Rajasthan Patrika 26-08-2007 |
दरअसल, ये सारा बवाल तब मचा जब कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ ने प्रधानमंत्री का एक वक्तव्य छापा जिसमें उन्हें ये कहते हुए उदृत किया गया कि परमाणु संधि तो हो चुकी, इस पर अब कोई पुनर्विचार नहीं होगा और वामपंथी दलों को जो कदम उठाना है उठा लें। शुरू से ही इस संधि का विरोध कर रहे वामपंथी दलों को भड़काने के लिए यह वक्तव्य काफी था। वैसे भी उनका मानना है कि सरकार की विदेश नीति पर अमेरिका हावी है। इस संधि के प्रावधानों को देख कर वामपंथी दल सशंकित हैं। उन्हें डर है कि अमेरिका इस संधि के माध्यम से गंभीर परिस्थितियों में भारतीय विदेश नीति को अपने हित में मोड़ लेगा। राजग की सरकार के समय जब भारत ने परमाणु विस्फोट किया था तो अमेरिका ने भारत के खिलाफ इकतरफा प्रतिबंध लगा दिया और ये प्रतिबंध उन उपकरणों और सामानों पर लगाए गए जिनका दोहरा उपयोग संभव था। यानी शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भी और नाभकीय विघटन के लिए भी। ईरान के मामले में भी अमेरिका भारत पर लगातार दबाव डालता रहा है। जबकि भारत की ईरान नीति मित्रतापूर्ण रही है। वामपंथी दलों को शायद यह भी डर है कि ईरान से अफगानिस्तान और पाकिस्तान होकर भारत तक लाई जाने वाली गैस पाइप लाइन का अमेरिका विरोध करेंगा क्योंकि अमेरिका ने ईरान को आतंकवादी देशों की सूची में शुमार कर रखा है।
दूसरी तरफ भाजपा और समाजवादी पार्टी व यूएनपीए के बाकी घटक दल हैं जो सदन में नियम 184 के तहत बहस चाहते हैं। इस बहस से सरकार को बहुत बड़ा खतरा है। नियम 193 में मतदान नहीं होता लेकिन नियम 184 में बहस के बाद मतदान होगा और हालात ऐसे हैं कि अगर वामपंथी दलों ने भी विपक्षी दलों के साथ मिल कर मतदान कर दिया तो सरकार को अपने समझौते में परिवर्तन करने पर मजबूर होना पड़ेगा। दरअसल अमेरिका में यह नियम है कि हर अंतर्राष्ट्रीय संधि तभी वैध होती है जब उसके पक्ष में सीनेट में बहस के बाद बहुमत हो जाए। भारतीय संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। अलबत्ता वामपंथी दल यह अवश्य चाहते हैं कि हमारे संविधान में भी परिवर्तन किया जाए और यह व्यवस्था की जाए कि हर अंतर्राष्ट्रीय संधि संसद में बहस होने और बहुमत प्राप्त होने के बाद ही वैध मानी जाए। चूंकि लोक सभा के अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी भी वामपंथी दल से हैं इसलिए जाहिर है उनका व्यक्तिगत झुकाव सरकार की परमाणु संधि के खिलाफ होगा और वे इस संधि पर बहस करवाना भी चाहेंगे। वे नियम 193 के तहत अनुमति देते हैं या नियम 184 के तहत ये फैसला तो वे अपने विवेक से और अपनी पद की अपेक्षाओं के अनुरूप ही करेंगे। पर अब लगता यही है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि पर जोरदार बहस होगी।
नतीजा जो भी हो सरकार पर करारा हमला होगा। रोचक तथ्य यह भी है कि इस मुद्दे पर भाजपा और वामपंथी दल एक साथ खड़े हैं जबकि राजग के शासनकाल में वामपंथी दलों का आरोप था कि वाजपेयी सरकार ने अमेरिका के आगे घुटने टेक दिए हैं। हर दल संसद की बहस से अपनी राजनैतिक पूंजी बढ़ाना चाहेगा लेकिन इस बात को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि अंतर्राष्ट्रीय संधियों को संसद की स्वीकृति मिलनी चाहिए। वरना कोई भी सरकार कभी भी निरंकुश होकर राष्ट्रहित को जाने-अनजाने में बलिदान कर सकती हैं। यह इसलिए भी जरूरी है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में निरंतरता की आवश्यकता होती है। जिस बात से आज विपक्ष सहमत नहीं, हो सकता कल सत्ता में आकर वह उसे पलटना करना चाहे। ऐसे में देश की साख पर बट्टा लगेगा। यदि अमेरिकी माॅडल के अनुसार ही अंतर्राष्ट्रीय संधियांे का भारत के संसद में भी अनुमोदन या संशोधन होने लगे तो उनमें निरंतरता बनी रहेगी। जहां तक भारत-अमेरिका परमाणु संधि की बात है, अमेरिका की शुरू से यही कोशिश रही है कि भारत परमाणु मामले में उसकी छत्रछाया में आ जाए। पिछली बार जब अमेरिका के राष्ट्रपति बुश भारत आए थे तब से इस मुद्दे पर हुई हर बैठक में चाहे वह प्रधानमंत्री स्तर की हो, विदेश मंत्री स्तर की हो या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की अमेरिका भारत पर अपनी शर्तें थोपने की पुरजोर कोशिश करता रहा है। प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया कि इस समझौते से हमारी सम्प्रभुता का बलिदान नहीं किया गया है। पर इंडियन एक्सप्रेस ने अमेरिकी शासन के एक उपसचिव के हवाले से खबर छापी है कि अमेरिका भारत के शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट को भी बर्दाश्त नहीं करेगा। इस खबर की भारत या अमेरिकी सरकार ने आधिकारिक पुष्टि नहीं की है। इसलिए भ्रम की स्थिति बनी हुई है। उधर वामपंथी दल अपनी पोलित ब्यूरो की बैठक के बाद ही अपने अगले कदम का ऐलान करेंगे। सरकार से समर्थन वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है लेकिन इस मुद्दे पर वे चुप भी नहीं बैठंेगे। आने वाले दिन प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी के लिए कठिन परीक्षा के होंगे।
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