Rajasthan patrika 25-01-2009 |
इन सब लोगों की या आडवाणी जी की? कैसी गलती? क्या वो इसलिए गलत हैं कि वे अपने मन में प्रधानमंत्री बनने की लालसा पाले हुए हैं या फिर इसलिए कि उनके नेतृत्व में उनके ही सहयोगियों का विश्वास नहीं। दरअसल आडवाणी जी के व्यक्तित्व को लेकर भाजपा में ऊपर से नीचे तक काफी द्वन्द है। मीडिया का सहारा लेकर और सोची समझी रणनीति के तहत रामरथ यात्रा के दौरान उनकी जो आक्रामक हिन्दू छवि प्रस्तुत की गयी थी उसने उन्हें कार्यकर्ताओं का हीरो बना दिया था। सबको लगता था कि अगर राम राज्य आयेगा तो आडवाणी जी के नेतृत्व में ही आयेगा। राम राज्य तो नहीं आया अलबत्ता एन.डी.ए. राज जरूर आया और इस राज में आडवाणी जी उपप्रधानमंत्री व गृहमंत्री थे। दोनों ही पद काफी ताकतवर थे। पर वे ऐसा कुछ भी नहीं कर पाये जिससे उनके दूसरा लौह पुरूष होने का प्रमाण मिलता। इससे उनके चाहने वालों को बहुत निराशा हुई। फिर रामजन्म भूमि से लेकर जिन्ना प्रकरण तक जिस तरह आडवाणी जी के विरोधाभासी बयान आते रहे, उससे उनके प्रति रहा बचा मोह भी भंग होता गया। आज हालत ये है कि भाजपा के पास कोई राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं है। संगठन में वो अनुशासन नहीं बचा जिसकी दुहाई नब्बे के दशक में दी जाती थी। मजबूरी में उनके घोर विरोधियों को भी आडवाणी जी को एन.डी.ए. की सम्भावित सरकार का नेता मानना पड़ रहा है। पर ये सब मानते हैं कि मौजूदा हालातों में आडवाणी जी का वो करिश्मा नहीं बचा जो उन्हें चुनाव की वैतरणी पार करा सके। इसलिए सबके मन में बैचेनी है।
उधर अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के लिए आडवाणी जी ने जिन्ना प्रकरण को जानबूझकर खड़ा किया। जिससे उन्हें सहयोगी दलों का समर्थन मिल सके। वैसे भी उनका वह बयान उनकी अपनी सोच का परिचायक था। दुनिया में बनी छवि के विपरीत आडवाणी जी धर्मान्ध व्यक्ति नहीं हैं। अगर ये कहा जाये कि उनकी धर्म में कोई विशेष आस्था नहीं है तो शायद बहुत गलत नहीं होगा। आखिर ओढ़े हुये लबादे से कोई कब तक अपना मन छिपा सकता है? आडवाणी जी जानते हैं कि इस देश में धर्मान्ध राजनीति करने वाले शीर्ष तक नहीं पहुँचते। इसलिए वे जानबूझकर ऐसे विवादों को पनपने देते हैं जिनसे उनकी रामजन्म भूमि आन्दोलन वाली छवि समाप्त हो जाए। अलबत्ता वे संघ को भी खुश रखना चाहते हैं ताकि उनका कार्यकर्ता उनसे जुड़ा रहे और चुनाव में काम आता रहे। आडवाणी ही क्यों, नरेन्द्र मोदी तक बदल चुके हैं। अमरीका वाले लाख गोधरा के मोदी को याद कर गाली देते रहें। मोदी खुद अब धर्म निरपेक्ष छवि बनाने में लगे हैं। पिछले दिनों गुजरात में विहिप के कार्यकर्ताओं पर उनके राज्यकाल में जो लाठियाँ भँजी, उससे जाहिरन संघ परिवार बहुत नाराज हुआ। पर मोदी ने भी यह एक सोची समझी रणनीति के तहत किया।
जहाँ तक नेतृत्व का सवाल है, इसमें शक नहीं कि आडवाणी जी अपने साथियों का प्रेम और विश्वास जीतने में असफल रहे हैं। वर्ना क्या वजह है कि शारीरिक रूप से चलने-फिरने में असमर्थ हो चुके अटल जी को उनके सहयोगी बेहिचक अपना नेता मानने को आज भी तैयार हैं। पर आडवाणी जी को वे मन से अपना नेता नहीं मानते। उन्हें लगता है कि आडवाणी जी बहुत ज्यादा आत्म केन्द्रित या परिवार केन्द्रित हैं। इसलिए वे आडवाणी जीे के नेतृत्व में सुरक्षित महसूस नहीं करते। लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति के मन में प्रधानमंत्री पद की महत्वकांक्षा पैदा हो सकती है। फिर 70 वर्ष से राजनीति में सक्रिय आडवाणी जी की ये महत्वकांक्षा गलत नहीं है। पर उन्हें आत्म विश्लेषण करना चाहिए कि क्या कारण हैं कि नये-नये लोगों के जुड़ने के बजाय एक-एक करके सब पुराने बड़े नेता और उनके सहयोगी उनसे कन्नी काट चुके हैं। अब उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है। इस बार प्रधानमंत्री नहीं बने तो फिर पाँच साल बाद तो और भी देर हो जायेगी। इसलिए उनके हक में यही होगा कि वे लोगों को टूटने न दें बल्कि जो अलग हो गए हैं, उन्हें भी फिर से जोड़ लें। कल्याण सिंह का अलग होना यह बताता है कि चुनाव तक भाजपा और भी बड़े झटके झेल सकती है। इसलिए आडवाणी जी को अब भी कोशिश करनी चाहिए कि उनके व्यक्तित्व में ऐसा निखार आये कि लोग उनसे बचें नहीं, टूटे नहीं बल्कि उनके साथ जुड़कर दल का एजेण्डा आगे बढ़ायें। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते हैं तो उनकी आगे की राह आसान नहीं होगी। फिर भाजपा का भी कोई ज्यादा कल्याण होने वाला नहीं है।
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