Sunday, May 11, 2008

जार्ज बुश अपने गिरेबाँ में झांके


अमेरिकी राष्ट्रपति जा¡र्ज बुश और उनसे पहले कोनडोलीजा राइस ने दुनिया भर में खाद्य पदार्थों की कमी का कारण भले ही भारत के मध्यम वर्ग की संपन्नता को बताया है पर सच यह है कि दुनिया भर में अनाज का उत्पादन 1997-99 में 357 किलाग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से घटकर 2005-07 में 317 किलोग्राम रह गया था। जिसके लिए भारत जिम्मेदार नहीं है। इसके कई कारण और हैं।  अगर हम फिलहाल इसकी चर्चा न करें और यह जानने की कोशिश करें कि अनाज उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहन देने वाला कोई कारण है क्या ? तो हमें कोई ठोस कारण नजर नहीं आता है। खाद्य पदार्थें का उत्पादन बढ़ाने के पक्ष में बस एक ही कारण है - बढ़ती कीमत। पर इससे किसानों को कितना फायदा मिलेगा तथा इस पर कितना भरोसा किया जा सकता है यह जांच का विषय है।

यहां हम जा¡र्ज बुश के बयान की बात करें तो सीधा सा जवाब है कि अगर आज  भारतीय ज्यादा खा रहे हैं तो पैदा भी ज्यादा कर रहे हैं। खाद्य संकट दुनिया भर में है और इसे दुनिया के स्तर पर ही देखना होगा। जहा¡ तक भारत की बात है खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भर है और मौजूदा संमस्या से भी वह अपने स्तर पर निपट लेगा। सच तो यह है कि 25 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान खाद्य तेलों की कीमत कम हुई है। जबकि चावल, गेहूं, आटा, तूर दाल और आलू की कीमत महीने भर से स्थिर है। दिल्ली में सरसों के तेल की कीमत 73 रूप्ए से घटकर 71 रूपए रह गई है। सरकार का दावा है कि कीमतें अभी और कम होंगी तथा उसने जो कदम उठाए हैं उसके नतीजे आने लगे हैं।

वैसे तो जा¡र्ज बुश ने अपनी बात दिलचस्प सोचके रूप में प्रस्तुत की है। पर ऐसा कहते हुए वे यह भूल गए कि भारत का मध्यम वर्ग अगर अच्छा खा और मांग रहा है तो देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी भूख और कुपोषण का शिकार है। इसका कारण यहां अनाज की कमी नहीं, गरीबी है। भारत वैसे भी खाद्य पदार्थों का आयात नहीं, निर्यात करता है। ऐसे में यह सोचना कि भारत के मध्यम वर्ग की हालत बदलने का असर सारी दुनिया पर पड़ रहा है तो यह पूरी तरह गलत है। हमारा मध्यम वर्ग अच्छा खाना मांग रहा है तो बुश को तकलीफ हो रही है पर हमारा गरीब भूखा भी सो रहा है। बुश उसे क्यों नहीं देखते ? देखें भी कैसे, अमेरिका में तो हर चीज की प्रति व्यक्ति खपत शेष दुनिया से कई गुना ज्यादा है।

वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था कुछ मामलों में पिछले 4-5 वर्षों से तेजी से बढ़ रही है और ऐसा नहीं है कि अमेरिका को इस बात का पता अचानक चला है। बुश ने यह गलती भोलेपन में भी नहीं की है। सब जानते हैं कि अमेरिका ने अनाज का उत्पादन करने की जगह बायो-फ्यूएल और कैश क्राॅप पर जोर देना शुरू कर दिया है। इसलिए आज अगर दुनिया में अनाज का संकट है तो अमेरिकी नीतियों के कारण और कीमतें बढ़ रहीं तो उसी के कारण।

इसी तरह भारत में भी खेती की जमीन कम हो रही है और उसकी जगह उद्योग व कल कारखाने लग रहे हैं तो इसका कारण भी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों का दबाव किसी से छिपा हुआ नहीं है। हां शहरीकरण का विस्तार भी इसका एक कारण है। पर प्रश्न है कि अमरीका में मक्का और वनस्पति तेल का उपयोग अगर बायो-डीजल के उत्पादन के लिए किया जाएगा तो क्या इसका असर नहीं होगा ? अकेले अमेरिका में एथनाॅल के उत्पादन में उपयोग की गई मक्का की मात्रा दुनिया भर के कुल उत्पादन के 5 फीसदी के बराबर है। यह दुनिया भर में होने वाले अनाज के कारोबार का एक तिहाई से भी ज्यादा है। इसके अलावा खाद्यान्न की एक फसल का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए किए जाने का असर दूसरे अनाज पर भी होता है। इसीलिए भारत ने अमेरिका से कहा है कि वह उसे देश की अहार सुरक्षा को जोखिम में डाले बगैर बायो-फ्यूएल कार्यक्रम को जारी रखने के तरीके सिखा सकता है।

बुश को भारत की निन्दा करने से पहले चाहिए कि कृषि भूमि का उपयोग दूसरे कामों के लिए करना छोड़ें। सब जानते हैं कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में अनाज का उत्पादन करने वाली जगह कम हुई है। इसलिए वहां संकट पैदा हो रहा है। भारत ने इस मामले पर पहले ही विचार कर लिया है और इसके लिए बनाई जाने वाली कार्ययोजना में यह स्पष्ट किया जाने वाला है कि कृषि भूमि या मनुष्यों के खाने वाले अनाज का उपयोग बायो-फ्यूएल बनाने के लिए नहीं किया जाएगा। तब इससे देश की आहार सुरक्षा के लिए कोई खतरा पैदा नहीं होगा। पर अमरीका की बात करें तो वहां कृषि की जगह कृषि कारोबार हो रहा है। इस साल वहां उपजे कुल अनाज के 30 फीसदी का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए हुआ है। जबकि पिछले साल यह मात्रा केवल 18 फीसदी थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इस साल अमरीका में बायो-फ्यूएल के उत्पादन में दस करोड़ टन अनाज खप जाएगा। जबकि इसका उपयोग दुनिया में भूखे लोगों को खिलाने में किया जा सकता था। अमरीका यह कभी नहीं करेगा और दूसरों को उपदेश देता रहेगा।

उल्लेखनीय है कि भारत की आबादी प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ फीसदी बढ़ रही है और प्रति व्यक्ति खाद्य पदार्थ की मांग भी बढ़ रही है। चिंता की बात है कि हमारे यहां अनाज और दाल के उत्पादन की वृद्धि आबादी में वृद्धि की दर से नहीं हो रही है। यहां भी वैश्वीकरण एक कारण रहा है। खेसरी दाल को घातक बता कर उसे प्रतिबंधित करवा दिया गया। जबकि यह दाल कम पानी में भी उपजाई जाती थी और गरीब के घर खूब पकती थी। नागपुर के डाॅ. शान्तिलाल कोठारी इस प्रतिबंध के बावजूद धड़ल्ले से खेसरी दाल उगा रहे हैं और वर्षों से खा रहे हैं। जरूरत है कि सरकार इन गलतियों को सुधारे। अस्थायी राहत देने के उपाय कुछ समय के लिए कारगर हो सकते हैं पर स्थायी समाधान के लिए कुछ दूसरे उपाय करने होंगे जिसके लिए भारत में पूरी संभावना है। बशर्ते कि हम कृषि के देशी तरीकों को फिर से और समझदारी से अपनाने को तैयार हों। पर जाॅर्ज बुश के अहमकाना बयानों की परवाह करने की हमें कोई जरूरत नहीं है। 

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