकि ज्यादातर राजनेता जनता के बीच अपनी खराब छवि के कारण अलोकप्रिय हो रहे हैं कुछ ऐसे मुख्यमंत्री भी हैं जो अपनी कार्यकुशलता के कारण जनता में लोकप्रिय हो रहे हैं। इस क्रम में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.एम. कृष्णा और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम सबसे ऊपर है। इन मुख्यमंत्रियों ने कार्यकुशलता और प्रशासनिक जवाबदेही की अच्छी मिसाल कायम की है। आज से पहले जो लोग हैदराबाद गए होंगे उन्हें यह देखकर आश्यचर्य होगा कि हैदराबाद अब एक सजा-संवरा शहर बन चुका है। शहर की सफाई रात के 10 बजे से सुबह 4 बजे के बीच पूरी हो जाती है। जिस समय महापालिका के कर्मचारी और अधिकारी हैदराबाद की सड़कों पर घूम-घूम कर सफाई के काम को अंजाम देते हैं। इसलिए हैदराबाद शहर में आपको कहीं भी कूडे़ का ढेर नजर नहीं आएगा। इतना ही नहीं हैदराबाद की सड़कों पर से अवैध कब्जे हटा दिए गए हैं। फुटपाथो को रंग-पोत कर साफ कर दिया गया है। अलबत्ता हैदराबाद के ट्रैफिक को अनुशासित करने मेें श्री नायडू के अधिकारी अभी सफल नहीं हुए हैं। हैदराबाद में ट्रैफिक आज भी वाहन चालकों की मनमानी चाल पर ही चलता है। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि हैदराबाद की सड़कों पर भिखारी कहीं भी दिखाई नहीं देते। दीवारों पर नारे और पोस्टर लगाने की भी मनमानी तरीके से छूट नहीं है। जाहिर है कि हैदराबाद की नागरिक सेवाओं की गुणवत्ता में आए इस सुधार के लिए श्री नायडू को काफी प्रयास करना पड़ा होगा। इसके लिए उन पर स्थानीय नेताओं और दबाव समूहों के अनावश्यक दबाव भी आए होंगे। लोगों ने उनके सुधार कार्यक्रमों का विरोध भी किया होगा। अवैध कब्जे हटाते समय उन्हें अपने वोट बैंक के खोने का भय भी रहा होगा। पर लगता है कि श्री नायडू ने इन सब बातों की परवाह किए बगैर नागरिक जीवन को सुधारने का बीड़ा उठाया और उसमें उन्हें भारी कामयाबी मिली।
इतना ही नहीं हैदराबाद के भवन निर्माण क्षेत्रों व अन्य कार्यक्षेत्रों में काम की संस्कृति में भारी सुधार आया है। वहां काम करने वाले मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उनका हेल्मेट पहनना अनिवार्य कर दिया गया है। वे इस नियम का पालन भी कर रहे हैं। नतीजतन अब हैदराबाद में हर मजदूर हेल्मेट पहनकर ही काम नहीं करता बल्कि समय पर काम शुरू करता है और कुछ समय के लंच विश्राम के अलावा बाकी सब समय बड़ी तत्परता से काम करता है। पूरे हैदराबाद के माहौल में चुस्ती, फुर्ती व कर्तव्यपरायणता पग-पग पर दिखाई देती है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि श्री नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ही न होकर सीईओ हैं। इसीलिए वे हर क्षेत्र में कार्यकुशलता और गुणवत्ता लाने के पक्षधर हैं। सब जानते हैं कि चन्द्रबाबू नायडू ने अपना जीवन एक दामाद के तौर पर शुरू किया था। उनकी ख्याति सिर्फ इतनी सी थी कि वे आंध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्य मंत्री एन.टी. रामा राव के दामाद थे। पर इतने वर्षों में उन्होंने स्वयं को एक दामाद की जगह एक युगदृष्टा के रूप में विकसित कर लिया है। ऐसा व्यक्ति जो समाज में सही परिवर्तन लाने की दिशा में निरंतर सक्रिय हो। 
जातिगत और क्षेत्रीय स्वार्थों में उलझे भारतीय लोकतंत्र में आज ऐसी परिस्थियां विकसित हो गई हैं कि चुनाव जीतने के लिए राजनेता को अच्दा काम करने की जरूरत नहीं होती बल्कि उसे हर परिस्थिति में राजनैतिक लाभ कमाना आना चाहिए। इसलिए कई बार अच्छा काम करने वाले राजनेता भी चुनाव में वांछित सफलता नहीं पाते, जो कि उन्हें मिलनी चाहिए। जबकि गुंडे और मवाली चुनाव प्रक्रिया का अवैध फायदा उठाकर चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते हैं। इसलिए चन्द्रबाबू नायडू का काम उनके मतदाताओं को पसंद आएगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता है पर इतना निश्चित है कि अपनी मेहनत और लगन से चन्द्र बाबू नायडू ने आज के राजनीतिज्ञों के बीच प्रमुख हैसियत बना ली है। ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में सक्रिय होना चाहिए। दिल्ली पर मात्र रिमोट कंट्रोल से काम नहीं चलेगा।
 जो काम श्री नायडू ने आंध्र प्रदेश में किया है वहीं काम राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने भी किया है। राजस्थान के समझदार नागरिकों का कहना है कि श्री गहलोत ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ मुख्य मंत्री हैं। उनकी सादगी और ईमानदारी की पूरे राजस्थान में प्रशंसा हो रही है। जयपुर शहर भी क्रमशः हैदराबाद की तरह ही साफ और सुंदर होता जा रहा है। इस शहर का वायु प्रदूषण लगभग समाप्त हो चुका है। भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ सरकार शिकंजा कसती जा रही है। श्री गहलोत को सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब उन्होंने सरकारी कर्मचारियों की लंबी हड़ताल से डरे बिना हड़ताली सैकड़ों कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया। सरकार में बैठकर काम चोरी करने वालों को पहली बार यह एहसास हुआ कि वे सरकार को दबा नहीं पाएंगे। श्री गहलोत के इस एक निर्णय से प्रशासन में उनका डर बैठ गया। दूसरी तरफ बिजली की चोरी रोकने में भी श्री गहलोत को अभूतपूर्व सफलता मिली। प्रदेश में यह आलम था कि छोटे लोग ही नहीं बड़े-बड़े उद्योगपति तक बिजली की भारी चोरी करने में जुटे थे। सरकार को करोड़ों रूपए के राजस्व का घाटा हो रहा था। अब सब बिलबिला रहे हैं। ऐसे ही निहित स्वार्थ श्री गहलोत के खिलाफ दुष्प्रचार में जुटे हैं। पर श्री गहलोत अपनी कर्तव्यनिष्ठा से जनता के बीच लोकप्रिय होते जा रहे हैं। प्रदेश में आर्थिक संकट से निपटने के लिए श्री गहलोत ने कई कदम उठाए। उन्होंने सरकारी फिजूलखर्ची पर काफी हद तक रोक लगाने में सफलता हासिल की। कुछ  लोगों का आरोप है श्री गहलोत के इर्द-गिर्द रहने वाले उनकी शराफत का नाजायज फायदा उठाकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं। जिनसे श्री गहलोत को सावधान रहना होगा। वरना उनके किए कराए पर पानी फिर जाएगा।
 इसी तरह कर्नाटक के मुख्यमंत्री श्री एसएम कृष्ण की कार्यशैली भी सराही जा रही है। ये तीन मुंख्यमंत्री बाकी मुंख्यमंत्रियों के लिए मिसाल बन गए हैं। इनका काम यह सिद्ध करता है कि अपनी असफलता के लिए व्यवस्था को दोष देने वाले राजनेता दरअसल खुद ही प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारना नहीं चाहते। वरना ऐसी कामयाबी हर राज्य में मिल सकती है। यह इत्त्फाक ही है कि इन तीनों मुख्यमंत्रियों में से भाजपा के एक भी नहीं। दो इंका के हैं और एक तेलगूदेशम का। इन मुख्यमंत्रियों का काम पश्चिमी बंगाल सरकार के लिए भी एक सबक है। क्या वजह है कि पश्चिमी बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार पिछले बीस वर्ष सत्ता में रहने के बाद भी काम के ऐसे मानदंड स्थापित नहीं कर पाई ? इससे एक बार फिर यह सिद्ध हो गया है कि व्यवस्था कोई भी हो अगर उसके चलाने वाले सही नहीं है तो वह व्यवस्था नहीं चल सकती। किंतु यदि चलाने वाले सही हों तो व्यवस्था कैसी भी क्यों न हो काम करने लगती है। हमने लोकतंत्र अपनाया था इसलिए ताकि विविधता में एकता वाले इस विशाल राष्ट्र के हर नागरिक को सत्ता संचालन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी रहे। पर दुर्भाग्य से लोकतंत्रिक संस्थाओं का ऐसा पतन हुआ है कि जनप्रतिनिधि अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। राजनैतिक ब्लैकमेलिंग, दलाली, अपराधियों को संरक्षण व समाज में द्वेष फैलाकर अपना फायदा देखने वाले आज राजनीति में ज्यादा हावी हो रहें। ऐसे में श्री नायडू व गहलोत आशा की किरण लेकर सामने आए हैं। इन्हें जरूरत है मजबूत हाथों की जो इनके कामों में इनकी मदद करे। प्रदेश की युवा पीढ़ी, सेवानिवृत्त कुशल अधिकारी और राजनैतिक कार्यकर्ता इनके साथ स्वयं सेवी रूप में जुड़ कर विभिन्न कार्यक्रमों की स्थिति पर निगरानी रख सकते हैं। प्रशासक और प्रजा के पारस्परिक सहयोग से ही भारत के विभिन्न प्रांतों का विकास संभव है।
यह आश्चर्य की बात है कि हमारे टीवी चैनलों पर ऐसा काम करने वाले राजनेताओं को ज्यादा तरजीह नहीं दी जा रही है। या तो ये लोग अपने काम में इतने मशगूल हैं कि इन्हें मीडिया प्रचार से ज्यादा अपने काम को अंजाम देने की चिंता है। या फिर मीडिया की रूचि ऐसे कर्तव्यनिष्ठ लोगों में कम और चटपटी खबरें बनाने वाले लालू यादव जैसे विवादास्पद राजनेताओं में ज्यादा है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इन लोगों के अच्छे काम को देश भर में प्रचारित किया जाए ताकि दूसरे राजनेता भी इनसे प्रेरणा लें और राजनीति की संस्कृति को टांग घसीटी से निकाल कर रचनात्मक दिशा में ले जाएं ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदलते परिवेश में भारत का लोकतंत्र और भी ज्यादा मजबूती के साथ दुनिया के सामने उभर कर आएं।

Friday, January 4, 2002

युद्ध के लिए चाहिए अमरीका की हरी झंडी

कोई भी देश अपनी सार्वभौमिकता का कितना ही दावा क्यों न करे हकीकत यह है कि अब दुनिया में अमरीका की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो या न हो इसका फैसला भी शायद अमरीका की मर्जी के बिना नहीं हो पाएगा। यूं युद्ध के हालात बनते जा रहे हैं। दोनों तरफ से तैयारी जोरों से चल रही है। भारतीय फौजों को सीमा तक पहुंचने में अभी तीन हफ्ते और लगेंगे। पर सवाल है कि क्या वाकई युद्ध होगा ? जानकारों का कहना है कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अमरीका की मंशा क्या है ? अगर अमरीका नहीं चाहता कि युद्ध हो तो युद्ध नहीं होगा। चाहे दोनों तरफ भावनाओं का कितना ही उबाल उठता रहे। आज की तारीख तक पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर अमरीका के विमान तैनात हैं जिन्हें अफगानिस्तान पर हमला बोलने के लिए लगाया गया था। पाकिस्तान के हवाई अड्डों से अमरीकी सैन्य सामग्री को हटाये बिना भारत पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर हमले नहीं कर सकता। अमरीका इन्हें तब तक नहीं हटायेगा जब तक यह उसकी सामरिक रणनीति को पूरा करने में काम आ रहे। अमरीकी विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि अमरीका आजतक पाकिस्तान को एक सहयोगी के रूप में देखता आया था। पर पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि पाकिस्तान हमेशा से दोगली नीति चलता रहा है। पूरी दुनिया खासकर यूरोप के देश अब इस बात से आश्वस्त हो गये हैं कि दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद को पूरी मदद और संरक्षण पाकिस्तान से ही मिलता रहा है। जब तक इस्लामी आतंकवाद का निशाना भारत जैसे दूसरे देश थे तब तक धनी देशों को कोई चिन्ता न थी। पर वर्ड ट्रेड सेन्टर पर 11 सितम्बर को हुए हमले के बाद अब यह साफ हो गया कि यूरोप और अमरीका के देश इस्लामी आतंकवाद के निशाने पर हैं। आतंकवादी कभी भी कहीं भी हमला करने में सक्षम हैं। फिदाई आतंकवादियों ने यूरोप और अमरीका के लोगों की नींद हराम कर दी है। 11 सितम्बर के बाद अमरीका की अर्थव्यवस्था को अभूतपूर्व झटका लगा है। उसकी वायु सेवाऐं भंवर में फंस गई हैं। बाजारों पर मंदी छा गई है। पर्यटन उद्योग हिल गया है। यूरोप और अमरीका अब यह समझ गये हैं कि अगर आतंकवाद पर काबू न पाया गया तो उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। इसलिए वे हाथ-धोकर इस्लामी आतंकवादियों के पीछे पड़ गये हैं।

अमरीका को डर यह है कि पाकिस्तान के पास आणविक हथियारों का जो जखीरा है वह कहीं आतंकवादियों के हाथ न पड़ जाए। ऐसा हुआ तो दुनिया को भयावह परिणाम झेलने पड़ेंगे। इसलिए अमरीका हर कीमत पर पाकिस्तान पर अपना नियंत्रण और दबाव बनाये रखना चाहता है। अगर भारत-पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान कमजोर होता है, टूटता है, विभाजित होता है तो अब उसके लिए दुनिया में आंसू बहाने वाला कोई नहीं। कहते हैं कि दूसरे के लिए कुआं खोदने वाला खुद खाईं में गिर जाता है। अफगानिस्तान में तालिबान को समर्थन देकर पाकिस्तान ने सोचा था कि वो अफगानिस्तान को ढाल की तरह इस्तेमाल करेगा। इस तरह उसकी आतंकी गतिविधियों पर पर्दा पड़ा रहेगा और अफगानिस्तान ही दुनिया में आतंकी देश के नाम से जाना जायेगा। इस काम के लिए पाकिस्तान ने आर्थिक तंगी के बावजूद सैकड़ों करोड़ रूपया पानी की तरह बहाया। यही काम उसने कश्मीर की घाटी में भी किया। पर उसकी ये नीति आज उसके गले का फंदा बन गई। तालिबान के पतन के बाद ये तमाम पैसा तो बर्बाद हुआ ही दुनिया के सामने उसकी पोल खुल गई। वो आतंकवादी देश के रूप में उभर कर सामने आया। अब पाकिस्तान के शासक बुरी तरह घिर गये हैं। अगर वे अमरीका का साथ छोड़ते हैं तो गृह-युद्ध में मारे जायेंगे और अगर अमरीका का साथ निभाते हैं तो अब भविष्य में आतंकवाद को समर्थन नहीं दे पायेंगे। कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान की विदेश नीति बुरी तरह विफल हुई है। लेकिन अमरीका को मात्र इससे सन्तोष नहीं होगा । जब तक पाकिस्तान के आणविक हथियारों को नष्ट नहीं किया जाता या उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण में नहीं रखा जाता तब अमरीका और यूरोप के देश चैन की नींद नहीं सो सकते। भारत-पाक युद्ध से अगर यह मकसद पूरा होता है तो अमरीका भारत को न सिर्फ युद्ध की अनुमति देगा बल्कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद भी करेगा। अगर ऐसा नहीं होता तब शायद उसकी रुचि दक्षिण एशिया में शान्ति बनाये रखने की ही हो।
हर युद्ध का इतिहास बताता है कि युद्ध लड़ने के कई गुप्त कारण भी हुआ करते हैं। हर युद्ध से सबसे ज्यादा लाभ हथियारों के सौदागरों को होता है। चाहे वे घरेलू हों या विदेशी। अगर भारत-पाक युद्ध होता है तो निःसन्देह कमजोर अर्थव्यवस्था की मार झेल रहे भारत पर अनावश्यक आर्थिक बोझ बढ़ेगा। किन्तु इससे भारत में रक्षा उपकरणों और हथियारों की मांग तेजी से बढ़ जायेगी जिसका फायदा उठाने से कोई नहीं चूकेगा। न तो देशी सौदागर न विदेशी। आज की परिस्थितियों में यदि भारत-पाक युद्ध होता है तो उसका सीधा लाभ अमरीका को मिलेगा। क्योंकि भारत उससे हथियार खरीदेगा। जिससे अमरीका की अर्थव्यवस्था में उछाल आयेगा। इधर युद्ध से ध्वस्त हुई दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर आने में कुछ वक़्त लगेगा। इस दौर में घरेलू मांग को पूरा करने के लिए भी इन देशों को भारी मात्रा में आयात करना पड़ेगा। जिसका फायदा अमरीका उठायेगा ही। इतना ही नहीं चीन भी इस मौके पर फायदा उठाने से नहीं चूकेगा। भारत की भौगोलिक सीमाओं से जुड़ा होने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि भारत के घरेलू बाजार को अपने माल से पाटना चीन को बहुत सुविधाजनक लगेगा। इसलिए उसकी रुचि इस युद्ध के हो जाने में ही होगी। यह सही है कि चीन दक्षिण एशिया में भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनते हुए नहीं देख सकता। पर भारत-पाक युद्ध से उभर कर भारत कूटनीतिज्ञ सफलता भले ही प्राप्त कर ले, उसकी ताकत ज्यादा नहीं बढ़ेगी। वैसे भी चीन और पाकिस्तान के बीच कोई रक्षा समझौता तो है नहीं जो चीन पाकिस्तान की मदद को दौड़ा आये। चीन अब क्या मदद को आयेगा जब 1971 में ही नहीं आया। तब तो भारत इतना शक्तिशाली भी नहीं था। फिर भी जब भारतीय फौजें पूर्वी क्षेत्र में पूर्वी पाकिस्तान (बंगला देश) के भीतर बढ़ रही थीं तब अगर चीन पूर्वी क्षेत्र में अपनी हलचल बढ़ा देता तो भारत के लिए विकट स्थिति खड़ी हो जाती। उसे अपनी सीमित फौजों को कई मोर्चों पर लड़वाना पड़ता। पर चीन ने ऐसा नहीं किया। इसलिए अब ऐसा नहीं लगता कि चीन पाकिस्तान की मदद को दौड़ा आयेगा । वैसे भी इस्लामी कट्टरवाद पूर्व के सोवियत यूनियन के चेचन्या जैसे इलाकों में फैल रहा है। उससे चीन का सर्तक होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि पश्चिमी चीन के कई प्रान्त मुस्लिम आबादी वाले हैं। अगर इन प्रान्तों में भी इस्लामी कट्टरवाद फैल गया तो चीन के लिए मुश्किल खड़ी हो जायेगी। इसलिए ऊपर से चाहे जितना मीठा बने, चीन इस लड़ाई में पाकिस्तान की ठोस मदद नहीं करेगा।

भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने इजराइल से अपने जो संबंध पिछले वर्षों में विकसित किए हैं वे भी इस युद्ध में काम आ सकते हैं। लेबनान के आतंकवाद से त्रस्त इजराइल ऐसी परिस्थिति में भारत की मदद करने से नहीं चूकेगा। बहुत आश्चर्य नहीं होगा अगर इजराइल अपनी पैट्रीयाट मिसाइल भारत को दे दे। इस तरह भारत-पाक युद्ध में अगर भारत की निर्णायक जीत होती है तो इसमें शक नहीं कि देश में आतंकवाद काफी हद तक घट सकता है। क्योंकि तब उसे पाकिस्तान की सरपरस्ती नहीं मिलेगी। इसलिए गृहमंत्री का ताजा बयान महत्वपूर्ण है कि अगर लड़ाई होती है तो निर्णायक हो। उधर जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां के भाजपाईयों में यह चर्चा चल पड़ी है कि अगर भारत-पाक युद्ध होता है तो इसका पूरा लाभ उन्हें चुनाव में मिलेगा। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि सत्तारूढ़ दलों की रुचि इस युद्ध के हो जाने में ही है। कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब में यह साफ कहा कि आतंकवाद इस चुनाव में मुद्दा बनेगा। जब उनसे पूछा गया कि क्या अयोध्या में मन्दिर का निर्माण भी उनका चुनावी मुद्दा होगा तो उनका उत्तर था कि मन्दिर कभी चुनावी मुद्दा नहीं रहा। दरअसल भाजपा के नेतृत्व की सोच में आये इस अप्रत्याशित बदलाव की पृष्ठभूमि में यह तथ्य है कि पिछले एक वर्ष में अयोध्या मन्दिर के सवाल को लेकर विहिप के सभी प्रयास जन-भावनाऐं उकसाने में विफल रहे हैं। इसलिए उन्हें यह मुद्दा अब चुनाव के लिए सार्थक नहीं लगता। उत्तर प्रदेश की जनता के बीच विपक्षी दल गुपचुप यह प्रचार करने में जुटे हैं कि भारत-पाक के बीच युद्ध का माहौल चुनावों को ध्यान में रख कर बनाया जा रहा है। शायद यही कारण है कि भाजपा के नेता उत्तर प्रदेश में भीड़ को आकर्षित करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। देश में इस बात की चर्चा है कि अगर इस मौके पर केंद्रीय गृह मंत्री आईएसआई की गतिविधियों पर एक श्वेतपत्र जारी कर दें तो उससे लोगों की भ्रांती काफी दूर होगी और उन्हें मौजूदा हालात में सरकारी कदमों की सार्थकता का औचित्य समझ में आ जाएगा। वैसे जन-भावनाओं का कोई भी आकलन इस समय नहीं किया जा सकता। मूलतः भावावेष में बहने वाली भारतीय जनता का हृदय कब पलट जाये, नहीं कहा जा सकता। युद्ध की मानसिकता राजनैतिक दुश्मनों को भी मित्र बना देती है। फिर जनता तो बिचारी आसानी से भावावेश में आ सकती है।

कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि युद्ध होगा कि नहीं, साफ नहीं कहा जा सकता। पर इतना तय है कि इसका फैसला वाशिग्टन से हरी झंडी मिलने के बाद ही होगा। अगर युद्ध होता है तो उसमें सबसे ज्यादा तबाही पाकिस्तान की होगी। पाकिस्तान यह बखूबी जानता है, इसलिए वहां युद्ध को लेकर कोई उत्साह नहीं है। जबकि भारत में इस बात पर गंभीर चिंतन चल रहा है कि अगर इस मौके का फायदा उठाकर भारत ने पाकिस्तान की लगाम नहीं कसी तो भविष्य में शायद ऐसा मौका जल्द नहीं आए।

Friday, December 21, 2001

क्या पाक पर हमला जरूरी है ?

सारे देश में बहस छिडी है कि भारत को पाक अधिकृत कश्मीर पर हमला करना चाहिए या नहीं? दोनों ही पक्षों में अलग-अलग तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। दरअसल संसद पर आतंकवादी हमले के बाद देश का निजाम बुरी तरह हिल गया है। आशंका तो थी पर ये न मालूम था कि हमलावर इतनी आसानी से लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था में घुसे चले आएंगे। अगर उपराष्ट्रपति के काफिले से आतंकवादियों की कार अचानक टकराई न होती तो बहुत बड़ा हादसा हो सकता था। इसीलिए विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर हमला बोल रखा है। उनका कहना है कि जब यह बात मालूम थी कि आंतकवादियों के निशाने पर संसद है तो क्यों नहीं सावधानी बरती गई ? आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई में सरकार का हर तरह से साथ देने को तैयार विपक्ष यह स्वीकारने को तैयार नहीं है कि संसद पर हमले में सरकार ने अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया। भारी दुर्घटना को टाल देने के लिए सभी एकमत से उन सुरक्षाकर्मियों की तारीफ कर रहे हैं जिन्होंने अपनी जान पर खेल कर संसद की रक्षा की। उधर सरकार आतंकवादियों के इस दुस्साहस के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार मानकर उस पर हमला करने का मन बना रही है।

सभी ये मानते हैं कि भारत में आतंकाद फैलने में सबसे बड़ी भूमिका पाकिस्तान की रही है। इस बात के तमाम सबूत भारत सरकार के पास मौजूद हैं। कुछ सबूत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करके भारत ने अपने प्रति दुनिया भर की सहानुभूति बटोरी है। यह हमारी विदेश नीति की सफलता है। विदेश मंत्री जसवंत सिंह कारगिल युद्ध के समय से ही अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम देते आए हैं। 11 सितंबर के हमले के बाद तो अमरीका का रवैया भी बदला है। कश्मीर में फैले आतंकवाद को आज तक आजादी की लड़ाई मानने वाले देश अब यह समझ गए हैं कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसमें स्थानीय नागरिकांे की नहीं बल्कि भाड़े के आयातित आतंकवादियों की भूमिका ज्यादा है। जिन्हें पाकिस्तान की संस्था आईएसआई बाकायदा प्रषिक्षण, धन और हथियार देकर भारत भेजती रही है। इसलिए पाकिस्तान के प्रति कड़ा रूख अपनाना जरूरी है। पर देश के रक्षा विशेषज्ञ इस बारे में एकमत नहीं हैं। उनका मानना है कि ऐसा करना अपरिपक्वता का निशानी होगा। क्योंकि 11 सितंबर के बाद अब पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों के शिविर हटा दिए गए हैं। इसलिए हमला करके भी कुछ मिलने वाला नहीं है। अमरीका अफगानिस्तान के विरूद्ध युद्ध में इसलिए कामयाब हो सका क्योंकि उसने इस युद्ध में भारी तादात में संसाधन भेजे, मगर सामने से लड़ने वाले अफगानी संसाधन हीन थे। फिर उसने अफागानियों से लड़वाया भी अफगानियों को ही। जबकि पाक अधिकृत कश्मीर पर अगर भारत हमला करता है तो पाकिस्तान चुप नहीं बैठेगा। वह भी पूरी ताकत लगा कर लड़गा। चीन भी शायद उसकी मदद को कूद पड़े। ऐसे में भारत एक लंबी लड़ाई में उलझ सकता है। जिसका विपरीत असर पहले से लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है। पर इस लड़ाई से भाजपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में फायदा नजर आ रहा है। उसे उम्मीद है कि अगर विहिप राम मंदिर का सवाल उठा ले और भारत पाक के बीच संघर्ष हो जाए तो उसका काम बन जाएगा। लोगों की भावनाएं भड़काने में माहिर भाजपा यह नहीं चाहती कि किसी भी कीमत पर उत्तर प्रदेश की गद्दी उसके हाथ से छिने। अगर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा अच्छा प्रदर्शन नहीं करती तो उसकी केंद्र सरकार को भी भारी खतरा पैदा हो जाएगा। क्याकि तब भाजपा की केंद्र सरकार के सहयोगी दल अपने प्रांतों में होने वाले चुनावों में अपनी स्थिति बचाने के लिए भाजपा से पलड़ा छुड़ाना चाहेंगे। सत्तरूढ दल के लोग यह बात अच्छी तरह से जानते हैं इसलिए पाकिस्तान पर हमले की मांग को सबसे पहले भाजपा सांसदों ने ही हवा दी। उनका यह उत्साह भावनाएं तो भड़का सकता है पर आतंकवाद का समाधान नहीं निकाल सकता। भारत में आतंकवाद की समस्या बड़ी पेचिदा है। आतंकवाद के पनपने में कई चीजें काम करतीं हैं। मसलन धार्मिक स्कूलों या मदरसों में दी जा रही एकतरफा शिक्षा। गरीब युवाओं की बेरोजगारी जो उन्हें आतंकवादियों के सरगनाओं से मदद लेने को प्रेरित करती है। पैसे के लालच में ये युवा अपना सब कुछ गंवाने को तैयार रहते हैं। मजहब के नाम पर इनकी ऐसी दिमागी धुलाई की जाती है कि ये आतंकवाद को जेहाद का हिस्सा मानते हैं और अपने धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार रहते हैं। संसद पर हमले में शामिल आतंकवादी युवा खासे पढ़े-लिखे थे। वल्र्डट्रेड सेंटर पर हमले के बाद जब अमरीकी सरकार ने उन हमलों में शामिल आतंकवादियों के अतीत की जांच करवाई तो उसे यह जानकर काफी हैरानी हुई कि ये नौजवान पढ़े-लिख और संपन्न घरों से थे। अमरीका में इस बात पर सघन अध्ययन किया जा रहा है कि पढ़े-लिखे आधुनिक लोग भी इस तरह मजहब के नाम पर अपनी जान कुर्बान करने के लिए कैसे तैयार हो जाते हैं ? यही सवाल भारत के सामने भी है। अगर पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत हमला करके कामयाबी भी हासिल कर ले तो भी आतंकवाद की घटनाओं से बचा नहीं जा सकता। कारण स्पष्ट है- आतंकवादी किसी एक संगठन या इलाके से जुड़े हुए नहीं हैं। सारे देश और विदेशों में फैले हैं। उन्हें आसानी से पकड़ा भी नहीं जा सकता क्योंकि उन्हंे कुछ स्थानीय नागरिकों का संरक्षण भी प्राप्त है। उनकी रणनीति गुरिल्ला है। वे मार कर गायब हो जाते हैं। चूंकि हवाला के जरिए देश में अरबों रूपया रात दिन आकर आतंकवादियों के बीच बंटता रहता है इसलिए वे निश्चिंत होकर अपने नापाक इरादों को अंजाम देने में लगे रहते हैं। संसद पर हमला करने वालों को भी हवाला के जरीए लाखों रूपया बाहर से आया था। इसलिए जब तक देश के भीतर आतंकवादियों के आर्थिक नेटवर्क को नहीं तोड़ा जाता तब तक कुछ खास होने वाला नहीं है। आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में इस बात की खुल कर चर्चा हो रही है कि आतंकवाद को अगर रोकना है तो हवाला नेटवर्क को रोकना होगा। क्योंकि पूरी दुनियां में आतंकवादियों को पैसे हवाला के जरिए ही पहुंच रहे हैं। पर भारत सरकार इस मामले पर खतरनाक चुप्पी साधे बैठी है। बड़े दुख की बात है कि 1991 में सीबीआई को कश्मीर के आतंकवादियों पर मारे गए एक छापे में मिले तमाम सबूतों के बावजूद हवाला कांड को हर स्तर पर बड़ी बेशर्मी से दबा दिया गया। जिसके तमाम सबूत हमारे पास मौजूद हैं। पर उनका जिक्र भर करने से संन्नाटा छा जाता है। सारे राजनैतिक नाटक बेनकाब हो जाते हैं। इस कोताही का नतीजा यह हुआ कि आतंकवादियों के बीच यह संदेश चला गया कि भारत की सरकार और उसकी जांच एजेंसियां आतंकवाद के हवाला स्रोतों को पकड़ने में रूचि नहीं ले रही हैं। आतंकवादियों को यह भी समझ में आ गया कि हवाला के इस अवैध तंत्र से फायदा उठाने वालों में देश के बड़े राजनैतिक दलों के सबसे सशक्त राजनेता भी शामिल हैं। इसीलिए उन्होंने जैन हवाला कांड जैसे महत्वपूर्ण मामले को दबवा दिया। इससे आतंकवादियों के हौसले और बढ़ गए। अगर 1991 से ही जैन हवाला कांड की ईमानदारी से जांच की गई होती तो आज आतंकवाद इस हद तक न फैल पाता। क्योंकि तब हवाला के पूरे नेटवर्क का पर्दाफाश हो जाता। आश्चर्य की बात है कि देश के बड़े नेता और वकील टीवी चैनलों पर आकर पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात तो कह रहे है पर आज तक किसी ने किसी चैनल पर या संसद में या फिर पत्रकारों के सामने जैन हवाला कांड की जांच में हुई कोताही का जिक्र नहीं किया, क्यों ? उन्होंने भी नहीं जिनके दल के नेताओं का नाम इसमें नहीं आया था। अन्य सभी घोटालों पर शोर मचाने वालों को हवाला कांड पर चुप रह जाना उनकी राजनैतिक मजबूरी है तो फिर वे किसी आधार पर आकर एक-दूसरे को कोसने का नाटक करते रहते हैं ?

इन हालातों में यह जरूरी है कि देश की भावनाओं को भड़काए बिना पूरी स्थिति का ठंड़े दिमाग से मूल्यांकन किया जाए। आतंकवाद से निपटने के लिए श्रीकेपीएस गिल जैसे लोगों को देश का सुरक्षा सलाहकार बनाया जाए और जैन हवाला कांड जैसे कांडों को दबाने के लिए जिम्मेदार पुलिस अफसरों व नेताओं के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवा कर अपराधियों को सजा दी जाए। यदि ऐसा होता है तो पूरे देश के पुलिस अधिकारियों के सामने एक आदर्श संदेश जाएगा। वह यह कि अगर किसी ने भी आतंकवादियों या उन्हें संरक्षण और मदद देने वालों को पकड़ने में कोताही की तो उस पुलिसकर्मी को आतंकवादियों से मिला हुआ मानकर सजा दी जाएगी। संत तुलसी दास जी कह गए हैं, ‘भय बिन होय न प्रीत।’ इसलिए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का यह कहना महत्वपूर्ण है कि अब वे आतंकवाद से निपटने में मात्र शब्दों से ही काम नहीं चलाएंगे बल्कि कुछ कर दिखाएंगे। अगर वाकई ऐसा होता है तो निसंदेह उसकी छवि सुधरेगी। पर इसके साथ यह अनिवार्य शर्त होगी कि आतंकवाद को अवैध आर्थिक मदद पहुंचाने के तंत्र का पर्दाफाश करने वाले जैन हवाला कांड जैसे कांडों की भी निष्पक्ष जांच करवाई जाए। इससे भारत सरकार की गरिमा और विश्वसनीयता बढ़ेगी। अगर ऐसा नहीं होता तो यह साफ हो जाएगा कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर सत्तारूढ़ दल केवल राजनैतिक लाभ कमाना चाहता है। उसकी रूचि आतंकवाद को खत्म करने की नहीं है। यह बहुत दुखद स्थिति होगी। इसलिए पाक पर हमले से पहले हम अपने गिरबां में झांकें कि क्या हमने देश के भीतर ही आतंकवाद को रोकने के सभी वांछित कदम उठा लिए है ? अगर नहीं तो क्यों नहीं ?

Friday, November 30, 2001

उत्तर प्रदेश में दंगल की तैयारी


 30-11-2001_PK
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह की मेहनत रंग ला रही है। प्रदेश की हवा बदलने लगी है। कुछ महीनों पहले तक उत्तर प्रदेश के मतदाता भाजपा के शासन से खुश नहीं थे। इसलिए लगता था कि आगामी विधान सभा चुनावों में भाजपा काफी पीछे छूट जायेगी। चूंकि इंका कोई विकल्प देने की स्थिति में नहीं आ पाई इसलिए मुलायम सिंह को सपा के लिए रास्ता साफ दिखाई दे रहा था। पर जब से राजनाथ सिंह ने मोर्चा संभाला है तब से लोगों को लगा कि प्रदेश सरकार का तौर तरीका    सुधरने लगा। इसीलिए भाजपा खेमे में उम्मीद बंधी कि चुनावी हवा उनके पक्ष में भी हो सकती है। आमतौर पर सत्तारूढ़ दल से मतदाता नाराज रहता है और उसके विरोधी दल को चुनना पसंद करता है। पश्चिमी बंगाल इसका एक अपवाद रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश में कोई भी दल अकेले सरकार बनाने की हैसियत नहीं रखता। दलितों की एक खास जाति के वोट मायावती की बसपा के लिए समर्पित है जिनके आधार पर बसपा की सीटें जीतना तय है। यही कारण है कि पिछले कई वर्षों से उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने या गिराने में बसपा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आगामी विधान सभा चुनाव में बसपा की यही स्थिति बनी रहने की पूरी सम्भावना है।
उधर इंका का प्रदेश नेतृत्व इतना ढीला है कि न तो वह प्रदेश में अपनी पहचान बना पाया है और न ही इंका के कार्यकर्ताओं का उसमें विश्वास है। हर शहर और गांव में इंका से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए लोगों की कमी नहीं है। पर ये तमाम पुराने कांगे्रसी दिशा निर्देशन और नेतृत्व के अभाव में निष्क्रिय हुए बैठे हैं। इसीलिए सपा का रास्ता साफ होता चला जा रहा है। हालांकि सपा के नेता व लोक सभा सांसद बलराम यादव पार्टी नेता पर भाई-भतीजावाद और कुनबा परस्ती का आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि बड़े औद्योगिक घरानों से जुड़े अमर सिंह सरीखे लोग सपा को लोहिया के विचारों से काफी दूर ले गये हैं। उन्हें संशय है कि फिल्म कलाकारों की भीड़ दिखाकर मतदाताओं को रिझाया जा सकता है। वे मानते हैं कि फिल्म कलाकारों को देखने  को जो भीड़ उमड़ती है वह सब की सब वोटों में तबदील नहीं होती। केन्द्र में मंत्री रह चुके लोकसभा सांसद बलराम सिंह यादव को नहीं लगता कि अपनी तमाम लोकप्रियता के बावजूद सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन मुलायम सिंह के लिए वोट इकट्ठे कर पायेंगे। उनका तर्क है कि इलाहाबाद की जनता को 1984 के आम चुनाव में लम्बे चैड़ सपने दिखाकर अधर में छोड़ जाने वाले श्री बच्चन का जनता कैसे विश्वास करे ? बलराम सिंह यादव के निकट सूत्रों के अनुसार वे सपा के विरूद्ध और भाजपा के पक्ष में चुनाव प्रचार करने का मन बना चुके हैं। जबकि सपा के सूत्रों का कहना है कि बलराम सिंह यादव यह घुड़की सिर्फ इसलिए दे रहे हैं ताकि आगामी चुनाव में उनके चहेतों को टिकटें दिलवाई जा सकें।
उधर यात्राऐं निकाल कर, इंका वैसे तो हाथ-पैर मार रही है पर उसके पास प्रदेश स्तर पर न तो कुशल नेतृत्व है और न ही कोई ठोस कार्यक्रम। माधव राव सिंधिया और राजेश पायलट की असमय मृत्यु ने उसके दो लोकप्रिय नेता छीन लिए हैं। ले देकर अब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह बचे हैं जिनसे उत्तर प्रदेश में जादू करने की उम्मीद की जा रही है। यूं तो देश में दिग्विजय सिंह के प्रभावशाली नेता और कुशल प्रशासक होने का काफी प्रचार किया गया है, पर मध्यप्रदेश की जनता कुछ और ही कहानी कहती है। छत्तीस गढ़ राज्य बन जाने के बाद मध्यप्रदेश में उर्जा का भारी संकट पैदा हो गया है। वैसे तो छत्तीगढ़ में भी इंका की ही सरकार है और उसके मुख्यमंत्री अजीत जोगी दिग्विजय सिंह को अपना बड़ा भाई बताते हैं पर असलियत में दोनों एक दूसरे के लिए मुश्किलें बढ़ाने में जुटे रहते हैं। ऐसा मध्यप्रदेश इंका के लोग ही बताते हैं। हालत इतनी बुरी है कि मध्यप्रदेश में बिजली का संकट विकट होता चला जा रहा है। आये दिन पावर कट होते रहते हैं। यहां तक कि दीपावली के दिन भी ऐन लक्ष्मी पूजन के समय प्रदेश की राजधानी भोपाल में 4 घंटे बिजली नहीं आई। सारा शहर अन्धकार में डूबा रहा। जिस पंचायत राज व्यवस्था को लेकर दिग्विजय सिंह चुनाव जीते थे वह पंचायत राज व्यवस्था मध्यप्रदेश सरकार के दीवालियापन के कारण कागजों पर ही रह गई है। लिहाजा मध्यप्रदेश के गांव-गांव में भी इंका की प्रदेश सरकार को लेकर काफी निराशा है। ऐसे में अगर इंका दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश के मतदाता के सामने एक आदर्श मुख्यमंत्री के रूप में पेश करती है तो मतदाता यह पूछ सकते हैं कि जब मध्यप्रदेश का इतना बुरा हाल है तो उत्तर प्रदेश में नेतृत्व विहीन इंका क्या कमाल कर देगी ? खास कर तब जबकि उसका ढांचा बिल्कुल चरमराया हुआ है। हां अगर आज इंका उत्तर प्रदेश में एक साफ और नया नेतृत्व दे पाती तो शायद लोगों को उम्मीद बंधती। पर ऐसा लगता है कि इंका के ही कुछ दिग्गज यह नहीं चाहते कि उनके दल की अध्यक्षा सोनिया गांधी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में इंका मजबूत हो। शायद उन्हें डर है कि देश के सबसे बड़े प्रान्त में अगर इंका के पैर जम गये तो सोनिया गांधी पार्टी पर भारी पड़ेंगी। उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों के लिए इंका के पास तुर्फ का दूसरा पत्ता प्रियंका गांधी हैं। कुछ लोगों का मानना है कि अगर प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार में उतरती हैं तो वे हवा बना सकती हैं। पर इंका के प्रदेश संगठन की हालत देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि यह संभव हो पायेगा। वैसे भी शायद प्रियंका गांधी पूरी तरह से राजनीति में लोकसभा के चुनावों के दौरान ही उतरना चाहेंगी। इसलिए इस वक्त उत्तर प्रदेश में इंका की हालत सबसे पतली है।
वैसे भी एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में मामूली परिवर्तन को लेकर जो तूल इंका सहित दूसरे विपक्षी दल दे रहे हैं उसका कोई विशेष लाभ चुनाव में उन्हें मिलने नहीं जा रहा है। जनता के लिए यह कोई अहम सवाल नहीं है। हां अगर, सपा और इंका जैसे दलों ने भाजपा के मुकाबले जनता के प्रति ज्यादा समर्पित होने का सकारात्मक प्रयास किया होता तो शायद उत्तर प्रदेश का मतदाता इन्हें भाव देता। पर इन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उधर सपा अपनी छवि सुधारने में जुटी है। मुलायम सिंह यादव अच्छे और प्रतिष्ठित लोगों को अपने दल में लाकर यह सन्देश देना चाहते हैं कि सपा अपराधियों का दल नहीं है। उनके पिछले शासनकाल में अपराध बढ़ने के आरोप लगते रहे हैं। अपने मित्रों की मदद करने को किसी भी सीमा तक जाने वाले मुलायम सिंह यादव पर अपराधियों को खुला संरक्षण देने के आरोप लगते रहे हैं। अब वे इस छवि से पीछा छुड़ाना चाहते हैं। पिछले दिनों अपने जन्मोत्सव की एक दावत में मुलायम सिंह यादव इतने मस्त हो गये कि उन्होंने नाच गाने तक में भाग लिया। उनकी यह बर्थ-डे पार्टी सारी रात चली। लोहिया के अनुयायी और जमीन से जुड़े नेता मुलायम सिंह यादव का यह आधुनिकरण उनके सहयोगी अमरसिंह की देन माना जा रहा है। सारी कोशिश स्वयं को आधुनिक और खुले दिमाग का दिखाने के लिए की जा रही है। अपने को शुद्ध समाजवादी मानने वाले कुछ लोहियावादी मुलायम सिंह यादव की कड़ी आलोचना करते हैं। उनका आरोप है कि फिल्मी सितारों की तड़क-भड़क और नाच गाने से उत्तर प्रदेश के नौजवानों को रोजगार मिलने नहीं जा रहा है। प्रदेश की समस्याऐं इतनी व्यापक और गहरी हैं कि उन्हें नाच-गाकर हल नहीं किया जा सकता। उन समस्याओं को दूर करने के लिए दूरदृष्टि और दिमाग में विकास का नक्शा होना आवश्यक होता है। इसलिए उन्हें नहीं लगता कि सपा अपने बूते पर उत्तर प्रदेश में कोई प्रभावशाली सफलता हासिल कर पायेगी। यह बात दूसरी है कि सपा के महासचिव अमरसिंह टी.वी. चैनलों पर यह दावा कर रहे हैं कि आगामी विधान सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में उनके दल को पूर्ण बहुमत मिलेगा। 
ऐसे विरोधाभासी दावों के बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति का दंगल चालू है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति से चिंतित लोगों को राजनीतिज्ञों की बयान बाजी देखकर भारी निराशा हो रही है। समाज के प्रति जागरूक इस वर्ग का मानना है कि प्रदेश का चुनाव सरकारी फिजूलखर्ची रोकने, आधारभूत ढांचे को सुव्यवस्थित करने और अर्थव्यवस्था सुधारने के सवालों पर होना चाहिए न कि राजनीतिक स्टेंटबाजी पर। इन लोगों को डर है कि भावनात्मक मुद्दों को भड़काकर सभी राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा करेंगे। ऐसे में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के सामने बड़ी दुविधा पैदा हो जायेगी। इसलिए इस चुनाव के भविष्य का अभी से कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

Friday, October 5, 2001

भले मुसलमानों की जिम्मेदारी

हर जमात में शरीफ लोगों की कमी नहीं होती। मुसलमानों में भी नहीं है। चाहे भारत के हों या पाकिस्तान के। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इम्तियाज अहमद उन मुसलमानों में से हैं जिन्होंने भारत में इस्लाम की हालत पर वर्षों गहन अध्ययन किया है। इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। इस पुस्तकों में उन्होंने बताने की कोशिश की है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों का सामाजिक जीवन, सोच और प्राथमिकतायें दूसरे देशों के मुसलमानों से भिन्न हैं और भारतीय हैं। उनका मानना है कि धर्मान्धता से ग्रस्त होकर विेद्वेष की भावना रखने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत थोड़ी है। भारत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान ये जानते हैं कि उनका जीवन पाकिस्तान में रह रहे मुसलमानों से कही बेहतर है। जितनी आजादी और आगे बढ़ने के अवसर उन्हें भारत में मिले हैं, उतने कट्टरपंथी पाकिस्तान में नहीं मिलते।

आमतौर पर यह माना जाता है कि पूरे देश का समाज हिन्दू और मुसलमान दो खेमों में बंटा है। इन दोनों खेमों के बीच स्थाई द्वेष और अपने अपने खेमे के भीतर भारी एकजुटता है। दोनों पक्षों के धर्मान्ध नेता इस मान्यता को बढ़ाने में काफी तत्पर रहते हैं। हकीकत यह नहीं है। कश्मीर के एक मुसलमान को यह देखकर आश्चर्य होगा कि तमिलनाडु के मुसलमानों के घर बारात का स्वागत केले के पत्ते, नारियल और इलायची से वैसे ही किया जाता है जैसे किसी हिन्दू के घर में। कश्मीर का मुसलमान तमिलनाडु के मुसलमान के घर का भोजन खाकर तष्प्त नहीं होता ठीक वैसेही जैसे तमिलनाडु का मुसलमान तमिल घर में भोजन खाकर ही प्रसन्न होता है। बात बात पर उत्तेजित हो जाने वाली बंगाल की आम जनता के साथ अगर आप रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में सफर कर रहे हैं और आपकी बहस किसी स्थानीय व्यक्ति से हो जाए तो आप अपने को अकेला पाएंगे। आपके विरोध में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग एकजुट होकर खड़े हो जायेंगे। वहां सवाल इस बात का नहीं होगा कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान। आप गैर बंगाली हैं इसलिये आपके प्रति स्थानीय लोगों की हमदर्दी हो ही नहीं सकती। हर राज्य का यही हाल है। भाषा, पहनावा, भोजन, आचार विचार के मामले में भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में रहने वाले लोग भिन्न भिन्न समुदायों में बंटै हैं मसलन तमिल, कन्नड, केरलीय, मराठी, गुजराती, उडि़या, बंगाली, असमिया, पंजाबी, बिहारी, हरियाणवी आदि। जब तक कोई धर्मान्धता की घुट्टी पिलाने न जाए स्थानीय जनता अपने धर्म के संकुचित दायरे में ही सिमट कर नहीं रहती बल्कि परदेशी के विरूद्ध स्थानीय लोगों की एकजुटता का प्रदर्शन करती है। इसलिये यह कहना कि सारे मुसलमान एक जैसे हैं, ठीक नहीं।

ठीक इसी तरह से ये सोचना भ्रम है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले सभी लोगों में भारी एकजुटता होती है। कुरान शरीफ के मुताबिक खुदा की नजर में उसका हर बंदा एक समान हैसियत रखता है। कोई भेद नहीं। मुसलमान दावा भी करते हैं कि वे एक पंगत में बैठकर नमाज अदा करते हैं और एक ही पंगत में बैठकर खाते हैं पर यह भी हकीकत है कि उनकी यह एकजुटता कुछ खास मकसद तक सिमट कर रह जाती है। कायदे से मुसलमानों में जाति व्यवस्था नहीं होनी चाहिये पर चूंकि भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान स्थानीय मूल के ही लोग हैं जिन्होंने किन्हीं कारणों से इस्लाम स्वीकार कर लिया था और जब वे मुसलमान बने तो अपने साथ वे न सिर्फ अपनी जीवनशैली ले गये बल्कि जाति व्यवस्था को भी ले गये। इसीलिये मुस्लिम समाज में भी अनेक जातियां हैं। मसलन जुलाहे, बढ़ई, लुहार, धुनिया, नाई आदि। मुसलमानों में भी तथाकथित ऊंची और नीची जातियां होती हैं ऊंची जातियों में प्रमुख हैं- सैय्यद, लोधी, पठान वगैरह। अब अगर कोई गरीब मुसलमान जुलाहा किसी पठान या सैययद के बैटे से अपनी बेटी के निकाह का पैगाम लेकर जाए तो उसे कामयाबी नहीं मिलेगी। शायद इज्जत बचाकर लौटना भी मुश्किल होगा। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुओं में अगर कोई केवट जाति का पिता ब्राह्मण परिवार में अपनी कन्या का प्रस्ताव लेकर जाये तो उसके साथ भी ऐसा ही होगा। इसलिये यह मानना कि सारे हिन्दू एक तरफ हैं और सारे मुसलमान एक तरफ, गलत होगा।
हिन्दूओं की तरह ही मुसलमानों में बहुसंख्यक लोग ऐसे हैं जिन्हें मजहब से ज्यादा रोजी रोटी की फिक्र है। वे चाहे पाकिस्तान में रह रहे हों या भारत में। लाहौर में बसे राजनीति शास्.त्र के प्रोफेसर मुबारक अली बताते हैं कि पाकिस्तान की पढ़ी लिखी आबादी तालिबान की नीतियों की समर्थक नहीं है। उन्हें डर है कि अगर कठमुल्लापन इसी तरह बढ़ता गया और इसे रोका न गया तो पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चूर चूर हो जाएगी

मिस्त्र, इरान, इराक, मलेशिया, इंडोनेशिया और तमाम दूसरे ऐसे देश हैं जो घोषित रूप से इस्लाम में आस्था रखने वाले देश हैं पर अगर इनकी तरक्की, वेशभूषा और आधुनिकता को देखा जाए तो यह आश्चर्य होगा कि मुसलमान होते हुए भी ये इतने प्रगतिशील कैसे हैं। इन देशों के संतुश्ट और खुशहाल नागरिक बताते हैं कि उन्होंने कुरान के मूल संदेश को अपनाया है। पर साथ ही हर मोर्चे पर आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।

जिन लोगों को 1980 के मुरादाबाद के साम्प्रदायिक दंगों की याद है उन्हें ये भी याद होगा कि इन दंगों के बाद मुरादाबाद के कलात्मक बर्तनों के निर्यात में भारी कमी आयी थी। जिसके बाद हजारों हुनरमंद कारीगरों को बदहाली से मजबूर होकर अपने बच्चों के पेट पालने के लिये रिक्शा चलाना पड़ा। जो यह करने के बाद भी अपने बच्चों का पेट नहीं भर सके उन्होंने पूरे परिवार को तेजाब पिलाकर खुद भी पी लिया और खुदा को प्यारे हो गये। आज हालात फिर वैसे ही बन रहे हैं।

दुर्भाग्य से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिये तमाम सियासती लोग और मजहबों के ठेकेदार देश की जनता को धार्मिक और जातीय खेमों में बांटते जा रहे हैं। जिसका भारी खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये ऐसे संवेदनशील माहौल में जब आतंकवाद का चारों तरफ तांडव हो रहाहो भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे वतनपरस्ती की एक ऐसी जलवाफरोशी करें कि उनके आलोचक भी दंग रह जायें। अक्सर यह सवाल उठाया जा सकता है कि इसी मुल्क में पैदा होने के बावजूद मुसलमानों से बार बार देश प्रेम का सबूत क्यों मांगा जाता है ? सवाल बिल्कुल जायज है। क्या ऐसा नहीं है कि देश के साथ अनेक मोर्चों पर गद्दारी करने वालों में विभिन्न प्रांतों के अनेक हिन्दू ही शामिल रहे हैं तो फिर ऐसी अपेक्षा मुसलमानों से ही क्यो ? इसकी एक वजह है। पिछले कुछ वर्षों से देश में फैल रहे आतंकवाद में शामिल नौजवान मुस्लिम समाज से ही आये हैं। इसलिये अगर देश की शेष जनता मुस्लिम समुदाय और आतंकवादियों के बीच सीधा सम्बन्ध देखती है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। ठीक वेैसे ही जैसे अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के बाद अमरीकी जनता ने एक सरदार जी को इसलिये मार डाला क्योंकि उनकी शक्ल ओसामा बिन लादेन से मिलती थी। गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। इसलिये भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे कट्टरपंथी और दहशतगर्दों से बचकर रहे। इतना ही नहीं इनको पकड़वाने और इनके हौसले नाकामयाब करने में सक्रिय हों। श्रीनगर विधानसभा के बाहर हुए भयानक विस्फोट की निंदा सारे भारत में उसी तरह की जानी चाहिये जैसे अमरीका में रहने वाले हर धर्म के लोगों ने न्यूयार्क के हमले के विरोध में प्रदर्शन और प्रार्थनायें कीं। यदि ऐसा किया जाता है तो इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। न सिर्फ फिरकापरस्त सियासतदानों के हौसले पस्त होंगे बल्कि समाज में जानबूझकर पैदा कर दी गयी खाई भी पटने लगेगी। इसमें कोई बुरा मानने की बात नहीं है। मौके की नजाकत को देखकर कभी कभी हमें रोजमर्रा की जिंदगी से हटकर भी कुछ करना पड़ता है। इससे आवाम का ही फायदा होता है। उम्मीद की जानी चाहिये कि भारत के मुसलमान वक्त के इस नाजुक दौर में परिपक्वता और होशियारी का परिचय देंगे ताकि हर परिवार में खुशहाली और अमन चैन बढ़े, नफरत और बैर नहीं।

Friday, September 28, 2001

क्या तीसरा विश्वयुद्ध होगा ?

एन्थोनी गोल्डस्मिथ का यह कथन महत्वपूर्ण है कि, ”तीसरे विश्वयुद्ध की यह खासियत होगी कि इसका उल्लेख किसी इतिहास की पुस्तक में नहीं होगा।यह सच्चाई है कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध होता है तो पूरी दुनिया में आणविक हथियारों की मार से ऐसी तबाही मचेगी कि इतिहास लिखने के लिए कोई जिन्दा ही नहीं बचेगा। आज पूरी दुनिया की निगाह व्हाइट हाउस पर टिकी है। वहां क्या विचार चल रहा है ? क्या अमरीका वाकई लम्बी लड़ाई लड़ने जा रहा है ? अगर हां, तो यह लड़ाई कब शुरू होगी और कब तक चलेगी ? इस लड़ाई की रणभूमि क्या होगी ? भारत पर इसका क्या असर पड़ेगा ? पाकिस्तान इस लड़ाई मे कहां खड़ा होगा ? इससे पहले कि हम मौजूदा हालात पर चिन्तन करें, बेहतर होगा कि युद्ध के बारे में हम कुछ दार्शनिकों की सुप्रसिद्ध उक्तियों को याद कर लें। हैरोडोट्स ने कहा था कि, ”शांति काल में पुत्र पिता को दफनाते हैं जबकि युद्ध काल में पिता पुत्रों को दफनाते हैं।इसी तरह विक्टर ह्यूगो का कहना है कि यह कैसा विरोधाभास है, ”एक युद्ध की सफलता का आकलन इस बात से किया जाता है कि उसने कितना विध्वंस किया।कुछ दिन पहले तक लग रहा था कि अमरीका, अफगानिस्तान और उसके समर्थक देशों पर भारी हमला शुरू करने वाला है, पर अब कुछ दूसरी तरह के संकेत मिल रहे हैं।

वल्र्ड टेªड सेन्टर, पेन्टागन आदि पर घातक हमला करके आतंकवादियों ने अमरीकी स्वाभिमान को झकझोर दिया। उनकी आर्थिक और सैन्य शक्ति के गढ़ को ध्वस्त करके आतंकवादियों ने यह बता दिया है कि दुनिया की एकमात्र सुपर पावर अमरीका की सुरक्षा अभेद नहीं है। इस अपमान का बदला लेने को अमरीका का नेतृत्व ही नहीं बल्कि आम जनमानस भी पूरी तरह से उत्तेजित है। उधर अफगानिस्तान के सदियों से लड़ने वाले कबिलाई लोग अमरीका की धमकी से बेखौफ हैं। पिछले बीस वर्ष में अफगानिस्तान की भारी तबाही हुई। अब उनके पास गंवाने को कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। अफगानिस्तान की पहाडि़यां और वहां के पठानों का लड़ाकू जज्बा किसी भी आक्रमणकारी को भारी पड़ता रहा है। अंगे्रजों ने भी जब यह देख लिया कि अफगानिस्तान को जीतना संभव नहीं है तो उन्होंने अफगानियों के बीच कबिलाई झगड़े करवा कर उन्हें कमजोर किया। अपुष्ट खबरे मिल रही हैं कि अमरीका के कुछ रणनीतिकारों का मानना है कि अमरीका को चाहिए बजाय अफगानिस्तान पर सीधा हमला करने के उसके लालची, घमंडी और लड़ाकू अमीरों को मोटी रिश्वत देकर अफगानियों के बीच आपसी लड़ाई करवायें। इससे अमरीका को कई लाभ होंगे। एक तो बिना जानमाल बर्बाद किए ही अफगानिस्तान की तबाही सुनिश्चित हो सकेगी। दूसरा अमरीका आतंकवादियों खासकर कट्टरपंथियों का कोप भाजन नहीं बनेगा। तीसरा उसके अपने इलाके में आतंकवादी हमलों की सम्भावनाएं काफी कम हो जायेंगी। इस तरह उसका मकसद भी पूरा हो जायेगा और बिना ज्यादे घाटे के वह अपने दुश्मन को औकात बता सकेगा। पर क्या ऐसा होगा ? इस विषय पर मिलीजुली राय है। जिनके परिवार के सदस्य 11 सितम्बर को अकाल काल के गाल में समा गये, वे जाहिरन अपराधियों को सज़ाये मौत दिलवाना चाहते हैं। पर इसमें शक नहीं कि यदि यह लड़ाई छिड़ी तो अमरीका का जनजीवन भी भारी खतरे में फंस जायेगा। जहां मैकेनिक भी दूसरे शहर कार मरम्मत करने हवाई जहाज से जाता हो, जहां हवाई यात्रा आम बात हो वहां हवाई यात्रा ही अगर खतरे में पड़ जाये तो सारा जनजीवन ही रुक जायेगा। मौजूदा हालात में दुनिया का हर हवाई जहाज एक उड़ता हुआ बम है जिसे कोई भी सिरफिरा आतंकवादी किसी भी भवन पर ले जाकर विस्फोट कर सकता है। कितनी भी सुरक्षा क्यों न हो अमरीका की परिवहन व्यवस्था  और गगन चुम्बी अट्टालिकाओं का अस्तित्व ऐसे युद्धकाल में भारी खतरे के बीच रहेगा। लोग ऊंची इमारतों में जाने से डरेंगे। न जाने कब क्या हादसा हो जाए। जब हमले की कार्यवाई शुरू भी नहीं हुई तभी मैनहेट्टन शहर में अफरा-तफरी मची है। हर दिन किसी न किसी बड़ी इमारत में बम रखे होने की अफवाह से वहां भगदड़ मच जाती है। युद्धकाल में तो ऐसी घटनाएं आए दिन होंगी। फिर कैसे जनजीवन सामान्य तरीके से चल पायेगा ?

दूसरी तरफ अगर अमरीका कुछ नहीं करता तो न सिर्फ उसकी जनता उत्तेजित होगी बल्कि आतंकवादियों के हौसले भी बेइन्तहा बढ़ जायेंगे। इसीलिए दुनिया का लगभग हर सभ्य समाज अमरीका की सैनिक कार्यवाई का समर्थन कर रहा है। साथ ही दुनिया में आतंकवाद को बढ़ाने में अमरीका की भूमिका को ही याद किया जा रहा है। सब जानते हैं कि ओसामा विन लादेन अमरीका के इशारों पर काम करता था। आज वही उनका जानी दुश्मन बना हुआ है। मुसलमान देशों के लोग आरोप लगाते हैं कि रूस के पतन के बाद अमरीका ने पूरी दुनिया में अपने डंडे का जोर चला रखा है। इन मुसलमानों का कहना है कि अमरीका को उसके किए की सजा मिली है। इसलिए उनके यहां जश्न का माहौल है। फिलहाल तो यही लगता है कि अमरीका आतंकवादियों के ठिकानों पर हमला करने में झिझकेगा नहीं। हां, यह बात दूसरी है कि ये हमले प्रतीकात्मक ही हों। इस बात का दोनों पक्षों को डर है कि इस युद्ध में आणविक हथियारों का प्रयोग हो सकता है। कहीं ये हथियार सिरफिरे आतंकवादियों के हाथ लग गये तो वे पूरी दुनिया में तबाही मचा देंगे। समझदार मुसलमान 11 सितम्बर की कार्यवाई को उचित नहीं मानते। वे इसे इस्लाम के सिद्धांन्तों के विरूद्ध भी मानते हैं। साथ ही वे याद दिलाते हैं कि आज अपने निर्दोष अमरीकी नागरिकों की हत्या पर आंसू बहाने वाले अमरीका ने अमरीका के मूल निवासी रैड इंडियन्स को किस बेदर्दी से मार डाला था। हजारों रैड इंडियन्स की अमानवीय हत्या करके उनकी जमीन और उनके संसाधनों पर कब्जा जमा लिया था। ये लोग यह आरोप भी लगाते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह अमरीका हर क्षेत्रीय संघर्ष में बिन बुलाए दखल देता है और दादागिरी करता है उससे दुनिया के छोटे देशों के लोग उससे चिढ़ने लगे हैं। दूसरी तरफ सारी दुनिया में आतंकवाद के पीछे मुसलमान नौजवानों की बढ़ती संख्या को देखकर गैर-इस्लामी देश व कुछ इस्लामी देश भी चिंतित हैं और इसे रोकना चाहते है। वे आतंकवाद को निर्मूल करने के लिए कड़े से कड़ा कदम उठाने की सलाह दे रहे हैं। इसलिए पूरी दुनिया में आक्रोश, भय, उत्सुक्ता और तनाव का वातावरण है।

प्रश्न उठता है कि क्या अमरीका यीशू मसीह के बताये करुणा के सिद्धान्त का पालन करके इन कार्यवाहियों के दोषी लोगों या उन्हें संरक्षण देने वालो देशों को माफ करने को तैयार है ? अमरीका का जनमत सर्वेक्षण इसके विरुद्ध है। सवाल यह भी उठता है कि आतंकवाद से यह लड़ाई कितने दिन चलेगी ? आतंकवाद कोई एक देश की सरकार तो है नहीं, जिससे लड़कर निपट लिया जाये। आतंकवाद तो किसी एक नेता या एक संगठन से बंधा हुआ नहीं है। इसके सदस्य धर्म में अपनी दृढ़ आस्था से प्रेरित हैं। वे मजहब के नाम पर बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार हैं। ऐसे आत्मघाती, जुझारू नौजवानों की फौज से जूझने का मतलब होगा एक लम्बे युद्ध की तैयारी। जिनका कोई एक देश या ठिकाना तो है नहीं जहां हमले करके उन्हें परास्त कर दिया जाए। सारी दुनिया में फैले सिरफिरे आतंकवादी कभी भी कहीं भी हमला बोलने में सक्षम हैं चाहे इससे उन्हें कुछ भी हासिल न हो। इसलिए कुछ लोगों का यह भी कहना है कि अमरीका उत्तेजना में अपरिपक्व कार्यवाई न करे। पर इसका अर्थ यह नहीं कि आतंकवादियों के आगे घुटने टेक दिए जाऐं। जरूरत तो आतंकवाद को निर्मूल करने की है। पर हर कार्यवाई काफी सोच-समझ कर करनी चाहिए। भारत के लोगों को इस बात की शिकायत है कि जब दाउद इब्राहिम के लोगों ने 1993 में मुम्बई में बमों की श्रृंखला खड़ी कर दी थी और भारी तबाही मचाई थी तब अमरीका ने आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक युद्ध का ऐलान क्यों नहीं किया ? कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद अब तक हजारों बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया तब अमरीका क्यों चुप रहा ? तमाम प्रमाण हैं यह सिद्ध करने के लिए कि इस आतंकवाद को पाकिस्तान से सीधा समर्थन मिलता रहा है। दरअसल तो पाकिस्तान को वर्षों पहले आतंकवादी देश करार दे दिया जाना चाहिए था। फिर भी अमरीका पाकिस्तान से क्यों मदद मांग रहा है। भारतीयों के मन में यह आशंका भी है कि कहीं अमरीका भारत का इस्तेमाल करके अपना काम निकलवाकर चला न जाये। पीछे से भारत इस बात पर हाथ मलता रह जाये कि वे इस प्रक्रिया में कुछ भी हासिल न कर पाए - न तो कश्मीर में शांति और न पाकिस्तान को सबक। इतने सारे पेंच हैं कि गुत्थी आसानी से सुलझने वाली नहीं। इन हालातों में लगता तो नहीं कि तीसरे विश्वयुद्ध के आसार बनेंगे, बाकि वक्त ही बतायेगा। पर इसमें शक नहीं कि कट्टरपंथी आतंकवाद को अगर आज कुचला न गया तो भविष्य में ये लोग किसी को चैन से जीने न देंगे।

Friday, June 29, 2001

शाकाहारी नहीं हैं अंडे

अंडे शाकाहारी नहीं हैं। इसकी खपत बढ़ाने के लिए ”संडे हो या मंडे, रोज खाओ अंडे“ का नारा तो दिया ही जाता है इसे शाकाहारी भी बता दिया जाता है। अंडे का उपयोग बढ़ाने के लिए इसे प्रोटीन का बढि़या स्रोत बताया जाता है। प्रोटीन की मात्रा बहुत सारी शाकाहारी चीजों में भी काफी ज्यादा है पर इस विवाद में नहीं भी पड़ा जाए तो यह तथ्यात्मक रूप से गलत है कि अंडा शाकाहारी है। इसलिए शाकाहारियों के लिए अंडे को लोकप्रिय बनाने के लिए किए जाने वाले प्रचार का उल्टा नारा लगाया जा सकता है - संडे हो या मंडे, कभी न खाओ अंडे। कोई क्या खाए और क्या नहीं इसमें बहुत कुछ आदमी की अपनी पसंद और जीवनशैली के साथ-साथ कई अन्य बातों पर निर्भर करता है। फिर भी आप जो चीज खाते हैं या किसी कारण से नहीं खाते हैं उसके बारे में आपको आवश्यक जानकारी होनी चाहिए। सरकारी स्वास्थ्य बुलेटिन के अनुसार ही 100 ग्राम अंडों में जहाँ 13 ग्राम प्रोटीन होगा, वहीं पनीर में 24 ग्राम, मूँगफली में 31 ग्राम, दूध से बने कई पदार्थों में तो इससे भी अधिक एवं सोयाबीन में 53 ग्राम प्रोटीन होता है। यही तथ्य कैलोरी के बारे में है। जहाँ 100 ग्राम अंडों में 173 कैलोरी, मछली में 93 कैलोरी व मुर्गे के गोश्त में 194 कैलोरी प्राप्त होती है, वहीं गेहूँ व दालों में 300 कैलोरी, सोयाबीन में 350 कैलोरी व मूंगफली में 550 कैलोरी और मक्खन निकले दूध एवं पनीर से लगभग 350 कैलोरी प्राप्त होती है तो हम यह निर्णय ले सकते हैं कि स्वास्थ्य के लिए क्या चीज जरूरी है ? यह स्पष्ट करना भी उचित रहेगा कि अधिक कोलेस्ट्रोल शरीर के लिए लाभदायक नहीं है। 100 ग्राम अंडों में कोलेस्ट्रोल की मात्रा 500 मिलीग्राम है और मुर्गी के गोश्त में 60 है तो वही कोलेस्ट्रोल सभी प्रकार के अन्न, फलों, सब्जियों आदि में शून्य है। अमेरीका के विश्व-विख्यात विशेषज्ञ डाॅ. माइकेल कलेपर का कहना है कि अंडे का पीला भाग विश्व में कोलेस्ट्रोल एवं जमी चिकनाई का सबसे बड़ा स्रोत है जो स्वास्थ्य के लिए घातक है। उन्होंने यह भी साबित किया है कि जो व्यक्ति माँस या अंडे खाते हैं उनके शरीर में ‘रिस्पटरों’ की संख्या में कमी हो जाती है जिससे रक्त के अन्दर कोलेस्ट्रोल की मात्रा अधिक हो जाती है। इससे हृदय रोग शुरू हो जाता है और गुर्दे के रोग एवं पथरी जैसी बीमारियों को भी बढ़ावा मिलता है।

वास्तविकता यह है कि 1962 में यूनीसेफ ने एक पुस्तक प्रकाशित की तथा अंडों को लोकप्रिय बनाने के लिए अनिषेचित (इन्र्फटाइल) अंडों को शाकाहारी अंडे (वेजीटेरियन) जैसा मिथ्या नाम देकर भारत के शाकाहारी समाज में भ्रम फैला दिया। 1971 में मिशिगन यूनीवर्सिटी (अमेरिका) के वैज्ञानिक डाॅ. फिलिप जे. स्केन्ट ने यह सिद्ध किया कि:

1. अनिषेचित अंडे किसी भी प्रकार से शाकाहारी नहीं होते क्योंकि वे न तो पेड़ों पर उगते हैं और न किसी पौधे पर बल्कि वे सब मुर्गी के पेट में से ही उत्पन्न होते हैं। एक वैज्ञानिक प्रयोग के आधार पर यह देखा गया है कि विद्युत धारा के द्वारा अंडों को आंका जा सकता है। अनिषेचित अंडे में निषेचित अंडे की भाँति ही यह विद्युत धारा होती है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि निर्जीव वस्तु में कभी भी विद्युत धारा का अंकन नहीं किया जा सकता।

2. विज्ञान ने यह साबित कर दिया है कि किसी भी प्राणी के जीवन का आधार मात्र लैंगिक प्रजनन क्रिया ही नहीं है बल्कि अलैंगिक प्रजनन के द्वारा भी जीवन हो सकता है जैसे अमीबा और अनेक एककोशीय प्राणी बिना निषेचन क्रिया के उत्पन्न होते रहते हैं। इसी प्रकार से ”टैस्ट ट्यूब बेबी“ या उसके द्वारा उत्पन्न प्राणी निर्जीव नहीं गिने जा सकते।

3. अनिषेचित अंडों का दूसरा हिस्सा शुक्राणु होते हैं जो सूक्ष्मदर्शी यंत्र के द्वारा नीचे चलते-फिरते नज़र आते हैं। यही शुक्राणु अंडाशय अर्थात् ओवरीज में चलकर मुर्गी के गर्भाशय अर्थात् यूट्रस तक पहुँचते हैं और इन अंडों में क्रोमोसोम्स की संख्या निषेचन के बाद दोगुनी हो जाती है। तो क्या निषेचित अंडे निर्जीव कहे जा सकते हैं ?
4. अंडों के मोटे छोर पर एक वायु क्षेत्र होता है जो कि बहुत महत्वपूर्ण है। यह क्षेत्र अंडे की दो कवच-झिल्लियों को अलग करता है और भू्रण को श्वास की सुविधा देते हुए बाहरी दुनिया से जोड़ता है। यह सभी प्रकार के अंडों में होता है। अंडों के गर्भ से बाहर आते ही उसमें विदलन (क्लीवेज) शुरू हो जाता है।

5. श्वास लेने की क्रिया जीवन की निशानी है। प्रत्येक अंडे के ऊपरी भाग पर लगभग 15,000 सूक्ष्म छिद्र होते हैं जिनसे अंडे का जीव साँस लेता है। और, जब कोई अंडा श्वास लेना बन्द करता है तो वह अंडा सड़ने लगता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि हर अंडा वह चाहे निषेचित हो या अनिषेचित, उसमें जीव होता है।

6. श्री फिलिप जे. स्कैंम्बल ने अपनी विख्यात पुस्तक ”पोल्टरी फीड्स एंड न्यूट्रीशन“ के पृष्ट 15 पर साफ-साफ लिखा है कि ”अंडा बहुत नाजुक होता है। यह प्रतिकूल वातावरण के प्रति भी संवेदनशील होता है। वस्तुतः अंडे की उत्पत्ति बच्चे के सृजन के निमित्त होती है, मनुष्य की खुराक के लिए नहीं। अंडे में हवा के आने-जाने की नैसर्गिक व्यवस्था है। सफेद खोल के अन्दर बने सूक्ष्म छिद्रों में होकर आक्सीजन अन्दर आती है और चर्बी की भाप कार्बन डाइआक्साइड को बाहर फैंकती है, जिससे अंडे का भू्रण जीवित होकर विकास करता है। वही बात अन्य फर्टीलाइज्ड अंडों पर भी लागू होती है।“

सच्चाई यह है कि अंडे दो प्रकार के होते हैं एक वे जिनसे बच्चे निकल सकते हैं तथा दूसरे वे जिनसे बच्चे नहीं निकलते। मुर्गी यदि मुर्गे के संसर्ग में न आए तो भी जवानी में अंडे दे सकती है। इन अंडों की तुलना स्त्री के रजः स्राव से की जा सकती है। जिस प्रकार स्त्री के मासिक धर्म होता है। उसी तरह मुर्गी के भी यह धर्म अंडों के रूप में होता है। यह अंडा मुर्गी की आन्तरिक गन्दगी का परिणाम है। मुर्गियाँ जो अंडे देती हैं वे सब अपनी स्वेच्छा से या स्वभावतया नहीं देतीं ! बल्कि उन्हें विशिष्ट हार्मोन्स और एग-फम्र्युलेशन के इन्जेक्शन दिये जाते हैं। इन इन्जेक्शनों के कारण ही मुर्गियाँ लगातार अंडे दे पाती हैं। अंडे के बाहर आते ही उसे इंक्यूबेटर (सेटर) में डाल दिया जाता है ताकि उसमें से 21 दिन की जगह 18 दिनों में ही चूज़ा बाहर आ जाए। मुर्गी का बच्चा जैसे ही अंडे से बाहर निकलता है नर तथा मादा बच्चों को अलग-अलग कर लिया जाता है। मादा बच्चों को शीघ्र जवान करने के लिए एक खास प्रकार की खुराक दी जाती है और इन्हें चैबीसों घंटे तेज़ प्रकाश में रखकर सोने नहीं दिया जाता ताकि ये दिन रात खा-खा कर जल्दी ही रजः स्राव करने लगें और अंडा देने लायक हो जाऐं। अब इन्हें ज़मीन की जगह तंग पिंजरों में रख दिया जाता है। इन पिंजरों में इतनी अधिक मुर्गियां भर दी जाती हैं कि वे पंख भी नहीं फड़फड़ा सकतीं। तंग जगह के कारण आपस में चोंचें मारती हैं, जख़्मी होती हैं, गुस्सा करती हैं व कष्ट भोगती हैं। जब मुर्गी अंडा देती है तो अंडा जाली में से किनारे पड़कर अलग हो जाता है और उसे अपनी अंडे सेने की प्राकृतिक भावना से वंचित रखा जाता है ताकि वह अगला अंडा जल्दी दे। जिन्दगी भर पिंजरे में कैद रहने व चल फिर न सकने के कारण उसकी टांगे बेकार हो जाती हैं। जब उसकी उपयोगिता घट जाती है, तो उसे कत्लखाने भेज दिया जाता हैै। इस प्रकार से प्राप्त अंडे अहिंसक व शाकाहारी कैसे हो सकते हैं ?