Rajasthan Patrika 4 Oct 2009 |
उधर पश्चिमी देश डब्ल्यू.टी.ओ. (विश्व व्यापार संगठन) के मंच पर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर दबाब बनाने लगे जिससे कि अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार को उनके हक में मोड़ा जा सके। उनकी नाजायज शर्तों से सभी विकासशील देश यहाँ तक कि चीन, कोरिया, ताईवान तक बैचेन थे। पर किसी की दाल नहीं गल रही थी। तब इन सब देशों का नेतृत्व संभाला भारत के तत्कालीन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने। दोहा के सम्मेलन में कमलनाथ ने जमकर विकासशील देशों की पैरवी की और डब्ल्यू.टी.ओ. अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सका। जहाँ देश में कमलनाथ की पीठ ठोकी गयी, वहीं वे पश्चिमी देशों की आँख में किरकिरी बन गये। जानकारों का तो यह तक कहना है कि दोबारा सत्ता में आयी यू.पी.ए. सरकार में कमलनाथ से वाणिज्य मंत्रालय इन्हीं अन्र्तराष्ट्रीय दबाबों के तहत छीना गया। एक बार फिर नये वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा की पहल पर डब्ल्यू.टी.ओ. की वार्ता के दौर शुरू हो चुके हैं। 2010 तक गुत्थी सुलझाने का लक्ष्य रखा गया है।
इस बीच एक रोचक प्रवृत्ति विकसित हुयी है। ऐशियाई देशों में पारस्परिक समझोतों की होड़ लग गयी है। इस वक्त भी लगभग 62 समझौतों के लिए वार्ताऐं अन्तिम चरण में पहुँच रही हैं। जहाँ 1991 में ऐसे कुल 6 समझौते हुए थे, वहीं 1999 में 42 समझौते हुए और इस वर्ष जून तक ही इनकी संख्या 166 पहुँच चुकी है। चाहे वो दो चीन के बीच के समझोते हों या भारत और चीन के बीच या आसियान के देशों के बीच या फिर दक्षिण ऐशियाई देशों के बीच। इन देशों को यह समझ में आ रहा है कि जब कच्चा माल, तकनीकि, कुशल श्रमिक व प्रबन्धकीय योग्यता इन्हीं देशों में मौजूद है तो ये सम्पन्न माने जाने वाले पश्चिमी देशों के जाल में क्यों फंसे? क्यों न आपसी समझौते करके अपने माल को यहीं तैयार करें और जितना बिक सके यहीं बेचें और शेष को बाकी दुनिया के लिए निर्यात करें। वैसे भी अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पश्चिमी देशों की आर्थिक वृद्धि की दर बढ़ने वाली नहीं बल्कि घटने की तरफ है। दूसरी तरफ ऐशियाई अर्थव्यवस्थायें अब उठान पर हैं और अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि अगले दशक में ऐशियाई अर्थव्यवस्थायें विशेषकर भारत और चीन बहुत तेजी से आगे बढ़ेगें। ऐसे में यदि ये दोनों देश पारस्परिक आर्थिक सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाते हैं तो उससे दोनों को ही भारी लाभ होगा। पश्चिमी देश इसी बात से चितिंत हैं। वे नहीं चाहते कि ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का नारा एशिया में फिर से गूंजे। इसलिए उनकी भरसक कोशिश है कि वे इन दोनों देशों के बीच किसी न किसी तरह खाई पैदा करते रहें। हो सके तो दोनों को भिड़ाते रहें। यह भी न हो तो कम से कम चीन को इस तरह अकेला छोड़ दें जिससे उसकी पश्चिमी बाजार पर पकड़ समाप्त हो जाये। जिससे उसकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाये। चीन इस बात को समझ रहा है। इसीलिए खुले हृदय से एशियाई देशों के साथ लगातार व्यापारिक संधियाँ करता जा रहा है।
इन सन्धियों की कुछ सीमाऐं भी हैं। अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार के विशेषज्ञों का मानना है कि इन समझौतों के कारण नियमों और शर्तों का इतना सघन ताना-बाना बुन जाता है कि अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार का मार्ग सुगम होने की बजाए और भी जटिल हो जाता है। इसलिए वे एशियाई देशों को ऐसे क्षेत्रीय समझौतों के खतरों के बारे में आगाह करते हैं। पर वे जानते हैं कि इन एशियाई देशों में आर्थिक विशेषज्ञों का स्तर किसी से कम नहीं। बल्कि कई मामलों में तो पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों से बेहतर ही है। क्योंकि इनके पास सैद्धान्तिक ज्ञान के अलावा जमीनी अनुभव भी काफी है। जो इन्हें आर्थिक घटनाक्रम का ज्यादा सटीक और सार्थक विश्लेषण करने में मदद करता है। जबकि दूसरी ओर पश्चिम के अर्थशास्त्री पिछले वर्ष आयी भारी मंदी का कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सके।
कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि डब्ल्यू.टी.ओ. अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पायेगा। भारत के मौजूद वाणिज्य मंत्री को उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखना होगा। अगर वे पश्चिम की वाहवाही लूटने के लिए डब्ल्यू.टी.ओ. में पूर्व वाणिज्य मंत्री से पलट व्यवहार करते हैं तो न सिर्फ राष्ट्र का अहित होगा बल्कि वे स्वंय भी देश में भारी आलोचना के शिकार बनेंगे। अब देखना यह है कि भारत किस ओर करवट लेता है।
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