Friday, June 16, 2000

केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पर कतरने की तैयारी

श्री शरद पवांर के नेतृत्व में संसदीय समिति की बैठक इस हफ्ते के शqरू में नई दिल्ली में हुई। जिसमें केंद्रीय सतर्कता आयुक्त संबंधी विधेयक पर चर्चा हुई। राजनेताओं की मुश्किल यह है कि वे मन से ये कतई नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार के मामले में राजनेता किसी जांच के दायरे में आएं। पर लोक-लज्जा के लिए उन्हें यह दिखावा करना पड़ता है। इसलिए नए-नए नामों से भ्रष्टाचार से लड़ने की बात की जाती है। फिर वो चाहे लोक आयुक्त बना कर हो या केंद्रीय सतर्कता आयुक्त। हर चुनाव से पहले हर दल और प्रधानमंत्री पद का हर दावेदार जनता को यह आश्वासन देता है कि वह भ्रष्टाचार से लड़ेगा। क्योंकि राजनेता जानते हैं कि इस देश के करोड़ों लोग प्रशासनिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त हैं इसलिए भ्रष्टाचार के नाम पर चुनाव में जनता को बहकाना सबसे ज्यादा आसान होता है। यही कारण है कि जैसे ही चुनावों की घोषणा होती है सभी दलों के राजनेता, चाहे वो क्षेत्रीय दल के हों या राष्ट्रीय दल के, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों के घोटाले उछालने में जुट जाते हैं। चुनाव जीतने के बाद फिर सब एक हो जाते हैं और एक-दूसरे को बचाने में लगे रहते हैं। इसलिए केंद्रीय सतर्कता आयुक्त से संबंधित विधेयक पर चर्चा करते समय सांसदों को यही दिक्कत आ रही है कि वे कैसे ऐसा प्रारूप बनाएं जिससे जनता में तो यह संदेश जाए कि सरकार भ्रष्टाचार से निपटना चाहती है, पर असलियत में कुछ न हो। सब यथावत चलता रहे। प्रस्तावित विधेयक को इस तरह बनाया जाए ताकि बड़े ओहदों पर बैठने वाले ताकतवर भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं को नई व्यवस्था में से भी बच कर निकलने के रास्ते खुले रहें।
यह कैसा विरोधाभास है कि एक तरफ तो भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है और दूसरी तरफ कानून की नजर में यहां सब बराबर नहीं है ? इसीलिए जब 5 फरवरी को स्टार टीवी न्यूज चैनल पर बिग-फाइट-शो में केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री विट्ठल ने ये घोषणा की कि वे उन कांडों की जांच दुबारा करवाएंगे जिनमें दर्जनों बडे राजनेता शामिल हैं और जिन कांडों को बड़ी निर्लज्जता से लीपापोती करके दबा दिया गया है, तो सारी की सारी राजनैतिक जमात उन पर टूट पड़ी। संसद से लेकर उसके बाहर तक डट कर शोर मचाया गया कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को यह अधिकार ही नहीं है कि वह राजनेताओं के विरूद्ध जांच करवाए। यह कैसा विरोधाभास है ? जिस केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधीन सीबीआई काम कर रहीे है उस सीबीआई को तो यह हक है कि वह राजनेताओं के खिलाफ जांच कर सके। पर उसी सीबीआई के काम पर निगरानी रखने के लिए तैनात केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को यह हक नहीं है कि वे सीबीआई से ये जांच करवा सके। मजे कीे बात यह है कि केंद्रीय कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी सरीखे जिन लोगों ने 5 फरवरी 2000 के बाद श्री एन विट्ठल पर हमला बोला, वे वही लोग हैं जो 1994 से विभिन्न कांडों में फंसे राजनेताओं की जान बचाने के लिए ‘निष्पक्ष और स्वायत्त’ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त जैसे पद के सृजन की बात कर रहे थे। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट की ‘न्याययिक सक्रियता’ को देखकर इन लोगों की चिंता थी कि कहीं इनके राजनैतिक आका सजा न पा जाएं। इसलिए भविष्य में बेहतर व्यवस्था बनाने के नाम पर इन्होंने अदालत में लंबित मामलs को वहीं लपेटने की साजिश रची। बाद में जब उसी व्यवस्था से पैदा हुआ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त भस्मासुर बन कर उनके पीछे दौड़ा तो फिर हडकंप मचा और एक और नई व्यवस्था बनाने की बात की गई। अगर मौजूदा सरकार या विपक्ष देश से भ्रष्टाचार समाप्त करने के बारे में वाकई ईमानदार है तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश में तोड़-मरोड़ करने की क्या जरूरत है ? उस पर इतना लंबा विचार करने की क्या जरूरत है कि मौजूदा सरकार दो साल से ज्यादा सत्ता में रहने के बाद भी इस विधेयक का प्रारूप तक तय नहीं करवा पाई ?

सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 1997 के एक आदेश के तहत ऐसी व्यवस्था करने को कहा था जिसमें सीबीआई, आयकर और फेरा विभाग जैसी जांच एजेंसियां निर्भयता से बिना किसी राजनैतिक दबाव के काम कर सकें। न्यायालय के आदेश के अनुसार प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विपक्ष के नेता की एक साझी समिति को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का चयन करना था। फिर केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की सलाह पर शीर्ष जांच एजेंसियों के सर्वोच्च पदाधिकारियों का चयन होना था। इन जांच एजेंसियों को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के निर्देशन में काम करना था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह सोचा कि इस तरह इन जांच एजेंसियों की स्वायतत्ता निर्धारित हो जाएगी। पर जैसा संदेह था वही हुआ। तब तो जांच इसलिए नहीं हो पाई क्योंकि जांच एजेंसियां प्रधानमंत्री के अधीन थीं और आज जांच इसलिए नहीं हो पा रही है कि जांच एजेंसियों को यही पता नहीं कि वे किसके आधीन हैं ? केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के या प्रधानमंत्री के ? चालू व्यवस्था के तहत तो वे प्रधानमंत्री के आधीन है पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार उन्हें केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधीन काम करना है। यहीं पेंच फंसा है। अगर सरकार सर्वोच्च न्यायालय के अनुरूप विधेयक पास करवा लेती है तो केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का पद इतना शक्तिशाली हो जाएगा कि एक ही व्यक्ति सारे देश को नचा देगा। अगर कोई सही व्यक्ति इस पद पर आ गया तो देश को भला करेगा और गलत आया तो बंटाधार कर देगा। इसलिए भी संसदीय समिति इस विधेयक को लेकर उधेड़-बुन में हैं।

यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के दिए जाने के बाद से संसद के कई सत्र गुजर गए पर यह विधेयक अभी तक पारित नहीं किया गया। यूं इसी आदेश के तहत केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर श्री एन विट्ठल को विराजमान कर दिया गया। उन्हें इस पद पर काम करते हुए 21 महीने हो गए और उनका कार्यकाल मात्र 27 महीने का शेष बचा है। इस पद पर आते ही श्री विट्ठल ने तमाम घोषणाएं की थी कि वे देश से भ्रष्टाचार दूर करने में ठोस कामयाबी हासिल करेंगे। पर आज 21 महीने बाद श्री विट्ठल के तेवर बदल गए हैं। उन्हें असलियत का एहसास हो गया है। उन्हें साफ दीख रहा है कि छोटी-मोटी मछलियों को वे भले ही पकड़ लें पर भ्रष्टाचार की शार्क और व्हेल मछलियों को पकड़ना उनके बूते की बात नहीं। इस दिशा में उन्होंने जो भी प्रयास किया उन पर तुरंत हमला हुआ। क्योंकि सत्ता प्रतिष्ठानों में उच्च पदों पर विराजमान नौकरशाह और राजनेता भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक मत हैं। जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री श्री चन्द्रशेखर कहते हैं कि भ्रष्टाचार तो कोई मुद्दा ही नहीं है। राजनेता भ्रष्टाचार को केवल एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। फिर वो चाहे लालू यादव का मामला हो या जयललिता का। भ्रष्टाचार के सवाल पर नेता हंगामा तो खूब मचाते हैं पर अपनी बिरादरी के किसी भी आदमी को सजा नहीं दिलवाना चाहते। क्योंकि वे जानते हैं कि राजनीति में आज किसी का भी दामन साफ नहीं है। जिस दिन कोई राजनैतिक कार्यकता चुनाव लड़ने का फैसला करता है उसी दिन से हालात उसे भ्रष्ट होने पर मजबूर कर देते हैं। शुरू में हालात मजबूर करते हैं और कामयाब होने पर वो हालातों को भ्रष्ट होने पर मजबूर कर देता है। इसलिए बड़े पद पर बैठे लोगों का कभी कुछ नहीं बिगड़ता।

बहुत से लोग कहते हैं कि भारत से भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं हो सकता। क्योंकि भारतीय मूल रूप से भ्रष्ट हैं और मौका मिलने पर नहीं चूकते। इसमें अतिश्योक्ति हो सकती है। पर यह सही है कि दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां बिलकुल भ्रष्टाचार न हो। हां जिन देशों में यह आम जन-जीवन में दिखाई नहीं पड़ता उनमें भी ऊंचे स्तर पर तो भ्रष्टाचार पाया ही जाता है। चाणाक्य पंडित ने भी कहा है कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि शहद के घड़ों की रखवाली पर बैठे चैकीदार के होठों पर शहद न लगा हो। पर साथ ही चाणाक्य पंडित ने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए तमाम तरह की सतर्कता व्यवस्थाओं के सुझाव दिए हैं। राजतंत्र में यह राजा के व्यक्तित्व पर निर्भर होता है कि वह प्रशासन को कैसे चलाए। किंतु लोकतंत्र में यह शक्ति जनता के हाथ में होनी चाहिए। दुर्भाग्य से हमारा लोकतंत्र अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ कि जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के काम और आचरण पर अंकुश रख सके। इसलिए चुनाव जीतने के बाद उसके प्रतिनिधियों के रवैए रातो-रात बदल जाते हैं। ऐसे में कोई भी मामला क्यों न हो उस पर जो निर्णय लिए जाते हैं वो कहने को तो जन प्रतिनिधियों द्वारा लिए जाते हैं पर दरअसल उसमें जनता की आकांक्षाओं का दर्शन नहीं होता। इसलिए यह जरूरी है कि संसदीय समितियां कुलीन लोगों के क्लब की तरह काम करने की बजाए जन-आकांक्षाओं को सामने लाने का काम करें। वैसे भी लोकसभा और राज्यसभा के भीतर का माहौल अब पहले जैसा नहीं रहा। जहां गंभीर चिंतन हो सके। जो दूरदर्शन पर दिखाई देता है उसमें गंभीरता कम और अखाड़ेबाजी ज्यादा होती है। संसदीय समितियां बेहतर माहौल में काम करती हैं। बिना समय सीमा के दबाव के काम करती हैं। इसलिए इन्हें अपने प्रयास में ज्यादा जनोन्मुख होना चाहिए। जहां तक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के कर्तव्य और अधिकारों के निर्धारण का सवाल है, बेहतर हो कि प्रस्तावित विधेयक पर अखबारों, टेलीविजन और जन-मंचों पर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़वाई जाए। इस बहस का जो भी नतीजा सामने आए उसे ईमानदारी से स्वीकार कर लिया जाए। यह कोई अनूठी या अव्यवहारिक बात नहीं है।

स्विट्जरलैंड और अमेरीका दो ऐसे प्रमुख लोकतंत्र हैं जहां हर महत्वपूर्ण सवाल पर इसी तरह व्यापक जनमत संग्रह करवाया जाता है। इतना ही नहीं सार्वजनिक महत्व के पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया भी ऐसी संदेहास्पद और गोपनीय नहीं होती जैसी भारत में होती है। अब केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर नियुक्ति की प्रक्रिया को ही लें। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत भी जो व्यवस्था की गई है वह पारदर्शी कतई नहीं है। जब हर स्तर के राजनेताओं पर बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों के आरोप लग रहे हों। जब इन राजनेताओं पर अपने विरूद्ध हर जांच को दबवा देने के प्रमाण मौजूद हों तब यह कैसे माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विपक्ष के नेता ईमानदारी से केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का चयन करेंगे। इस मामले में तो बेहतर यही होगा कि उक्त तीन महानुभावों की समिति इस पद के लिए सुयोग्य उम्मीदवारों की एक लंबी फेहरिस्त देश के सामने प्रस्तुत कर दे और फिर उसमें प्रस्तावित हर व्यक्ति का देश में मीडिया ट्रायल हो। लोग ऐसे उम्मीदवारों से टीवी, अखबारों और जनमंचों पर दो महीने तक डट कर जवाब-तलब करें। उसके पीछे के जीवन की तस्वीर लोगों के सामने आए और तब जो व्यक्ति सबसे खरा नजर आए उसे ही इस पद पर बैठाया जाए। यह प्रक्रिया सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में भी अपनाई जानी चाहिए। जैसा अमेरीका में होता है। इसी तरह की प्रक्रिया भारत के महालेखा परीक्षक, सीबीआई प्रमुख , मुख्य चुनाव आयुक्त, सेबी चीफ जैसे पदों पर नियुक्ति के मामले में भी अपनाई जानी चाहिए।

जहां तक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के कर्तव्य और अधिकारों पर संसदीय समिति में चल रहे मंथन का सवाल है तो बड़ी साफ सी बात है कि इस समिति के सभी सदस्य अपने दिल में झांक कर खुद से ये सवाल पूछें कि क्या वे वाकई देश से भ्रष्टाचार को दूर करना चाहते हैं ? क्या वे चाहते है कि भ्रष्टाचार में लिप्त आम लोगों को ही नहीं सत्ताधीशों और आला हाकिमों को भी सजा मिले ? क्या वे चाहते हैं कि जो माहौल बिगड़ चुका उससे तो निपटा ही जाए पर भविष्य में हालात ऐसे पैदा हों कि भ्रष्ट आचरण करने वाला कानून के शिकंजे से बच न पाए ? यदि इन प्रश्नों का उत्तर हां में है तो इस समिति को अपना काम पूरा करने में देर लगने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। फिर तो इस समिति को इन मामलों पर किसी की सलाह की जरूरत नहीं है। हां अगर ऐसी तमाम दूसरी समितिययों की तरह यह समिति भी काम की औपचारिता मात्र पूरी करना चाहती है, कोई ठोस परिणाम नहीं देखना चाहती तो फिर यह जो भी चाहे प्रारूप बना कर दे दे, रहेंगे तो वही ढाक के तीन पात।

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