Friday, August 4, 2000

कैसे बचाएं अपनी आजादी ?


जब से डा. मनमोहन सिंह देश में आर्थिक उदारतावाद लाए हंै हर शहर में लघु उद्योग क्रमशः बंद होते जा रहे हैं। बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और विकास की बजाए जनता विनाश की ओर धकेली जा रही है। देश के अनेक जागरूक लोग और संगठन उदारतावाद से पैदा हुए खतरों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। पर स्वेदेशी को डंका पीटने वाली भाजपा भी इंका के रास्ते पर ही चल रही है। उधर उदारतावाद के नाम पर देश की अर्थ व्यवस्था पर पड़ रहे डाके की तरफ इन संगठनों ने काफी रोशनी डाली है। ऐसे ही एक संगठन द्वारा जारी एक पर्चे में महत्वपूर्ण जानकारियों को एक जगह इकट्ठा करके रख दिया गया है ताकि इसे पढ़ने वाला कम समय में ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट का अनुमान लगा सके।
इस पर्चे में छापी गई शोध आधारित जानकारी के अनुसार देश की पांच प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत से मोटा मुनाफा कमा कर विदेश भेज रही हैं। हिंदुस्तान लीवर ने जब भारत में कारोबार शुरू किया था तो मात्र 24 लाख रूपए लगाए थे। आज यह कंपनी हर साल भारत से 775 करोड़ रुपए का मुनाफा कमा कर विदेश ले जाती है। कोलगेट पामोलिव इंडिया ने शुरू में मात्र 1.5 करोड़ रुपया लगाया था और अब यह कंपनी मुनाफा के रूप में भारत से 46 करोड़ रुपया हर साल कमा कर विदेश ले जाती है। बाटा इंडिया कंपनी ने 70 लाख रुपया लगाया था और अब यह कंपनी 24 करोड़ रुपया हर साल कमा कर भारत से विदेश ले जाती है। पेप्सी कोला इंडिया कंपनी ने शुरू में 40 लाख रुपया लगाया था और अब यह कंपनी 240 करोड़ रुपया कमा कर हर साल भारत से विदेश ले जाती है। कोका कोला इंडिया कंपनी ने शुरू में 70 करोड़ रुपया शुरू में लगाया था और अब यह कंपनी 300 करोड़ भारत से हर साल कमा कर विदेश ले जाती है।
दुनियां की अर्थव्यवस्था में सोने की चिडि़या माने जाने वाला भारत कभी विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश था। आज सबसे बड़ा कंगाल देश बन गया है। भारत की हुकूमत पर अंग्रेजों का सिक्का जमने से पहले सन् 1830 में, विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 33 फीसदी था। इस दौरान भारत पर कोई विदेशी कर्ज नहीं था। अंग्रेज हुकूमत के काबिज हो जाने के बाद भारत का निर्यात घटता गया और 1947 के आने तक भारत की विश्व व्यापार में हिस्सेदारी घट कर रह गई मात्र ढाई फीसदी। पर पिछले दशक में आए आर्थिक उदारतावाद ने तो कमाल ही कर दिया। 1999 आते-आते तक विश्व व्यापार में हमारा हिस्सा घट कर रह गया मात्र 0.2 फीसदी। 1947 तक भारत सरकार पर न कोई विदेशी कर्ज था और ना ही कोई घरेलू कर्ज। पर उदारतावाद की कृपा से भारत पर आज 6.5 लाख करोड़ रुपए विदेशी कर्ज है। इसके अलावा घरेलू कर्ज है 8.5 लाख करोड़ रुपया।
देश की अर्थव्यवस्था पर हो रहे इस लगातार हमले से चिंतित लोग याद दिलाते हैं कि एक ईस्ट इंडिया कंपनी को भारतवर्ष में व्यापार करने की अनुमति देने की भूल का हर्जाना मिला 200 साल से ज्यादा की गुलामी। आज 4000 से ज्यादा विदेशी कंपनियां व्यापार के नाम पर भारत को लूट कर हर साल करीब 80 हजार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा मुनाफे के रूप में हमारे देश से बाहर ले जा रही हैं और इस तरह देश को धीरे-धीरे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक गुलामी की ओर धकेल रही हैं। आजादी बजाओ आंदोलन, इलहाबाद के प्रवक्ता का कहना है कि कारगिल में राजनैतिक घुसपैठ के खिलाफ तो पूरा देश एकजुट हो गया था पर कितने दुख की बात है कि इस आर्थिक घुसपैठ की ओर  किसी का ध्यान नहीं जा रहा। मध्यमवर्ग और उच्चवर्ग के हाथ में आधुनिकता और मनोरंजन के नाम पर तमाम तरह के झुनझुने थमा दिए गए हैं। ये लोग बर्गर, पिज्जा, डिस्को, सैटेलाइट टीवी और इनटरनेट में मस्त हो रहे हैं और पीछे से उनके घर में डाके डाले जा रहे हैं। जब उन्हें होश आएगा तब तक सब लुट चुका होगा।
सरकार में बैठे नौकरशाहों और राजनेताओं का फर्ज होता है कि वे जनता को सुशासन दें। चाणाक्य पंडित ने कहा है कि जिस देश का राजा महलों में रहता है उसकी प्रजा झौपडि़यों में रहती है और जिस देश का राजा झौपड़ी में रहता है उसकी प्रजा महलों में रहती है। भारत के विधायकों, सांसदों और नाकरशाहों ने अपने तो ऐशों-आराम के सब साधन जुटा लिए हैं और जनता को पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से नहीं मिलती। आधी से अधिक आबादी दयनीय हालत में जी रही है। 1999-2000 में भारत सरकार का कुल बजट था 2 लाख 83 हजार करोड़ रुपए। जिसमें से राजस्व की आमदनी 1 लाख 83 हजार करोड़ रुपया और नया कर्ज लिया गया 1 लाख करोड़ रुपया। इतने भारी कर्जे से जुटाई गई इस आमदनी में से 90 हजार करोड़ रुपया तो सिर्फ विदेशी कर्ज की किश्त और ब्याज देने में चला गया और 54 हजार करोड़ रुपया सरकारी मुलाजिमों की तनख्वाह, पेंशन आदि पर खर्च हुआ।  50 हजार करोड़ रुपया देश की रक्षा व्यवस्था पर खर्च हुआ। इस तरह विकास कार्यों और जनता की सेवा के लिए बचा मात्र 77 हजार करोड़ रुपया। इस तरह देश के बजट का 32 फीसदी कर्ज और ब्याज देने में, 19 फीसदी वेतन और पेंशन देने में, 18 फीसदी रक्षा मद में और कुल 27 फीसदी जनता के लिए खर्च होता है। यानी देश पुराने कर्जें चुकाने के लिए नए कर्जे लेता जा रहा है फिर भी सरकार अपनी फिजूलखर्ची में कमी नहीं करती। नतीजतन अपने ऐश के लिए जनता पर टैक्स बढ़ा-बढ़ा कर खर्चों की भरपाई करती है। फिर भी जनता खामोशी से सब देखती रहती है। कोई विरोध नहीं करती।
परंपरा से यह माना जाता है कि लोग मजबूरी में ही घर का जेवर, सामन या जायदाद बेचते हैं। आज भारत सरकार अपने देश की हीरे व सोने की खोने, तेल के भंडार और सार्वजनिक कारखाने कौडि़यों के दाम विदेशी कंपनियों को बेच रही है। वाजपेयी सरकार का तर्क है कि घाटा दे रहे इन सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बेच कर सरकार अपनी जिम्मेदारी कम करना चाहती है। प्रश्न है कि ये घाटे हुए क्यों ? इन प्रतिष्ठानों में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के कारण। पर इन घोटालों के लिए जिम्मेदार नेताओं और अफसरों के खिलाफ जांच दबा दी गई। किसी को सजा नहीं मिली। तो सरकार का फर्ज है कि पहले इन कंपनियों में हुए घाटों के लिए जिम्मेदार अफसरों और नेताओं के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवाए। देश का जो धन उन्होंने विदेशी बैंको में जमा कर दिया है उसे उनसे वसूले। तब कहीं जाकर सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के संबंध में पुनः विचार करें। 
इस उदारीकरण के नाम पर देशवासियों को आर्थिक विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए थे। पर जिस तरह उदारीकरण हो रहा है उस तरह केवल मुट्ठी भर धनी लोग और देश के हुक्मरान ही इन सपनों को पूरा होते देख पाए हैं। सरकार की उदारीकरण की नीतियों के कारण देश में तीन लाख कारखाने पिछले आठ वर्षों के दौरान बंद हो चुके हैं और शेष भारी आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। जिससे देश के व्यापारियों व मध्यम वर्गीय कारखानेदारों में भारी हताशा फैल रही है। फिर भी सरकार सपने दिखाने से बाज नहीं आ रही है। जागरूक लोगों को चिंता है कि देश की बहुसंख्यक जनता कभी भी इन सपनों को पूरा होते नहीं देख पाएगी। आजादी के वक्त भारत की जनता थी 34 करोड़ आज है 100 करोड़। उस वक्त ेश में दो करोड़ लोग बेरोजगार थे और आज 20 करोड़ लोग पूरी तरह बेरोजगार हैं। तब गरीबी की रेखा के नीचे कुल चार करोड़ लोग रहते थे। आज तमाम पंचवर्षीय योजनाओं में अरबों-खरबों रूपया विकास के नाम पर खर्च करने के बाद देश के 40 करोड़ नागरिक गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बसर करने पर मजबूर हैं। ये तो तब है जबकि गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की परिभाषा बहुत छद्म किस्म की है। जिन्हें सरकार गरीबी की रेखा के ऊपर मानती है उनमें भी करोड़ों लोग काफी दयनीय जीवन जी रहे हैं। दूसरी तरफ देश के बड़े नेता और अफसरों ने देश को लूट कर 14 लाख करोड़ रुपया अवैध रूप से विदेशी बैंकों में जमा करा दिया हैं ताकि उनकी आने वाली सात पीढि़यां भी राजाओं का सा जिंदगी जीती रहे। देश की जनता जाए भाड़ में। सरकारी अव्यवस्था का यह आलम है कि की सरकार गोदामों में हर साल दो करोड़ टन अनाज सड़ जाता है। अगर इसका रख-रखाव ठीक से हो तो 12 करोड़ गरीब लोगोें की भूख मिट सकती है। ऐसे ही तमाम उदाहरण दूसरे सरकारी विभागों में भी मिल जाएंगे। इसलिए जरूरत इनकी व्यवस्था सुधारने की है ना कि विदेशी कंपनियों को बुलाने की।
दरअसल आज के दौर में कोई भी ताकतवर देश किसी कमजोर देश को राजनैतिक रूप से जीत कर गुलाम बनाने का इच्छुक नहीं है। उनका तो मकसद होता है कि इन देशों को आर्थिक रूप से गुलाम बना लो और फिर इनका जम कर दोहन करो। यही भारत में आज हो रहा है। इसलिए समाज और राष्ट्र के प्रति जागरूक लोगों को भारी चिंता है। वे देश में घूम-घूम कर बैठकें कर रहे हैं और जनजागरण कर रहे हैं। उन्हें दुख है जनता आज उनकी बात को पूरी गंभीरता से नहीं ले रही है। फिर पछताए होत क्या जब चिडि़या चुग गई खेत। इन लोगों की आम जनता से अपील है कि वह विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें और स्वदेशी को अपनाएं ताकि देश का पैसा देश मंे ही रहे। जब ऐसा होगा, तभी भारत का आर्थिक विकास होगा।

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