Sunday, September 5, 2010

श्रीनगर घाटी ही पूरा कश्मीर नहीं

पिछले हफ्ते कश्मीर पर लिखे हुए लेख की काफी प्रतिक्रियाऐं आयीं। चूंकि यह लेख देश के विभिन्न प्रांतों में विभिन्न भाषाओं में छपता है, इसलिए कश्मीर में लोकप्रिय उर्दू अखबार में इसे कश्मीर के बाशिन्दों ने दिलचस्पी से पढ़ा और इसमें कश्मीर समस्या के हल के लिए सुझाए गये रास्तों से इत्तेफाक जताया। पर उन्हें नाराजगी इस बात से थी कि सारा मीडिया कश्मीर के बारे में जो कुछ लिख रहा है या टीवी पर दिखा रहा है, वह केवल श्रीनगर घाटी के लोगों के बयानों और कारनामों पर आधारित है। उनका कहना था कि आप सब मीडिया वाले श्रीनगर के आगे नहीं जाते हो, इसलिए आपको आसपास के कस्बों, पहाड़ों और जंगलों में बसने वाले कश्मीरियों के ज़ज्बात का पता नहीं है। यह सही और रोचक और तथ्य था, जिसके लिए हम मीडियाकर्मी वाकई दोषी हैं। मैंने अनेक सम्पर्कों के माध्यम से कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों में कुछ लोगों को फोन करके जब उनके ज़ज्बात जानने चाहे तो एक अलग ही तस्वीर नज़र आई।

कश्मीर में बड़ी तादाद गूजरों की है। ये गूजर श्रीनगर के आसपास के इलाकों से लेकर दूर तक पहाड़ों में रहते हैं और भेड़-बकरी चराते हैं। ऊन और दूध का कारोबार इनसे ही चलता है। कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी गूजर और जम्मू के क्षेत्र में रहने वाले डोगरे गूजर कहलाते हैं। इनकी तादाद काफी ज्यादा है, लगभग 30 लाख। दोनों ही इलाकों के गूजर इस्लाम को मानने वाले हैं। पर रोचक बात यह है कि घाटी के अलगाववादी नेता हों या अन्य मुसलमान नेता, गूजरों को मुसलमान नहीं मानते। पिछले दिनों सैयद अली शाह गिलानी ने एक बयान भी इनके खिलाफ दिया था जिससे गूजर भड़क गये। बाद में गिलानी को यह कहकर सफाई देनी पड़ी कि मीडिया ने उनके बयान को गलत पेश किया। हकीकत यही है कि घाटी के मुसलमान गूजरों को हमनिवाला नहीं मानते। 1990 से आज तक आतंकवादियों द्वारा कश्मीर में जितने भी मुसलमानों की हत्या हुईं हैं, उनमें से अधिकतर गूजर रहे हैं। जम्मू और कश्मीर क्षेत्र के गूजर न तो आज़ादी के पक्ष में हैं और न ही पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं। वे भारत के साथ अमन और चैन के साथ रहने के हामी हैं। कड़क जाड़े में जब बर्फ की मोटी तह कश्मीर के पहाड़ों को ढक लेती है, तब ये गूजर नीचे मैदानों में चले आते हैं ताकि मवेशियों को चारा खिला सकें। इनका मैदान से छः महीने साल का नाता है। अलगाववादियों के जितने संगठन आज जम्मू कश्मीर में सक्रिय हैं और जिनके बयान आये दिन मीडिया में छाये रहते हैं, उन संगठनों में एक भी गूजर नेता नहीं है। इसी तरह कण्डी बैल्ट के जो लोग हैं, वो पहाड़ी बोलते हैं, कश्मीरी नहीं। उनका भी घाटी के अलगाववादियों से कोई नाता नहीं है। उरी, तंगधार और गुरेज़ जैसे इलाकों के रहने वाले मुसलमान घाटी के मुसलमानों से इफाक नहीं रखते। इन्हें भी भारत के साथ रहना ठीक लगता है।

यह तो जगजाहिर है कि उत्तरी कश्मीर का लेह लद्दाख का इलाका बुद्ध धर्मावलंबियों से भरा हुआ है और जम्मू का इलाका डोगरे ठाकुरों, ब्राह्मणों व अन्य जाति के हिन्दुओं से। ज़ाहिरन यह सब भी कश्मीर को भारत का अंग मानते हैं और भारत के साथ ही मिलकर रहना चाहते हैं। इन लोगों का कहना है कि अगर ईमानदारी से और पूरी मेहनत से सर्वेक्षण किया जाए तो यह साफ हो जायेगा कि अलगाववादी मानसिकता के लोग केवल श्रीनगर घाटी में हैं और मुट्ठीभर हैं। इनका दावा है कि आतंकवाद के नाम पर गुण्डे और मवालियों के सहारे जनता के मन में डर पैदा करके यह लोग पूरी दुनिया के मीडिया पर छाये हुए हैं। सब जगह इनके ही बयान छापे और दिखाये जाते हैं। इसलिए एक ऐसी तस्वीर सामने आती है मानो पूरा जम्मू-कश्मीर भारत के खिलाफ बगावत करने को तैयार है। जबकि असलियत बिल्कुल उल्टी है। ये सब लोग प्रशासनिक भ्रष्टाचार से नाराज हैं। कश्मीर की राजनीति में लगातार हावी रहे अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार को भी पसन्द नहीं करते और स्थानीय राजनीति को बढ़ावा देने के पक्षधर हैं। पर ये अलगाववादियों और आतंकवादियों के साथ कतई नहीं हैं।

कश्मीर के राजौरी क्षेत्र से राजस्थान आकर वहाँ के दौसा संसदीय क्षेत्र में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने वाले गूजर नेता कमर रब्बानी को इस चुनाव में तीन लाख वोट मिले। श्री रब्बानी का कहना है कि, ‘‘दौसा के गूजर, चाहे हिन्दु हों या मुसलमान, हमें अपना मानते हैं। इसीलिए मुझ जैसे कश्मीरी को उन्होंने तीन लाख वोट दिए। हम बाकी हिन्दुस्तान के गूजरों के साथ हैं, घाटी के अलगाववादियों के साथ नहीं।’’

कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से बात करने पर एक सुझाव यह भी सामने आया कि अगर केन्द्र सरकार कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दे और छः महीने बढि़या शासन करने के बाद फिर चुनाव करवाए तब उसे ज़मीनी हकीकत का पता चलेगा। हाँ उसे इस लोभ से बचना होगा कि वो अपना हाथ नेशनल कांफ्रेस या पी.डी.पी. जैसे किसी भी दल की पीठ पर न रखे। घाटी के हर इलाके के लोगों को अपनी मर्जी का और अपने इलाके का नेता चुनने की खुली आज़ादी हो। वोट बेखौफ डालने का इंतजाम हो। तो कश्मीर में एक अलग ही निज़ाम कायम होगा।

Sunday, August 29, 2010

क्या हो कश्मीर का हल ?

हाल ही में जो भी कश्मीर की घाटी से होकर लौटा है, उसका कहना है कि हालात बहुत नाज़ुक हैं। उमर अब्दुल्ला की मौजूदा सरकार उनसे निपटने में अक्षम है। लगातार पुलिस और सेना की मौजूदगी से घाटी के लोग आजि़ज आ गये हैं। उन्हें लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक, सम्प्रभुता सम्पन्न सरकार ने उनके साथ किया गया अपना वायदा नहीं निभाया। कश्मीर 15 अगस्त 1947 को भारत का अंग नहीं था। कई महीने बाद कबीलाई हमलों से घबराकर कश्मीर के राजा हरी सिंह ने भारत के साथ एक समझौता किया जिसके तहत कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए भारतीय गणराज्य में शामिल कर लिया गया। इस समझौते के तहत कश्मीर को गृह, विदेश, संचार और रक्षा जैसे मामले छोड़कर बाकी में स्वायता दे दी गयी थी। पर बाद के वर्षों में धीरे-धीरे उसकी यह स्वायता समाप्त कर दी गयी। जिससे घाटी की राजनीति में एक ऐसी अस्थिरता पैदा हुई जो आज तक थम नहीं पायी।

उल्लेखनीय है कि कश्मीर के संदर्भ में संविधान की धारा 370 समाप्त करने की जो मांग जनसंघ या बाद में भाजपा उठाती रही है, उसने हमेशा घाटी के लोगों को उत्तेजित किया है। यह उस समझौते के खिलाफ है जो विलय के समय किया गया था। कानून का सम्मान करने वाले राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में ऐसे समझौतों को तोड़ा नहीं करते। वैसे भी धारा 370 समाप्त करने की बजाय अगर विलय के समझौते की शर्तों को पूरा सम्मान दिया जाये तो भी कश्मीर भारत का ही अंग रहता है। जिसका अर्थ यह हुआ कि पाकिस्तान का कश्मीर पर कोई भी कानूनी हक न कभी था, न आज है और न होगा। कश्मीर के जिस हिस्से को पाकिस्तान ने फिलहाल दबा रखा है, उसे पाकिस्तान का हिस्सा नहीं माना जाता, बल्कि पाक अधिकृत कश्मीरमाना जाता है। पाकिस्तान, कश्मीर, भारत और पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) ब्रिटिश संसद के जिस कानून से बने थे, उस कानून की अगर अवमानना करके पाकिस्तान कश्मीर पर किसी भी तरह का दावा कहीं भी पेश करता है तो इसका मतलब यह हुआ कि उस कानून में पाकिस्तान की आस्था नहीं है। इसका मतलब यह भी हुआ कि दक्षिणी एशिया के इन देशों की आजादी के लिए जो कानून बना था, वो पाकिस्तान को स्वीकार्य नहीं है। उल्लेखनीय है कि ऐसा करने पर पाकिस्तान का वज़ूद ही समाप्त हो जाता है। क्योंकि यह कानून ही है जिसने पाकिस्तान को एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा दिया, वरना तो वह भारत का अंग था।

पूर्व केन्द्रीय मंत्री कमल मोरारका का कहना है कि भाजपा जैसे भारत के कुछ राजनैतिक दल गलत मुद्दे उछाल कर कश्मीर के मामले में भारत का पक्ष कमजोर करते रहे हैं। दूसरी तरफ घाटी के कांग्रेसी नेता अपने स्वार्थों के लिए दिल्ली दरबार को बरगला कर अपनी रोटियाँ सेंकते रहे हैं। इनका मानना है कि अगर घाटी से कांग्रेस व भाजपा जैसे दल अपनी सियासती शतरंज के मोहरे उठा लें और घाटी के लोगों को अपने ही राजनैतिक दलों के बीच चुनाव करने के लिए छोड़ दें, तो वे ज्यादा आज़ाद महसूस करेंगे। क्योंकि तब उनकी राजनीति शेष भारत की राजनीति से प्रभावित नहीं होगी। इससे मनोवैज्ञानिक रूप से भी अपने राज्य के विशेष दर्जे की हैसियत का अहसास होता रहेगा। इसके साथ ही भारत के सभी राजनैतिक दल यह करें कि पूरी दुनिया के हर मंच पर एकजुट होकर एक ही आवाज उठाऐं कि कश्मीर व भारत के बीच हुए द्विपक्षीय समक्षौते का पूरी दुनिया सम्मान करे और पाकिस्तान को मजबूर करे कि वह कश्मीर का जबरन कब्जाया हिस्सा खाली करके वहाँ से निकल जाये। उल्लेखनीय है कि जहाँ भारत ने कश्मीर के साथ 1948 में हुए करार का सम्मान करते हुए आज तक कश्मीर में भारतीयों को अचल सम्पत्ति खरीदने की इज़ाज़त नहीं दी, जबकि कश्मीरियों को भारत में कहीं भी सम्पत्ति खरीदने की इज़ाज़त है, वहीं पाकिस्तान ने अधिकृत कश्मीर में जबरन सम्पत्तियाँ खरीदवाकर पंजाबियों को भारी मात्रा में बसा दिया है और स्थानीय जनता को डरा-धमकाकर कश्मीर के उस हिस्से का सामाजिक तानाबाना ही तार-तार कर दिया है। साफ ज़ाहिर है कि कश्मीर के आवाम के साथ झूठी हमदर्दी दिखाने वाला पाकिस्तान ही उनका असली दुश्मन है। इसलिए कश्मीर से उसे निकाले जाने के लिए पूरी दुनिया में दबाव बनाना चाहिए। अगर वह न माने तो न सिर्फ पाकिस्तान की सार्वजनिक भत्र्सना की जाये बल्कि उसको संयुक्त राष्ट्र से निकालने की भी धमकी दी जाये और उसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर कड़े प्रतिबंध लगाये जायें। आर्थिक तंगी, आतंकवाद, भ्रष्ट सेना, नाकारा सिविल प्रशासन और क्षेत्रीय गुटवाद से ग्रस्त पाकिस्तान की औकात नहीं है कि वो ऐसे दबावों को झेल पाये। जो पाकिस्तान अपने देश की दो करोड़ बाढ़ग्रस्त जनता को रसद तक नहीं पहुँचा सकता, वो ऐसे प्रतिबंधों के आगे कितने दिन ठहर पायेगा ?

इस तरह कश्मीर से पाकिस्तान का हटना और भारत के मुख्य राजनैतिक दलों का घाटी की राजनीति से अपने को समेटना, घाटी के लोगों में एक नये उत्साह का संचार करेगा और तब वे अपने क्षेत्र के विकास और राजनैतिक व्यवस्था के बारे में खुद निर्णय लेने में सक्षम होंगे। यह सही है कि घाटी के कट्टरपंथियों के चलते वहाँ से हिन्दुओं का जो जबरन पलायन हुआ उसको लेकर यह आशंका उठ सकती है कि ऐसी स्थिति में जम्मू कश्मीर रियासत के अल्पसंख्यकों का क्या हाल होगा जिनमें हिन्दु, बौद्ध, सिक्ख और ईसाई शामिल हैं। तो उसके बारे में रियासत की सरकार पर मानवाधिकार के दायरे में काम करने के लिए दबाव बनाया जा सकता है। यह दबाव जम्मू और लद्दाख की जनता भी बनायेगी, मीडिया भी और शेष भारत के लोग भी।

यह ऐसी सोच है जो देश में बहुत से लोगों को नाराज कर सकती है। वे इन विचारों को भारत विरोधी भी मान सकते हैं। पर कश्मीर के आज जो हालात हैं, उनसे निपटने का दूसरा क्या उपाय है? वैसे भी कश्मीर के वरिष्ठ नेता फारूख अब्दुल्ला का ताज़ा बयान भी यही कहता है कि कश्मीर का भविष्य और नियति भारत के साथ सुरक्षित है। हमें ‘‘आजादी नहीं स्वायता’’ चाहिए। हाँ एक उपाय और है कि फौज और पुलिस को गोली चलाने की खुली छूट दे दी जाये और हर सिर उठाने वाले का सिर कुचल कर दिया जाये। पर ऐसा तानाशाह सरकारों के अधीन या कट्टरपंथी देशों में तो हो सकता है, लोकतंत्र में सम्भव नहीं।

Sunday, August 22, 2010

‘पीपली लाइव’ ने खोली टी.वी. चैनलों की पोल

किरण राव और आमिर खान की नई फिल्म पीपली लाइवने टी.वी. समाचार चैनलों का बाजा बजा दिया। पूरी फिल्म में इन चैनलों की रिपोर्टिंग को लेकर जो भी दिखाया गया, वह दर्शकों को हंसाने के लिए काफी था। इनपुट एडिटर हो या एंकर पर्सन, रिपोर्टर हो या कैमरामैन, सबके सब इस फिल्म में विदूषक नजर आ रहे थे। मजे की बात ये कि फिल्म के शुरू में रस्म अदायगी की घोषणा, ‘इस फिल्म में सभी पात्र काल्पनिक हैं...के बावजूद यह साफ देखा जा सकता था कि भारत में चल रहे कौन से टी.वी. समाचार चैनलों और उनके कौन से सितारा एंकर पर्सनों का मजाक उड़ाया जा रहा है। ऐसा नहीं कि का¡मेडी शो की तरह अकारण फूहड़ वक्तव्यों से लोगों को हंसाने की कोशिश की गयी हो। जो कुछ दिखाया गया वह बिल्कुल वही था जो हम हर दिन, हर घंटे टी.वी.समाचार चैनलों पर देखते हैं। अन्तर केवल इतना था कि जो दिखाया जाता है, उसके आगे-पीछे की गतिविधि भी दिखा देने से समाचार संकलन की वर्तमान दुर्दशा का खुला प्रदर्शन हो गया। यह सब कुछ इतने सामान्य और सहज रूप में प्रस्तुत किया गया कि कहीं भी निर्माताओं पर आरोप नहीं लगाये जा सकता। फिर भी दर्शक हंसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे। इस दृष्टि से यह फिल्म बहुत सशक्त है जिसे समाचार चैनलों को गम्भीरता से लेना चाहिए।

पिछले हफ्ते ही दिल्ली के इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर में फाउण्डेशन फा¡र मीडिया प्रोफेशनल्स ने एक जोरदार बहस आयोजित की, जिसमें प्रिंट और टी.वी. के नामी चेहरे मौजूद थे। विषय था, सरकार का प्रस्तावित प्रसारण नियन्त्रक विधेयक। जहा¡ अधिकतर पत्रकारों ने सरकार की तीखी आलोचना की और ऐसे किसी भी कानून का विरोध किया जो समाचार प्रसारण की आजादी पर बंदिश लगाता हो, वहीं पत्रकारों में से ही अनेकों ने साफगोई से माना कि आज टी.वी. समाचारों का स्तर इतना गिर गया है और उसमें इतना छिछलापन आ गया है कि जनता का विश्वास इन चैनलों से उठता जा रहा है। चुनावों में एक दल द्वारा मोटे पैसे देकर टी.वी.चैनल का रूख अपने पक्ष में करवाना आम बात हो गयी है। व्यवसायिक प्रतिष्ठान भी विज्ञापन की तरह पैसा देकर अपने पक्ष में समाचार लगवा लेते हैं। चैनलों के सिरमौरों ने टी.आर.पी. का रोना रोया, तो श्रोता पत्रकारों ने टी.आर.पी. की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े किये। कुल मिलाकर यह साफ है कि सरकार कानून लाये या न लाये, टी.वी. चैनलों का मौजूदा रवैया जनता को स्वीकार्य नहीं है। खासकर समझदार जनता को। इसलिए इन चैनलों को साझे मंथन से अपने लिये मानदण्ड निर्धारित करने चाहिएं और उन पर अमल करने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए। वरना अभी तो पीपली लाइवजैसी फिल्मों और लाफ्टर शोमें ही टी.वी. समाचारों का मजाक उड़ रहा है, पर वह दिन दूर नहीं जब आम जनता भी इन चैनलों को लाफ्टर चैनल से ज्यादा कुछ नहीं समझेगी। टी.वी. जैसे सशक्त माध्यम के लिए यह आत्महत्या से कम न होगा।

पीपली लाइवमें दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा कर्जे में डूबे किसानों की आत्महत्या का उठाया गया। फिल्म के रिव्यू पढ़ने से जिन्हें लगता था कि यह फिल्म उबाऊ होगी या मदर इण्डियासरीखी आंसू बहाने वाली, उन्हें यह सुःखद अनुभव हुआ कि फिल्म काफी रोचक और मनोरंजक थी। किरण राव ने बड़ी खूबसूरती से देश की भयावह गरीबी और उससे जूझते एक लाचार परिवार की ह्रदय विदारक दास्तान को एक हल्की-फुल्की पेशकश से बेहद रोचक बना दिया। यहाँ तक कि फिल्म के पर्दे पर विषाद के क्षणों में भी दर्शक हँस रहे थे। इसका अर्थ यह नहीं कि निर्माताओं ने इतने संवेदनशील मुद्दे का मजाक उड़ाया है, बल्कि खासियत यह है कि गम्भीर बात इतनी सहजता से कही गयी कि दर्शकों के चेहरे पर हंसी और आंख में आंसू साथ-साथ झलक रहे थे। जिसके लिये किरण राव और आमिर खान व उनकी टीम बधाई की पात्र है। पिछले कुछ वर्षों में आमिर खान ने एक के बाद एक गम्भीर मुद्दों पर रोचक फिल्में बनाकर देश का ध्यान कुछ बुनियादी सवालों पर आकर्षित किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अपने शेष लम्बे जीवन में आमिर खान देशवासियों को इसी तरह सोचने पर मजबूर करने वाली किंतु रोचक फिल्में देते रहेंगे।

यहाँ यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि देश के मौजूदा माहौल में एक तरफ हमारे समाचार टी.वी.चैनल हैं, जो टी.आर.पी. का बहाना लेकर कचड़ा परोसने में लगे हुये हैं और दूसरी ओर हैं आमिर खान जैसे फिल्म निर्माता हैं जिन्होंने खुदी को इतना बुलंद किया है कि खुदा उनसे उनकी रज़ा पूछता है। यानि वे टी.आर.पी. की परवाह नहीं करते, अपनी बात जोरदारी से कहते हैं और फिर इंतजार करते हैं लोगों की प्रतिक्रिया का। जो अब तक उनके हक में गयी है। चाहे लगानहो, ‘तारे जमीन परहो या थ्री इडियटस्हो। साफ जाहिर है कि भारत की जनता इतनी मूर्ख नहीं कि समाचार चैनलों पर कचड़ा कार्यक्रम देखना चाहती हो। अगर उसे देश के गम्भीर सवालों पर सोचने को मजबूर करने वाले कार्यक्रम आमिर खान की तरह रोचक शैली में प्रस्तुत किये जायें तो टी.वी.चैनलों को टी.आर.पी. की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। पर उसके लिए शोध, विषय चयन और प्रस्तुति में गम्भीरता, अनुभव, ज्ञान, और धैर्य की जरूरत पड़ेगी, जिसका शायद आज हमारे टी.वी. संवाददाताओं व निर्माताओं के पास काफी टोटा है।

Sunday, August 15, 2010

हम कब सुधरेंगे ?

स्वतंत्रता दिवस पर शहीदों को नमन कर, देश की दुर्दशा पर श्मशान वैराग्य दिखा कर, देश वासियों को लंबे-चौड़े वायदों की सौगात देकर देश का भला नहीं हो सकता। सुजलाम्, सुफलाम्, शस्यश्यामलाम्, भारतभूमि  में किसी चीज की कमी नहीं है। षट् ऋतुएं, उपजाऊ भूमि, सूर्य, चन्द्र, वरूण की असीम कृपा, रत्नगर्भा भूमि, सनातन संस्कृति, कड़ी मेहनत कर सादा जीवन जीने वाले भारतवासी, तकनीकी और प्रबंधकीय योग्यताओं से सुसज्जित युवाओं की एक लंबी फौज, उद्यमशीलता और कुछ कर गुजरने की ललक, क्या यह सब किसी देश को ऊंचाईयों तक ले जाने के लिए काफी नहंh है?

फिर क्या वजह है कि खिलाडि़यों पर खर्चा करने की बजाय खेल के खर्चीले आयोजनों पर अरबों रूपया बर्बाद किया जाता है? कुछ हजार रुपये का कर्जा लेने वाले किसान आत्म हत्या करते हैं और लाखों करोड़ रुपये का बैंकों का कर्जा हड़पने वाले उद्योगपति ऐश। आधी जनता भूखे पेट सोती है और एफसीआई के गोदामों में करोड़ों टन अनाज सड़ता है। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया भी भ्रष्टाचार का नंगा नाच दिखा रहे हैं। नतीजतन आतंकवाद और नक्सलवाद चरम सीमा पर पहुंचता जा रहा है। सरकार के पास विकास के लिए धन की कमी नहीं है। पर धन का सदुपयोग कर विकास के कामों को ईमानदारी से करने वाले लोग व संस्थाये ंतो पैसे-पैसे के लिए धक्के खाते हैं और नकली योजनाओं पर अरबों रुपया डकारने वाले सरकार का धन बिना किसी रुकावट के खींच ले जाते हैं। ऐसे में स्वतंत्रता दिवस का क्या अर्थ लिया जाए? यही न कि हमने आजादी के नाम पर गोरे साहबों को धक्का देकर काले साहबों को बिठा दिया। पर काले साहब तो लूट के मामले में गोरों के भी बाप निकले। स्विटजरलैंड के बैंकों में सबसे ज्यादा काला धन जमा करने वालों में भारत काफी आगे है।

इसलिए जरूरत है हमारी सोच में बुनियादी परिवर्तन की। सब चलता है और ऐसे ही चलेगा कहने वाले इस लूट में शामिल हैं। जज्बा तो यह होना चाहिए कि देश सुधरेगा क्यों नहीं? हम ऐसे ही चलने नहीं देंगे। अब सूचना क्रांति का जमाना है। हर नागरिक को सरकार के हर कदम को जांचने परखने का हक है। इस हथियार का इस्तेमाल पूरी ताकत से करना चाहिए। सरकार में जो लोग बैठे हैं उन्हें भी अपने रवैये को बदलने की जरूरत है। एक मंत्री या मुख्यमंत्री रात के अंधेरे में मोटा पैसा खाकर उद्योगपतियों के गैर कानूनी काम करने में तो एक मिनट की देर नहीं लगाता। पर यह जानते हुए भी कि फलां व्यक्ति या संस्था राज्य के बेकार पड़े संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल कर सकती है, उसके साथ वही तत्परता नहीं दिखाता। आखिर क्यों? जब तक हम सही और अच्छे को बढ़ावा नहीं देंगे, उसका साथ नहीं देंगे, उसके लिए आलोचना भी सहने से नहीं डरेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा। नारे बहुत दिये जायेंगे पर परिणाम केवल कागजों तक सीमित रह जायेंगे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अगर अपने अधिकारियों के विरोध की परवाह करते हुए पांचवें दशक में आणंद (गुजरात) में वर्गीज कुरियन को खुली छूट न दी होती तो अमूल जैसा हजारों करोड़ का साम्राज्य कैसे खड़ा होता?

आम आदमी के लिए रोजगार का सृजन करना हो या देश की गरीबी दूर करना हो, सरकार की नीतियों में बुनियादी बदलाव लाना होगा। केवल आंकड़े ही नहीं साक्षात परिणाम देखकर भी नीति बननी चाहिए। खोजी पत्रकारिता के तीन दशक के अनुभव यही रहे कि बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार बड़ी बेशर्मी से कर दिया जाता है। पर सच्चाई और अच्छाई का डटकर साथ देने की हिम्मत हमारे राजनेताओं में नहीं है। इसीलिए देश का सही विकास नहीं हो रहा। खाई बढ़ रही है। हताशा बढ़ रही है। हिंसा बढ़ रही है। पर नेता चारों ओर लगी आग देखकर भी कबूतर की तरह आंखे बंद किये बैठें हैं। इसलिए फिर से समाज के मध्यम वर्ग को समाज के हित में सक्रिय होना होगा। मशाल लेकर खड़ा होना होगा। टीवी सीरियलों और उपभोक्तावाद के चंगुल से बाहर निकल कर अपने इर्द-गिर्द की बदहाली पर निगाह डालनी होगी। ताकि हमारा खून खौले और हम बेहतर बदलाव के निमित्त बन सके। विनाश के मूक दृष्टा नहीं। तब ही हम सही मायने में आजाद हो पायेंगे। फिलहाल तो उन्हीं अंग्रेजों के गुलाम हैं जिनसे आजादी हासिल करने का मुगालता लिये बैठे हैं। हमारे दिमागों पर उन्हीं का कब्जा है। जो घटने की बजाय बढ़ता जा रहा है।

यह बातें या तो शेखचिल्ली के ख्वाब जैसी लगतीं हैं या किसी संत का उपदेश। पर ऐसा नहीं है। इन्हीं हालातों में बहुत कुछ किया जा सकता है। देश के हजारों लाखों लोग रात दिन निष्काम भाव से समाज के हित में समर्पित जीवन जी रहे हैं। हम इतना त्याग ना भी करें तो भी इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने इर्द-गिर्द की गंदगी को साफ करने की ईमानदार कोशिश करें। चाहे वह गंदगी हमारे दिमागों में हो, हमारे परिवेश में हो या हमारे समाज में हो। हम नहh कोशिश करेंगे तो दूसरा कौन आकर हमारा देश सुधारेगा?

Sunday, August 8, 2010

कश्मीर में किया उमर अब्दुल्ला ने कबाड़ा

कश्मीर में आज 1989 से भी बदतर हालात हैं। अगर घाटी के लोगों की मानें तो इस बर्बादी के लिए जिम्मेदार हैं उमर अब्दुल्ला। जो अपने नौसिखियापन, अहंकारी स्वभाव और आवाम से संवाद न होने के कारण शांति की ओर बढ़ते हुए कश्मीर को इस हालत में ले आये हैं कि किसी को रास्ता नहीं सूझ रहा। जो नौजवान और महिलाएं कश्मीर की घाटी में जगह-जगह पुलिस और सेना पर पत्थर फेंक रहे हैं, कफर्यु का उल्लंघन कर रहे हैं और आजादी की मांग कर रहे हैं वो पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादी नहीं हैं। उनके हाथों में एक.के. 47 नहीं है। उनका कोई एक नेता नहीं है। वो किसी आतंकवादी संगठन या अलगावादी संगठन से सीधे-सीधे नियंत्रित नहीं हो रहे। यह वह पीढ़ी है जो इंटरनेट देखती है। इन्हें पता है कि पाकिस्तान के हालात कितने नाजुक हैं। पाकिस्तान से मिलकर इन्हें रोटी भी नसीब नहीं होगी। रोजगार तो दूर की बात है। इसलिए ये पाकिस्तान से मिलना नहीं चाहते पर इनका नेतृत्व इस वक्त गुण्डे और मवालियों के हाथों में है। जिनसे कोई बात नहीं की जा सकती।

पिछले 11 जून से घाटी में जो कुछ हो रहा है वह न होता अगर पिछले महीने उमर अब्दुल्ला के मंत्री अली मोहम्मद सागर ने सी.आर.पी.एफ. के खिलाफ भड़काऊ बयान न दिया होता। आक्रामक भीड़ को नियन्त्रित करने के दौरान सी.आर.पी.एफ. की गोली से एक नौजवान क्या मरा, मंत्री महोदय ने सभी टी.वी. चैनलों पर बयान दे डाला कि सी.आर.पी.एफ. बेकाबू हो गयी है। ऐसे गैर जिम्मेदाराना बयान देने वाले मंत्री को मुख्यमंत्री से फौरन फटकार मिलनी चाहिए थी। पर हुआ उल्टा। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सेवानिवृत्त जस्टिस बशीर खान को राज्य मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाकर पुलिस के खिलाफ जाँच शुरू करवा दी। जिससे उसका रहा सहा हौसला भी जाता रहा। नतीज़तन जम्मू कश्मीर पुलिस की रीढ़ बनकर खड़ी सी.आर.पी.एफ. पीछे हट गयी। केन्द्रीय सशस्त्र बल किसी राज्य में भेजा ही तब जाता है जब वहाँ का मुख्यमंत्री यह महसूस करे कि उसकी पुलिस हालात से निपटने में नाकाफी है। उमर अब्दुल्ला ने अपनी राज्य पुलिस के भी जो अधिकारी उपद्रवियों के विरूद्ध सख्त कार्यवाही कर रहे थे, उनके खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही और तबादले करने शुरू कर दिये। इस सबसे गुण्डे और मवालियों के हौसले बुलन्द हो गये। उन्होंने सात थाने जला दिये और जनता को भड़काने में जुट गये।

नेशनल कांफ्रेस के विधायक बताते हैं कि उमर अब्दुल्ला का रवैया एक घमण्डी मुख्यमंत्री का रहा है। जो जनता से मिलना तो दूर रहा, अपने विधायकों और अधिकारियों तक से आसानी से नहीं मिलते। इससे पूरे प्रशासन में उमर अब्दुल्ला के प्रति काफी आक्रोश है। वे जनता के बीच जाने में कतराते हैं और उनसे कोई संवाद नहीं करते। इसलिए आज कश्मीर की जनता पर उनकी पकड़ खत्म हो गयी है, जो कभी थी भी नहीं। उधर विपक्ष की नेता महबूबा मुफ्ती आग को हवा देने का काम कर रही हैं। वह तो चाहती ही हैं कि ये सरकार विफल हो और वे अगली सरकार बनायें। ऐसी हालात में जरूरत है फारूख अब्दुल्ला की, जो परिपक्व भी हैं और जनता से संवाद कायम करने में सक्षम भी। लोगों का उन पर भरोसा भी है। मौजूदा हालात में जैसे भी हो फारूख अब्दुल्ला को फौरन मुख्यमंत्री बनाना चाहिए। बनते तो वे शुरू में भी क्योंकि यह चुनाव उनकी लोकप्रियता पर जीता गया था। पर इंका के दबाव में उन्हें अपने बेटे के लिए कुर्सी छोड़नी पड़ी। फारूख भी मानते हैं कि कश्मीर के हालात को अब सुधारना सरल काम नहीं है। पर लंबे राजनैतिक अनुभव के कारण वे समाधान ढूंढने में सहायक हो सकते हैं।

दरअसल 9 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर केन्द्रीय सरकार ने बहुत बड़ी भूल की थी। उसके बाद कश्मीर के साथ जिन शर्तों पर विलय हुआ था उन्हें धीरे-धीरे दरकिनार किये जाने लगा। आपातकाल में फारूख अब्दुल्ला के साथ इंदिरा गांधी ने 1975 में जो समझौता किया उसने तो विलय के समय की शर्तों की पूरी तरह अवहेलना कर दी। जिससे घाटी में आक्रोष बढ़ता चला गया। अब हालात इतने बेकाबू हैं कि लगता है कश्मीर के मामले मेें सरकार को 1953 से पहले की शर्तों पर लौटना पड़ेगा, वरना ये युवा पीढ़ी आसानी से चुप बैठने वाली नहीं है। इन्हें आजादी चाहिए। पर यह स्वायत्ता पाकर भी उतने ही संतुष्ट होंगे। बंदूक के जोर से आम जनता के आंदोलन को कुचला नहीं जा सकता। उसके लिए तो राजनैतिक समाधान ही निकाले जाने चाहिए। ये बात दीगर है कि पिछले 50 वर्षों में केन्द्र सरकार ने कश्मीर की सरकार को कठपुतली बना कर रखा और सेना के जांबाज़ सिपाहियों को अपनी ढुलमुल नीतियों के कारण जनता के विरोध का सबब बनाया। सेना के जवान इस दोहरी नीति के चलते भारी मात्रा में शहीद हुए, अपमानित हुए और मानसिक यातना से गुजरे। आज भी उनके काम की दशा बहुत खतरनाक और तकलीफदेह है। सेना मानती है कि उसे सीधे कारवाही करने की अनुमति मिले तो वह हल निकाल सकती है। लेकिन फिर कश्मीर में लोकतंत्र की स्थापना करना और भी दुर्लभ हो जायेगा।

इसमें शक नहीं कि पाकिस्तान और उसकी खुफिया ऐजेंसी आईएसआई ने मौजूदा हालात की भूमिका तैयार करने में अपनी ताकत झोंकी है। पाकिस्तान कश्मीर को हड़पना चाहता है। पर यह सम्भव नहीं है। इसलिए उसे कश्मीर की आजादी में भी उतनी ही रूचि है। क्योंकि उसे मालूम है कि एक स्वतंत्र कश्मीर को नियंत्रित करना अधिक सरल होगा। ये बात दूसरी है कि तब संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं की दखलअंदाजी से अमरीका कश्मीर पर काबिज हो जायेगा। इसलिए  मौजूदा संकट को इस परिपेक्ष में भी देखने की जरूरत है ताकि इसकी गम्भीरता को कम करके न आंका जाए। इसलिए केन्द्रीय सरकार के लिए कश्मीर का फौरी समाधान ढूंढ़ना पहली प्राथमिकता है।

Sunday, August 1, 2010

सतर्कता आयोग की दुर्गति क्यों?

 केन्द्र सरकार के महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने और भ्रष्ट अधिकारियों के आचरण की जाँच करने का दायित्व केन्द्रीय सतर्कता आयोग पर है। 1998 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे व्यापक अधिकार देकर सी.बी.आई. व आयकर विभाग जैसी एजेंसियों के हर काम पर निगरानी रखने का जिम्मा भी सौंपा था। पर पारदर्शिता का दावा करने वाली डा¡. मनमोहन सिंह की सरकार केन्द्रीय सतर्कता आयोग को पंगु बनाने पर तुली है। तीन सदस्यीय इस आयोग में एक सदस्य भारतीय प्रशासनिक सेवा, दूसरे सदस्य भारतीय पुलिस सेवा व तीसरे सदस्य भारतीय बैंकिंग सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारियों में से चुने जाते हैं। आयोग पर काम का इतना बोझ है कि ये तीन अधिकारी भी मिलकर काम नहीं संभाल पाते। पर लगता है कि सरकार की इच्छा ही नहीं है कि सतर्कता आयोग मुस्तैदी से काम करे। वरना क्या वजह है कि गत् 2009 के नवम्बर महीने में केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सेवानिवृत्त हुए दो सदस्यों, श्रीमती रंजना कुमार व श्री सुधीर कुमार के पद इस जुलाई के अंत नहीं भरे गये। जबकि यह चयन प्रक्रिया इन पदो के रिक्त होने से पहले ही पूरी हो जानी चाहिए थी।

विनीत नारायण बनाम भारत सरकारमामले में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सतर्कता आयोग के सदस्यों के चयन की जो प्रक्रिया निर्धारित की है, उसमें केवल तीन लोगों को बैठक करनी होती है; प्रधानमंत्री, संसद में प्रतिपक्ष के नेता व केन्द्रीय गृहमंत्री। क्या ये तीनों दिल्ली में रहते हुए इतने भारी व्यस्त हैं कि गत आठ महीने में एक घण्टे का समय भी केन्द्रीय सतर्कता आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था के सदस्यों के चयन के लिए नहीं निकाल सकते? इस बैठक को बुलाने की जिम्मेदारी गृहमंत्रालय के कार्मिक विभाग देखने वाले राज्यमंत्री पृथ्वीराज चैहान की है। इस कोताही के लिए उनके पास कोई जबाव नहीं है। पत्रकारों द्वारा पिछले एक महीने में जब लगातार दबाव बनाया गया, तब कहीं जाकर 30 जुलाई को यह बैठक बुलाने की कवायद शुरु हुइ है। इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि अब जो नये सदस्य आयेंगे उन्हें वर्तमान मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा के साथ काम करने का एक महीने का भी समय नहीं मिलेगा। आगामी 6 सितम्बर को सेवानिवृत्त हो रहे श्री सिन्हा कैसे अपने नये साथियों को इस विभाग की संवेदनशील लम्बित फाइलों के बारे में बता पायेंगे? अगर पिछले नवम्बर में समय से यह नियुक्तियाँ हो जातीं तो नये सदस्यों को श्री सिन्हा के साथ 10 महीने तक काम करने का मौका मिलता। अब 6 सितम्बर से आयोग के तीनों ही सदस्य नये होंगे, जिससे आयोग के काम में काफी अड़चन आयsगी।

हम इस का¡लम में बहुत पहले जिक्र कर चुके हैं कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग को जो अमला दिया गया है, वह भी इसके दायित्वों को देखते हुए नाकाफी हैं। भ्रष्टाचार के मामले में दुनियाभर की सरकारों के आचरण पर निगाह रखने वाली संस्था ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनलकी रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया के भ्रष्टतम राष्ट्रों में से एक है। जाहिर है जहाँ भ्रष्टाचार इस कदर है वहाँ इस पर नियन्त्रण रखने वाले आयोग के काम का दायरा कितना बड़ जायेगा। आगामी राष्ट्रकुल खेलों को ही ले लीजिए। इनके आयोजन की तैयारी में हजारों करोड़ रूपया रात-दिन पानी की तरह बहाया गया है। पारदर्शिता और जबावदेही की सारी मर्यादाओं को ताक पर रखकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। तमाम मामले केन्द्रीय सतर्कता आयोग के पास पहुँच चुके हैं। ऐसे में एक सदस्यीय आयोग कितना बोझा उठा सकता है?

भारत में जितने भी संवैधानिक पद हैं, उन पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया है। जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त, केन्द्रीय सूचना आयुक्त, महालेखाकार आदि। पर केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सदस्यों का कार्यकाल मात्र 4 वर्ष रखा गया है। इसके पीछे क्या तर्क है, समझ के बाहर है? इस आयोग को भी अन्य आयोगों की तरह समान कार्यकाल क्यों नहीं दिया जा सकता?

जैन हवाला काण्ड के नाम से मशहूर मुकदमे की सुनवाई करते हुए जब सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि सी.बी.आई. लगातार प्रधानमंत्री कार्यालय से निर्देश लेती है और स्वतन्त्र व्यवहार नहीं कर पाती तो अदालत ने सी.बी.आई. की स्वायत्ता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उसे केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन किये जाने के निर्देश दिए। साथ ही यह भी निर्देश दिए कि कानून की निगाह में सब बराबरके सिद्धांत का पालन करते हुए किसी भी पद पर बैठे वरिष्ठ अधिकारी या मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत आने पर सी.बी.आई. को सरकार से अनुमति नहीं लेनी होगी। पर विडम्बना देखिए कि संसदीय समिति ने, इसमें सभी दलों के सांसद सदस्य होते हैं, सर्वोच्च न्यायालय के इस नियम की धज्जियाँ उड़ा दीं। नतीजतन कहने को तो सी.बी.आई. केन्द्रीय सतर्कता आयोग की निगरानी में कार्य करती है, पर वास्तव में उसकी स्थिति आज भी पूर्ववत् है। यानि उच्च पदस्थ अधिकारियों और मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जाँच करने की उसे छूट नहीं है। ऐसा करने से पहले सी.बी.आई. को प्रधानमंत्री कार्यालय से पूर्वानुमति लेनी होती है। विडम्बना यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय सी.बी.आई. की ऐसी सभी प्रार्थनाओं पर कान बहरे करके बैठा रहता है और सालों अनुमति प्रदान नहीं करता। नतीज़तन उच्च पदस्थ भ्रष्ट अधिकारी न सिर्फ अपने पद पर बैठे रहते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय के अघोषित सुरक्षा कवच में अपने अनैतिक कारनामों को डंके की चोट पर अंजाम देते रहते हैं। ऐसा अब तक के हर प्रधानमंत्री के कार्याकाल में होता आया है, चाहे वह यू.पी.ए. का रहा हो या एन.डी.ए. का। इतना ही नहीं पिछले दिनों इस आयोग से सरकार ने वह अधिकार भी छीन लिया जिसके तहत यह सी.बी.आई. को केस रजिस्टर करने का निर्देश देता था। ऐसे तमाम प्रमाण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि केन्द्र में सरकार में कोई भी दल हो, वो उच्च पदासीन व्यक्तियों के विरूद्ध भ्रष्टाचार की जाँच नहीं होने देना चाहता। इसलिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग की लगातार दुर्गति की जा रही है। पर पारदर्शिता के लिए पहचाने जाने वाले डा¡. मनमोहन सिंह को क्या हो गया है जो वे अपनी नाक के नीचे हो रही इस अन्धेर को अनदेखा किए बैठे हुए हैं?

Sunday, July 25, 2010

कियानी के बिना भारत पाक वार्ता बेमानी

अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लfoटन जब पाकिस्तान जाती हैं तो केवल विदेश मंत्री शाह महमूद कुरेशी से ही नहीं मिलती बल्कि पाकिस्तानी फौज के जनरल परवेज कियानी से भी मिलती हैं। साफ जाहिर है कि लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटने वाला अमेरिका यह जानता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र नाम का है असली ताकत आज भी फौज के हाथ में है। इसलिए राजनायिक शिष्टाचार से परे हटकर ये कवायद की जाती है। जबकि हमारे गृहमंत्री और विदेश मंत्री जब पाकिस्तान जाते हैं तो केवल अपने समकक्ष मंत्रियों से ही वार्ता करके लौट आते हैं। इसलिए नतीजा कुछ भी नहीं निकलता।

जहां तक विदेश मंत्री श्री कृष्णा के ताजा पाकिस्तान दौरे से उठे विवाद का प्रश्न है तो इसके पीछे कांग्रेस की अन्दरूनी उठा-पटक भी देखी जा रही है। क्या वजह है कि गृहमंत्री पी0 चिदाम्बरम का पाकिस्तान दौरा तो बड़ी सुगमता से, सौहार्दपूर्ण वातावरण में पूरा हो गया और कोई विवाद नहीं हुआ। जबकि विदेश मंत्री श्री कृष्णा की पाकिस्तान में ही किरकिरी हो गयी। हासिल तो वाजपेयी जी की यात्रा से आज तक हुई किसी भी यात्रा से कुछ नहीं हुआ और आसानी से भविष्य में कुछ हासिल होने की संभावना भी कम है। पर इस यात्रा के दौरान भारत के गृह सचिव जी. के. पिल्लई का आईएसआई के विरुद्ध बयान देना उचित नहीं था। यही बात यात्रा के बाद भी कही जा सकती थी। वैसे जो उन्होंने कहा उसमें नया कुछ भी नहीं था। आईएसआई की भूमिका के बारे में भारत हमेशा ही जोर से कहता रहा है। पर इंका के गलियारों में चर्चा है कि इस घटना के पीछे कोई और वजह है। कहा जा रहा है कि पी0 चिदाम्बरम गृहमंत्रालय से उकता गये हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद को लेकर वे जो कुछ करना चाहते थे, नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए वे अपना मंत्रालय बदलना चाहते हैं। उनकी इच्छा शुरू से वित्त मंत्रालय हासिल करने की रही है। पर प्रणव मुखर्जी जैसे भारी भरकम नेता के रहते उन्हें यह मंत्रालय मिलना संभव नहीं है। इसके बाद उनकी प्राथमिकता विदेश मंत्रालय हासिल करने की है। जिसमें वे अपनी हार्वड शैली में दुनिया भर में छवि बना सकते हैं। चर्चा है कि गृह सचिव के बयान का समय जानबूझ कर ऐसा रखा गया कि श्रीकृष्णा की स्थिति हास्यादपद बन जाए। वह बनी भी। अब इसमें चिदाम्बरम की राय शामिल थी या पिल्लई ने खुद ही यह पहल कर डाली यह तो ऊपर वाला ही जानता है।

वैसे यह विवाद न भी होता तो भी शाह महमूद कुरेशी कोई थाली पर व्यंजन परोसने वाले नहीं थे। आरोप उन्होंने भारत के प्रतिनिधि मंडल पर लगाया जबकि वे खुद लगातार आईएसआई से संपर्क साधे हुये थे और उसी के इशारे पर वार्ता कर रहे थे। आईएसआई नहीं चाहती कि भारत से कोई रिश्ता कायम हो। आईएसआई फौज के अधीन है और फौज का न तो लोकतंत्र में विश्वास है और न ही भारत के साथ मधुर संबंधों में। इसलिए वह हर उस प्रयास को विफल करने में लगी रहती है जिसमें दो देशों के रिश्तों को सुधारने की कोशिश की जाती है। दोनों मुल्कों का आवाम और काफी सारे सियासतदान दोनों मुल्कों के बीच अमन और चैन चाहते हैं। पर पाकिस्तान की फौज जानती है कि अगर इन दो मुल्कों के बीच अमन कायम हो गया तो उसकी सार्थकता ही नहीं बचेगी।

उधर अमरीका यह जानता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र का कोई वजूद नहीं है। इसलिए फौज से रिश्ता बना कर रखता है। दरअसल आईएसआई और तालिबान दोनों की ताकत के पीछे अमरीका का हाथ रहा है। अफगानिस्तान में रूसियों के दखल के बाद सीआईए ने तालिबान को खड़ा किया और इधर पाकिस्तानी फौज और आईएसआई को रसद देकर मजबूत किया। रूस के हटने के बाद तालिबान अमरीका के गले की हड्डी बन गया। अब अगर अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा साल के अंत तक अफगानिस्तान से अमरीकी फौजों की वापसी की अपनी घोषणा पर वास्तव में अमल करते हैं तो अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों के हटने से जो शून्य पैदा होगा उसे कौन भरेगा? जाहिर है कि अमरीका का विश्वास पाकिस्तान की फौज पर है। इसलिए अफगानिस्तान के राष्ट्रपति करजाई लगातार कयानी से मिल रहे हैं। जग जानता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी को कतई मंजूर नहीं करता। उसकी पहली शर्त होगी अफगानिस्तान से भारत के माल असबाब की रूखसती। मतलब यह की भारत ने करजाई को पढ़ाने लिखाने और बचाकर रखने की जो कवायद की वो बेकार गयी। भारत अफगानिस्तान को जो मदद दे रहा है वह भी गढ्ढे में गयी। अफगानिस्तान पर पाकिस्तानी फौज और उसकी ऐजेंट आईएसआई का कब्जा होगा। जिसके तालिबान से गहरे संबंध हैं। तालिबान आदतन लड़ाकू है। जब उन्हें अफगानिस्तान में लड़ने के लिए अमरीकी फौज नहीं मिलेगी तो वे कश्मीर की घाटी की तरफ रूख कर लेंगे। जैसा पहले होता आया है। ऐसे में पहले से ही आतंकवाद से धधकती कश्मीर की घाटी एक बार फिर आतंकवाद की आग में झौंक दी जायेगी। इस स्थिति से निपटने के लिए भारत को कई स्तरों पर तैयारी करनी होगी। इसलिए इन वार्ताओं से कुछ निकलने वाला नहीं है।