Rajasthan Patrika 11-01-2009 |
पिता फारूक अब्दुल्ला और दादा शेख अब्दुल्ला भले ही कश्मीर के हों पर उमर की माँ विलायती हैं और बीबी हिन्दू। उनकी बहन भी एक हिन्दू परिवार में सचिन पायलट से ब्याही हैं। खुद उमर प्रगतिशील विचारों के ऊर्जावान युवा हैं। संसद में और अपने मंत्रीपद के समय उनका व्यक्तित्व एक दकियानूसी फिरकापरस्त का नहीं बल्कि आगे बढ़कर देखने वाले नौजवान नेता का उभर कर आया था। इसलिए उमर से उम्मीद की जा सकती है कि वे कश्मीर के नौजवानों से रास्ता कायम करें। उन्हें मुद्दों और हालात को खुले नजरिये से देखने की प्रेरणा दें। उनको भविष्य का सपना और कश्मीर के विकास का माॅडल दिखायें। कश्मीर के विकास के लिए उन्हें सक्रिय करें। अगर उमर ये कर पाते हैं तो न सिर्फ घाटी में हो रही तबाही रूकेगी बल्कि लाखों दिशाहीन नौजवानों को जीवन का मकसद मिलेगा। लाखों घर बरबाद होने से बचेंगे। अरबों रूपया जो आज आतंकवाद से जूझने में बर्बाद हो रहा है, वो कश्मीर के विकास पर खर्च होगा। पर ये रास्ता आसान नहीं है।
छोटे-छोटे गुटों के नेता बनकर आतंकवाद फैलाने वाले उमर के रास्ते में रोड़ा बनेंगे। वे कश्मीर की जनता को भड़कायेंगे। उन्हें बतायंेगे कि उमर उनका सही नुमाइंदा नहीं है। वे उमर के पिता की राजनैतिक विफलताओं का ठीकरा उमर पर फोड़ने की कोशिश करेंगे। बात ये भी उठेगी कि उमर एक रईस खानदान के चिराग हैं इसलिए उनकी बात में जमीनी असलियत और आम नौजवान की जिन्दगी का दर्द और तजुर्बा शामिल नहीं है। इसलिए युवा उनके बहकावे में न आयें।
पर गालिब का एक शेर है, ‘‘इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं, जी खुश हुआ है राह को पुरखार देखकर।’’ मैं अपने पैर के फोड़ों से घबरा गया था पर अब सामने रास्ता काँटों से भरा देख मैं खुश हूँ क्योंकि ये काँटें मेरे फोड़े फोड़ देंगे। चुनौती न हों तो जिन्दगी में मजा भी नहीं होता। उमर को कोई बच्चे पालने की चिन्ता नहीं है। बहन-बेटी का ब्याह भी नहीं करना। राजनैतिक पहचान बनाने की जद्दोजहद भी नहीं झेलनी। सब कुछ पका पकाया मिला है। इतनी आसान जिन्दगी जीने के बाद अगर कुछ मुश्किलें सामने हैं तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए। उमर को चाहिए कि पूरी ईमानदारी और तहेदिल से कश्मीर के आवाम का दिल जीतने की कोशिश करें। उन्हें यकीन दिलायें कि उनकी हुकूमत कश्मीर की बेहतरी चाहती है। अगर उमर ऐसा कर सकें तो वे अपने दादा और पिता को बहुत पीछे छोड़ देंगे। फिर उनकी हैसियत कश्मीर के मुख्यमंत्री की ही नहीं रहेगी बल्कि एक राष्ट्रीय नेता की बनेगी जिसे घर बैठे अन्तर्राष्ट्रीय शोहरत भी मिलेगी। क्योंकि कश्मीर पर पूरी दुनिया की निगाह है।
पर गालिब का एक शेर है, ‘‘इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं, जी खुश हुआ है राह को पुरखार देखकर।’’ मैं अपने पैर के फोड़ों से घबरा गया था पर अब सामने रास्ता काँटों से भरा देख मैं खुश हूँ क्योंकि ये काँटें मेरे फोड़े फोड़ देंगे। चुनौती न हों तो जिन्दगी में मजा भी नहीं होता। उमर को कोई बच्चे पालने की चिन्ता नहीं है। बहन-बेटी का ब्याह भी नहीं करना। राजनैतिक पहचान बनाने की जद्दोजहद भी नहीं झेलनी। सब कुछ पका पकाया मिला है। इतनी आसान जिन्दगी जीने के बाद अगर कुछ मुश्किलें सामने हैं तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए। उमर को चाहिए कि पूरी ईमानदारी और तहेदिल से कश्मीर के आवाम का दिल जीतने की कोशिश करें। उन्हें यकीन दिलायें कि उनकी हुकूमत कश्मीर की बेहतरी चाहती है। अगर उमर ऐसा कर सकें तो वे अपने दादा और पिता को बहुत पीछे छोड़ देंगे। फिर उनकी हैसियत कश्मीर के मुख्यमंत्री की ही नहीं रहेगी बल्कि एक राष्ट्रीय नेता की बनेगी जिसे घर बैठे अन्तर्राष्ट्रीय शोहरत भी मिलेगी। क्योंकि कश्मीर पर पूरी दुनिया की निगाह है।
कई बार सद् इच्छा से भी सोची गयी बात लोगों को शेखचिल्ली के सपने जैसी लगती है। कश्मीर मामलों के जानकार ये कहेंगे कि वहाँ के मुद्दे और हालात इतने जटिल हैं कि उमर के बस का नहीं उनसे निपटना। पर कई बार ज़ज्बात हालात बदल देते हैं। अगर जवानी का गर्म खून हो और कुछ कर गुजरने का इरादा तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है। मेरी उम्र 1993 में कुल 37 साल थी जब मैंने देश के 115 सबसे ताकतवर राजनेताओं और आलाअफसरों से जुड़े जैन हवाला कांड को उजागर किया। तब दूसरों की छोड़ मेरे वकील रामजेठमलानी तक कहते थे कि कुछ नहीं होगा। तुम किसी को नहीं पकड़वा पाओगे। वे सही थे क्यांेकि भारत के इतिहास में इससे पहले किसी बड़े नेता को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट नहीं किया गया था। बहुत मुश्किल झेलीं। खतरों का सामना किया। बार-बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा। किसी ने साथ नहीं दिया। पर डटा रहा तो 1996 में इस देश में एक नया इतिहास रचा गया जब दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व विपक्ष के नेताओं को चार्जशीट किया गया और उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी। मैं तो एक आम हिन्दुस्तानी परिवार का साधारण नौजवान था। मेरे दादा शेख अबदुल्ला की तरह शेरे कश्मीर नहीं थे। पर उमर को तो विरासत में सबकुछ मिला है। फिर भी अगर जवानी का खून कुछ नया नहीं करवा पाया तो देश के युवाओं को कोई पे्ररणा नहीं मिलेगी। जिस देश की 75 फीसदी आबादी नौजवानों की हो। जहाँ लोग बूढ़े, थके हुए, घिसे हुए, पुराने नेताओं से आजिज आकर नये नेतृत्व की तरफ देख रहे हों, वहाँ एक 38 साल के नौजवान को इतना बढि़या मौका मिले और वो कुछ कर दिखाये तो देश में युवा पीढ़ी का नेतृत्व कायम हो सकता है। आसाम में असम गण संग्राम परिषद् के आन्दोलन के बाद भी युवा नेतृत्व उभरा था। पर टिक नहीं सका, फिसल गया। सपना टूट गया। फिर वही चेहरे हावी हो गए जिनसे जनता थक चुकी थी। उमर को इस बात का खास ध्यान रखना है। राहुल गाँधी, सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अखिलेश यादव व सुप्रिया सुले जैसे कितने ही युवा नेता अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। उमर सफल हुए तो बाकी का रास्ता भी खुलेगा और अगर उमर नाकाम रहे तो इनका भविष्य भी धूमिल पड़ेगा। इसलिए बेचारे उमर अबदुल्ला के कंधों पर काफी भार है। देखना है वो इसे कैसे ढोते हैं?
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