Friday, March 3, 2000

राम भरोसे स्वास्थ्य सेवाएँ

आजादी के बाद नियोजित कार्यक्रम के तहत देश भर में जो कार्यक्रम शुरू किए गए थे, उनमें ग्रामीण इलाकों के लिए स्वास्थ्य परियोजनाएं भी थीं । मकसद था देश के देहातों में स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछाना ताकि गरीब लोगों की सेहत सुधर सके। आज पचास वर्ष बाद हालत यह है कि गरीब की सेहत सुधरना तो दूर स्वास्थ्य सेवाओं की ही सेहत खराब हो गई है। बावजूद इसके नए नए नारों से, नए नए वायदों से, नई नई योजनाओं के सपने दिखाकर देश का पैसा बर्बाद किया जा रहा है। स्वास्थ्य आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसलिए उसकी चिंता जितनी आम आदमी को होती है उतनी ही सरकार को भी होनी चाहिए। केन्द्र की मौजूदा सरकार ने कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए विशेष रूचि दिखाई है। एक मंत्राी इसी काम के लिण् तैनात कर दिया है। जाहिर है कि सभी चालू सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार आना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि अब तक चले कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का मूल्यांकन किया जाए। उत्तर प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है। अगर कोई सुधार लागू हो सकता है तो वह यहां ज्यादा सरलता से होगा बजाय उन राज्यों के जहां केन्द्र सरकार के विरोधी दल सत्ता में हैं। देश की संसद को सातवां हिस्सा सांसद देनेवाला सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बुरी तरह विफल रहा है। पिछले कई वर्षों की भाजपा सरकार के बावजूद इसके हालात सुधर नहीं रहे हैं। विकास के नाम पर विनाश की यह बर्बादी पांच दशक पुरानी है। जिसका बड़ा गहरा अध्ययन वाॅलन्ट्री हेल्थ ऐसोसिएशन की उत्तर प्रदेश टीम ने किया है। जिससे सारी तस्वीर साफ हो जाती है। बिना संकोच के यह माना जा सकता है कि जो तस्वीर उत्तर प्रदेश की है कमोवेश वही तस्वीर देश के बाकी प्रान्तों की भी है।

नियोजित विकास के तहत प्रदेश के देहातों में सामुदायिक विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना की गई। मूल सोच यह थी कि ग्रामवासियों के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाएं एकीकृत रूप में उपलब्ध कराई जायेंगी। जिनमें उपचार, वातावरण स्वच्छता (सुरक्षित पेय जय आपूर्ति व कूड़ा-मलमूत्रा निपटाना), मातृ शिशु स्वास्थ्य, विद्यालय स्वास्थ्य, संक्रामक रोगों की रोकथाम, स्वास्थ्य शिक्षा व जन्म-मृत्यु आंकड़ों का संकलन जैसी सेवाएं शामिल थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर उत्तर प्रदेश में 907 प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र स्थापित हो चुके थे। मैदानी क्षेत्रों में 5000 व बुन्देलखण्ड व पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 की आबादी पर एक मातृ शिशु स्वास्थ्य उपकेन्द्र भी खोले गए। इन उपकेन्द्रों पर प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान व प्रसवोपरान्त स्वास्थ सेवाओं के साथ प्रतिरक्षण, निर्जलीकरण उपचार के लिए घोल वितरण और खून की कमी दूर करने के लिए आयरन या फोलिक एसिड की गोलियां बांटना व अन्धेपन व नेत्रारोग से बचाव हेतु विटामिन घोल बांटना शामिल था। कालान्तर में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में परिवर्तित होना था। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान इन केन्द्रों में जहां शल्य क्रिया, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ व पैथालाॅजी सेवाएं और बढ़ाई गईं वहीं प्रत्येक केंद्र में मरीजों के लिए उपलब्ध बिस्तरों की संख्या 6 से 30 कर दी गई। जाहिर है इस पूरे तामझाम पर जनता का अरबों रूपया खर्च हो रहा है। पर क्या जो कुछ कागजों पर दिखाया जा रहा है वह जमीन पर भी हो रहा है ? उत्तर प्रदेश के किसी भी गांव में जाकर असलीयत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद 1988-89 से पूरे प्रदेश में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम ठप्प पड़ा है। प्रदेश के 48 ए.एन.एम. प्रशिक्षण केन्द्रों में डल्लू बोल रहे हैं। यहां से आखिरी बैच 1986-87 में निकला था। जिसमें 2000 स्वास्थ्यकर्मि पास हुए थे। पर उनकी भी आज तक न तो नियुक्ति की गई और न ही उपकेन्द्र ही खेले जा सके। इन केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। सब जानते हैं कि ए.एन.एम. गांव में नहीं रहती। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा 10 साल से बेकार पड़ी है। पिछले 10 वर्षों से जो स्टाफ रिटायर हो चुका है उनकी जगह रिक्त हुए पदों पर कोई प्रतिनियुक्ति नहीं हुई। अतः हजारों की संख्या में महिला व पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के पद खाली पड़े हैं। दिवालिया सरकार और कर भी क्या सकती है ?

इस तरह यह सभी सेवा केन्द्र चिकित्सकीय व स्वास्थ्य सेवाएं तो न मुहैया करा पाये, अलबत्ता नसबन्दी कराने के केन्द्र जरूर हो गए। 1970-71 से 1991-92 तक नसबंदी के अलावा यहां कुछ भी नहीं हुआ। बीस सूत्राीय कार्यक्रमों के दौरान जो फर्जी नसबंदी का दौर चला था, वह अभी थमा नहीं है। नसबंदी की उपलब्धियां फर्जी तौर पर बढ़ा चढ़ाकर बताई जाती रहीं और इन्हीं ‘उपलब्धियों’ की एवज में नौकरशाह करोड़ों रूपए के पुरस्कार लेते रहे। इस तरह प्रदेश की बेबस जनता पर दुहरी मार पड़ी है। 1994 में काहिरा के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में तय हुआ कि लक्ष्य निर्धारण बजाए ऊपर से नीचे की तरफ होने के, नीचे से ऊपर की ओर होगा। इससे तो स्वास्थ्य कर्मियों की मौज आ गई। काम तो वो पहले भी कागजों पर ज्यादा करते थे, अब तो उसकी भी जरूरत नहीं रही क्योंकि लक्ष्य मुक्त कार्यविधि 1995-96 से लागू कर दी गई। इस तरह सब कार्यमुक्त हो गए व नसबंदी भी नहीं हुई। इस घोटाले से उबरने के लिए भारत सरकार ने मजबूर होकर दुबारा लक्ष्य मुक्त पद्धति के स्थान पर सामुदायिक परख पद्धति 1997 में लागू की। मकसद था कि समुदाय की आकांक्षाओं के अनुरूप सेवाएं दी जाएं। सबसे बड़ी बात यह हुई कि नीति व पद्धतिगत इस मौलिक बदलाव के लिए कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण बाद में हो रहा है, यानी घोड़ांे के आगे गाड़ी खड़ी है। फिर ये गाड़ी चलेगी कैसे ?
1970-71 से प्रदेश में अन्तर्राष्ट्रीय दाताओं का बड़े पैमाने पर प्रादुर्भाव हुआ। विश्व बैंक द्वारा इसी वर्ष प्रदेश के 6 पूर्वी जिलों में ‘भारत जनसंख्या परियोजना’ लागू हुई। योजना का मूल उद्देश्य सेवा संगठनों को मजबूत करना था। फलतः एक ओर नव निर्माण शुरू हुआ दूसरी ओर नए चिकित्सकीय सेवा केन्द्र खोले गए। आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया में तमाम उपकेन्द्र गांव से दूर बनाए गए, जो कभी इस्तेमाल नहीं हुए। आज ये केंद्र वीराने में खण्डहर बन चुके हैं। इसी तरह लखनऊ में खोले गए 8 मैटरनिटी होम में विभाग के अन्य कार्यालय खुल गए हैं। सेवा के नाम पर यहां सब कुछ शून्य हैं। इसी परियोजना में लखनऊ में एक जनसंख्या केन्द्र भी खोला गया था। 1979-80 से पुनः विश्व बैंक संपोषित ‘भारत जनसंख्या परियोजना-2’ लागू हुई। जिसका मूल उद्देश्य सूचना, शिक्षा संचार व प्रशिक्षण था। इस योजना के नाम पर तमाम ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट अमरीका, थाईलैण्ड, इंग्लैण्ड आदि से प्रशिक्षण लेकर आए। पर जहां से प्रशिक्षण ले गए थे, वहां वापिस लौटकर नहीं आए। उन्हें उनकी नियुक्ति दूसरी जगह कर दी गई, आखिर क्यों ? जब यही करना था तो लाखों रुपया प्रशिक्षण पर बर्बाद करने की क्या जरूरत थी ? इसी तरह सूचना शिक्षा संचार के नाम पर प्राइवेट छपाई भी लाखों रूपए खर्च करके करवाई गई। जनचेतना फैलाने के नाम पर छपवाई गई यह स्टेशनरी कभी काम नहीं आई। न जाने कितने फार्म छपे व रद्दी में बिक गए।

इस पूरे कार्यक्रम के नतीजे असन्तोषजनक थे। ऐसा विश्व बैंक द्वारा कराए गए मूल्यांकन से पता चला। नतीजतन उत्तर प्रदेश को ‘भारत जनसंख्या परियोजना 3,4,5’ नहीं दी गई। पर इसके कुछ अन्तराल के बाद 1989-90 में ‘भारत जनसंख्या परियोजना-6’ उत्तर प्रदेश को मिल गई। जिसका मूल उद्देश्य श्रम संसाधनों का विकास करना था। इस योजना के तहत ऊपर के अधिकारी तो विदेशी सैेरगाहों में घूम आए पर नीचे का स्टाफ भी पीछे नहीं रहा। वे भी अहमदाबाद, गांधीग्राम, मुंबई में सैर सपाटे करता रहा। फिर आया सूचना क्रांति का दौर। स्वास्थ्य सेवा भले ही लोगों को न मिले पर सूचना के आधुनिक उपकरणों को खरीदनें में संकोच क्यों किया जाए ? सूचना नहीं तो कमीशन की आमदनी तो होगी ही। इसलिए प्रौद्योगिकी से तालमेल बिठाए रखने के नाम पर कराड़ों रूपये के सैकड़ों कंप्यूटर व व बाकी का साजो सामान खरीद लिया गया। जनजागरण के नाम पर हजारों रंगीन टी.वी. व वी.सी.आर. भी खरीदे गए, जो स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकारियों के बंगलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इतना ही काफी नहीं था और भी घोटाले हुए। प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान खोलेे गए जनसंख्या केन्द्रों के ही साइन बोर्ड रातोंरात बदलकर उन्हें स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण प्रशिक्षण केन्द्र में तबदील कर दिया गया। केन्द्र की जमीन की पुनः खरीद दिखाई गई। बने भवनों में थोड़ा परिवर्तन करके पूरे भवन निर्माण की राशि वसूल कर ली गई। परिवार प्रशिक्षण के लिए पहले 7 क्षेत्राीय प्रशिक्षण केन्द्र थे जिनके स्थान पर 18 केन्द्र खोल दिए गए। जिनका भवन निर्माण हुआ, साज-सज्जा के लिए भारी खरीदारियां की गईं, पर योजनाबद्ध तरीके से कभी कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ। दरअसल तो इन केन्द्रों में पहुंचवालों की बारातें टिकती रहती हैं। गरीब जनता के पैसे से खरीदे गए कंप्यूटर व साज सज्जा अपनी मूल पैकिंग में रखे रखे ही आउटडेटेड हो गए।

फिर एक नया नारा दिया गया कि ‘सन् 2000 ई. तक सबके लिए स्वास्थ्य’ की गारन्टी होगी। 1978-79 में अल्माआटा, रूस में विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन हुआ जिसमें शताब्दी के शेष दो दशकों में स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने व सन् 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य उपलब्ध करा देने के लक्ष्यों की घोषणा की गई। औरों की क्या कहें खुद भारत सरकार का ही मानना है कि उत्तर प्रदेश में ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का लक्ष्य पूरा करने में अभी 100 साल और लगेंगे।
वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर में जो हो रहा है वह भी कम रोचक नहीं। कुछ समय पूर्व तक ग्रामवासी पूरी तरह आत्मनिर्भर होते थे। हजारों साल से हमारे गांव में रहने वाले हर व्यक्ति की जरूरतें गांव में ही पूरी हो जाती थी। पशुधन प्रचुर मात्रा में था। प्रौद्योगिकी विकास से परिवर्तन तो जरूर आया, पर कैसा ? साठ के दशक में हम गेहूं बाहर से मंगाते थे। हरितक्रांति के फलस्वरूप आज देश में रेकार्डतोड़ खाद्यान्न उत्पादन होता है। पर इसके बावजूद हमारे देश में 0-14 आयुवर्ग में 60 फीसदी बच्चे भयंकर कुपोषण के शिकार हैं। महिलाओं में 80 फीसदी गर्भवती महिलाएं खून की कमी से पीडि़त हैं। 35 फीसदी गर्भ जोखिम भरे होते हैं। पौष्टिक आहार की कमी इसका प्रमुख कारण है। हरित क्रांति के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा है ?
बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रा में हुई खोजों व शोध के कारण उपचार के क्षेत्रा में अत्यधिक सुविधाएं आज सुलभ हैं। हृदय के साथ ही अन्य अंगों का प्रत्यारोपण भी आज हो रहा है। परन्तु वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलस्वरूप इस दिशा में जितना भी विकास हुआ व सेवा सुविधाएं उपलब्ध हुईं उन तक पहुंच समाज के धनाढ्य व नव-धनाढ्य वर्ग की ही है। आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है। अपोलो अस्पताल, एस्कोर्ट अस्पताल या ऐसे तमाम दूसरे बड़े सरकारी संस्थान या प्राइवेट अस्पताल या क्लीनिक की सेवाएं केवल विशिष्ट वर्ग के लिए ही सुरक्षित व सुलभ हैं। दूसरी त्रासदी यह है कि कुछ गिनेचुने विशेषज्ञ जिनकी सेवाएं सामान्य जनता को सरकारी अस्पतालों में मिल भी जाती थीं, वह भी अब इन्हीं पांच सितारा अस्पतालों में चले गए हैं।

इस प्रक्रिया का कुप्रभाव दवाइयों के उत्पादन, मूल्यांकन, वितरण व विक्रय पर भी पड़ रहा है। जीवनरक्षक दवाइयों का उत्पादन आवश्यकतानुसार नहीं है। जबकि प्रतिबन्धित बेहूदा, तर्कहीन व प्रभावहीन दवाइयों का उत्पादन ज्यादा हो रहा है। जेनरिक नाम से 400-500 के बीच ही सभी जरूरी दवाइयां आ जाती हैं। जबकि ब्रांड नाम से 30 हजार से ज्यादा दवाइयां बाजार में अटी पड़ी हैं। डाक्टर इन्हें लिख रहे है। मरीज खरीद रहे हैं व विदेशी कंपनियां मालामाल हो रही हैं। नकली व मिलावटी दवाइयों का बाजार समानान्तर चल रहा है। दवाइयों के पेटेण्ट नियम लागू होते ही रही सही कसर भी पूरी हो जायेगी, क्योंकि भारत सरकार डब्ल्यू.टी.ओ. के निर्देशों को मान चुकी है।

उदारीकरण का एक और महत्वपूर्ण परिणाम स्वैच्छिक संस्थाओं को सीधे मिलने वाली फंडिंग के रूप में भी उभर कर आया है। तमाम अन्तर्राष्ट्रीय दाता संगठनों व संस्थाओं ने सरकार के सामने यह शर्त रखनी शुरू की कि वह गैर सरकारी संस्थाओं व स्वैच्छिक संस्थाओं को ही फंडिंग करेंगे। जाहिर है कि यह बदलाव इसलिए आया कि ये संगठन सरकारी तंत्रा की लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, लूट, निकम्मापन व गैरजिम्मेदारी के रवैये से त्रास्त हो चुके थे। सरकार भी खुलकर मानने लगी थी कि विकास के काम सरकारी तंत्रा से उतनी कुशलता व लगन से नहीं हो सकते, जितना स्वैच्छिक संस्थाओं के द्वारा। पर इससे नई किस्म के घोठाले होने लगे। तमाम फर्जी स्वयंसेवी संस्थाएं सामने आ गई। विशेषज्ञों का मानना है कि होना यह चाहिए था कि विभिन्न स्तरों पर जो स्वैच्छिक संस्थाएं अच्छा काम कर रही थीं, उन्हीें को यह फंडिंग होती और वही विकास का काम करतीं। परन्तु सरकार ने इसकी भी काट निकाल ली। जहां विकास व समाज सेवा के नाम पर सरकार के पास पूरी फौज तैनात थी, पूरे पूरे विभाग व पूरा सरकारी अमला व संसाधन मौजूद थे, वहीं सरकार ने ही स्वैच्छिक संस्थाएं बनाकर उन्हें पंजीकृत कराना शुरू कर दिया और सभी फंडिंग इन्हीं के द्वारा हड़पी जाने लगी। इतना ही काफी नहीं था आला अफसरों की बेगमों ने सैकड़ों स्वयंसेवी संस्थाएं बना डालीं और अनुदान राशि की लूट शुरू कर दी। ‘अन्धा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपने को देय’। इस सबसे तो चाणक्य पंडित की वही बात सिद्ध होती है कि ढांचे बदलने से कुछ नहीं बदलता जब तक कि उसमें काम करने वाले लोग नहीं बदलते। स्वास्थ्य के मामले में भारत का पारंपरिक ज्ञान और लोकजीवन का अनुभव इतना समृद्ध है कि हमें बड़े ढांचों, बड़े अस्पतालों और विदेशी अनुदानों की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपनी क्षमता और अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल की। वरना विकास के नाम पर ऐसे ही विनाश होता रहेगा। हर नई सरकार नए नारों से नए सपने दिखाकर लोगों को यूं ही मूर्ख बनाती रहेगी।

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