Friday, June 2, 2000

सोरों में भाजपा की हार के मायने

पश्चिम उत्तर प्रदेष की सेारों विधानसभा सीट पर हाल में संपन्न हुए उप चुनाव में भाजपा के प्रत्याषी की जमानत जब्त हो गई। इस चुनाव में जीतने वाला प्रत्याषी भाजपा के निश्कासित नेता कल्याण सिंह के दल का है। जाहिरन कल्याण सिंह के हौसले बढ़े हैं और उत्तर प्रदेष के भाजपा के वर्तमान मुख्यमंत्री राम प्रका गुप्त के खेमे में हताषा फैली है। यूं एक उप चुनाव का भाजपा की प्रादेषिक सरकार के भविश्य पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ेगा। पर सभी जानते हैं कि किसी भी उप चुनाव नतीजे सत्तारूढ़ दल की लोकप्रियता या अलोकप्रियता के परिचायक होते हैं। इसलिए सोरों में भाजपा की हार उसे काफी महंगी पड़ेगी। इसलिए इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

इसे उत्तर प्रदेष का दुर्भाग्य कहें या भाजपा का, आज उत्तर प्रदेष में भाजपा की सरकार को चार ऐसे लोग चला रहे हैं जिनका कोई उल्लेखनीय जनाधार नहीं। राजनाथ सिंह, लालजी टंडन, रामप्रकाष गुप्ता और कलराज मिश्र उत्तर प्रदेष की भाजपा के सरकार के चार स्वघोशित प्रमुख स्तंभ हैं। भाजपाईयों का कहना है कि इनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, संकुचित मानसिकता, स्वार्थपरक क्रिया-कलापों और जातिगत गुटबाजी ने उत्तर प्रदेष की भाजपा को कई खेमों में बांट दिया है। इस सबके चलते सबसे ज्यादा दुर्गति तो प्रदेष के हजारों जमीन से जुड़े भाजपा कार्यकर्ताओं की हो रही है। एक तरफ तो भाजपा मंत्रिमंडल में पूर्ववर्ती सरकारों की ही तरह व्याप्त भारी भ्रश्टाचार के कारण उन्हें प्रदेष की जनता के सामने नीचा देखना पड़ रहा है और दूसरी तरफ भाजपा सरकार की पूरी निश्क्रियता, प्राषासनिक अकुषलता के चलते वे भाजपा के वोट बैंक को थामे रखने में अपने को असहाय महसूस कर रहे हैं। उत्तर प्रदेष के षहरों और गांवों में भाजपा के पारंपरिक मतदाताओं के मन में भारी आक्रोष है, जो बेबुनियाद नहीं है। आज प्रदेष में मूलभूत सुविधाओं की बेहद कमी है और अव्यवस्था फैल रही है। प्रदेष की ज्यादातर सड़के उधड़ी पड़ी हैं। पर उनकी देखरेख करने वाले विभाग चादर तान कर सो रहे हैं। बिजली व पानी की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है और पूर्ववर्ती सरकारों की तरह भाजपा सरकार भी इन समस्याओं का हल ढूंढने में नाकाम रही है। सरकार साधनों की कमी का बहाना बना कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। यह सही है कि उत्तर प्रदेष की सरकार दिवालिया हो चुकी है। उसके पास जोड़-तोड़ करके भी अपनी नौकरषाही को टिकाए रखने लायक भी पैसे नहीं हैं। परिणाम स्वरूप तनख्वाह और जमा भविश्य राषि तक बांटने में उसे भारी दिक्कत आ रही है। जब तनख्वाह ही बांटने को पैसे नहीं है तो विकास कार्य क्या खाक होंगे ? नतीजतन प्रदेष के लाखों सरकारी मुलाजिम और अफसर महीने से अपने दफ्तरों में निट्ठले बैठें हैं और इनको खाली बैठाकर खिलाने का भार प्रदेष की जनता पर पढ़ रहा है। ऐसा नहीं है कि धन के अभाव में प्रषासन तंत्र कुछ कर ही नहीं सकता। इच्छाषक्ति हो तो थोड़ी सी अक्ल लगा कर बिना पैसे खर्च किए जनता को राहत पहुंचाने के बहुत से काम किए जा सकते है। मसलन, प्रदेष भर के तालाबों को श्रमदान से खुदवाने का काम ये लोग अच्छी तरह से कर सकते हैं। जिससे भविश्य में प्रदेष में पानी का संकट दूर हो सकता है। षहरों में अवैध कब्जे तोड़कर यातायात को सुचारू करना, पुलिस को प्रभावी बनाकर अपराधों पर काबू पाना व जन सहयोग से बढ़ते कूड़े के अंबारों को खत्म करना। पर उसके लिए नौकरषाही और नेताषाही दोनों को अपने वातानुकूलित आरामगाहों से निकल कर धूप में सिर तपाने होंगे।

प्रदेष की ज्यादातर नगरपालिकाओं पर भाजपा हावी है। इन नगरपालिकाओं की भी भारी दुर्गति हो रही है। प्रदेष की ज्यादातर नगरपालिकाओं के अध्यक्षों के उल्टे-सीधे कामों से नगरपालिकाओं का दिवाला निकल गया है। सार्वजनिक जमीनों पर कब्जे कराना, उन्हें रिष्वत लेकर सस्ते दामों पर बेचना या आवंटित करना, खुलेआम निर्लजता से हो रहा है। प्रदेष की आम जनता इस बात से बहुत बौखलाई हुई है कि कुषल, पारदर्षी व ईमानदार प्रषासन देने का दावा करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के दल का इतनी तेजी से पतन क्यों हो गया ? आज उत्तर प्रदेष की जनता ये कहने पर मजबूर है कि भाजपा और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं बचा।

प्रदेष की नौकरषाही एक तरफ तो मायावती के जमाने की ही तरह लगातार हो रहे तबादलों से त्रस्त हैं और कोई भी कडे़ निर्णय ले पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही है। दूसरी तरफ प्रदेष की अनुभवहीन सरकार की कमजोरी का फायदा उठाकर प्रदेष की नौकरषाही का एक बड़ा हिस्सा उद्दंड, अहंकारी और लापरवाह होता जा रहा है। अगर प्रदेष की जनता को थोड़ी-बहुत राहत मिल रही है तो उसका श्रेय संघ के कार्यकर्ताओं को जाता है। संघ के समर्पित कार्यकर्ता आज भी अपना काम उसी तत्परता से कर रहे हैं जैसाकि वे हमेषा करते आए हैं। प्रषासनिक निकम्मेपन से जूझने में जनता की मदद करने संघ के कार्यकर्ता सदैव तत्पर रहते है। पर भाजपा की नीतियों के कारण इनमें भी काफी हताषा आती जा रही है। इसका प्रमुख कारण है भाजपा नेतष्त्व द्वारा हर जिलों में दलालों और भू-माफियाओं को वरीयता देना। जमीन व संपत्तियों पर कब्जे करने का जो काम ये माफिया पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में कांग्रेसी नेता बन कर करते आए थे वहीं काम आज ये भाजपाई नेता बन कर कर रहे हैं। फिर भी इन षहरों व कस्बों में जब भाजपा के प्रादेषिक ही नहीं राश्ट्रीय नेता भी आते हैं तो वे इन माफियाओं और दलालों का आतिथ्य स्वीकारने में हिचकते नहीं। सत्ता के ये दलाल इन बड़े नेताओं को इस तरह अपने सुरक्षा घेरे में ले लेते हैं कि वर्शों से भाजपा के लिए समर्पित कार्यकर्ता भी मिलने वालों की कतारों में खड़े रह जाते हंै। ऐसी बातें छिपती नहीं हैं। जनता में उनकी खूब टीका-टिप्पणी होती है। पर लगता है कि भाजपा नेतष्त्व को अब अपनी स्वच्छ छवि की कोई परवाह ही न रही और उसने मान ही लिया है कि उसकी कमीज दूसरों की कमीज से ज्यादा चमकदार नहीं है, इसलिए क्यों परवाह की जाए ?

ऐसा नहीं है कि भाजपा उत्तर प्रदेष का महत्व नहीं समझती। उत्तर प्रदेष की राजनीति का केंद्र की सरकार के स्थायित्व से सीधा संबंध है। अगर उत्तर प्रदेष गड़बड़ाया तो केंद्र की सरकार भी स्थिर नहीं रह पाएगी। पर यह जानते हुए भी भाजपा का केंद्रिय नेतष्त्व उत्तर प्रदेष की उपेक्षा करता जा रहा है। आज प्रदेष में अनेक उद्योग-धंधे और कारोंबार बंद हो चुके हैं, जिससे बेरोजगारी बढ़ी है और नौजवानों में हताषा है। आर्थिक विकास होना तो दूर की बात रहा। प्रदेष में आधारभूत संरचनाओं के अभाव व प्रषासनिक निकम्मेपन के कारण प्रदेष से बाहर के लोग औद्योगिक विनियोग में रूचि नहीं ले रहे हैं। जबकि उत्तर प्रदेष के पास प्राकष्तिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है। एक तरफ भाजपा अपनी नाकामियों के बावजूद आत्मसम्मोहित होकर सो रही है तो दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव और कल्याण सिंह उसकी कमजोरियों का फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इनके दलों के नेता, सांसद, विधायक और कार्यकर्ता गुपचुप अपना जनाधार बढ़ाने में लगे हुए हैं। राजब्बर जैसे फिल्मी सांसद भी अपने क्षेत्र में डेरा डाले पड़े हैं और जनता के सवालों पर जमीनी संघर्श चलाने का उपक्रम कर रहे हैं। जाहिर है कि आगामी विधानसभाओं के निकट आने तक इनके तेवर आक्रामक हो जाएंगे और भाजपा रक्षात्मक भी नहीं रह पाएगी। पर षायद भाजपा के राश्ट्रीय नेतष्त्व ने वही रवैया अपना लिया है जो दूसरे पुराने दलों के बड़े नेताओं के अपना रखा है। वह है कि चुनाव जीतने तक जनता को खूब सपने दिखाओं फिर जनता को भूल जाओ और मौज मारों क्योंकि जनता अगले चुनाव में तो तुम्हें वोट देगी नहीं। अगले चुनाव में जब हारो तो दुख मत मनाओ क्योंकि जो आज जीते हैं वह कल हारेंगे। ये मौका मिला है अर्जित धन को ठिकाने लगाने का और मौज लेने का, सो खूब मौज लो तब तक जब तक कि अगला चुनाव सिर पर न आ जाए। यह दुखद स्थिति है। एक तरफ जनता को भेड़ बकरियों की तरह हांका जाए। दूसरी तरफ उसके संसाधन उससे छीन लिए जाएं। उसके संसाधनों को कौडि़यों के मोल बहुराश्ट्रीय कंपनियों को सौप दिए जाएं। जनता को प्रगतिषील और विष्व व्यापी आर्थिक दष्श्टिकोण अपनाने की प्रेरणा दी जाए। यह सब तब हो जबकि उसके सामने रोटी, कपड़ा, मकान, पानी, बिजली, षिक्षा, रोजगार व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध न हों।

अब तो जनता के बुनियादी सवालों की बात करना भी दकियानूसी माना जाता है। पर आष्चर्य यह देखकर होता है कि देष, धर्म, स्वदेषी और संस्कष्ति का बात करने वाला दल भी क्या इतना खोखला है कि जब उसे जनता की सेवा करने का मौका मिला तो रातो-रात उसका नकाब उतर गया। पर ऐसा है नहीं। भाजपा और संघ को खड़ा करने में जिन लोगों ने अपनी जवानी और अपना खून-पसीना होम कर दिया उन्हें चुप नहीं बैठना चाहिए। आज उन्हें यह कह कर बरगला दिया जाता है कि साझी सरकार कड़े निर्णय लेने में असमर्थ है। पर क्या साझी सरकार में बैठे भाजपा के मंत्री भी लोकतांत्रिक और जनतांत्रिक जैसी राजनीति करने पर मजबूर हैं ? तमाम सीमाओं के बावजूद क्या उत्तर प्रदेष सरकार में भाजपा के मंत्री अपने स्वच्छ और पारदर्षी आचारण से जनता को राहत नहीं दे सकते ? क्या उनके ऐसे आचरण से सरकार का स्थायित्व खतरे में पड़ जाएगा ? अगर उत्तर प्रदेष के भाजपा के मंत्री अपने उन्हीं जूझारू दिनों को याद करें जब वे प्रदेष की जनता के बुनियादी सवालों को लेकर सड़कों पर संघर्श किया करते थे तो उन्हें सब समझ में आ जाएगा कि कमी कहां है और उसे कैसे पूरा करना है। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो वे अगले चुनाव में ये कह पाने की स्थिति में होंगे कि साझी सरकार की तमाम सीमाओं के बावजूद हम यह सब कर सके। अब अगर आप हमें पूर्ण बहुमत दें तो हम अपने एजंेडा के बाकी सवालों पर भी आपको ठोस नतीजे दे पाएंगे। बषर्ते वे ऐसा करना चाहें। लगता तो यह है कि भाजपा के राजनेताओं में अब न तो दल के प्रति समर्पण रहा और ना ही विचारधारा के प्रति। जब सारा खेल ही कुर्सी का और स्वार्थ सिद्धि का हो तो जनता की परवाह कौन करे ? इसलिए सोरों में भाजपा की करारी षिकस्त चाहे जो भी संदेष दे, भाजपा नेतष्त्व की खुमारी टूटने वाली नहीं है।

Friday, May 26, 2000

हवाला कांड आयकर विभाग के दोहरे मापदंड


हवाला कांड में आयकर विभाग की जांच में हो रही कोताही को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय ने नोटिस जारी किए हैं। आगामी 13 जुलाई को इस मामले की सुनवाई होगी। देश की राजनीति में हड़कंप मचा देने वाले हवाला कांड को लेकर एक बार फिर अटकलों का बाजार गर्म है। अदालत के नोटिस की इस खबर को देश के लगभग सभी अखबारों ने प्रमुखता से छापा है। जाहिर सी बात है कि देश का हर कारोबारी आदमी इस बात से हैरान है कि जब जैन बंधुओं के यहां से करोड़ों रुपए के काले धन के हिसाब-किताब के खाते 3 मई 1991 को छापे में बरामद हुए थे। तमाम देशों की विदेशी मुद्रा, इंदिरा विकास पत्रा और दूसरे अवैध लेन-देन के सबूत मिले थे तो आज तक आयकर विभाग ने जैन बंधुओं के खिलाफ क्या कार्रवाही की ?

यह उल्लेखनीय है कि अगर जैन बंधुओं के साथ इस देश के प्रमुख राजनेताआंे के अवैध आर्थिक लेन-देन के सबूत न मिले होते तो आयकर विभाग उनकी जम कर खबर लेता। जैसा इस देश के आम व्यापारी, कारखानेदार और दूसरे कारोबारियों के साथ होता है। किसी व्यापारी के घर छापे में अगर कच्चे हिसाब की एक पर्ची भी मिल जाए तो उसे भी आयकर वाले छोड़ते नहीं हैं। उससे और आगे सबूत नहीं मांगे जाते। उस पर्ची में दर्ज जमा-खर्च को सही मानकर आयकर और जुर्माने का निर्धारण कर दिया जाता है। पर देश की जनता को काले धन के नाम पर अखबारी और टीवी विज्ञापनों में आए दिन धमकाने वाले आयकर विभाग, राजस्व सचिव व भारत के वित्तमंत्राी जैन बंधुओं के साथ विशिष्ट व्यक्तियांेजैसा बर्ताव करते आए हैं। सितंबर 1993 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर अपनी जनहित याचिका में मैंने ये मुद्दे उठाए थे । उसके बाद इसी मामले में 18 अप्रैल 199510 जनवरी 1996 को दायर अपने शपथ पत्रों में मैंने वे तमाम तथ्य रखे थे जिनसे हवाला मामले में आयकर विभाग की कोताही सिद्ध होती है। इन्हीं शपथ पत्रों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के राजस्व सचिव को निर्देश दिए थे कि आयकर के इस मामले में सेटलमेंट कमीशनभी अंतिम निर्णय लेने को स्वतंत्रा नहीं होगा। ऐसा सर्वोच्च न्यायालय को इस लिए कहना पड़ा क्योंकि जैन बंधुओं ने 1995 में आयकर विभाग को यह लिखकर दिया था कि वे अपने विरूद्ध हवाला कांड से जुड़े आयकर के सारे मामलों को निपटवाने की एवज में एकमुश्त सौ करोड़ रुपया बतौर आयकर व जुर्माना जमा कराने को तैयार हैं। जैन बंधुओं ने यह प्रस्ताव इस लिए किया क्योंकि उन्हें यह पता है कि अगर ईमानदारी से उनके विरूद्ध जांच हो तो इसकी कई गुना राशि उन्हें बतौर आयकर व जुर्माना जमा करानी पड़ेगी।
आश्चर्य की बात है कि आयकर विभाग ने जैन बंधुओं के इस प्रस्ताव के तहत सौ करोड़ रुपया आज तक जमा नहीं करवाया। अगर आयकर विभाग जैंन बंधुओं से यह रकम लेकर बैंक की सावधि जमा योजना में ही जमा कर देता तो आज ये बढ़ कर दो सौ करोड़ रुपया हो गई होती। सरकार को हुए इस सौ करोड़ रुपए के नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है ? क्या उसे इस साजिश की सजा मिलेगी ? पैसे जमा कराना तो दूर आयकर विभाग ने तो जैन बंधुओं के खिलाफ ढंग से जांच भी शुरू नहीं की है। इतना ही नहीं जैन बंधुओं ने अपने विरूद्ध चल रहे आयकर के मामलों की फाइलें बिना किसी दिक्कत के दिल्ली से मध्य प्रदेश ट्रांसफर करवा ली है। ताकि वे गुपचुप तरीके से, ले-देकर अपने विरूद्ध चल रहे सब मामलों को, अपने हित में सुलटाने में कामयाब हो जाएं। सबसे पहले इस मामले में जो वांछित कार्रवाही है वह होनी चाहिए। क्या दिल्ली उच्च न्यायालय 13 जुलाई को इस साजिश पर ध्यान देगा ?
जैन हवाला कांड में कुछ ठोस सबूत हासिल करने के उद्देश्य से उच्चतम न्यायालय ने आयकर विभाग के जांच प्रकोष्ठ को स्वतंत्रा जांच करने के आवश्यक निर्देश दिए थे। इस संबंध में ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ये एजंसियां (सीबीआई और आयकर विभाग) संसद द्वारा पारित कानून के तहत काम करती हैं और इन्हें किसी भी मंत्राी या मंत्रालय से निर्देश लेने की आवश्यकता नहीं होती है। इसके अलावा जांच अधिकारी द्वारा इनकम टैक्स एक्ट के सैक्शन 131 के अंतर्गत दर्ज बयान के आधार पर न केवल किसी भी जरूरी समझे जाने वाले व्यक्ति को जांच के लिए बुलाया जा सकता है। बल्कि किसी भी तरह के कागजात की मांग के लिए सम्मन भेजा जा सकता है। इसके अलावा वांच्छित व्यक्ति के स्थान पर उसके वकील या किसी और व्यक्ति से पूछताछ नहीं की जा सकती। जांच अधिकारी उपयुक्त समझे तो आयकर अधिनीयम की धारा 276सी और 276 सीसी के अंतर्गत अवमानना और असहयोग बरतने के आरोप में उस व्यक्ति पर 10 हजार रूपए तक का दंड भी लगा सकते हैं। ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इतने प्रावधान होने के बाद भी आयकर विभाग ने अब तक इस मामले में पैसा लेने वालांे में से किसी भी व्यक्ति के खिलाफ सम्मन जारी नहीं किया और जांच पड़ताल के नाम पर केवल खानापूर्ति की है। फिर भी कोई राजनेता या दल इस कांड की जांच की मांग नहीं करता, क्यों ?
आयकर विभाग द्वारा की जाने वाली जांच-पड़ताल का काफी महत्व है। क्योंकि आयकर विभाग द्वारा जो भी सबूत आयकर अधिनियम की धारा 131 के तहत दर्ज किए जाते हैं उन्हें कोर्ट के सम्मुख दर्ज सबूतों का दर्जा प्राप्त होता है। जबकि पुलिस द्वारा दर्ज बयानों के साथ ऐसा नहीं है। फिर आयकर विभाग ने यह क्यों नहीं किया ? क्या भारत सरकार के राजस्व सचिव इसका जवाब दे सकते हैं ?
आयकर विभाग के जांच अधिकरी जहां एक ओर उच्चतम न्यायालय को यह दिखाने का नाटक कर रहे थे कि वे उसके सभी निर्देशों का कड़ाई से पालन कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ वे जांच-पड़ताल को लेकर गंभीर नहीं थे। वरना ऐसा क्यों होता कि डीडीआईटी (नार्थ) अग्रवाल देश भर में फैले 10 हजार से भी ज्यादा आयकर अधिकारियों को एक सर्कुलर भेज कर यह जानना चाहते कि उनमें से कौन सा अधिकरी जैन बंधुआं की डायरी में पैसा लेने वालों के मामले में कर निर्धारण करने का काम देख रहा है। जाहिर है कि इस सब के पीछे उनकी यही मंशा थी कि किसी भी तरह जांच की कार्रवाई को अनावश्यक रूप से लंबा खींच कर उसको बेमतलब सा कर दिया जाए। जबकि सब जानते हैं कि जिन लोगों का नाम जैन डायरी में पैसा लेने के मामले में दर्ज है वो कोई मामूली व्यक्ति नहीं है। उनके नाम पते सबको पता हैं। उन्हें यूं सारे देश में ढंूढने की जरूरत नहीं थी
जांच-पड़ताल के किसी भी मामले में जानबूझ कर कोताही बरतना, मामले को दबाने जैसा है, बल्कि उससे भी कही ज्यादा बदतर है।  इस मामले में 70 से ज्यादा लोगों के खिलाफ न तो सम्मन जारी किए गए और ना ही उनके खातों को आयकर अधिनियम के तहत जब्त किया गया है। जबकि इससे भी कही साधारण मामले में जरा-सी शंका होने पर ही ऐसा कर दिया जाता है, ऐसा क्यों किया गया ? क्या राजस्व सचिव जवाब दे सकते हैं ?
इस संबंध में एक रूचिकर तथ्य यह है कि आयकर अधिनियम किसी भी ऐसे खर्चे को जायज़ नही मानता, जो कि किसी नाजायज़ काम के लिए खर्च किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी काम के लिए रिश्वत देता है, जो गैर कानूनी है तो ऐसा करने के लिए जो भी व्यय होगा वो अमान्य होगा और उस पर भी आयकर लगेगा। इसके अलावा 1 लाख रुपए  सालाना से ऊपर की आमदनी को छुपाना भी एक दंडनीय अपराध है। जिसमें तीन से सात साल तक की सजा हो सकती है और देय इनकम टैक्स का 100 फीसदी से 300 फीसदी तक भी बतौर दंड वसूल किया जा सकता है। पर जैन बंधुओं के मामले में आयकर विभाग के अधिकारियों ने दूसरा ही रवैया अपनाया। उन्हें लगातार बचाया जाता रहा ताकि नेताओं को बचाया जा सके। जबकि आयकर अधिनियम, सरकारी खजाने का बकाया कर वसूलने का सबसे सशक्त अधिनियम है।
आयकर विभाग का एक मुख्य उद्देश्य यह रहता है कि वह हर लेन-देन की पूरी तरह जांच करे।  जैसे कि अगर कोई व्यक्ति यह दावा करता कि उसे इतना पैसा उपहार स्वरूप (गिफ्ट) मिला है तो संशोधित आधिनियम के अनुसार उपहार स्वीकार करने वाले को, दिए गए पैसे का 30 फीसदी बतौर गिफ्ट टैक्स देना होता था और यदि गिफ्ट स्वीकार करने वाला स्वेच्छा से आयकर रिटर्न नहीं दाखिल करता तो आयकर अधिनियम के अनुसार यह दंडनीय है।
लेकिन जैन डायरी में दर्ज लोगों के नाम किसी भी तरह की कोई जांच नहीं की गई। केवल कुछ ही लोगों से तफतीश की गई। पैसा लेने वाले लोगों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध रखने वालों की ना तो संपत्ति जब्त की गई और न ही उनके बैंक खाते सील किए गए और न ही इन लोगों के खिलाफ धारा 276सी और 276सीसी के अंतर्गत मुकदमें दायर किए गए, जबकि इस संदर्भ में काफी तथ्य पहले से ही प्रकाश में आ चुके थे, जाहिर है कि जांच करनी ही नहीं थी।
इस संबंध में एक और कानूनी पहलू यह है कि आयकर विभाग के उपनिदेशक से वरिष्ठ अधिकारी तक इस तरह के मामले में कार्रवाई के तरीकों पर कोई निर्देश जारी नहीं कर सकते। इस संबंध में जांच अधिकारी को ही इतने अधिकार होते हैं कि वह आयकर अधिनियम की सीमाओं के अंतर्गत यह सुनिश्चित करे कि न केवल मामले का शीघ्र निपटारा हो बल्कि राजस्व संबंधी कार्रवाई भी पूरी हो। परंतु इस तरह के प्रावधान के बावजूद भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं कि जब यह नहीं किया गया। इस बात के पर्याप्त सबूत मौजूद थे कि गैर कानूनी ढंग से लेन-देन हुआ, फिर भी कोई कार्रवाई आयकर विभाग के ओर से नहीं की गई। इससे सबसे ज्यादा धक्का आयकर विभाग की साख को ही पहुंचाता है।
विडम्बना देखिए कि देश की जनता को बताया जा रहा है कि हवाला कांड में सबूत नहीं है, जबकि हकीकत यह है कि जो सबूत हैं, उन्हें दबाया जा रहा है या तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है। सरकारी जांच एजंसियों की इन साजिशों की कोई नेता चर्चा तक नहीं कर रहा है कि कैसे उन्होंने हवाला आरोपियों को लगातार बचाया है। जाहिर है कि जानबूझकर किए गए इस निकम्मेपन के लिए इन जांच एजंसियों के अधिकारियों को जैन बंधुओं ने मुंह मांगी मोटी रकमें बांटी होंगी। वरना कौन अपनी नौकरी खतरे में डालकर ऐसे अवैध काम करता है ? जो राजनेता हवाला कांड को अपने विरूद्ध षड़यंत्रा बता कर देशवासियों व अपने दल के कार्यकर्ताओं को मूर्ख बनाते आए हैं, उन्हें इस कांड की जांच में की गई इन तमाम बेईमानियों के खिलाफ संसद में और बाहर शोर मचाना चाहिए। पर वे ऐसी हिम्मत नहीं कर सकते। उनके दल के कार्यकर्ताओं को उनसे इस खामोशी की वजह पूछनी चाहिए। पर जब तक आयकर विभाग से हमेशा बेइज्जत होने वाले आम व्यापारी, कारोबारी, कारखानेदार और उद्योगपति मिलकर अपने अपने स्तर पर हवाला कांड से जुड़े इन बुनियादी सवालों पर सरकार और आयकर विभाग को कटघरे में खड़ा नहीं करते तब तक कुछ होने वाला नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय अगर इन बिंदुओं पर कुछ करवा पाता है तभी उसके ताजा कदम का औचित्य है, वरना नहीं।

Friday, May 19, 2000

दिल्ली में श्री जगमोहन का आतंक

केंद्रीय शहरी विकास मंत्रh श्री जगमोहन के ताजा बयानों ने देश की राजधानी में आतंक फैला दिया है। खासकर मध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय आवासीय कालोनियों के निवासी ज्यादा चिंतित हैं। इसमें श्री जगमोहन का कोई दोष नहीं क्योंकि वे उन कुशल प्रशासकों में से हैं जो हर काम को मुस्तैदी से अंजाम देना चाहते हैं, चाहे जो भी काम क्यों न हो। आपातकाल के दौर में वे श्रीमती इंदिरा गांधी के तुनक मिजाज पुत्रा संजय गांधी के दाहिने हाथ हुआ करते थे। तब उन्होंने दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके और दूसरे इलाकों में बड़ी मात्रा में अवैध निर्माण गिराकर पहली बार शोहरत हासिल की थी। इसके बाद जब वे कश्मीर के उप राज्यपाल बने तो उन्होंने वैष्णो देवी तीर्थ स्थल पर व्याप्त भारी अवयवस्था को दुरूस्त करने का काम किया। जिससे उन्हें फिर वाहवाही मिली। घाटी में फैले आतंकवाद पर अपने कार्यकाल में अंकुश लगाने का काम भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। वाजपेयी सरकार में जब उन्हें संचार मंत्रालय थमाया गया तो उन्होंने वहां हो रहे घोटालों पर अपनी लगाम कसने की कोशिश की। पर सत्ता के गलियारों में दखल रखने वालों को यह रास नहीं आया और श्री जगमोहन से संचार मंत्रालय लेकर उन्हें शहरी विकास मंत्रालय सौप दिया गया। इसलिए उनके ताजा बयानों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

सब जानते हैं कि देश के अन्य बड़े नगरों की तरह दिल्ली भी बुरी तरह भू-माफियाओं की गिरफत में रही है, जिन्हें पुलिस, प्रशासन व राजनेताओं का खुला संरक्षण प्राप्त है। इसलिए अवैध निर्माण के मामले में देश के महानगरों में दिल्ली का स्थान सबसे ऊपर है। कहते हैं कि आधी से ज्यादा दिल्ली अवैध रूप से निर्मित है। इसलिए श्री जगमोहन की ताजा मुहिम दिल्ली में शहरी निर्माण नियमों और कानूनों को कड़ाई से लागू करवाने की है। वे चाहते है कि दिल्ली में हो रहे अवैध निर्माण रूक जाएं। जो हो चुके हैं उन्हें तोड़ दिया जाए और इन अवैध निर्माणों को अनदेखा करने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को सजा दी जाए। उनके इन कदमों को उनकी सरकार के बाकी मंत्रियों को सहमति प्राप्त है ऐसा बताते है। इसीलिए वे दमखम के साथ अपने बयान और निर्देश जारी कर रहे हैं। सबसे ताजा निर्देश यह है कि डीडीए के जिन फ्लैटों में अवैध निर्माण हुए हैं उनके आवंटन रद्द कर दिए जाएं। चूंकि डीडीए के अवंटन की शर्तों में यह अधिनियम पहले से ही मौजूद है इसलिए इसमें नया कुछ भी नहीं।नई बात तो यह है कि इस अधिनियम को पहली बार लागू करने की संभावना दिखाई दे रही है। जाहिर है कि अपने जीवन भर की कमाई को लगा कर किसी तरह डीडीए के एक फ्लैट का जुगाड़ करने वाले मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय लोग काफी आतंकित हैं। जैसाकि श्री जगमोहन ने संकेत भी दिया है कि इस आदेश को लागू करने का मकसद डीडीए के घरों में रहने वालों के मन में कानून का डर पैदा करना है। डीडीए के कुछ बस्तियों में अवैध निर्माण गिराने का काम शुरू भी हो चुका है। श्री जगमोहन का यह प्रयास वांछित भी है और समर्थन करने योग्य भी। पर इसके साथ ही कुछ ऐसे टेढ़े सवाल खड़े हो जाते हैं जिनका उत्तर दिए बिना श्री जगमोहन को अपना अभियान आगे बढ़ाने से पहले कुछ सोचना होगा।

आमतौर पर डीडीए का फ्लैट लेने वाले परिवारों की इतनी हैसियत नहीं होती कि वे बच्चों के जवान हो जाने पर दूसरे घर खरीद सकें। इसलिए उन्हीें फ्लैटों में किसी तरह जगह बनाई जाती है। वैसे भी राजनेताओं के भारी भ्रष्टाचार के चलते देश में जो बे इंतहा महंगाई बढ़ी है जिसने आम लोगों की कमर तोड़ दी है। इसलिए ऐसे मजबूर लोगों के मामले में इन बातों का भी ध्यान रखना होगा। सबको एक लाठी से नहीं हांका जा सकता। कानून लोगों के सुख के लिए है, उन्हें प्रताडि़त करने के लिए नहीं। इसी तरह यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि एक तरफ तो सरकार देश की अर्थ व्यवस्था का पश्चिमीकरण कर रही है और दूसरी तरफ दिल्ली के व्यवसायिक इलाकों में बड़े कमर्शियल भवन नहीं बनने दे रही। जबकि आधुनिक किस्म के स्टोरों बनाने के लिए हजारों वर्ग फुट के हाॅल चाहिए। सही योजना के अभाव में बेतरतीब विकास होगा ही। पर इसका अर्थ यह नहीं कि गलत को सही ठहराया जाए। हां, यह जरूर देखा जाएगा कि कानून की मार किस पर पड़ती है, बेलगाम राजनेताओं पर या साधारण जनता पर ?

मानी हुई बात है कि समाज के प्रतिष्ठित और ताकतवर लोग जो करते हैं शेष समाज उनका अनुसरण करता है। दिल्ली में अवैध निर्माण को सबसे ज्यादा संरक्षण यहां के बड़े राजनेताओं ने दिया है और उनसे संबंधित अवैध निर्माणों को तुड़वाए बिना श्री जगमोहन मध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय परिवारों के सीने पर बुलडोजर नहीं चला सकते। दिल्ली की रिंग रोड पर स्थित मशहूर पांच सितारा होटल हयाॅत रिजेंसी के सामने की ओर अनंतराम डेरी कालोनी है, जिसमें देश के कई मशहूर राजनीतिज्ञों ने गैर-कानूनी तरीके से विशालकाय महलनुमा अवैध बंगले बना रखे हैं। जबकि इस जमीन पर सरकारी फ्लैट बनाए जाने थे। इन राजनेताओं में मौजूदा केंद्रीय सरकार के मंत्राी भी शामिल हैं। इन अवैध आलिशान बंगलों को तोड़ने के शहरी विकास मंत्रालय के पिछले वर्षों में सब प्रयास नाकामयाब रहे। ये ताकतवर राजनेता हर परिस्थिति में अपनी ताकत का उपयोग करके अपने अवैध निर्माणों को सुरक्षित रख पाने में सफल रहे हैं। श्री जगमोहन के सामने अनंतराम डेरी के ये अवैध निर्माण एक चुनौती के रूप में खड़े हैं। जिन्हें तुड़वाए बिना अगर वे डीडीए के फ्लैट वालों या झुग्गी-झोपडि़यों पर बुलडोजर चलवाते हैं तो यह नैतिक काम नहीं होगा। फिर अगर ऐसी तमाम कालोनियों और बस्तियों के लोग शहरी विकास मंत्रालय के सामने धरने पर बैठ जाएं और मांग करें कि ‘पहले अनंतराम डेरी के महल तोड़ों, फिर हमारी ओर मुख मोड़ों।’ अनंतराम डेरी तो एक उदाहरण हैं ऐसे दर्जनों मामले जगमोहन जी के मंत्रालय की फाइलों में बंद हैं जो जनता व मीडिया के निगाह में है।

गनीमत है कि जगमोहन जी ने इस बार ये कहा है कि इन अवैध निर्माणों को अनदेखा करने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को सजा दी जाएगी। अगर दिल्ली के विभिन्न इलाकों में हुए अवैध निर्माणों की सूची तैयार की जाए तो पता चलेगा कि पिछले बीस वर्ष में डीडीए, एमसीडी और एनडीएमसी के ज्यादातर अधिकारी सजा पाने वालों की कतार में खड़े होंगे। जाहिर है कि इन अधिकारियों ने प्रेम और करूणावश तो दिल्ली वासियों को ये अवैध निर्माण करने की छूट तो दी नहीं होगी। मोटी रकम ऐंठ कर ही अपनी आंखंे बंद की होंगी। अगर जगमोहन जी वाकई कानून का डर पैदा करना चाहते हैं तो पहले इन अधिकारियों की खबर ले। इसका एक आसान तरीका यह होगा कि वे सार्वजनिक घोषणा करके दिल्ली वासियों से पूछें कि उन्होंने किस अधिकारी को कब, कितनी रिश्वत देकर अवैध निर्माण करवाया था। जिनके विरूद्ध शिकायतें आएं उनके बारे में निश्चित समय सीमा में जांच करवा कर उन्हें बर्खास्त करें। ताकि भविष्य में कोई भी अधिकारी अवैध निर्माण को देख कर आंख न मीच पाए।

इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि नए अवैध निर्माण तोड़ने से पहले श्री जगमोहन पहले उन विवादास्पद भवनों की जांच करवाएं जिनके अवैध रूप से निर्मित् हिस्सों को पिछले वर्षों में गिराया गया था। ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि इनमें से ज्यादा तर ने संबंधित विभागों को फिर पैसा खिलाकर दुबारा पहले ही की तरह अवैध निर्माण करलिए हैं। नए अवैध निर्माण गिराने से क्या फायदा जब तक कि यह सुनिश्चित न हो जाए कि अब दुबारा अवैध निर्माण नहीं होगा। ऐसे बहुत सारे विवादास्द भवन आसानी से पहचाने जा सकते हैं क्योंकि जब उनके अवैध हिस्से गिराए गए थे तब वे खबरों में छाए रहे थे।

लोकतंत्रा में सांसदों, विधायकों और मंत्रियों की भूमिका मार्ग दर्शक ही होती है। वीआईपी माने जाने वाले केंद्रीय दिल्ली इलाके में बने सांसदों और मंत्रियों के भवनों और सत्तारूढ भाजपा सहित सभी दलों के मुख्यालयों में नियमों और कानूनों को ताक पर रखकर डट कर अवैध निर्माण हुए है। जिन्होंने अंग्रेजों की बसाई इस दिल्ली का खूबसूरत चेहरा बिगाड़ कर रख दिया है। कानून में आस्था रखने वाला देश का हर आम नागरिक श्री जगमोहन से अगर यह अपेक्षा रखे कि वे इन अतिविशिष्ट लोंगों के खिलाफ बिना देरी के कड़ी कार्रवाही करेंगे तो इसमें क्या गलत है ?

इस बात के तमाम प्रमाण प्रशासनिक फाइलों में दर्ज हैं कि अवैध निर्माण कर चुके साधन संपन्न लोगों ने प्रशासन के विरूद्ध विभिन्न न्यायालयों से स्थगन आदेश ले रखे हैं और सरकारी अफसरों को रिश्वत देकर मुकदमें की तारीख लगातार आगे बढ़वाते रहते हैं, या तारीख पड़ने ही नहीं देते हैं। इससे पहले कि शहरी विकास मंत्रालय के बुलडोजर आम जनता के विरूद्ध अभियान छेड़े, यह जरूरी होगा कि न्यायालयों में लंबित ऐसे सभी मामलों में देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को खींचा जाए और इन मामलों को जल्दी निपटवाने की मुहिम चलाई जाए। ताकि लोग अवैध निर्माण को बचाने के लिए अदालतों की तरफ दौड़ना बंद करें। जगमोहन जी से पहले इसी सरकार में शहरी विकास मंत्राी रहे श्री राम जेठमलानी ने दिल्ली की रिंग रोड पर स्थित सिंधिया परिवार की विशाल बेशकीमती जमीन को निहायत पक्षपातपूर्ण ढंग से अधिग्रहण से मुक्त करके सिंधिया परिवार को सैकड़ों करोड़ रुपए का फायदा करवाया है। जबकि दिल्ली के देहातों में बसे लाखों परिवारों की खेती और चरागाहों की जगह को अधिग्रहण करते समय सरकार का दिल नहीं पसीजा। श्री जेठमलानी तो ऐसे और भी भूखंडों को अधिग्रहण से मुक्त करने की कार्रवाही शुरू कर चुके थे। वो तो भला हो श्री जगमोहन की मुस्तैदी का कि उन्होंने शहरी विकास मंत्रालय का पदभार संभालते ही उस पर रोक लगा दी। क्या श्री जगमोहन सिंधिया परिवार की इस विवादास्पद जमीन और ऐसी ही दूसरी जमीनों के मामले में जनता से किए गए धोखे को खुलासा करके इस घोटाले से जुड़े जिम्मेदारों लोगों को सजा दिलवाने की भी कोई कदम उठाएंगे। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते है तब यह संदेश जाएगा कि जगमोहन जी की नजर में भी सब बराबर नहीं हैं और वे अपना निशाना साधारण लोगों को बना रहे हैं जबकि बड़ें लोगों को हाथ तक नहीं लगा रहे हैं।

जो हालत दिल्ली की है कमोवेश वही हालत देश के दूसरे नगरों की है। जहां इसी तरह सरकारी अधिकारियों की मिली भगत से अवैध निर्माण का धंधा फलता-फूलता रहा है।वहां भी जब कभी कोई दमखम वाला अफसर या मंत्राी अवैध निर्माण गिराने की कोशिश करता है तो उसका लक्ष्य प्रायः आम लोग ही होते है। साधन संपन्न और ताकतवर लोग नहीं। इसलिए आम जनता के मन में ऐसी दोहरी नीतियों को देखकर क्रोध आना स्वभाविक ही है। एक अंग्रेजी कहावत है कि, ‘सीजर की पत्नी को ईमानदार होना ही नहीं, ईमानदार दिखना भी चाहिए।’ जगमोहन जी की कर्तव्यनिष्ठा और नेक ईरादों पर उंगली नहीं उठाई जा सकती पर अगर वे राजधानी के साधन संपन्न और ताकतवर लोगों को छुए बिना आम लोगों पर बुलडोजर चलाते हैं तो स्वभाविक ही है कि जनता की ओर से इसका भारी विरोध होगा। इतना ही नहीं जगमोहन जी चाहे कितनी ही सावधानी क्यों न बरते, फिर भी उनके अधिनस्थ अधिकारी इस माहौल का निजी लाभ उठाने से नहीं चूकेंगे। अक्सर ज्यादातर शहरों में देखा गया है कि स्थानीय पुलिस पैसे खाकर अवैध निर्माण की तरफ से आंख मूंद लेती है और अगर धमकाती भी है तो अवैध निर्माण रोकने के मकसद से नहीं बल्कि ऐसा निर्माण करने वालों से मोटा पैसा ऐठने के मकसद से। इस बात की पूरी संभावना है कि जगमोहन जी अपने मंत्रालय की फाइलों में उलझे रहे या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के पुस्तकालय की पुस्तकों में डूबे रहे है और उनके फारमानों का डर दिखा कर उनके ही अधीनस्थ अधिकारी राजधानी वासियों से नए सिरे से उगाही शुरू कर दें। यह असंभव नहीं है। इसलिए जगमोहन जी का रास्ता काफी मुश्किल है। पर मजबूत इरादे के लोग राह की मुश्किलों से रास्ते नहीं बदला करते। जगमोहन जी भी आसानी से इस अभियान को छोड़ने वाले नहीं है। वह दूसरी बात है कि जिनके स्वार्थ इस अभियान से टकराएंगे वे भू-माफिया सरकार पर दबाव डलवार कर एक बार फिर जगमोहन जी का मंत्रालय ही छिनवा दें। इस संभावना से बचने का एक ही तरीका है कि श्री जगमोहन राजधानी की जनता से खुलकर सहयोग लें और अवैध निर्माण तोड़ने के अभियान में सरकार और जनता को आमने-सामने खड़ा करने की बजाए एक ही पाली में खड़ा करें। हां, यह स्वभाविक ही है कि जनता का विश्वास जीते बिना उससे ऐसे धर्मनिष्ठ आचरण की अपेक्ष नहीं की जा सकती। विश्वास जीतने की पहली शर्त है अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करना। इस लेख के शुरू में उठाए गए सवालों पर अगर जगमोहन जी जनता को यह विश्वास दिला पाते हैं तो कि उनकी नजर में नियम और कानून तोड़ने वाले सभी लोग एक जैसे हैं तो उन्हें जनता का सहयोग अवश्य मिलेगा। पर इसके लिए पहल डीडीए की कालोनियों से और गंदी बस्तियों से नहीं बल्कि अनंतराम डेरी, सरकारी बंगलों और दूसरे बड़े लोगों के खिलाफ कड़ी और ठोस कार्रवाही करके ही की जानी चाहिए। ताकि किसी के मन में कोई शक न रह जाए। अगर जगमोहन जी इन सब सीमाओं के भीतर राजधानी को सुंदर और सुव्यवथित बना पाते हैं तो इससे देश के बाकी नगरों में भी बैठे अधिकारियों को प्रेरणा मिलेगी।

Friday, April 14, 2000

सवाल राबड़ी, आडवाणी व जोशी के इस्तीफे का


लालू गिरफ्तार होकर जेल चले गए। जबकि बिहार की मुख्यमंत्राी राबड़ी देवी को चार्जशीट करके जमानत पर छोड़ दिया गया है। समता पार्टी के नेता नीतिश कुमार और भाजपा के नेता सुशील मोदी राबड़ी देवी के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। हाल ही में हुए विधानसभाई चुनाव में लालू यादव की रणनीति के सामने गच्चा खा जाने वाले समता व भाजपाई इस मौके को हाथ से नहीं निकलने देना चाहते। इसलिए बिहार की अल्पमत सरकार में मुख्यमंत्राी रहे नीतिश कुमार के नेतृत्व में राबड़ी देवी के इस्तीफे की मांग को लेकर बिहार की सड़कों पर संघर्ष किया जा रहा है। उधर लालू ने भी नहले पर दहला मारते हुए बिहार की प्रदर्शनकारी महिलाओं के जत्थे दिल्ली रवाना कर दिए। 8 अप्रैल को दिल्ली में हवाला कांड के आरोपी रहे केंद्रीय मंत्रियों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर जब इन महिलाओं ने प्रदर्शन किया तो इनके चित्रा सारे देश के अखबारों में प्रमुखता से छपे। ये महिलाएं हाथ में बैनर और प्ले-कार्ड लिए हुए थीं। जिन पर लिखा था कि हवाला के आरोपी गृहमंत्राी लालकृष्ण आडवाणी, वित्तमंत्राी यशवंत सिन्हा, नागरिक उड्डयनमंत्राी शरद यादव व विदेश राज्य मंत्राी अजीत पांजा को गिरफ्तार किया जाए। उधर इंका नेता सोनिया गांधी ने भी मांग कर डाली कि अयोध्या कांड के आरोपी गृहमंत्राी लालकृष्ण आडवाणी व मानव संसाधन विकास मंत्राी मुरली मनोहर जोशी भी अपने पद से इस्तीफा दें। इंका का तर्क है कि एक ही परिस्थिति से जूझने के दो मापदंड नहीं हो सकते। आरोपी आरोपी हैं। चाहे भ्रष्टाचार के मामले में हों या किसी आपराधिक मामले में।
अगर भावनाओं को एक तरफ रखकर विशुद्ध कानूनी आधार पर इस परिस्थिति का मूल्यांकन किया जाए तो कई महत्वपूर्ण बातंे सामने आएंगी। भाजपा यह जरूर तर्क देती है कि श्री आडवाणी व श्री जोशी पर राजनैतिक द्वेष की भावना से अयोध्या मामले में मुकदमा बनाया गया है। इसलिए उसके मंत्राी इस्तीफा नहीं देंगे। जबकि सच्चाई कुछ और है। इन दोनो ही केंद्रीय मंत्रियों पर मुकदमा किसी प्रांतीय सरकार ने नहीं थोपा बल्कि सीबीआई की लखनऊ स्थित विशेष अदालत ने इनके विरूद्ध आरोप निर्धारित किए हैं। सर्वविदित है कि अदालत द्वारा आरोप निर्धारित करना चार्जशीट किए जाने के बाद की स्थिति होती है। यानी चार्जशीट में जब इस बात का पर्याप्त आधार पाया जाता है कि आरोपी ने वाकई वह जुर्म किया है या इसके काफी प्रमाण मौजूद है तभी अदालत चार्ज-फ्रेम करती है, यानी आरोप निर्धारित करती है। जिसके बाद बाकायदा मुकदमा चलता है और आरोपी का ट्रायलहोता है। मौजूदा परिस्थिति में जहां राबड़ी देवी को मात्रा चार्जशीट किया गया है, वहीं आडवाणी जी व जोशी जी के विरूद्ध चार्ज-फ्रेम किए जा चुके हैं। यानी अदालत ने माना है कि इन दोनो केंद्रीय नेताओं के विरूद्ध साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने और सार्वजनिक संपत्ति पर डाका डालनेके काफी प्रमाण हैं। इसलिए इनके विरूद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 397395 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। जो सीधे-सीधे देश के संविधान के विरूद्ध किए गए संगीन जुर्म हंै। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस संविधान की इतनी बड़ी अवमानना का जिस पर आरोप हो, वही उसी संविधान की शपथ लेकर इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठा हो। इसका अर्थ तो यह हुआ कि जिस संविधान की शपथ लेकर यह दो भाजपा नेता केंद्रीय मंत्राी बने हैं उस संविधान के प्रति उनके मन में कोई आस्था नहीं है। शायद यह सच भी है तभी भाजपा द्वारा संविधान की समीक्षा की पुरजोर कोशिश की जा रही है। अगर उसका संसद में बहुमत होता तो शायद देश के संविधान में कुछ ऐतिहासिक परिवर्तन कर दिए जाते। ऐसा करना राष्ट्र और संस्कृति के हित में होता या न होता यह विवाद का विषय हो सकता है। पर आज ऐसे परिवर्तन की कोई संभावना नहीं है क्योंकि भाजपा के सहयोगी दल ही इस मुद्दे पर उससे सहमत नहीं हैं। पर यहां जो चिंता की बात है वह यह कि कंेद्रीय मंत्राी पद ग्रहण करते वक्त क्या आडवाणी जी व डा. जोशी ने संविधान की जो शपथ ली थी, वह मात्रा दिखावा था ? अगर यह सच है तो यह अत्यंत गंभीर बात है कि देश के गृहमंत्रालय व मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों को दो ऐसे व्यक्ति चला रहे हैं जो अपने पद ग्रहण की शपथ के प्रति भी ईमानदार नहीं हैं। अगर इन नेताओं व इनके समर्थकों के मन में वाकई इस संविधान के प्रति आस्था नहीं है तो ये तब तक राजसत्ता प्राप्त करने का इंतजार क्यों नहीं करते जब तक कि देश का संविधान इनकी आस्था के अनुरूप नहीं बन जाता ? ये तो वो बात हुई कि, ‘गुड़ खाएं और गुलगुलों से परहेज करें।हम संविधान के विरूद्ध भी काम करेंगे और उसी संविधान की शपथ लेकर हुकूमत भी करेंगे। आश्चर्य है कि संविधान की ऐसी छीछालेदर होने के बावजूद भाजपा के सहयोगी दल व विपक्ष इन मंत्रियों के इस्तीफे की मांग नहीं कर रहा। इससे ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि देश के राष्ट्रपति भी संविधान की ऐसी बेइज्जती के बावजूद अपनी असीम शक्ति का उपयोग करके कोई सख्त कदम नहीं उठा रहे हैं, आखिर क्यों ?
दूसरी तरफ भाजपा इस बात की दुहाई देती आई है कि उसके वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इतने उसूल वाले हैं कि जैसे ही उन्हें हवाला कांड में चार्जशीट किया गया उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। इतना ही नहीं उन्होंने यह शपथ भी ली कि जब तक वे हवाला कांड में आरोप मुक्त नहीं हो जाते तब तक वे कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे। सब जानते हैं कि हवाला कांड कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को मिल रही अवैध आर्थिक मदद से जुड़ा है। अभी हाल ही में केंद्रीय गृह-सचिव कमल पांडे ने संवाददाता सम्मेलन में यह स्वीकारा कि हिजबुल मुजाहिद्दीन ने ही हाल में अनंतनाग में सिखों की हत्याएं कीं। अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्राी के सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्रा ने सम्वाददाता सम्मेलन में आरोप लगाया कि भारत में आतंकवाद फैलाने में सबसे प्रमुख हाथ हिजबुल मुजाहिद्दीन नाम के आतंकवादी संगठन का है। उन्होंने इस संगठन को पाकिस्तान का खुला समर्थन मिलने का भी आरोप लगाया। भारत के प्रधानमंत्राी व विदेश मंत्राी ने अमरीकी राष्ट्रपति से फरियाद की कि वे पाकिस्तान पर, भारत में आतंकवाद का समर्थन न करने पर दबाव डालें। कितनी बड़ी विडंबना है कि देश के प्रधानमंत्राी, विदेश मंत्राी, गृहमंत्राी, गृह सचिव व प्रधानमंत्राी के सुरक्षा सलाहकार एक स्वर से राग अलाप रहे हैं कि भारत में आतंकवाद फैलाने के लिए हिजबुल मुजाहिद्दीन जिम्मेदार है। पर उसी हिजबुल मुजाहिद्दीन को मिल रही अवैध विदेशी मदद के तमाम सबूत मौजूद होने के बावजूद सत्ता में बैैठे ये महत्वपूर्ण लोग हवाला कांड की जांच तक नहीं करवाना चाहते। यहां यह उल्लेखनीय है कि पिछले दिनो जी-टीवी पर हवाला कांड की जांच करने वाले सीबीआई के संयुक्त निदेशक रहे बीआर लाल ने स-प्रमाण कहा था कि हवाला कांड में राजनेताओं के विरूद्ध तमाम सबूत मौजूद हैं पर राजनैतिक दबाव के तहत वे सबूत अदालत में पेश नहीं करने दिए गए। हवाला कांड की सुनवाई कर रहे भारत के मुख्य न्यायधीश श्री जेएस वर्मा ने कहा था कि हवाला मामले को दबाने के लिए अदालत पर लगातार दबाव पड़ रहा है। पिछले दिनो जब केंद्रीय सतकर्ता आयुक्त एन. विट्ठल ने यह घोषणा की कि वे हवाला कांड की जांच ठीक से शुरू करवाएंगे तो हवाला कांड के आरोपी रहे राजनेताओं और उनके समर्थकों ने आसमान सिर पर उठा लिया। ऐसा कहने की जुर्रतकरने वाले केंद्रीय सतकर्ता आयुक्त पर सीधा हमला कर दिया ताकि हवाला कांड की जांच न हो पाए। अगर ये सब नेता हवाला कांड में निर्दोष है, अगर इनके विरूद्ध कोई प्रमाण नहीं हैं और अगर हवाला कांड में इनको नाहक साजिश करके फंसाया गया था, तो क्या वजह है कि ये हिजबुल मुजाहिद्दीन संगठन से जुड़े हवाला कांड की जांच के नाम से इतना घबड़ाते हैं ? विशेषकर तब जबकि कश्मीर की घाटी में हिजबुल मुजाहिद्दीन आए दिन निरीह लोगों की हत्या कर रहा हो और गृहमंत्राी उसे रोक पाने में नाकाम हों तब तो विशेषतौर पर वे और भी ज्यादा कटघरे में खड़े हो जाते हैं। इसलिए चाहे अयोध्या का मामला हो या हवाला कांड का या चारा घोटाले का जनता को यह साफ हो गया है कि न तो नैतिकता की दुहाई देने वाले नेता पाक-साफ हैं और ना ही उन लोगों के इरादे ईमानदार हैं जो केवल अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों के इस्तीफे तो मांगते हैं पर अपने दल के या अपने सहयोगी दल के नेताओं के सवाल पर खतरनाक खामोशी अख्तयार कर लेते हैं।
अगर नीतिश कुमार व सुशील मोदी राबड़ी देवी के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं। यह एक नैतिक व जायज मांग है। पर साथ ही नैतिकता का तकाजा यह भी है कि वे अयोध्या मामले के आरोपी केंद्रीय मंत्रियों के इस्तीफे की मांग भी उतनी ही जोर से करें। इतना ही नहीं हवाला कांड की जांच की मांग भी उसी तेवर के साथ उठाएं जैसा पिछले कई वर्षों से चारा घोटाले को लेकर वे शोर मचाते रहे हैं। ठीक इसी प्रकार सोनिया गांधी से भी यह अपेक्षा की जाती है कि जहां वो अयोध्या मामले में आडवाणी जी व जोशी जी के इस्तीफे की मांग कर रही हैं, वहीं वे राबड़ी देवी के इस्तीफे की मांग करने में भी संकोच न करें। साथ ही हिजबुल मुजाहिद्दीन से जुड़े हवाला कांड की जांच की मांग पर उन्होंने जो खतरनाक चुप्पी साथ रखी है उसे वे देश के हित में तोड़ें। क्लिंटन के आगे आतंकवाद का रोना रोने से क्या फायदा जब हम देश के भीतर आतंकवादियों को मदद पहुंचाने वालों को बाकायदा सरकारी संरक्षण दे रहे हों। संरक्षण भी सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों द्वारा सुनिश्चित किया जा रहा है। फिर आतंकवाद में मारे गए आम मतदाताओं के सामने घडि़याली आंसू बहाने से क्या फायदा।
उधर दिल्ली की  झुग्गी-झोपडि़यों में अपने एसपीजी कमांडो की फौज लेकर एक रात सोने का नाटक करने वाले पूर्व प्रधानमंत्राी विश्वनाथ प्रताप सिंह को अगर वाकई इस देश के आम आदमी की चिंता है तो उन्हें सस्ती लोकप्रियता के ये हथकंडे छोड़कर इन सवालों को उठाने चाहिए। इस मामले में सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो स्वयं प्रधानमंत्राी की है। पिछले लोकसभाई चुनाव में देश के सामने अटल बिहारी वाजपेयी को एक मात्रा राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया था। आज भी उनका कोई प्रतिद्वंदी मैदान में नहीं है। यह सही है कि अल्पमत की सरकार होने के कारण वे कुछ मामलों में कड़े निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हैं पर यहां उठाए गए सवाल तो ऐसे नहीं हैं जिनका हल खोजना वाजपेयी जी के लिए मुश्किल हो। क्योंकि केंद्रीय मंत्रिमंडल में कौन रहे या न रहे इसका अधिकार केवल प्रधानमंत्राी को ही होता है। हां अगर सहयोगी दल का मामला होता तो वे अपनी असहायता जता सकते थे। पर यहां तो उनके ही दल के नेताओं की नैतिकता के आगे प्रश्नचिन्ह लगे हैं। जिसकी पूरी जवाबदेही, प्रधानमंत्राी होने के कारण उनकी ही है। यदि वे इस मामले में कठोर निर्णय लेते हैं तो इससे उनकी विश्वसनीयता ही बढेगी।  जहां तक भाजपा के इन वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की क्षमता की उपयोगिता का प्रश्न है तो आज भाजपा के संगठन को ऐसे वरिष्ठ नेतृत्व की अत्याधिक आवश्यकता है। ताकि पार्टी कार्यकर्ताओं में आ रही हताशा, विघटन और सत्ता के प्रति आक्रोश को कम किया जा सके। सरकार को जिम्मेदार बनाने के लिए उस पर दल का कड़ा दबाव बनाया जा सके। साथ ही कार्यकर्ताओं के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया जा सके कि भाजपा के नेता कुर्सी के लिए नैतिकता त्यागने को तैयार नहीं हैं। भगवान राम ने तो एक धोबी के लांछन मात्रा पर सीता का त्याग कर दिया। वह भी तब जबकि माता सीता अग्नि परीक्षा में खरी उतर चुकी थीं। यहां तो गंभीर आरोप हैं और उनके समर्थन में काफी प्रमाण भी।

Friday, March 24, 2000

वंदावन पर ये हमला क्यों ?

वंृदावन में कहावत है कि यहां नौकरी करके एक महिला 15 सौ रुपया कमाती है, पर भिक्षा मांग कर कम से कम तीन हजार रुपए महीने कमाती है, इसमें अतिश्योक्ति जरा भी नहीं। पिछले दिनों मीडिया में वृंदावन की विधवाओं की दशा पर काफी लेख लिखे गए। वाॅटर फिल्म से उठे विवाद के बाद यह स्वभाविक था कि धर्मक्षेत्रों में आ कर रहने वाली विधवाओं की तरफ मीडिया की निगाह जाती। पर जिस तरह से ये लेख प्रकाशित हुए उससे ऐसा लगा मानो वृंदावन में रहने वाली विधवाओं की गति बंधुआ वेश्याओं से बेहतर नहीं है। जाहिर है कि यह लेख एक पूर्व निर्धारित मानसिकता से लिखे गए हैं। इसलिए इनमें कुछ तथ्यों को जानबूझकर अनदेखा कर दिया गया। मसलन, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने लिखा कि वृंदावन में लगभग 6 हजार विधवाएं रहती हैं। जबकि हकीकत यह है कि पश्चिम बंगाल की सरकार ने फरवरी में जो सर्वेक्षण करवा था उसमें इनकी संख्या मात्रा 4 हजार ही आंकी गई है। यह संख्या भी स्थिर नहीं रहती। मौसम, त्यौहारों और तीर्थ यात्रियों के आने से इन महिलाओं की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। आजकल यह संख्या 2500 से ज्यादा नहीं है। जब वृंदावन में दान देने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या घट जाती है तो ये महिलाएं भी लौटकर पश्चिमी बंगाल में अपने गांव चली जाती हैं। इनमें भी बीस फीसदी ही कम उम्र की विधवाएं हैं। दस फीसदी परित्यक्ताएं हैं। जबकि बीस फीसदी वृद्ध महिलाएं हैं। जिनकी अपनी बेटे-बहुओं से अनबन होती है इसलिए वे भजनाश्रम में चली आती हैं। शेष 50 फीसदी महिलाएं बाकायदा शादीशुदा, शारीरिक रूप से सक्षम और अपने पति व परिवार के साथ रह रही होती हैं। जो रोजाना भजनाश्रम में कुछ घंटे भजन करने इसलिए आती हैं ताकि उन्हें भजन के बाद कुछ अनाज, दाल, पैसा या दूसरी सामग्री दान में मिलती रहे जो उनके परिवार की अतिरिक्त आमदनी का जरिया होती है।

इसलिए यह कहना सरासर गलत है कि ये सारी महिलाएं लाचार हैं, दयनीय दशा में हैं और पेट की आग बुझाने के लिए अपने तन को बेचने में संकोच नहीं करती या इनकी लाचारी का फायदा उठाकर भजनाश्रमों के प्रबंधक इनका शारीरिक शोषण करते हैं। वंृदावन में देश भर के लाखों संपन्न परिवार सारे साल तीर्थाटन करने आते रहते हैं। ये परिवार अक्सर भजनाश्रम की इन बंगाली महिलाओं को अच्छी नौकरी दे कर मुंबई, कलकत्ता, बंग्लौर जैसे शहरों में ले जाते हैं। उनकी भावना यह होती है कि एक भक्त महिला उनके घर रह कर भजन भक्ति करेगी। साथ ही उनके घर की रसोई या ठाकुर सेवा भी करेगी। पर अक्सर ये महिलाएं ऐसी इज्जतदार नौकरियों को भी छोड़कर वंृदावन भाग आती हैं। इनमें से ज्यादातर तो किसी किस्म की नौकरी करने को तैयार ही नहीं होती हैं। क्योंकि वो जानती है कि अगर नौकरी करेंगी तो उन्हें दिन में कुछ घंटे मेहनत करनी पड़ेगी। जबकि भजनाश्रम में कुछ घंटे भजन करके ही उनके ही नहीं उनके परिवार के लिए भी काफी दान मिल जाता है। एक अजीब बात यह है कि जो लोग केवल भजन भक्ति की भावना से वंृदावन में छोटे-छोटे भजनाश्रम खोलते हैं और उनमें भजन करने आने वाली महिलाओं को पेट भर राशन या भोजन देने की व्यवस्था करते हैं, उनमें ये महिलाएं जाना पसंद नहीं करती। ये तो बालाजी आश्रम और भगवान भजनाश्रम सरीखे उन भजनाश्रमों में सैकड़ों की संख्या में रोजना पहुंचती हैं, जहां आए दिन तमाम बड़े सेठ इन्हें साड़ी, बर्तन,कंबल, नकद आदि बांटते रहते हैं। यूं सड़क चलते भिक्षा के लिए लगी कतारों और भिक्षा मांगने वाली महिलाओं के बीच की धक्का-मुक्की को देखकर कोई भी अनजान व्यक्ति उनकी दयनीय दशा पर द्रवित हो जाएगा। पर असलियत यह है कि वंृदावन की इन बंगाली महिलाओं के बीच एक शब्द बड़ा लोकप्रिय है, ‘बांटा-बांटी।’ आग की तरह इनके बीच ये खबर फैल जाती है कि आज फलां आश्रम में या फलां धर्मशाला में ‘बांटा-बांटी’ होगी। यह सुनते ही सैकड़ों की तादाद में महिलाएं उसी तरफ दान बटोरने दौड़ पड़ती हैं। ज्यादातर महिलाएं साल भर में इतना सामान और धन इकट्ठा कर लेती हैं कि साल में एक बार उसे लेकर पश्चिमी बंगाल स्थित अपने गांव जाती हैं और अपने घर वालों को देकर आती हैं। इतना ही नहीं उनकी खुशहाली देखकर दूसरी महिलाएं व परिवार उनके साथ चले आते हैं।

ऐसा नहीं है कि भजनाश्रम में रहने वाली महिलाओं के साथ यौनाचार होता ही न हो। पर यह समस्या इतनी व्यापक और भयावह नहीं है जितना बढ़ा-चढ़ा कर मीडिया में पेश की गई है। जैसाकि आंकड़ों से स्पष्ट ही है कि भजनाश्रमों में आने वाली आधी महिलाएं तो विवाहित हैं और अपने परिवार के साथ वंृदावन में रहती हैं। शेष आधी में से लगभग आधी वृद्धा हैं। इस तरह तीन चैथाई महिलाओं के तो शारीरिक शोषण की समस्या नगण्य है। जो चैथाई युवा विधवाएं हैं भी तो उनके साथ मुक्त यौनाचार की संभावनाएं ऐसी नहीं है, जैसी पेश की गई हैं। जो कुछ होता भी है वह पारस्परिक सहमति से ही होता है, जोर-जबरदस्ती से नहीं। वंृदावन के सामाजिक कार्यों में जमकर रूचि लेने वाले युवा श्री विपिन व्यास का कहना है कि अगर महिलाओं के साथ इस तरह का यौनाचार होता तो वंृदावन का समाज उसे चुप रह कर बर्दाश्त करने वाला नहीं था, बवेला खड़ा हो जाता। वे सवाल पूछते हैं कि महानगरों के कुलीन समाज में जेसिका लाल जैसी पार्टियां या घटनाएं क्या महिलाओं के शोषण की श्रेणी में आती हैं या आधुनिक समाज की तथाकथित मुक्त जीवन-शैली की श्रेणी में ? श्री व्यास जैसे वंृदावन के अनेक युवा पिछले दिनो वंृदावन पर हुए मीडिया के हमले को लेकर काफी नाराज हैं। वे सवाल करते हैं कि इस तरह की रिपोर्ट प्रकाशित करने वालों ने कुछ महत्वपूर्ण सवालों की उपेक्षा क्यों की ? क्या यह तथ्य पड़ताल का विषय नहीं है कि वंृदावन में आश्रय लेने वाली ज्यादातर महिलाएं और गरीब परिवार पश्चिमी बंगाल से ही क्यों आते हैं ? साफ जाहिर है कि दो दशकों के कम्युनिस्ट शासन के बावजूद पश्चिमी बंगाल की सरकार वहां के आम लोगों की गरीबी दूर नहीं कर पाई। दूसरा कारण यह है कि पश्चिमी बंगाल में विधवाओं के प्रति जो अत्याचार सदियों से होता आया है उसे भी वामपंथी सरकार रोक पाने में नाकाम रही है। तभी तो वे वहां से जान बचा कर वंृदावन भागी आती हैं। वैसे इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण तो यह है कि 15वीं सदी में बंगाल के नादिया जिले में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कुष्ण भक्ति की जो लौ जलाई थी उसकी लहर आज तक बंगाल से हर उम्र के कृष्ण भक्तों को खींचकर वंृदावन लाती रही है। ये महिलाएं वंृदावन में सादगी और साधना का जीवन जी कर अपना आध्यात्मिक जीवन सवारने के उद्देश्य से आती हैं। वंृदावन के एक मशहूर भजनाश्रम की व्यवस्था से जुड़े श्री कपिलदेव का मानना है कि भजनाश्रमों पर इस तरह का हमला बोलकर कुछ आत्मघोषित समाज सुधारक और सरकारी अधिकारी विधवा आश्रमों के नाम पर सरकारी अनुदान प्राप्त करने की योजना बना रहे हैं ताकि उसे हजम किया जा सके। वे प्रश्न पूछते हैं कि अगर सरकार को इन महिलाओं की इतनी ही चिंता है तो क्या वजह है कि भारत सरकार द्वारा वंृदावन में संचालित ‘मीरा उद्धार योजना’ के अंतरगत चल रहे शरणालय में भीषण जाड़ों में भी इन महिलाओं को बिस्तर तक उपलब्ध नहीं कराए गए। इसी तरह ‘अमार बाडी’ संस्था जो कि भारत सरकार से अनुदान लेती है और श्रीमती मोहिनी गिरी के निर्देशन में चलती है, इन महिलाओं को आकर्षित करने में नाकामयाब क्यों रही हैं?

दरअसल वंृदावन में रहने वाली इन महिलाओं की समस्या का रूप कुछ दूसरा ही है। सब जानते है कि तीर्थ स्थानों पर पंडों का अपना साम्राज्य चलता है। पंडागिरी की सदियों पुरानी यजमानी व्यवस्था के क्रमशः टूटते जाने के कारण अब पंडा समाज में भी काफी विकृति आती जा रही है। जहां पहले पंडा यानी तीर्थ पुरोहित अपने यजमान का मेजबान, गाॅइड व गुरू सब कुछ होता था वहीं आज पंडे और तीर्थ यात्राी का संबंध व्यापारिक होता जा रहा है। पंडे समाज के ही कुछ लोग भजनाश्रमों के नाम पर तीर्थयात्रियों को मूर्ख बना कर रोजना मोटा पैसा वसूल लेते हैं और उसे हजम कर जाते हैं। चूंकि तीर्थ स्थान पर आ कर दान करना एक पुरानी प्रथा है इसलिए हर गरीब या अमीर आदमी अपनी हैसियत अनुसार कुछ न कुछ दान अवश्य करता है। आवश्यकता इस बात की है कि इस दान के संग्रह और विनियोग की व्यवस्था को पारदर्शी और सुदृढ़ बनाया जाए। इसके साथ ही इन महिलाओं को धन और वस्तुओं का दान देकर उन्हें परजीवी न बनाया जाए। बल्कि इन्हें भजन के साथ धाम की सेवा व्यवस्था में रोजगार देकर लगाया जाए। क्योंकि ये धाम छोड़कर भी नहीं जाना चाहती और इतने तीर्थयात्रियों के आने से धाम की व्यवस्था सुचारू रह भी नहीं पाती। अगर कोई प्रतिष्ठित संस्था या समूह इस काम का बीड़ा उठाए और उसे वंृदावन के समाज, स्थानीय प्रशासन व सरकार का सहयोग मिले तो वृद्धा महिला आश्रम जैसे स्थानों पर सुविधाएं बढ़ा कर वास्तव में दुखी महिलाओं की अच्छी देखभाल की जा सकती है। जबकि कम उम्र महिलाओं के रोजगार की व्यवस्था की जा सकती है।

दक्षिणी दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन इलाके में एक ईसाई मिशनरी संगठन अनेक वर्षों से बड़ी कुशलता से इस तरह का एक कार्यक्रम चला रहा है। यह संगठन जरूरतमंद ईसाई युवतियों को देश के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली बुलाता है, उन्हें घर के सभी काम-काम करने का प्रशिक्षण देता है और फिर उन्हें सभ्रांत और संपन्न परिवारों में नौकरी दिलवा देता है। एक अच्छी बात ये है कि यह संगठन नौकरी दिलवाने के बाद इन युवतियों को भूल नहीं जाता बल्कि उनके मालिक से संबंध, उनके काम की दशा और उनकी बाकी जरूरतों के लिए हमेशा सजग और तत्पर रहता है। चूंकि एक इज्जतदार संगठन इन ईसाई महिलाओं के आचरण की जमानत लेने को तैयार बैैठा है इसलिए रोजगार देने वाले परिवारों को कोई शंका या संकोच नहीं रहता। ऐसे लोगों की एक लंबी प्रतीक्षा सूची इसं संस्था के कार्यालय में हमेशा बनी ही रहती है। यानी रोजगारा देने वाले ज्यादा, रोजगार लेने वाले कम। इसी तरह वंृदावन में भी कोई योजना चला कर इन महिलाओं को प्रशिक्षित व संगठित किया जा सकता है और यदि वे चाहें तो उन्हें साधन संपन्न कृष्ण भक्त परिवारों के यहां रोजगार दिलवाया जा सकता है। देश में अनेक कृष्ण भक्त संपन्न परिवार ऐसे हैं जो चाहते हैं कि उनके घर की बुजुर्ग विधवा महिला की देखभाल के लिए ऐसी ही कोई जरूरतमंद व भक्त प्रवृत्ति की महिला हो। इसलिए यदि यह योजना वंृदावन में ढंग से चलाई जाए तो न तो धन की कमी रहेगी और ना ही रोजगार की।

किसी भी व्यवस्था पर सीधे चोट कर देना सबसे सरल काम है। पर उस व्यवस्था को समझ कर उसमें सुधार करना या उससे बेहतर विकल्प देना बहुत कठिन होता है। जो लोग भी आज हिंदू समाज के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं उन्हें अपनी बयानबाजी से पहले तथ्यों की निष्पक्ष पड़ताल करनी चाहिए। बुराई को बुरा कहना बुरा नहीं। पर अच्छाई को बुराई बना कर पेश कराना बहुत घातक होता है। वंृदावन के भजनाश्रमों ने दशकों से बेसहारा महिलाआंे को आश्रय दिया है और आज भी दे रहे हैं। यह सब बिना किसी सरकारी अनुदान के केवल निजी प्रयासों से हो रहा है। उन पर इस तरह एक तरफा तीखा हमला करना ना तो इन महिलाओं के हक में है और ना ही इस व्यवस्था के। इससे तो गेंहू के साथ घुन भे पिस जाएगा। जो लोग सदभावना से अपना निजी धन लगा कर ये व्यवस्थाएं चला रहे हैं उनके भी दिल पर ठेस लगेगी। हो सकता है कि वे इस दुष्प्रचार से दुखी होकर इस तरह की सेवा से ही हाथ खंींच लें। अगर प्रशासनिक अधिकारी, प्रोफेशनल समाजसेवी और चंद मीडिया वाले यह सोचते हैं कि सरकार इन महिलाओं के कल्याण के लिए कोई योजना सफलतापूर्वक चला पाएगी तो यह उनका भ्रम है। गरीबों को सहायता देने के नाम पर सरकार ने अंत्योदय, आंगनबाड़ी, प्रौढ़ शिक्षा और समेकित ग्रामीण विकास जैसी दर्जनों योजनाएं पिछले पचास वर्षों में देश भर में चलाईं। इन पर अरबो रुपया खर्च हुआ पर नतीजा शून्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहा। सारी उपलब्धियां कागजों पर ही दिखाई दीं, धरातल पर नहीं। फिर कैसे माना जाए कि भजनाश्रम की महिलाओं के लिए सरकार कुछ अनूठा कर पाएगी? इसलिए उनकी समस्या का निदान मौजूदा स्थिति में ही ढूंढना होगा। वंृदावन की पूरी अर्थव्यवस्था तीर्थयात्रियों और दान पर टिकी है। अपनी संस्कृति को थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे छोटे-छोटे देश पर्यटक पैकेज के रूप में बेच कर अरबों डाॅलर कमाते हैं और सराहे जाते हैं, उसी तरह वंृदावन जैसे धार्मिक क्षेत्रा भी तीर्थयात्रियों को आनंद की अनुभूति देकर बदले में कुछ दान प्राप्त करते हैं। इस तरह का सुनियोजित दुष्प्रचार वंृदावन की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव ही डालेगा। जिससे किसी का भी भला नहीं होगा।

Friday, March 17, 2000

नए सरसंघ चालक के सामने कुछ चुनौतियां


आरएसएस के नए सरसंघ चालक श्री केएस सुदर्शन जी का ताजा बयान आरएसएस के भविष्य की ओर संकेत करता है। इस बयान को पढ़कर लगता है कि अपने गंभीर और चिंतनशील व्यक्तित्व के अनुरूप सुदर्शन जी संघ को जुझारू तेवर की तरफ मोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। संघ के सर्वोच्च पद की कमान संभालते ही उन्होंने वाजपेयी सरकार के आर्थिक सलाकारों पर करारा प्रहार किया है। उन्हें तुरंत हटाए जाने की मांग की है और भरत झुनझुनवाला जैसे स्वदेशी अर्थव्यवस्था के समर्थक अर्थशास्त्रिायों की सलाह पर ध्यान देने की बात कही है। इसके साथ ही उन्होंने संविधान को पूरी तरह बदलने की आवश्यकता पर भी जोर दिया है। उन्होंने लघु और कुटीर उद्योगों और समाज के शोषित व पीडि़त वर्ग के साथ हो रही ना इंसाफी से भी निपटने की जरूरत पर बल दिया है। सुदर्शन जी जैसा व्यक्तित्व जिसने अपना पूरा जीवन त्यागमय सादगी से राष्ट्र को समर्पित कर दिया हो, जिसने राष्ट्र के हित को सर्वोपरि रखते हुए परिवार के बंधन में न बंधने की कसम खाई हो, जिसने पद, प्रशस्ति और पारितोषित की अपेक्षा के बिना केवल राष्ट्रनिर्माण की भावना से सारा जीवन काम किया हो, उसका उद्बोधन राजनैतिक बयानबाजी कतई नहीं हो सकता। उनके एक-एक शब्द में इस राष्ट्र के प्रति चिंता और पीड़ा झलकती है। इसलिए उनके इस बयान का काफी महत्व है। इससे पता चलता है कि संघ का नया नेतृत्व देश की वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है। हालात से समझौता करना उसकी मजबूरी है। क्योंकि उन्हें पता है कि अल्पसंख्यक सरकार और राज्य सभा में बहुमत का अभाव भाजपा सरकार को वह सब कुछ नहीं करने देगा जिसकी उससे अपेक्षा थी। यह मजबूरी भी सुदर्शन जी के बयान में साफ दिखाई देती है। यानी संघ का नया नेतृत्व केवल भावनाओं के प्रवाह में बह कर अव्यवहारिक अपेक्षाओं को नहीं पाल रहा है। बल्कि संजीदगी से मौजूदा स्थिति का मूल्यांकन करते हुए, जो अधिकतम संभव है, उसकी अपेक्षा रखता है। संघ के नेतृत्व के नजरिए में यह परिवर्तन गत दो वर्ष में, केंद्र में अपनी समर्थित सरकार को चलाए जाने के दौरान आए अनुभवों के आधार पर आया है।
कैसी विडंबना है कि राष्ट्र और समाज के जिन मुद्दों को लेकर संघ का नेतृत्व चिंतित हैं उन्हीं मुद्दों को लेकर महात्मा गांधी के अनुयायी भी उतने ही चिंतित हैं। उन्हीं मुद्दों को लेकर देश के धुर-वामपंथी या नक्सलवादी भी चिंतित हैं। उन्हीं मुद्दों को लेकर वे लोग भी चिंतित हैं जो समाज के पीडि़त और शोषित वर्ग के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। फर्क इतना सा है कि जहां संघ की अंतरधारा सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़ी है वहीं स्वदेशी के हामी बाकी के इन समूहों के कंधों पर ऐसा कोई भार नहीं है। शायद इसीलिए वे ज्यादा जुझारू और उन्मुक्त हैं। पर यहां जो बात आम आदमी की समझ में नहीं आती वह यह है कि इन विभिन्न वैचारिक धाराओं के बावजूद जब इन सभी के दिमाग में भारत की आर्थिक संरचना का स्वरूप लगभग एकसा है, जब इन सभी का लक्ष्य भारत को आत्मनिर्भर और सुदृढ़ राष्ट्र बनाना है, जब ये सभी बढ़ते उपभोक्तावाद से चिंतित हैं, जब ये सभी भू-मंडलीयकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़ जाल से भारत को बाहर निकालने के पक्षधर हैं, तो क्या वजह है कि ये सारे जुझारू संगठन किसी आम सहमति के मसौदे पर एकजुट होकर व्यापक जन आंदोलन नहीं छेड़ते ? शायद इसलिए कि इनमें पारस्परिक अविश्वास है। इनमें से हर समूह दूसरें को शक की निगाह से देखता है और उसे निहित स्वार्थों के हितों का मुखौटा मानकर चलता है। सब एक दूसरे पर छिपे राजनैतिक एजेंडा होने का आरोप  भी लगाते हैं। केवल एक मुद्दा ऐसा है जिस पर ईमानदार लोगों के बीच भी स्वभाविक मतभेद है और वह है आध्यात्मिकता का सवाल। जहां गांधीवादी और संघी लोग राजनीति का आधार अपने अपने तरीके का अध्यात्म बनाना चाहते हैं, वहीं वामपंथियों को अध्यात्म से साम्प्रदायिकता की बू आती है। चूंकि यह बहस शाश्वत है इसलिए इसका तुरत-फुरत समाधान नहीं निकल सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि इस सवाल को फिलहाल एक तरफ रख दिया जाए। केवल आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों को लेकर पारस्पिरिक संवाद स्थापित किया जाए और साझी रणनीति बनाए कर एक न्यूनतम साझे कार्यक्रम पर राष्ट्र को आंदोलित किया जाए। चूंकि सुदर्शन जी के पास इस वक्त इस किस्म का सबसे बड़ा संगठन है इसलिए उन पर ही यह नैतिक जिम्मेदारी आन पड़ती है। वे ही इसकी पहल करें तो बात कुछ बन सकती है। चूंकि उनके संगठन को परोक्ष रूप से वर्तमान सरकार का समर्थन प्राप्त है इसलिए सबसे ज्यादा शंका और आरोपों को सामना भी उन्हें ही करना होगा। बावजूद इसके अगर वे दूसरे वैचारिक समूहों को यह विश्वास दिला सकें कि आर्थिक और सामाजिक मामलों पर बुनियादी सवालों को लेकर उनकी समझ और दृष्टि में कोई खोट नहीं है, तो शायद वे इन दूसरे वैचारिक समूहों को किसी साझे मंच पर लाने में कामयाब हो सकेंगे। सुदर्शन जी को चाहिए कि वे समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पित ऐसे सभी वैचारिक समूहों को इस बात से आश्वस्त करें कि आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर उनका संगठन अपना दूरगामी एजेंडा नहीं थोपेगा। वे यह भी बताएं कि उनका मकसद किसी भी ऐसे संगठन या समूह का शोषण करके अपना राजनैतिक आधार मजबूत करना नहीं है। उन्हें मौजूदा परिस्थिति कीे भयावहता की दुहाई देकर इन समूहों और संगठनों को बताना चाहिए कि छोटे मुद्दों पर पारस्परिक संघर्ष में ऊर्जा बर्बाद करने से कहीं बेहतर होगा कि अपनी ताकत उन शक्तियों के विरूद्ध मोड़ी जाए जो भारत का दोहन करके इसकी हालत अफ्रीकी या लातनी अमेरीकी देशों के तरह कर देने पर तुली हैं। यदि सुदर्शन जी ऐसा कर पाए तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इससे एक ऐसा दबाव समूह विकसित होगा जो मौजूदा और भावी सरकारों की नीतियों पर अंकुश का काम करेगा। जहां एक तरफ यह जिम्मेदारी सुदर्शन जी की है कि वे विभिन्न वैचारिक समूहों को एक साझे मंच पर ला कर इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं वहीं बाकी के समूहों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे हालात की नजाकत को देखते हुए मैं ठीक बाकी गलतकी मानसिकता से बाहर निकलें और अपने संगठनों का आत्म-मूल्यांकन करें। यह देखें कि पिछले वर्षों में उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी उपलब्धियां क्या उल्लेखनीय रही हैं ? क्या वे अपने संघर्षों और अभियानों को अपेक्षित सफलता दिला पाने में कामयाब हुए हैं ? क्या उनको मिली सफलता राष्ट्र के सामने खड़ें संकट की तुलना में कुछ अहमियत रखती है ? अगर इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं तो उनके लिए भी यह चिंता का विषय होना चाहिए। इस तरह नौ दिन चले अढ़ाई कोसकी गति से वे कैसे अपनी मंजिल पा सकेंगे? कब तक वे यूं ही छोटे-छोटे स्थानीय संघर्षों में उलझ कर बड़े लक्ष्यों को कुर्बान कर देंगे ? क्या वे दानवीय शक्तियों की क्षमता से नावाकिफ हैं ? क्या वे मानते हैं कि जो दुनिया में अन्यत्रा नहीं हो सका, वे उसे कर दिखाएंगे ? क्या उन्हें अभी भी यह भ्रम है कि उनके पूर्वजों द्वारा प्रतिपादित क्रांति इस देश में हो पाएगी ? अगर नहीं तो फिर इस मिथ्या स्वाभिमान और मिथ्या आत्मविश्वास से उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। इसलिए राष्ट्रहित में ऐसे साझे मंच पर खडे़ होना उनके लिए भी घाटे का सौदा नहीं होगा।
यहां यह उल्लेख करना अप्रासांगिक नहीं होगा कि संघ नेतृत्व बार-बार यह दोहराता रहा है कि उनका लक्ष्य केंद्र व राज्य में सरकारें चलाना नहीं बल्कि राष्ट्र का निर्माण करना है। जिसकी प्राप्ति के लिए वे कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं। फिर चाहे वो उनके द्वारा समर्थित किसी सरकार की हो या उस सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे किसी व्यक्ति की हो। अगर यह उद्घोषणा आरएसएस के उच्च नैतिक आदर्शों के अनुरूप की गई है तो संघ पर शक करने की कोई वजह नहीं रह जाती। पर शक तब तक किया जाएगा जब तक इस उद्घोषणा का धरातल पर क्रियान्वयन देश देख नहीं लेता। कुछ मुद्दों पर अगर संघ कड़ा रूख अपना कर सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दे तो उसकी विश्वसनीयता कई गुना बढ़ जाएगी। यहां यह सावधानी भी बरतनी होगी कि यह मुद्दे संघ के छिपे एजेंडे से न होकर उस एजेंडे से हो जिस पर साझी सहमति है। देश के जंगल, जल और जमीन से जुडे़ ऐसे तमाम सवाल हैं जिन पर संघ को अनेक वैचारिक समूहों का समर्थन मिलेगा। यह बात सुदर्शन जी अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि अपनी नई भूमिका में वे कुछ ऐसे ही बुनियादी सवालों को उठाकर संघ और जन आंदोलनों को नई दिशा देने में कामयाब होंगे। अगर वे ऐसा नहीं कर सके तो वे इस मुल्क में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने से वंचित रह जाएंगे। तब उनकी दशा भी उन वयोवृद्ध समाजसुधारकों और राजनेताओं जैसी होगी जो पूरे जीवन भर अपने उच्च नैतिक मूल्यों के कारण समाज में सम्मान तो पाते रहे हैं पर समाज के लिए कुछ कर नहीं पाए। ऐसे तमाम लोग बड़ी आसानी से यह कह कर चुप बैठे हैं कि, ‘इस मुल्क में अब कुछ नहीं हो सकता।ऐसा कहने वालों में साम्यवादियों से लेकर कांग्रेसी और भाजपाई नेता तक भी शामिल हैं। माना जाना चाहिए कि सुदर्शन जी ऐसे अच्छे किंतु नाकारा लोगों की जमात में खड़ा होना पसंद नहीं करेंगे। वे अपने लंबे सामाजिक जीवन के अनुभव के आधार पर संघ को जुझारू तेवर भी देंगे और नई दिशा भी ताकि संघ भाजपा का पिछलग्गू संगठन न रह कर राष्ट्रनिर्माण का अगुआ बनें।

Friday, March 3, 2000

राम भरोसे स्वास्थ्य सेवाएँ

आजादी के बाद नियोजित कार्यक्रम के तहत देश भर में जो कार्यक्रम शुरू किए गए थे, उनमें ग्रामीण इलाकों के लिए स्वास्थ्य परियोजनाएं भी थीं । मकसद था देश के देहातों में स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछाना ताकि गरीब लोगों की सेहत सुधर सके। आज पचास वर्ष बाद हालत यह है कि गरीब की सेहत सुधरना तो दूर स्वास्थ्य सेवाओं की ही सेहत खराब हो गई है। बावजूद इसके नए नए नारों से, नए नए वायदों से, नई नई योजनाओं के सपने दिखाकर देश का पैसा बर्बाद किया जा रहा है। स्वास्थ्य आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसलिए उसकी चिंता जितनी आम आदमी को होती है उतनी ही सरकार को भी होनी चाहिए। केन्द्र की मौजूदा सरकार ने कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए विशेष रूचि दिखाई है। एक मंत्राी इसी काम के लिण् तैनात कर दिया है। जाहिर है कि सभी चालू सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार आना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि अब तक चले कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का मूल्यांकन किया जाए। उत्तर प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है। अगर कोई सुधार लागू हो सकता है तो वह यहां ज्यादा सरलता से होगा बजाय उन राज्यों के जहां केन्द्र सरकार के विरोधी दल सत्ता में हैं। देश की संसद को सातवां हिस्सा सांसद देनेवाला सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बुरी तरह विफल रहा है। पिछले कई वर्षों की भाजपा सरकार के बावजूद इसके हालात सुधर नहीं रहे हैं। विकास के नाम पर विनाश की यह बर्बादी पांच दशक पुरानी है। जिसका बड़ा गहरा अध्ययन वाॅलन्ट्री हेल्थ ऐसोसिएशन की उत्तर प्रदेश टीम ने किया है। जिससे सारी तस्वीर साफ हो जाती है। बिना संकोच के यह माना जा सकता है कि जो तस्वीर उत्तर प्रदेश की है कमोवेश वही तस्वीर देश के बाकी प्रान्तों की भी है।

नियोजित विकास के तहत प्रदेश के देहातों में सामुदायिक विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना की गई। मूल सोच यह थी कि ग्रामवासियों के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाएं एकीकृत रूप में उपलब्ध कराई जायेंगी। जिनमें उपचार, वातावरण स्वच्छता (सुरक्षित पेय जय आपूर्ति व कूड़ा-मलमूत्रा निपटाना), मातृ शिशु स्वास्थ्य, विद्यालय स्वास्थ्य, संक्रामक रोगों की रोकथाम, स्वास्थ्य शिक्षा व जन्म-मृत्यु आंकड़ों का संकलन जैसी सेवाएं शामिल थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर उत्तर प्रदेश में 907 प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र स्थापित हो चुके थे। मैदानी क्षेत्रों में 5000 व बुन्देलखण्ड व पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 की आबादी पर एक मातृ शिशु स्वास्थ्य उपकेन्द्र भी खोले गए। इन उपकेन्द्रों पर प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान व प्रसवोपरान्त स्वास्थ सेवाओं के साथ प्रतिरक्षण, निर्जलीकरण उपचार के लिए घोल वितरण और खून की कमी दूर करने के लिए आयरन या फोलिक एसिड की गोलियां बांटना व अन्धेपन व नेत्रारोग से बचाव हेतु विटामिन घोल बांटना शामिल था। कालान्तर में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में परिवर्तित होना था। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान इन केन्द्रों में जहां शल्य क्रिया, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ व पैथालाॅजी सेवाएं और बढ़ाई गईं वहीं प्रत्येक केंद्र में मरीजों के लिए उपलब्ध बिस्तरों की संख्या 6 से 30 कर दी गई। जाहिर है इस पूरे तामझाम पर जनता का अरबों रूपया खर्च हो रहा है। पर क्या जो कुछ कागजों पर दिखाया जा रहा है वह जमीन पर भी हो रहा है ? उत्तर प्रदेश के किसी भी गांव में जाकर असलीयत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद 1988-89 से पूरे प्रदेश में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम ठप्प पड़ा है। प्रदेश के 48 ए.एन.एम. प्रशिक्षण केन्द्रों में डल्लू बोल रहे हैं। यहां से आखिरी बैच 1986-87 में निकला था। जिसमें 2000 स्वास्थ्यकर्मि पास हुए थे। पर उनकी भी आज तक न तो नियुक्ति की गई और न ही उपकेन्द्र ही खेले जा सके। इन केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। सब जानते हैं कि ए.एन.एम. गांव में नहीं रहती। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा 10 साल से बेकार पड़ी है। पिछले 10 वर्षों से जो स्टाफ रिटायर हो चुका है उनकी जगह रिक्त हुए पदों पर कोई प्रतिनियुक्ति नहीं हुई। अतः हजारों की संख्या में महिला व पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के पद खाली पड़े हैं। दिवालिया सरकार और कर भी क्या सकती है ?

इस तरह यह सभी सेवा केन्द्र चिकित्सकीय व स्वास्थ्य सेवाएं तो न मुहैया करा पाये, अलबत्ता नसबन्दी कराने के केन्द्र जरूर हो गए। 1970-71 से 1991-92 तक नसबंदी के अलावा यहां कुछ भी नहीं हुआ। बीस सूत्राीय कार्यक्रमों के दौरान जो फर्जी नसबंदी का दौर चला था, वह अभी थमा नहीं है। नसबंदी की उपलब्धियां फर्जी तौर पर बढ़ा चढ़ाकर बताई जाती रहीं और इन्हीं ‘उपलब्धियों’ की एवज में नौकरशाह करोड़ों रूपए के पुरस्कार लेते रहे। इस तरह प्रदेश की बेबस जनता पर दुहरी मार पड़ी है। 1994 में काहिरा के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में तय हुआ कि लक्ष्य निर्धारण बजाए ऊपर से नीचे की तरफ होने के, नीचे से ऊपर की ओर होगा। इससे तो स्वास्थ्य कर्मियों की मौज आ गई। काम तो वो पहले भी कागजों पर ज्यादा करते थे, अब तो उसकी भी जरूरत नहीं रही क्योंकि लक्ष्य मुक्त कार्यविधि 1995-96 से लागू कर दी गई। इस तरह सब कार्यमुक्त हो गए व नसबंदी भी नहीं हुई। इस घोटाले से उबरने के लिए भारत सरकार ने मजबूर होकर दुबारा लक्ष्य मुक्त पद्धति के स्थान पर सामुदायिक परख पद्धति 1997 में लागू की। मकसद था कि समुदाय की आकांक्षाओं के अनुरूप सेवाएं दी जाएं। सबसे बड़ी बात यह हुई कि नीति व पद्धतिगत इस मौलिक बदलाव के लिए कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण बाद में हो रहा है, यानी घोड़ांे के आगे गाड़ी खड़ी है। फिर ये गाड़ी चलेगी कैसे ?
1970-71 से प्रदेश में अन्तर्राष्ट्रीय दाताओं का बड़े पैमाने पर प्रादुर्भाव हुआ। विश्व बैंक द्वारा इसी वर्ष प्रदेश के 6 पूर्वी जिलों में ‘भारत जनसंख्या परियोजना’ लागू हुई। योजना का मूल उद्देश्य सेवा संगठनों को मजबूत करना था। फलतः एक ओर नव निर्माण शुरू हुआ दूसरी ओर नए चिकित्सकीय सेवा केन्द्र खोले गए। आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया में तमाम उपकेन्द्र गांव से दूर बनाए गए, जो कभी इस्तेमाल नहीं हुए। आज ये केंद्र वीराने में खण्डहर बन चुके हैं। इसी तरह लखनऊ में खोले गए 8 मैटरनिटी होम में विभाग के अन्य कार्यालय खुल गए हैं। सेवा के नाम पर यहां सब कुछ शून्य हैं। इसी परियोजना में लखनऊ में एक जनसंख्या केन्द्र भी खोला गया था। 1979-80 से पुनः विश्व बैंक संपोषित ‘भारत जनसंख्या परियोजना-2’ लागू हुई। जिसका मूल उद्देश्य सूचना, शिक्षा संचार व प्रशिक्षण था। इस योजना के नाम पर तमाम ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट अमरीका, थाईलैण्ड, इंग्लैण्ड आदि से प्रशिक्षण लेकर आए। पर जहां से प्रशिक्षण ले गए थे, वहां वापिस लौटकर नहीं आए। उन्हें उनकी नियुक्ति दूसरी जगह कर दी गई, आखिर क्यों ? जब यही करना था तो लाखों रुपया प्रशिक्षण पर बर्बाद करने की क्या जरूरत थी ? इसी तरह सूचना शिक्षा संचार के नाम पर प्राइवेट छपाई भी लाखों रूपए खर्च करके करवाई गई। जनचेतना फैलाने के नाम पर छपवाई गई यह स्टेशनरी कभी काम नहीं आई। न जाने कितने फार्म छपे व रद्दी में बिक गए।

इस पूरे कार्यक्रम के नतीजे असन्तोषजनक थे। ऐसा विश्व बैंक द्वारा कराए गए मूल्यांकन से पता चला। नतीजतन उत्तर प्रदेश को ‘भारत जनसंख्या परियोजना 3,4,5’ नहीं दी गई। पर इसके कुछ अन्तराल के बाद 1989-90 में ‘भारत जनसंख्या परियोजना-6’ उत्तर प्रदेश को मिल गई। जिसका मूल उद्देश्य श्रम संसाधनों का विकास करना था। इस योजना के तहत ऊपर के अधिकारी तो विदेशी सैेरगाहों में घूम आए पर नीचे का स्टाफ भी पीछे नहीं रहा। वे भी अहमदाबाद, गांधीग्राम, मुंबई में सैर सपाटे करता रहा। फिर आया सूचना क्रांति का दौर। स्वास्थ्य सेवा भले ही लोगों को न मिले पर सूचना के आधुनिक उपकरणों को खरीदनें में संकोच क्यों किया जाए ? सूचना नहीं तो कमीशन की आमदनी तो होगी ही। इसलिए प्रौद्योगिकी से तालमेल बिठाए रखने के नाम पर कराड़ों रूपये के सैकड़ों कंप्यूटर व व बाकी का साजो सामान खरीद लिया गया। जनजागरण के नाम पर हजारों रंगीन टी.वी. व वी.सी.आर. भी खरीदे गए, जो स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकारियों के बंगलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इतना ही काफी नहीं था और भी घोटाले हुए। प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान खोलेे गए जनसंख्या केन्द्रों के ही साइन बोर्ड रातोंरात बदलकर उन्हें स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण प्रशिक्षण केन्द्र में तबदील कर दिया गया। केन्द्र की जमीन की पुनः खरीद दिखाई गई। बने भवनों में थोड़ा परिवर्तन करके पूरे भवन निर्माण की राशि वसूल कर ली गई। परिवार प्रशिक्षण के लिए पहले 7 क्षेत्राीय प्रशिक्षण केन्द्र थे जिनके स्थान पर 18 केन्द्र खोल दिए गए। जिनका भवन निर्माण हुआ, साज-सज्जा के लिए भारी खरीदारियां की गईं, पर योजनाबद्ध तरीके से कभी कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ। दरअसल तो इन केन्द्रों में पहुंचवालों की बारातें टिकती रहती हैं। गरीब जनता के पैसे से खरीदे गए कंप्यूटर व साज सज्जा अपनी मूल पैकिंग में रखे रखे ही आउटडेटेड हो गए।

फिर एक नया नारा दिया गया कि ‘सन् 2000 ई. तक सबके लिए स्वास्थ्य’ की गारन्टी होगी। 1978-79 में अल्माआटा, रूस में विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन हुआ जिसमें शताब्दी के शेष दो दशकों में स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने व सन् 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य उपलब्ध करा देने के लक्ष्यों की घोषणा की गई। औरों की क्या कहें खुद भारत सरकार का ही मानना है कि उत्तर प्रदेश में ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का लक्ष्य पूरा करने में अभी 100 साल और लगेंगे।
वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर में जो हो रहा है वह भी कम रोचक नहीं। कुछ समय पूर्व तक ग्रामवासी पूरी तरह आत्मनिर्भर होते थे। हजारों साल से हमारे गांव में रहने वाले हर व्यक्ति की जरूरतें गांव में ही पूरी हो जाती थी। पशुधन प्रचुर मात्रा में था। प्रौद्योगिकी विकास से परिवर्तन तो जरूर आया, पर कैसा ? साठ के दशक में हम गेहूं बाहर से मंगाते थे। हरितक्रांति के फलस्वरूप आज देश में रेकार्डतोड़ खाद्यान्न उत्पादन होता है। पर इसके बावजूद हमारे देश में 0-14 आयुवर्ग में 60 फीसदी बच्चे भयंकर कुपोषण के शिकार हैं। महिलाओं में 80 फीसदी गर्भवती महिलाएं खून की कमी से पीडि़त हैं। 35 फीसदी गर्भ जोखिम भरे होते हैं। पौष्टिक आहार की कमी इसका प्रमुख कारण है। हरित क्रांति के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा है ?
बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रा में हुई खोजों व शोध के कारण उपचार के क्षेत्रा में अत्यधिक सुविधाएं आज सुलभ हैं। हृदय के साथ ही अन्य अंगों का प्रत्यारोपण भी आज हो रहा है। परन्तु वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलस्वरूप इस दिशा में जितना भी विकास हुआ व सेवा सुविधाएं उपलब्ध हुईं उन तक पहुंच समाज के धनाढ्य व नव-धनाढ्य वर्ग की ही है। आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है। अपोलो अस्पताल, एस्कोर्ट अस्पताल या ऐसे तमाम दूसरे बड़े सरकारी संस्थान या प्राइवेट अस्पताल या क्लीनिक की सेवाएं केवल विशिष्ट वर्ग के लिए ही सुरक्षित व सुलभ हैं। दूसरी त्रासदी यह है कि कुछ गिनेचुने विशेषज्ञ जिनकी सेवाएं सामान्य जनता को सरकारी अस्पतालों में मिल भी जाती थीं, वह भी अब इन्हीं पांच सितारा अस्पतालों में चले गए हैं।

इस प्रक्रिया का कुप्रभाव दवाइयों के उत्पादन, मूल्यांकन, वितरण व विक्रय पर भी पड़ रहा है। जीवनरक्षक दवाइयों का उत्पादन आवश्यकतानुसार नहीं है। जबकि प्रतिबन्धित बेहूदा, तर्कहीन व प्रभावहीन दवाइयों का उत्पादन ज्यादा हो रहा है। जेनरिक नाम से 400-500 के बीच ही सभी जरूरी दवाइयां आ जाती हैं। जबकि ब्रांड नाम से 30 हजार से ज्यादा दवाइयां बाजार में अटी पड़ी हैं। डाक्टर इन्हें लिख रहे है। मरीज खरीद रहे हैं व विदेशी कंपनियां मालामाल हो रही हैं। नकली व मिलावटी दवाइयों का बाजार समानान्तर चल रहा है। दवाइयों के पेटेण्ट नियम लागू होते ही रही सही कसर भी पूरी हो जायेगी, क्योंकि भारत सरकार डब्ल्यू.टी.ओ. के निर्देशों को मान चुकी है।

उदारीकरण का एक और महत्वपूर्ण परिणाम स्वैच्छिक संस्थाओं को सीधे मिलने वाली फंडिंग के रूप में भी उभर कर आया है। तमाम अन्तर्राष्ट्रीय दाता संगठनों व संस्थाओं ने सरकार के सामने यह शर्त रखनी शुरू की कि वह गैर सरकारी संस्थाओं व स्वैच्छिक संस्थाओं को ही फंडिंग करेंगे। जाहिर है कि यह बदलाव इसलिए आया कि ये संगठन सरकारी तंत्रा की लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, लूट, निकम्मापन व गैरजिम्मेदारी के रवैये से त्रास्त हो चुके थे। सरकार भी खुलकर मानने लगी थी कि विकास के काम सरकारी तंत्रा से उतनी कुशलता व लगन से नहीं हो सकते, जितना स्वैच्छिक संस्थाओं के द्वारा। पर इससे नई किस्म के घोठाले होने लगे। तमाम फर्जी स्वयंसेवी संस्थाएं सामने आ गई। विशेषज्ञों का मानना है कि होना यह चाहिए था कि विभिन्न स्तरों पर जो स्वैच्छिक संस्थाएं अच्छा काम कर रही थीं, उन्हीें को यह फंडिंग होती और वही विकास का काम करतीं। परन्तु सरकार ने इसकी भी काट निकाल ली। जहां विकास व समाज सेवा के नाम पर सरकार के पास पूरी फौज तैनात थी, पूरे पूरे विभाग व पूरा सरकारी अमला व संसाधन मौजूद थे, वहीं सरकार ने ही स्वैच्छिक संस्थाएं बनाकर उन्हें पंजीकृत कराना शुरू कर दिया और सभी फंडिंग इन्हीं के द्वारा हड़पी जाने लगी। इतना ही काफी नहीं था आला अफसरों की बेगमों ने सैकड़ों स्वयंसेवी संस्थाएं बना डालीं और अनुदान राशि की लूट शुरू कर दी। ‘अन्धा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपने को देय’। इस सबसे तो चाणक्य पंडित की वही बात सिद्ध होती है कि ढांचे बदलने से कुछ नहीं बदलता जब तक कि उसमें काम करने वाले लोग नहीं बदलते। स्वास्थ्य के मामले में भारत का पारंपरिक ज्ञान और लोकजीवन का अनुभव इतना समृद्ध है कि हमें बड़े ढांचों, बड़े अस्पतालों और विदेशी अनुदानों की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपनी क्षमता और अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल की। वरना विकास के नाम पर ऐसे ही विनाश होता रहेगा। हर नई सरकार नए नारों से नए सपने दिखाकर लोगों को यूं ही मूर्ख बनाती रहेगी।