Friday, July 28, 2000

क्यों हुआ बाल ठाकरे की गिरफ्तारी का नाटक?

इस बात से कोई इंकार नहीं करेगा कि अगर शिव सेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे मुंबई में साम्प्रदायिक दंगा भड़काने के दोषी हैं तो उन पर कानूनी कार्रवाही न की जाए। पर प्रश्न है कि जो बवाल हाल ही में मचाया गया उसकी पृष्ठभूमि में क्या था ? क्या किसी दोषी राजनेता को सजा देने की मंशा या केवल अहम् तुष्टि की राजनीति की उपज और ताकत का टकराव ?

अगर साम्प्रदायिकता भड़काने के जुर्म में ही बाला साहब को गिरफ्तार करने की बात सोची गई थी तो देश के हिंदुओं को यह सवाल पूछने का हक है कि पिछले 50 वर्षों से देश की हजारों मस्जिदों में जुम्मे की नमाज के बाद जो साम्प्रदायिक उन्माद भड़काया जाता रहा है उसके जुर्म में कितने मौलवी आज तक गिरफ्तार किए गए ? कितनों पर मुकदमे चले ? कितनों को सजा मिली ? इन सवालों के जवाब देने की हिम्मत न तो महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री छगन भुजबल की है न उनके वरिष्ठ नेता शरद पंवार की और न ही उनके सहयोगी दल इंका के नेताओं की। हिंदुस्तान पर आज तक सबसे ज्यादा हुकूमत कांग्रेस पार्टी ने की है। उस कांग्रेस पार्टी ने जिसके मार्ग निर्देशक महात्मा गांधी सरीखे लोग रहे हैं। कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती है किंतु उसके शासनकाल में साम्प्रदायिकता घटने के बजाए दिन दूनी और रात चैगुनी बढ़ीं थी। जाहिर है कि देश में साम्प्रदायिकता का जहर घोलने में एक सुगठित तंत्र लगा हुआ था। जिस तंत्र का पालन-पोषण कांग्रेस की ही छत्र-छाया में हुआ। यानी कांग्रेस पार्टी ने बाकायदा साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों को प्राश्रय और प्रोत्साहन दिया। इन वर्षों में मुस्लिम धर्मांधता और हिंदुओं के प्रति घृणा बढ़ाने वाले हजारों आॅडियो-वीडियो कैसेट और करोड़ों पर्चे व पुस्तिकाएं मुस्लिम समाज द्वारा देश भर में बांटी गईं हैं। जिनमें भारतीय मूल के मुसलमानों का साम्प्रदायिकता भरा आह्वाहन किया जाता रहा है। प्रायः ऐसे प्रकाशनों में लिखने वालों ने अपने नाम व पते भी निडर होकर छापे हैं। इसलिए केंद्र और राज्यों की सरकारें यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि उनके पास साम्प्रदायिकता भड़काने वालों के खिलाफ प्रमाण नहीं थे। प्रमाण थे और आज भी है पर वे दबा दिए जाते हंै। इस काम में वे सभी दल या नेता शामिल हैं जो कभी न कभी सत्ता में रह चुके हैं। अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के वोटों के लालच में हर दल उनकी सेवा में जुटा रहता है। उनकी हर जा और बेजा हरकत को नजरंदाज करता रहता है। पर जब वैसी ही हरकत हिंदू समाज के नेता करते हैं तो उन्हें साम्प्रदायिक करार दे दिया जाता है। इस देश के ज्यादातर आत्म घोषित बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक बहुत बड़े हिस्से का भी यही रवैया रहा है। उन्हें बाल ठाकरे की शिव सेना तो साम्प्रदायिक नजर आती है। पर देश के मुस्लिम आबादी वाले नगरों में हावी मुस्लिम माफियाओं के द्वारा किए जा रहे अपराध, तस्करी, हिंसा और देशद्रोह के काम नजर नहीं आते। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट इस बात की गवाह है कि देश में अपराध और आतंक फैलाने में सत्तारूढ दल के नेताओं का हाथ रहा है। जिस दौर की बात वोहरा कमेटी करती है उस दौर में इस देश में उन्हीं लोगों की सरकारें रही हैं जिनकी सरकार आज महाराष्ट्र में है। पर सब कुछ दबा दिया गया। वैसे ही जैसे दर्जनभर केंद्रीय मंत्री और बड़े नेताओं से जुड़ेे हवाला कांड को दबा दिया गया। उस हवाला कांड को जो मुंबई, दिल्ली, कश्मीर और देश के बाकी हिस्सों में आतंक फैलाने के लिए जिम्मेदार लोगों के काले कारनामों को उजागर करता है।

पिछले हफ्ते टेलीविजन के अनेक चैनलों पर ‘रूॅल आॅफ लाॅ’ को लागू करने की बात की गई यानी कानून का शासन। किस कानून का ? उस कानून का जो आज तक देश में एक भी बड़े नेता को भ्रष्टाचार, हिंसा, जातिवाद या साम्प्रदायिकता फैलाने के जुर्म में सजा नहीं दे पाया। फिर बाला साहब ठाकरे के संबंध में ही कानून की इतनी याद क्यों आ रही थी ? उस कानून की जिसके सर्वोच्च शिखर पर बैठे कुछ लोग आज शक के घेरे में खड़े किए जा चुके हैं और उनके पास अपनी सफाई में कहने को कुछ भी नहीं है ।

इतना ही नहीं बाला साहब ठाकरे पर जो लोग राजनीति में धर्म का दुरूपयोग करने का आरोप लगा रहे हैं वो तब कहां थे जब धीरेंद्र ब्रह्चारी नाम का एक व्यक्ति इस देश की प्रधानमंत्री का इस्तेमाल करके रातो रात अरबपति बन गया। कांग्रेसी हुकूमत के दौरान धीरेंद्र ब्रह्म्चारी जैसे लोग देश की आम जनता के प्रति सैकड़ों करोड़ की आर्थिक हिंसा करके रातो रात अरबपति हो गए और किसी ने विरोध नहीं किया। किसी ने नहीं पूछा कि बिहार से योग सिखाने निकला एक व्यक्ति अरबों की संपत्ति का मालिक कैसे बन गया ? कैसे खड़े कर लिए उसने हवाई जहाजों के जखीरे ? कैसे खड़ी कर ली उसने शस्त्रों की फैक्ट्रियां? कैसे खड़े कर लिए उसने कश्मीर में सैकड़ों एकड़ वर्जित क्षेत्र में राज-प्रसादों के से ठाट-बाट ? जिसने भी मानतलाई में अपर्णा आश्रम नाम की विशाल संपत्ति देखी है, वह यह देख कर हैरान हो जाता है कि डोडा जिले से लगे इस अति संवेदनशील इलाके में, सेना की नाक तले, हवाई अड्डा, पांच सितारानुमा होटल व दूसरी तमाम अति आधुनिक इमारतें अवैध रूप से कैसे बनती रहीं ? क्या वह योग-धर्म का राजनैतिक दुरूपयोग नहीं था ?

दिल्ली की जामा मस्जिद इलाके में इमाम बुखारी की हुकूमत कैसे चलती है यह बताने की जरूरत नहीं। उस इलाके में पुलिस भी घुसती है तो वहां के साम्प्रदायिक नेताओं की इजाजत लेकर। लेकिन तब कोई बुद्धिजीवी शोर नहीं मचाता। कोई नहीं कहता कि कानून का शासन लागू होना चाहिए। विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे प्रधानमंत्री तक इमाम बुखारी को सिजदा करने जाते हैं। पर आश्चर्य होता है यह देख कर कि ऐसे तमाम लोग बाला साहब ठाकरे को ही साम्प्रदायिक बता कर जेल में बिठाना चाहते थे।

अक्सर इस तरह के सवाल पर लिखना बहुत खतरनाक होता है क्योंकि टिप्पणी देने में सिद्ध लोग झट से नतीजा निकालेंगे कि लिखने वाला बाल ठाकरे पक्ष का ले रहा है। इसलिए लेख की मूल भावना को समझा जाए। यहां यह आशय कतई नहीं है कि बाला साहब ठाकरे ने अगर कानून की नजर में कोई अपराध किया है तो उन पर मुकदमा न चलाया जाए। यहां यह भी आशय नहीं है कि शिव सेना के काम काज का जो तरीका रहा है उससे हम सहमत हैं। यहां केवल इतनी सी बात उठाने की कोशिश की जा रही है कि क्या कानून सब पर एक-सा लागू होता है ? ऐसा क्यों होता है कि सत्तारूढ़ दल केवल अपने विरोधी नेताओं के ही खिलाफ कार्रवाही करते हैं। उन्हें अपने दल के अपराधी राजनेताओं के खिलाफ उसी तत्परता से कानूनी कार्रवाही करने की हिम्मत क्यों नही होती? कोई दल इस मानसिकता आ अपवाद नहीं है। वही जयललिता जब राजग की सदस्य थी तो उनके सौ खून माफ थे। पर जैसे ही वो राजग के विरोध में गई उनकी गिरफ्तारी के सिलसिले चालू हो गए। वही सुखराम भाजपा के लिए भ्रष्टाचार के पर्याय थे और उनके विरूद्ध भाजपा ने 13 दिन तक संसद नहीं चलने दी थी पर वही सुखराम आज भाजपा सरकार के सहयोगी हैं।

इसलिए बाला साहब ठाकरे की गिरफ्तारी के नाटक को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस नाटक के पीछे इरादा न तो साम्प्रदायिकता फैलाने के आरोप में श्री ठाकरे को सजा दिलवाना था और न ही इस कदम से मुंबई की सड़कों से अपराध और आतंक को समाप्त करना था। इस कदम का तो एक ही मकसद था कि छगन भुजबल, जो कुछ वर्ष पहले तक बाल ठाकरे के दाहिने हाथ थे, अब उन्हीं से अपना पुराना हिसाब चुकता करना चाहते थे। उन्हें अपमानित करना चाहते थे और उन्हें अपनी ताकत दिखाना चाहते थे। श्री भुजबल को इस बात की कतई चिंता नहीं कि उनके इस बचपने से मुंबई में कितना आतंक और अनिश्चितता फैल गई ? कितना पैसा बंदोबस्त में बर्बाद हुआ? नगर के उद्योग-व्यापार पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ा ? मुंबईवासी हफ्ते भर तक कितने भय और आतंक में जिए। श्री भुजबल जानते हैं कि उनके दल के पास कोई भी नैतिक आधार नहीं है। फिर भी वे ऐसा प्रचारित करने का प्रयास कर रहे थे कि उनकी सरकार कानून की रक्षा के लिए समर्पित है। अगर श्री भुजबल वाकई कानून की स्थापना करना चाहते हैं तो वे इस बात की पुरजोर मांग करें कि सीबीआई के कोल्ड स्टोरेज में दबा दी गई सैकड़ों फाइलों को बाहर निकाला जाए और उनमें दर्ज कांग्रेसी व दूसरे बड़े नेताओं के अपराधों के अनुरूप उन्हें भी सजा दी जाए। अगर उनमें ऐसी मांग करने का नैतिक बल नहीं है तो उन्हें इस बात का भी हक नहीं है कि वे इतने पुराने मामले को इस तरह बेवजह उखाड़ कर मुंबई के जनजीवन में जहर घोलें।

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