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Monday, October 28, 2013

दिशा से भटक गए केजरीवाल

जब दिल्ली प्रदेश भाजपा ने डा. हर्षवर्धन गुप्त को दिल्ली के विधानसभा चुनावों के लिए अपना मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित त किया तो अरविन्द केजरीवाल का कहना था कि डा.हर्षवर्धन एक भ्रष्ट नेता हैं, चूंकि उन्होंने कभी भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज नहीं उठाई। केजरीवाल यह बयान न सिर्फ हास्यापद है, बल्कि आम आदमी पार्टी के मानसिक दिवालियापन का परिचायक भी। दिल्ली की राजनीति में थोड़ी भी रूचि रखने वाले पत्रकार और आम लोग यह जानते हैं कि डा.हर्षवर्धन की छवि एक भले इंसान की है। दरअसल उनकी जैसी छवि वाले राजनेताओं का भारत की राजनीति में काफी टोटा है। अगर केजरीवाल का यह तर्क मान लिया जाए तो आम आदमी पार्टी की बुनियाद ही अनैतिक आचरण वालों के हाथों से हुई है। यह बात केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं कि 20 वर्ष पहले 1993 में देश की पूरी राजनैतिक व्यवस्था के खिलाफ भ्रष्टाचार और आतंकवाद को लेकर हवाला कांड की जो लड़ाई लड़ी गई, उसमें केजरीवाल के अहम सहयोगियों ने अनैतिक भूमिका निभाकर इस लड़ाई को विफल करने का घिनौना कार्य किया था। यह बात केजरीवाल के लोकपाल बिल के आंदोलन से पहले ही मैंने उन्हें एक निजी वार्ता में समझायी थी। पर वे अपने उन साथियों की रक्षा में इतने रक्षात्मक हो गए कि मेरे सप्रमाण तर्क भी उन्हें अपना निर्णय बदलने पर बाध्य नहीं कर पाए। इसलिए मुझे उनके आंदोलन को लेकर शुरू से ही शंका रही, जो बाद में सही साबित हुई।

    केजरीवाल दावा करते हैं कि उन्होंने 20 वर्ष से भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई लड़ी है। लोकपाल बिल बनवाकर वे देश से भ्रष्टाचार खत्म करना चाहते थ। पर उनका तरीका और मांगें इतनी अव्यवहारिक थीं कि उनके मकसद को लेकर शुरू से ही जनता के मन में शक पैदा हो गया था। जो बाद में सच साबित हुआ। लोकपाल बिल आज कहां अंधेरे में खो गया वह केजरीवाल को भी पता नहीं। अन्ना हजारे को मोहरा बनाकर धरने पर बैठाने वाले केजरीवाल का अब अन्ना से कोई नाता नहीं बचा। उनका यह दावा कि देश की आमजनता भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रान्ति करने को तैयार बैठी है, एक मजाक है। क्योंकि न तो देश से भ्रष्टाचार खत्म हुआ है और न ही अन्ना हजारे और केजरीवाल हिमालय की कंद्राओं में जाकर छिप गए हैं। अगर गायब हो गई है, तो वह भीड़, जो रामलीला मैदान में जुटी थी। साफ जाहिर है कि अगर वह आत्मप्रेरित भीड़ थी, तो आज इनके साथ क्यों नहीं है ? क्योंकि वह प्रायोजित भीड़ थी और जो लोग उसमें गंभीरता से जुड़े थे, उन्हें इण्डिया अगेनस्ट करप्शन के नेतृत्व के बचकानेपन और अति महत्वाकांक्षी स्वभाव को देखकर मोहभंग हो गया। इसीलिए वे आज केजरीवाल या अन्ना के साथ नहीं खड़े हैं।

    केजरीवाल की पार्टी 47 फीसदी वोट लाने का दावा कर रही है, पर जिस सर्वेक्षण को आधार पर बनाकर यह दावा किया जा रहा है, उसे करने वाले योगेन्द्र यादव खुद आम आदमी पार्टी के एक कार्यकर्ता हैं। किसी भी सर्वेक्षण के बुनियादी सिद्धांतों के विरूद्ध है कि उसे करने वाले स्वयं लाभार्थी हों। निष्पक्ष सर्वेक्षण के लिए जो कोटा प्रणाली सैफोलाजी के लिए आवशयक होती है, उसका तो योगेन्द्र यादव ने कहीं प्रयोग ही नहीं किया। अपने ही दल का कार्यकर्ता सर्वेक्षण करे और भारी जीत का दावा करे, तो इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है।

    दरअसल केजरीवाल ने आज तक जो कुछ किया है, उसमें मकसद की ईमानदारी, गंभीरता और परिपक्वता का नितांत अभाव रहा है। हड़बड़ी में जल्दी से जल्दी राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करना उनके आचरण का दुखद पक्ष हैं। दिल्ली में जहां गुजरात की तरह लोगों को लगातार बिजली मिल रही हो, वहां मीटर जोड़ने का नाटक करके अरविन्द केजरीवाल ने क्या सिद्ध किया ? अगर उनकी बात में दम था तो दिल्ली के हजारों उपभोक्ताओं ने उनके आह्वान पर अपनी बिजली क्यों नहीं कट जाने दी ? क्योंकि दिल्ली के मतदाताओं को शीला दीक्षित सरकार से बिजली को लेकर कोई शिकायत नहीं है।

    कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि आम आदमी पार्टी लोकपाल आंदोलन की तरह एक बुलबुला है, जिसका सही स्वरूप चुनावों के बाद सामने आ जाएगा। लोकतंत्र के लिए एक दुखद अनुभव होता है कि जब भी कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक सरोकार के मुद्दे उठाकर आगे बढ़ता है, तो समाज को धोखा ही मिलता है। अगर केजरीवाल भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम में जुटे रहते और इस तरह की गैरजिम्मेदाराना बयानबाजियां करके मीडिया की सुर्खियों में रहने का लोभ संवहरण कर पाते, तो उनकी भूमिका ऐतिहासिक बन सकती थी। पर अब तो भगवान ही मालिक है, उनका और उनके दल का। चुनाव लड़ने में कोई बुराई नहीं, पर जैसे दूसरे राजनेता सपने दिखाते हैं, वैसे ही केजरीवाल हवाई सपने दिखा रहे हैं और सोच रहे हैं कि दिल्ली का मतदाता मूर्ख है जो उनकी बातों में आ जाएगा।

Monday, July 30, 2012

केवल नेता ही भ्रष्ट क्यों

अन्ना एण्ड कम्पनी हो या बाबा रामदेव, सब राजनेताओं को ही भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इसलिए राजनेताओं को गाली देना, उनका मजाक उड़ाना, उनके गाल पर थप्पड़ मारना, उनके खिलाफ अनशन के मंचों पर चुन्नी ओढ़कर नौटंकी करना, यह सब अब सामान्य बात हो गई है। राजनेताओं को विद्रुप बनाना आत्मघोषित आन्दोलनकारियों और मीडिया का फैशन हो गया है। यह बात दूसरी है कि राजनेताओं के खिलाफ शोर मचाने वाले चाहे जितना उछल लें, चुनावों में जनता वोट उन्ही राजनेताओं को देती है जिनके खिलाफ ऐसे लोग आन्दोलन चलाते हैं। फिर क्या वजह है कि राजनेता इस हमले को लगातार सहते जा रहे हैं और हमलावरों से कुछ नहीं कहते। जनता समझती है कि राजनेता ढीट हो गये हैं। उन्हें अपनी निन्दा से कोई परेशानी नहीं होती बशर्ते कि उनकी कमाई ठीक चलती रहे। इसलिए राजनेता लगातार जनता की निगाहों में गिरते जा रहे हैं। राजनेताओं की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ?
मैं समझता हूँ कि राजनेता ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। इसके दो कारण हैं । एक तो उनके मन में एक डर बैठा है जिसकी वजह से वे चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करने से बचना चाहते हैं। दूसरा वे समाज को आइना नहीं दिखाते। पिछले दिनों मुम्बई के कुछ अति धनी उद्योगपतियों के साथ देश के भ्रष्टाचार को लेकर चर्चा हुई जो इस सवाल पर काफी उद्वेलित थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे हवाला कारोबार, काले धन और 1000 रुपये के बड़े नोटों के चलन को रोकने की पैरोकारी करेंगे। यह सुनकर सभी मुंह बिचकाने लगे। बात साफ है कि भ्रष्टाचार के लिए हम नेताओं को तो गाली देते हैं पर अपने उद्योग, व्यापार, खनन व भवन निर्माण जैसे क्षेत्रों में जम कर काले धन का आदान-प्रदान करते हैं। देश और विदेश में अचल सम्पत्ति में निवेश हो या विलासितापूर्ण जीवन सब में काले धन का जमकर प्रयोग होता है। सरकारी जमीन का आंवटन कराना हो, ठेके कोटे या लाइंसेंस लेने हों या रक्षा मंत्रालय जैसे विभागों को माल की भारी आपूर्ति करनी हो, तो कोई भी सीधे रास्ते नहीं जाना चाहता। सबकी यही मंशा होती है कि ‘‘खर्चा चाहे जो हो जाए काम हमें ही मिलना चाहिए।’’ फिर चाहे हमारी योग्यता हो या न हो। साफ जाहिर है कि भ्रष्टाचार को लेकर अपने ड्राइंगरूमों में राजनेताओं को गाली देने वाले ये व्यवसायी इन्हीं ड्राइंगरूमों में बिठाकर नेताओं और अफसरों की आवभगत करते हैं। उन्हें बक्सों में भरकर नोट देते हैं। चुनाव के पहले बिना मांगे भी इन नेताओं के घर रुपया भेजते हैं। इस उम्मीद में कि अगर वह नेता जीत गया तो आगे 10 गुना लाभ लेंगे।
जब से टेलीविजन चैनलों की बाढ़ आयी है तब से टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल वाले खोजी पत्रकारिता के नाम पर सनसनीखेज खबरें लाते हैं और उन्हें खूब मिर्च मसाला लगाकर बार-बार इस तरह दिखाते हैं जैसे कोई चोर रंगे हाथों पकड़ लिया हो। अपने चेहरे के भाव क्रान्तिकारी दिखाते हैं और जनता को उत्तेजित करने के लिए भड़काऊ भाषा का प्रयोग करते हैं। देश में राजनेताओं के खिलाफ माहौल बनाने में इन टीवी चैनलों की सबसे बड़ी भूमिका रही है। मजे की बात यह है कि इन चैनलों के मालिक वे लोग हैं जो बिल्डिर्स माफिया से लेकर दूसरे ऐसे ही अवैध धन्धों में अरबों रुपये की काली कमाई कर चुके हैं। टीवी चैनल उनके लिए कोई राष्ट्र निर्माण का माध्यम नहीं बल्कि ब्लैक मेलिंग या अपना दबदबा कायम करने या अपने अपराध छिपाने का माध्यम है। देश के ज्यादातर हिस्सों में जो समाचार चैनल चल रहे हैं उनके पीछे आप खोजने पर यही कहानी पायेंगे। जो बड़े और नामी चैनल भी हैं वे सब घाटे में चल रहे हैं। फिर यह घाटा कैसे पूरा हो रहा है ? कई बड़े चैनलों को हाल है के वर्षों में उद्योगपतियों के आगे घुटने टेकने पड़े। अब उन्हीं उद्योगपतियों के आर्थिक साम्राज्य में जो घोटाले होते हैं उनकी सुध कौन लेगा ? फिर यह आक्रामक तेवर किसके लिए ? इतना ही नहीं अब तो चैनलों की राजनैतिक लाइन भी साफ दिखाई देती है। जो जिस दल से पोषण पा लेता है उसी का भौपूं बजाता है। तो क्या यह स्वतंत्र और नैतिक पत्रकारिता है ? अगर नहीं तो फिर राजनेता ही भ्रष्ट क्यों ? यह बात दूसरी है कि आज ज्यादातर राजनेताओं के अपने टीवी चैनल चल रहे हैं। उनमें काम करने वाले लोग पत्रकार कतई नहीं माने जा सकते। उन्हें ज्यादा से ज्यादा पत्रकारिता के आवरण में उस नेता का जन सम्पर्क अधिकारी माना जाना चाहिए।
न्यायपालिका के सदस्यों को मान-सम्मान, वेतन, सुरक्षा व मनोरंजन सबकी बेहतर सुविधाएं मिली हुई हैं। किसी वादी या प्रतिवादी की हिम्मत नहीं कि उनके घर या चैम्बर में घुस जाये। पर न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर अब किसी को कोई संदेह नहीं बचा है। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक के न्यायधीशों का आचरण सामने आ चुका है। राजनेताओं को तो चुनाव लड़ना होता है । जनता की खैर खबर रखनी होती है। हार जायें तो अगले पांच साल राजनीति में जिन्दा रहना होता है। भविष्य की कोई गारंटी नहीं। इस असुरक्षा की भावना के चलते वे भ्रष्ट हो जाते हैं। पर न्यायधीशों को क्या मजबूरी है? देश की अदालतों में ढेड करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमे न्यायपालिका की कार्यप्रणाली व कार्यक्षमता को दर्शाता है।
इस देश की सबसे ज्यादा मट्टी खराब नौकरशाही ने की है। अंग्रेज अपनी हुकूमत चलाने के लिए अखिल भारतीय सेवाओं का ढांचा बना गये। जिसमें घुसने के लिए एक बार मेहनत करनी होती है। इन्तहान पास होने के बाद सारी जिन्दगी देश को मूर्ख बनाने, लूटने और रौब गांठने का लाइंसेंस मिल जाता है। इस ‘स्टील फ्रेमवर्क’ के सदस्यों को जीवन में कोई असुरक्षा नहीं है फिर ये क्यों भ्रष्टाचार करते हैं ? इनकी सेवाओं के ही ईमानदार अफसर बताते हैं कि अगर ये लोग सहयोग न करें तो राजनेता एक पैसे का भ्रष्टाचार नहीं कर सकते। पर इनका लालच और हवस नेताओं को भयमुक्त कर देता है। फिर दोनों की सांठगांठ से जनता लुटती है, देश बर्बाद होता है । हर बार भोली-भाली जनता की मृगतृष्णा को अन्ना एण्ड कम्पनी जैसे नये-नये कलाकार अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। हर बार जनता को हताशा हाथ लगती है। क्योंकि ऐसे लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की भावनाओं को तो भडका लेते हैं पर इनके पास समाधान कोई नहीं है। लोकपाल भी नहीं। क्योंकि इन्हीं लोगों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की सबसे बड़ी लड़ाई को षडयंत्र करके विफल किया और सीवीसी और सूचना आयोग जैसे हवाई किले खड़े करके भ्रष्टाचार से निपटने का दावा किया, जो आज खोखला सिद्ध हो चुका है। ऐसे आन्दोलनकारी भी नैतिकता का आचरण नहीं करते । इनके लिए लक्ष्य महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि सारा खेल अपने छिपे एजेण्डा के लिए किया जाता है। इसीलिए ये लोग अपनी दुकान चमकाने के चक्कर में अपने कद से बडे लोगों को दूर रखते हैं। तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं ? जरुरत भ्रष्टाचार के कारणों को गहराई से समझने की है। राजनेताओं जैसे किसी एक वर्ग को बलि का बकरा न बनाकर इसे राष्ट्रीय समस्या मानना होगा। साझे प्रयास से यथा संभव इस बुराई को दूर करने का संकल्प लेना होगा। पूर्णतः भ्रष्टाचार मुक्त कोई समाज कभी नहीं रहा। चाणक्य पण्डित ने कहा था कि शहद के गोदाम की रखवाली करने वाले के होठों पर शहद लगा होता है। पर इसका मतलब यह नहीं कि हम भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करें।

Monday, January 2, 2012

लोकपाल बिल-जन आंदोलन का भविष्य

Rajasthan Patrika 2Jan2012
आज देशवासियों के मन में एक बार फिर हताशा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो माहौल देश में बना था, वह टीम अन्ना के अनुभवहीन महत्वाकांक्षी नेतृत्व और राजनैतिक दलों के रवैये के कारण ठंडा पड़ गया। संसद के विशेष सत्र के बाद यह साफ हो गया है कि कोई भी राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के विरूद्ध कठोर कानून बनाने को तैयार नहीं है। इसलिये सारी ऊर्जा मामले को उलझाने में खर्च की गयी। उल्लेखनीय है कि लोकपाल की सारी बहस के बाद बात सी बी आई की स्वायत्तता के ऊपर आ कर अटक गयी। बार-बार संसद में व मीडिया में सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के ‘‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार‘‘ फैसले का उल्लेख किया गया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सी बी आई की स्वायत्तता के व्यापक निर्देश जारी किये थे। जिनकी अवहेलना करके एन डी ए सरकार ने 2003 में एक लुंज-पुंज सी वी सी एक्ट बना दिया। अगर इस फैसले को ठीक से लागू किया जाता तो न तो इस आन्दोलन की जरूरत पड़ती और न ही लोकपाल कानून विधेयक पेश करने की। विडम्बना यह है कि इतनी बहस के बावजूद किसी भी दल ने इस फैसले को लागू करने की बात नहीं की।
 दरअसल सरकार के जिस लोकपाल विधेयक को कमजोर बताकर दरकिनार किया जा रहा है, उस बिल में अनेक ऐसे प्रभावी प्रावधान किये गये हैं जिनसे भ्रष्टाचार को रोकने में कुछ सीमा तक मदद मिलेगी और बाकी का सुधार आने वाले वर्षों में अनुभव के आधार पर किया जा सकता है।
लेकिन विपक्ष इसका राजनैतिक लाभ लेना चाहता है। विशेषकर भाजपा। जिसने सिविल सोसायटी के मंचों पर तो लोकायुक्त की माँग का समर्थन किया था और संसद में इसका विरोध। सी बी आई की स्वायत्तता को लेकर जितना हल्ला भाजपा मचा रही है, उसके पर कतरने का काम उन्हीं की एन डी ए सरकार ने 2003 में सीवीसी एक्ट के माध्यम से किया था। इसलिये भाजपा के पास इस बिल पर हमला करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ यूपीए सरकार ने भी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को निपटाने का काम बिना संजीदगी के किया। जिससे उसके इरादों पर शक पैदा होने लगा। अन्ना के पहले धरने से लेकर और संसद में फ्लोर मैनेजमेंट तक ऐसा नहीं लगा कि काॅग्रेस की रणनीति स्पष्ट हो। ऐसे में अब दो ही रास्ते बचते हैं, एक तो यह कि बजट सत्र में यूपीए सरकार संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर इस बिल को फिर से पेश कर सकती है, जैसा कि वो कह भी रही है। दूसरा यह कि वह सीबीआई की स्वायत्तता केा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार स्थापित कर दे। जिससे जन लोकपाल बिल के काफी प्रावधानों की जरूरत ही नहीं बचेगी और न ही राजनैतिक दलों को इस बिल के ऊपर ज्यादा विरोध करने की। इससे प्रमुख दलों की यह माँग भी पूरी हो जायेगी कि सरकार सी बी आई को अपने शिकंजे से मुक्त करे।
जहाँ तक जन आन्दोलन का प्रश्न है, श्री हजारे का मुम्बई और दिल्ली का उपवास उनकी अपेक्षा के विपरीत विफल रहा और वह धैर्य खो बैठे। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जनता का विश्वास टीम अन्ना के नेतृत्व से हट गया हैं। जनता उनसे भ्रष्टाचार के मुददे पर जुड़ी थी पर टीम अन्ना ने उसे राजनैतिक रंग दे दिया है। यह जानते हुए भी कि लोकपाल विधेयक को पारित करने में कोई भी दल गंभीर नहीं है, टीम अन्ना एक ही दल के विरोध में खड़ी दिखायी दे रही है। इससे उसकी साख काफी गिरी है। लोगों को समझ में आ गया है कि भ्रष्टाचार के विरोध के झण्डे के पीछे व्यक्तिगत राजनैतिक महत्वाकांक्षा छिपी है।

पहले बाबा रामदेव और फिर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के असफल होने से भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को गहरा आघात लगा है। जनता बदलाव चाहती है, इसलिये यह लड़ाई तो कभी धीमी और कभी तेज चलती रहेगी, पर व्यावहारिक ज्ञान, सही दृष्टि और अनुभव से युक्त नेतृत्व ही इस संघर्ष को सही दिशा दे पायेगा। अन्यथा टीम अन्ना तो अपना रूख साफ कर चुकी है कि वह आगामी चुनावों में काॅग्रेस का विरोध करेगी और जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। भाजपा टीम अन्ना के सदस्यों को मालायें पहनाकर एवं जिन्दा शहीद घोषित कर अपने मंचों पर ले जायेगी और उनसे अपना चुनावी प्रचार करवा लेगी। पर इससे टीम अन्ना की रही सही साख भी समाप्त हो जायेगी। इसलिये देश के चिन्तनशील और अनुभवी लोगों के जाग्रत होने की जरूरत है। आवश्यकता इस बात की है कि देश के समझदार और संघर्षशील लोग खुले दिल व दिमाग से, इकट्ठा होकर एक मंच पर आयें। उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम को और आगे ले जाना चाहिये। इससे धीरे-धीरे देश की परिस्थितियाँ सुधरेंगी एवं भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम को सही दिशा व गति मिलेगी।
टीम अन्ना केवल लोकपाल बनाने की माँग पर अड़ी रही है। जबकि हकीकत यह है कि दुनिया में कोई भी अपराध कानून बनाने से मात्र 5 फीसदी तक कम होता है। भ्रष्टाचार के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। इसके अलावा अन्य मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उपाय भी करने पड़ते हैं जिनका कि कोई जिक्र टीम अन्ना ने अपने आंदोलन में नहीं किया। उनका दुराग्रह देश के लोगों को अच्छा नहीं लगा। भविष्य में जन-आंदोलनों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि वे सामाजिक सारोकार के मुद्दों को राजनैतिक जामा न पहनायंे। तभी बात आगे बढेगी वरना देश में फिर हताशा फैल जायेगी।

Monday, October 24, 2011

लोकपाल मुद्दे पर खुली बहस की ज़रुरत

टीम अन्ना की सदस्या किरण बेदी पर यात्रा भत्ते में से अवैध रूप से बचत करने का आरोप है। हालांकि यह आरोप मीडिया ने लगाया है, पर माना यही जा रहा है कि राजनेता किरण बेदी को भ्रष्ट सिद्ध करना चाहते हैं। उधर टीम अन्ना का कहना है कि 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले के आरोपी ए.राजा की हीरा चोरी के मुकाबले किरण बेदी की खीरा चोरी नगण्य है। उनकी बात सही है, पर कानून यह फर्क नहीं मानता। दरअसल किरण बेदी सद्इच्छा के बावजूद एक ऐसी लापरवाही कर बैठी हैं, जिसका उन्हें काफी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। उन्होंने पिछले वर्षों में अपने भाषणों के आयोजकों से हवाई जहाज की महंगी टिकट का पैसा वसूला मगर यात्रा की सस्ती टिकट पर। जिसमें भी उनको 75 फीसदी की रियायत एयरलाइंस ने इसलिए दी क्योंकि उन्हें ‘गैलेण्ट्री अवार्ड’ से नवाजा गया था। इस तरह उन्हें जो मुनाफा हुआ, उसे श्रीमती बेदी ने अपने निजी खाते में तो नहीं लिया पर अपनी धर्मार्थ संस्था में डाल दिया। जिससे वे जनहित के कार्य कर सकें। उनका कहना है कि इस तरह मैंने कोई अपराध नहीं किया। जबकि कानून के विशेषज्ञ और श्रीमती बेदी के समकालीन पुलिस अधिकारियों का कहना है कि सरकारी नौकरी में रहते हुए ऐसा काम करने से नौकरी चली जाती लेकिन अभी भी उन्हें सजा मिल सकती है और उनकी पेंशन भी बन्द हो सकती है।
इससे पहले प्रशांत भूषण का विवादास्पद बयान कि यदि वहाँ की जनता चाहे तो कश्मीर को भारत से अलग होने देना चाहिए, या अरविन्द केजरीवाल का सरकार को पैसा लौटाए बिना, शर्त के विरूद्ध नौकरी छोड़ देना, कुछ ऐसे मामले हैं, जिनसे अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेतृत्व की नैतिकता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। टीम अन्ना इससे विचलित नहीं है। उनका कहना है कि सरकार जितनी कीचड़ हम पर उछालेगी, उतनी ही जनता की सहानुभूति हमें मिलेगी। पर दोनों तरह की बातें कही जा रही हैं। भ्रष्टाचार से आजिज जनता चाहती है कि उसे रोजमर्रा की जिन्दगी में भ्रष्टाचार और सरकारी लालफीताशाही का मुँह न देखना पड़े। उन्हें समझा दिया गया है कि लोकपाल बिल पास हो जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। इसलिए हमला टीम अन्ना के किसी भी सदस्य पर हो, जनता की निगाह में वह सरकार का भड़ास निकालने का तरीका है।
दूसरी तरफ टीम अन्ना से मोहभंग होने वालों की भी कमी नहीं है। इन लोगों का कहना है कि जब छोटे-छोटे मौकों पर टीम अन्ना का नेतृत्व अपने आर्थिक लाभ के लिए समझौते किए बैठा है और उसे इसकी कोई ग्लानि नहीं है, तो भविष्य में क्या होगा, जब इनकी जैसी मानसिकता के लोग लोकपाल बनेंगे? इसलिए उन्हें लगता है कि टीम अन्ना का आन्दोलन दिशाहीन हो चुका है। अब केवल भावनाऐं भड़काने का और किसी तरह समाचारों में बने रहने का कार्य किया जा रहा है। मेगासेसे पुरूस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह और वरिष्ठ गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता राजगोपाल का टीम अन्ना की कोर समिति से इस्तीफा देना और कर्नाटक के लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े का अरविन्द केजरीवाल के हिसार चुनाव प्रचार में सक्रिय होने से नाराज होना, इस दिशाहीनता के प्रमाण के रूप में देखा जा रहा है। टीम अन्ना के शुभ चिंतकों का मानना है कि जहाँ अरविन्द केजरीवाल इस आन्दोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं, वहीं उनकी महत्वाकांक्षा, तानाशाही और आत्मकेन्द्रित रणनीति इस आन्दोलन के पतन का कारण बन रही हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध उत्तर भारत में जनमत तैयार करने का बाबा रामदेव व टीम अन्ना ने बहुत अच्छा काम किया है, जिससे कोई असहमत नहीं होगा। रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ और उसके बाद जिस तरह से संसद की प्रतिक्रिया अन्ना के पक्ष में सामने आई, उससे इस आन्दोलन का लक्ष्य प्राप्त हो गया था। इसके बाद कि प्रक्रिया सांसदों के हाथ में है। जिसके बिना कोई कानून नहीं बन सकता। पर सांसदों को बहस करने और कानून के मसौदे पर विचार करने से पहले ही अगर टीम अन्ना चुनाव के दंगल में उतर पड़ती है, तो उसकी नीयत पर सन्देह होना लाजमी है। जिस तरह की भाषा टीम अन्ना के सदस्य राजनेताओं के विरूद्ध प्रयोग कर रहे हैं, उससे उन्हें सलीम-जावेद के डायलाॅग की तरह जनता में वाह-वाही भले ही मिल रही हो, एक खतरनाक स्थिति पैदा हो रही है। जो देश में अराजकता की हद तक जा सकती है।
Punjab Kesari 24 Oct 2011
यह सही है कि देश की जनता सरकारी व्यवस्थाओं में जबावदेही और पारदर्शिता चाहती है। इसलिए उसे जहाँ से भी आशा की किरण दिखती है, वहीं लग लेती है। पर ऐसी स्थिति में जन आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। अगर उनमें राजनैतिक परिपक्वता, जन आन्दोलनों का अनुभव और सŸााधीशों की प्रवृतिŸा की समझ नहीं है, तो वे जनता को गड्डे में गिरा सकते हैं। इससे इतनी हताशा फैलेगी कि वर्षों दूसरे जन आन्दोलनों को खड़ा करना आसान न होगा। वैसे भी देश के तमाम अनुभवी वकील, न्यायविद् व सर्वोच्च पदों पर रहने के बावजूद पूरी तरह ईमानदार रहे अधिकारियांे को भी जनलोकपाल विधेयक से सहमति नहीं है। उन्हें लगता है कि यह विधेयक बहुत बचकाना, धरातल की सच्चाई से दूर और शेखचिल्ली के ख्वाब जैसा है। जिसका कोई परिणाम सामने आने वाला नहीं है। वे इस पूरे मामले पर भिन्न राय रखते हैं। चिन्ता की बात यह है कि न तो टीम अन्ना ने और न ही देश के मीडिया ने ऐसे अनुभवी लोगों की राय जानने की कोशिश की, जिन्होंने सŸाा में रहते हुए भ्रष्टाचार से लड़ाई की और बिना समझौता किए अपना कार्यकाल पूरा किया। इन लोगों का दावा है कि जनलोकपाल बिल न तो भ्रष्टाचार को दूर कर पाएगा और न ही भ्रष्टाचारियों को पकड़ पाएगा। इसलिए पूरे देश में इस मुद्दे पर एक खुली बहस की आवश्यकता है, जिसके बाद ही संसद को कोई निर्णय लेना चाहिए।

Sunday, August 21, 2011

अन्ना की क्रांति

Rajasthan Patrika 21 Aug 2011
अन्ना हजारे आज भ्रष्टाचार के विरूद्ध जन आक्रोश के प्रतीक बन गए हैं। उनका और उनके साथियों का कहना है कि वे ‘जन लोकपाल बिल’ पास करवाकर ही मानेंगे। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि संसद जो तय करेगी, उन्हें मान्य होगा। इसमें विरोधाभास साफ है। असल में क्या होता है, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा। पर देश में आज भी यह मानने वालों की कमी नहीं है कि जनलोकपाल बिल अपने मौजूदा स्वरूप में अपेक्षा पर खरा नहीं उतरेगा। इसमें शक नहीं कि भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को लग रहा है कि अन्ना हजारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की दिशा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ेंगे। अगर ऐसा होता है तो राष्ट्र के और समाज के हित में होगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो लोगों में भारी निराशा फैलेगी। इसके साथ ही पिछले दिनों के घटनाक्रम को लेकर राजनीति के गलियारों में अनेक तरह की रोचक चर्चाऐं चल रही हैं।

Punjab Kesari 22 Aug 2011
अन्ना हजारे को मयूर विहार के घर से गिरफ्तार करना एक अजीब घटना थी। आन्दोलन से पहले ही, बिना किसी कानून को तोड़े, केवल उनके इरादे को भांपकर पुलिस की यह कार्यवाही ऐसी सामान्य घटना नहीं है जैसा प्रधानमंत्री ने संसद में अपने बयान में बताने की कोशिश की। विपक्ष के नेता ने प्रधानमंत्री को आड़े हाथों लेते हुए हमला किया कि क्या प्रधानमंत्री पुलिस कमिश्नर की शख्सियत के पीछे छिपकर काम कर रहे हैं? वहीं यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि गत् आधी सदी से भारत की सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि वह अन्ना हजारे को इस तरह गिरफ्तार करके हीरो बना दे। इन लोगों का मानना है कि दाल में कुछ काला है। अपने समर्थन में इनके कई और तर्क हैं। मसलन ये पूछते हैं कि देश की बड़ी नेता सोनिया गाँधी भारत से कब, कहाँ और क्यों गईं, इसकी मीडिया को भनक तक नहीं लगी। अटल बिहारी वाजपेयी जब अपने घुटने का इलाज करवाने मुम्बई गए थे, तो पल-पल की खबर लेने के लिए मीडिया अस्पताल के बाहर खड़ा था।

पूर्व प्रधानमंत्री व अन्य बड़े नेता भी अगर बाहर इलाज के लिए जाते हैं तो वह खबर बनती है। इनका सवाल है कि सोनिया गाँधी के इस तरह चले जाने के बावजूद, क्या वजह है कि सारा मीडिया इस मामले में पूरी तरह खामोश है? लगता है कि मीडिया को इंका ने पूरी तरह मैनेज कर रखा है। अगर यह बात है तो फिर क्या वजह है कि कुछ टी.वी. चैनल रात-दिन अन्ना के आन्दोलन में पत्रकारिता से हटकर सामाजिक कार्यकर्ता की तरह काम कर रहे हैं? लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए आव्हान कर रहे हैं। मानो सारा मीडिया इस ‘क्रांति’ में कूद पड़ा हो। अगर सोनिया गाँधी के मामले में मीडिया मैनेज हो सकता है तो क्या अन्ना के आन्दोलन के मामले में मीडिया को मैनेज नहीं किया जा सकता? इन लोगों को लगता है कि सरकार पर टी.वी. चैनल जो हमला रात-दिन बोल रहे हैं, उन्हें इंका की शह है। इनका तीसरा तर्क यह है कि तिहाड़ जेल में रिहाई के आदेश मिल जाने के बावजूद अन्ना हजारे जेल के अन्दर कैसे बैठे रह गए? जबकि जेल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी घटना हुई हो जब रिहाई के आदेश के बावजूद कोई कैदी बाहर न निकाला गया हो। चाहें वो गाँधी, पटेल, नेहरू हों या क्रांतिकारी, सबको बाहर जाना पड़ा। जेल में बैठे रहकर अन्ना ने जो अनशन किया, उससे उन्हें तो नैतिक बल मिला ही होगा, पर आगे के लिए एक गलत परम्परा बन गई। अब कोई भी आरोपित व्यक्ति अन्ना की तरह रिहाई के बाद जेल से बाहर जाने को मना कर सकता है। अन्ना हजारे को जेल के नियमों के विरूद्ध यह विशेषाधिकार क्या सरकार की इच्छा के बगैर सम्भव था? उन्हें रिहाई के बाद एक राष्ट्रीय विजय जुलूस के रूप में व ढेरों पुलिस गाड़ियों, कर्मचारियों व पुलिस कर्मियों के संरक्षण में पूर्व घोषित रूट से ले जाया गया। सारा मंजर ऐसा था मानो सरकार और आन्दोलनकारी किसी साझी समझ के साथ काम कर रहे हैं। जेल की नियमावली में यह साफ लिखा है कि जेल के भीतर कैद लोग अनुमति के बिना अपनी फोटो नहीं खींच सकते। जिस तरह अन्ना के वीडियो सन्देश बाहर लाकर प्रसारित किए गए, उससे जेल मेन्यूअल के नियमों का साफ उल्लंघन हुआ है। इससे लोगों के मन में भी शंका है कि यह क्या हो रहा है? इसी तरह रामलीला मैदान पहुँचते ही टीम अन्ना का विरोधाभासी वक्तव्य देना, ऐसे संकेत कर रहा है मानो अन्दर ही अन्दर कोई समझौता हो गया है, जिसकी घोषणा करने से पहले कुछ माहौल गरमाया जा रहा है।

टीम अन्ना ने यह दावा किया है कि उनका आन्दोलन पूरी तरह शांतिप्रिय है और अरब देशों की तरह बिना जान-माल की हानि किए हो रहा है। जबकि खुद अन्ना के तेवर गाँधी के कम और शिवाजी के ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे में बिना जान-माल की हानि किए, पूरी जनता को कैसे नियन्त्रित किया जा रहा है या इस आन्दोलन का प्रारूप ही यह रखा गया है, इस पर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। दूसरी तरफ सामान्यजन मानते हैं कि जो कुछ हो रहा है, वह स्वस्फूर्त है। कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। लोग परेशान थे। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सख्त कार्यवाही चाहते थे, जो हो नहीं रही थी। इसलिए अन्ना में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी। इन लोगों का यह दावा है कि यह परिवर्तन की लड़ाई है और देश में हर स्तर पर परिवर्तन लाकर रहेगी। इसीलिए इसे ये अन्ना की क्रांति या अगस्त क्रांति कह रहे हैं। 

उधर विपक्ष भी इस स्थिति का पूरा लाभ उठा रहा है। पर रोचक बात यह है कि अन्ना के समर्थन में खड़ा विपक्ष, अन्ना के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर तो उत्तेजित है, लेकिन अन्ना को यह आश्वासन नहीं दे रहा कि वे उनके जनलोकपाल बिल का समर्थन करेगा। ऐसे में जब यह बिल संसद के सामने मतदान के लिए आयेगा, तब विपक्षी दलों की या सभी सांसदों की क्या मानसिकता होगी, आज नहीं कहा जा सकता। इसलिए अन्ना की इस मुहिम को अभी क्रांति कहना जल्दबाजी होगा। अभी तो समय इस बात का है कि अन्ना की मुहिम, जिसे मीडिया और साधन सम्पन्न लोगों का खुला समर्थन प्राप्त है, के तेवर और दिशा पर निगाह रखी जाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध यह आग अब बुझे नहीं। जब तक कि समाज में कुछ ठोस परिवर्तन दिखाई नहीं देते।

Monday, July 11, 2011

भ्रष्टाचार की जड़ पे हमला

Amar Ujala 11 July
शुरू-शुरू में लोगों को लगा था कि लोकपाल कोई रामबाण है या जादुई छड़ी है, जिसे फिराते ही देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इसलिए जब टीवी चैनल वालों ने लोगों को उकसाया तो उनमें से कुछ लोग घरों से निकलकर लोकपाल के समर्थन में टी.वी. कैमरों के आगे नारे लगाने लगे। लेकिन इन चार महीनों में जब अखबारों व टी.वी. के जरिए ‘जन लोकपाल विधेयक’ के प्रारूप की जानकारी लोगों तक पहुंची, तब उन्हें असलियत पता चली। फिर चाहे टी.वी. पर होने वाली बहसों में न्यायविदों, राजनीतिज्ञों या पत्रकारों की टिप्पणियाँ हों या इस विधेयक को बनाने वाली समिति के सदस्य पाँच केन्द्रीय मंत्रियों की मीडिया पर की गयीं प्रस्तुतियाँ हों, इनसे यह साफ होने लगा कि ‘जन लोकपाल विधेयक’ भी आज तक बनते आये काूननों की तरह ही एक और कानून होगा और उससे देश में हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटने में कोई खास कामयाबी नहीं मिलेगी। लोगों के दिल में इस अहसास के घर करते ही उनमें निराशा बढ़ चली है।

चार महीने पहले, जन्तर-मन्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए धरने से देश के शहरों में बड़े कुतूहल का माहौल बना था। रोज-रोज की बहसों और खबरों के बाद आज आलम यह है कि लोग इस दुविधा में पड़ गये हैं कि हजारे और उनके लोग आखिर चाहते क्या हैं? यह भी लोगों को हैरान करने वाली बात है कि राजनेताओं की देशभर में भत्र्सना करने के बाद, लोकपाल विधेयक को लेकर सक्रिय अन्ना हजारे की टीम अब एक-एक कर उनके ही दरवाजे पर क्यों जा रही है? अब वे राजनेताओं को यह बताने में लगे हैं कि उनका प्रस्तावित विधेयक सरकारी विधेयक से ज्यादा कारगर कैसे है।

इन चार महीनों में अन्ना हजारे की टीम जनता के बीच यह सन्देश फैला पायी है कि सरकार प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहती। पर बुधवार को संपादकों से वार्ता में प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया कि उन्हें इससे कोई गुरेज नहीं है। वैसे भी यदि एकबार को यह मान लें कि ‘जन लोकपाल विधेयक’ के सभी प्रस्ताव सही हैं और इसको यथावत स्वीकार कर लिया जाए तो क्या अन्ना की समिति देश को गारण्टी दे सकती है कि कितने दिनों में भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि जो भी प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठता जाएगा, उसे चोर बताकर हटाया जाता रहेगा? और इस तरह दर्जनों प्रधानमंत्री बदलने के बाद कहीं स्थिति यह तो नहीं आ जाएगी कि लोकपाल यह तय करने लगे कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अब कौन बैठेगा?

पिछले दिनों एक अंगे्रजी चैनल के टी.वी. टाॅक शो में इस मुद्दे पर मेरी टीम अन्ना से तीखी बहस हुई। दोनों भूषण पिता-पुत्र, अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे इस बहस में मेरे साथ थे। जब उनसे पूछा गया कि आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि लोकपाल बेदाग हो? तो प्रशांत भूषण इसका जबाव देने की बजाए बोले कि प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता, भारत का मुख्य न्यायाधीश व अन्य सदस्य ईमानदार लोकपाल का चयन करेंगे। अब सवाल यह उठा कि इनके द्वारा चुना गया लोकपाल ईमानदार ही होगा, यह कैसे सुनिश्चित होगा? मैंने उन्हें याद दिलाया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. एएस आनंद के पद पर रहते हुए मैंने उनके छह घोटाले प्रकाशित किए थे। जिसके बाद न तो उनके खिलाफ महाभियोग चला और न ही कोई आपराधिक मामला दर्ज हुआ। हालांकि इस मुद्दे पर देश-विदेश के मीडिया में भारी बवाल मचा और केन्द्रीय कानून मंत्री को भी जाना पड़ा। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री व विपक्ष के नेता ने मिलकर ऐसे अनैतिक आचरण वाले डॉ. आनन्द को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया और तत्कालीन राष्ट्रपति ने इस नियुक्ति पर स्वीकृति की मुहर भी लगा दी। तो फिर क्या गारण्टी है कि लोकपाल के चयन में भी ऐसा नहीं होगा? इस सवाल का टीम अन्ना के पास कोई जबाव नहीं था। अंग्रेजी में हुई यह बहस दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में एक हजार लोगों की मौजूदगी में रिकॉर्ड की जा रही थी और ये वैसे लोग थे जिन्हें टीम अन्ना ही अपने समर्थन के लिए वहाँ लाई थी। पर ऐसे तर्कों को सुनकर इन दर्शकों ने बार-बार सहमति में करतल ध्वनि की। चैनल के अनुसार यह डिबेट इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे दो हफ्ते में कई बार प्रसारित किया गया। साफ जाहिर है कि लोगों तक सही बात पहुंची नहीं है। लेकिन जब उनके सामने पूरी बात ईमानदारी से रखी जाती है, तब उन्हें समझ में आता है कि भावनाऐं भड़काने से और एक और कानून बनाने से भ्रष्टाचार नहीं रोका जा सकता।

ये तो एक चैनल था, जिसने एक घण्टा ऐसी खुली बहस करवायी। पर ज्यादातर टी.वी. चैनलों के पास पूरी बात कहने देने का समय ही नहीं होता। आधी-अधूरी बात में वक्ता चैंचैं लड़ाते ज्यादा दिखते हैं और मुद्दे की बात खुलकर सामने नहीं आ पाती। इसे टी.वी. की मजबूरी माना जा सकता है। पर यहां सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार के कारण और निवारण की बात फिर कौन करे? यूं तो हर व्यक्ति अपनी राय देने के लिए स्वतंत्र है, पर अगर आपको दिल के रोग का इलाज करवाना हो तो क्या आप अस्थिरोग विशेषज्ञ के पास जाएंगे? जाहिर है कि भ्रष्टाचार, जिसे अपराध शास्त्र में ‘व्हाईट कॉलर क्राइम’ कहा जाता है, एक पेचीदगी भरे अध्ययन का विषय रहा है। पुलिस विभागों के अलावा अकादमिक रूप से इसका अध्ययन और अध्यापन मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय के अपराध शास्त्र एवं न्यायायिक विज्ञान विभाग में पिछले चार दशकों से किया जा रहा है। आश्चर्य की बात है कि इतने महीनों से भ्रष्टाचार पर शोर मचाने वालों ने या भ्रष्टाचार के समाधान बताने वालों ने कभी इसके विशेषज्ञों की राय जानने की कोशिश नहीं की।

सामाजिक स्तर पर ही इस कमी को पूरा करने का प्रयास अब किया जा रहा है। राजधानी दिल्ली के कुछ वरिष्ठ पत्रकार, विभिन्न विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, गहरी समझ रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और भ्रष्टाचार से जूझने वाले कुछ योद्धा मिलकर आगामी 16-17 जुलाई को देशभर से उन विशेषज्ञों को दिल्ली बुला रहे हैं, जो इस विषय पर गम्भीर चर्चा करेंगे और अपने अध्ययन और अनुभव से भ्रष्टाचार के कारण और निवारण बताने का प्रयास करेंगे। अब देखना यह है कि यह गम्भीर प्रयास इस समस्या का क्या हल सुझा पाता है?

Monday, June 27, 2011

गाँधी नहीं हैं अन्ना !

8 जून को दिल्ली के राजघाट पर, जब अन्ना हजारे और उनके साथी उपवास पर बैठे थे तो किरण बेदी ने अपने भाषण में बार-बार अन्ना हजारे को दूसरा महात्मा गाँधी बताया। दरअसल जबसे टी.वी. मीडिया ने सक्रिय होकर अन्ना हजारे के उपवास को सफल बनाया है, तबसे अन्ना हजारे के सहयोगी बहुत उत्साहित हैं। इस उत्साह में वे बार-बार अन्ना हजारे की तुलना महात्मा गाँधी से कर रहे हैं। यह सही है कि अन्ना ने अपना जीवन अपने गाँव के सुधार के लिए समर्पित कर दिया। साथ ही वे भ्रष्टाचार के सवाल पर कुछ खास लोगों के खिलाफ महाराष्ट्र में सत्याग्रह करते रहे हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे बापू जैसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के समकक्ष ठहराये जा सकते हैं। जिनका अध्ययन, ज्ञान, राजनैतिक सूझबूझ, विचारधारा, आचरण, जीवन मूल्य और अनुकरणीय व्यवहार का अन्ना हजारे के व्यक्तित्व से कोई तुलना नहीं है।

गत् 8 जून को दिल्ली के राजघाट पर, बापू की समाधि पर, अन्ना और उनके सहयोगियों ने जिस तरह का आचरण किया, जो भाषण दिये, जो शब्दावली प्रयोग की, उसका दूर-दूर तक बापू की शब्दावली और विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं था। अन्ना और उनके साथियों ने बापू की गरिमा का भी ध्यान नहीं रखा। जो लोग उनके समर्थन में वहाँ जुटे, उन्होंने जिस तरह का हल्कापन और फूहड़पन अन्ना के समर्थन में प्रदर्शित किया, उसे देखकर ऐसा दूर-दूर तक नहीं लगा कि ये लोग आज़ादी की दूसरी लड़ाई में, शमां पर मर मिटने वाले परवाने हैं। टेलीविजन चैनलों के कैमरों को देखकर, जिस तरह का नाच-कूद वहाँ हुआ, उसे देखकर फिरोजशाह कोटला मैदान में होने वाले क्रिकेट के 20-20 मैच के दीवाने दर्शकों की छवि सामने आ रही थी। हमें वहाँ यह देखकर बहुत तकलीफ हुयी। निश्चित रूप से इन लोगों के इस आचरण से बापू की आत्मा को ठेस लगी होगी। इस सबसे तो यही लग रहा है कि अन्ना बापू का अभिनय करने की चेष्ठा कर रहे हैं, पर उनके अभिनय की पटकथा परदे के पीछे से कोई और लिख रहा है।

एक सवाल देश को और झकझोर रहा है। जिसका उत्तर उन्हें देश को देना ही होगा। अन्ना जानते हैं कि आजादी के बाद से आज तक देश में ऐसे हजारों समर्पित व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने देश के गरीब किसानों, भूमिहीनों, आदिवासियों व श्रमिकों के उत्थान के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आज भी वे उसी जीवट से, निःस्वार्थ भाव से, निष्काम भावना से, तकलीफ सहकर, देश के विभिन्न हिस्सों में गाँधी जी के आदर्शोंं पर जीवन जी रहे हैं।

इन गाँधीवादियों ने बिना किसी यश की कामना के, बिना सत्ता की ललक के, बिना अपने त्याग के पुरूस्कार की अपेक्षा के, पूरा जीवन होम कर दिया। ये हजारों लोग बापू के शब्दों में जिन्दा शहीद हैं। क्या वजह है कि ये सब लोग अन्ना के इस नये अवतार में कहीं भी उनके इर्द-गिर्द नहीं दिखाई दे रहे हैं? क्या ये माना जाए कि अन्ना का मौजूदा स्वरूप, कार्यकलाप और वक्तव्य देश के समर्पित गाँधीवादियों का विश्वास नहीं जीत पाया है या अन्ना को उन पर विश्वास नहीं है? अगर अन्ना को गाँधी जी के मूल्यांे और विचारधारा में तिलभर भी आस्था है, तो उनका पहला प्रयास देशभर के गाँधीवादियों को ससम्मान अपने साथ खड़ा करने का होना चाहिए।

हमने 4 और 8 जून को अन्ना हजारे, बाबा रामदेव व इन दोनों के सहयोगियों को दो खुले पत्र लिखे थे। जिनकी प्रतियाँ हमने दिल्ली के मीडिया जगत में भी बंटवायी। इन पत्रों में हमने इन दोनों से ही भ्रष्टाचार विरोधी इनकी मुहिम को लेकर कुछ बुनियादी सवाल पूछे थे। जिसका उत्तर हमें आज तक नहीं मिला। इस बीच अन्ना ने सप्रंग की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी को एक पत्र लिखकर कई नये सवाल खड़े कर दिये हैं। अन्ना ने इस पत्र में श्रीमती सोनिया गाँधी से शिकायत की है कि उनके लोगों ने अन्ना को ‘राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ’ से जुड़ा हुआ बताया है। इसे अन्ना ने निश्चित रूप से अपमानजनक माना है। अन्ना से पूछा जाना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से उन्हें इतना परहेज क्यों है? क्या संध ने देशद्रोह का कोई काम किया है, जिसका प्रमाण उनके पास है? अगर है तो उन्हें देश के सामने प्रस्तुत करना चाहिए ताकि आस्थावान हिन्दू और भारत के नागरिक ऐसे ‘देशद्रोहियों’ के खिलाफ इस लड़ाई को मजबूती से लड़ सकें।

यह तो पता नहीं है कि श्रीमती सोनिया गाँधी को अन्ना ने पत्र में क्या लिखा है? क्योंकि उसकी प्रति शायद उन्होंने सार्वजनिक नहीं की है। लेकिन इस विषय में जो समाचार छपे हैं, उससे ऐसा लगता है कि अन्ना सोनिया जी से अपने गाँधीवादी होने का प्रमाणपत्र चाहते हैं। अन्ना इसे अन्यथा न लें, तो यह उनकी मानसिक कमजोरी का परिचायक है।

अन्ना के सहयोगियों का दावा है कि वे दूसरे महात्मा गाँधी हैं। अन्ना खुद को भी गाँधीवादी मानते हैं और देश में आजादी की दूसरी लड़ाई का शंखनाद कर चुके हैं। ऐसे में देश जानना चाहता है कि केवल संघ से जुड़ा कह देने भर से वे इतने तिलमिला क्यों गये? बापू ने तो सहनशीलता की मिसाल कायम की थी। अन्ना इतने कमजोर क्यों हैं कि किसी के कुछ भी कह देने से उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है?

अन्ना ने 4 लोग साथ लेकर यह कैसे मान लिया कि वे 120 करोड़ हिन्दुस्तानियों के भाग्य नियंता हैं? मीडिया के एक हिस्से के सहयोग से उन्होंने जो माहौल बनाया है, उससे यह कतई दिखाई नहीं दे रहा कि देश की जनता को राहत की कोई किरणें मिलेंगी, सिवाय हताशा और निराशा के बढ़ने के। हमें लगता है कि उन्हें अपनी सोच और रणनीति में बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है।