जहां तक विदेश मंत्री श्री कृष्णा के ताजा पाकिस्तान दौरे से उठे विवाद का प्रश्न है तो इसके पीछे कांग्रेस की अन्दरूनी उठा-पटक भी देखी जा रही है। क्या वजह है कि गृहमंत्री पी0 चिदाम्बरम का पाकिस्तान दौरा तो बड़ी सुगमता से, सौहार्दपूर्ण वातावरण में पूरा हो गया और कोई विवाद नहीं हुआ। जबकि विदेश मंत्री श्री कृष्णा की पाकिस्तान में ही किरकिरी हो गयी। हासिल तो वाजपेयी जी की यात्रा से आज तक हुई किसी भी यात्रा से कुछ नहीं हुआ और आसानी से भविष्य में कुछ हासिल होने की संभावना भी कम है। पर इस यात्रा के दौरान भारत के गृह सचिव जी. के. पिल्लई का आईएसआई के विरुद्ध बयान देना उचित नहीं था। यही बात यात्रा के बाद भी कही जा सकती थी। वैसे जो उन्होंने कहा उसमें नया कुछ भी नहीं था। आईएसआई की भूमिका के बारे में भारत हमेशा ही जोर से कहता रहा है। पर इंका के गलियारों में चर्चा है कि इस घटना के पीछे कोई और वजह है। कहा जा रहा है कि पी0 चिदाम्बरम गृहमंत्रालय से उकता गये हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद को लेकर वे जो कुछ करना चाहते थे, नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए वे अपना मंत्रालय बदलना चाहते हैं। उनकी इच्छा शुरू से वित्त मंत्रालय हासिल करने की रही है। पर प्रणव मुखर्जी जैसे भारी भरकम नेता के रहते उन्हें यह मंत्रालय मिलना संभव नहीं है। इसके बाद उनकी प्राथमिकता विदेश मंत्रालय हासिल करने की है। जिसमें वे अपनी हार्वड शैली में दुनिया भर में छवि बना सकते हैं। चर्चा है कि गृह सचिव के बयान का समय जानबूझ कर ऐसा रखा गया कि श्रीकृष्णा की स्थिति हास्यादपद बन जाए। वह बनी भी। अब इसमें चिदाम्बरम की राय शामिल थी या पिल्लई ने खुद ही यह पहल कर डाली यह तो ऊपर वाला ही जानता है।
वैसे यह विवाद न भी होता तो भी शाह महमूद कुरेशी कोई थाली पर व्यंजन परोसने वाले नहीं थे। आरोप उन्होंने भारत के प्रतिनिधि मंडल पर लगाया जबकि वे खुद लगातार आईएसआई से संपर्क साधे हुये थे और उसी के इशारे पर वार्ता कर रहे थे। आईएसआई नहीं चाहती कि भारत से कोई रिश्ता कायम हो। आईएसआई फौज के अधीन है और फौज का न तो लोकतंत्र में विश्वास है और न ही भारत के साथ मधुर संबंधों में। इसलिए वह हर उस प्रयास को विफल करने में लगी रहती है जिसमें दो देशों के रिश्तों को सुधारने की कोशिश की जाती है। दोनों मुल्कों का आवाम और काफी सारे सियासतदान दोनों मुल्कों के बीच अमन और चैन चाहते हैं। पर पाकिस्तान की फौज जानती है कि अगर इन दो मुल्कों के बीच अमन कायम हो गया तो उसकी सार्थकता ही नहीं बचेगी।
उधर अमरीका यह जानता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र का कोई वजूद नहीं है। इसलिए फौज से रिश्ता बना कर रखता है। दरअसल आईएसआई और तालिबान दोनों की ताकत के पीछे अमरीका का हाथ रहा है। अफगानिस्तान में रूसियों के दखल के बाद सीआईए ने तालिबान को खड़ा किया और इधर पाकिस्तानी फौज और आईएसआई को रसद देकर मजबूत किया। रूस के हटने के बाद तालिबान अमरीका के गले की हड्डी बन गया। अब अगर अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा साल के अंत तक अफगानिस्तान से अमरीकी फौजों की वापसी की अपनी घोषणा पर वास्तव में अमल करते हैं तो अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों के हटने से जो शून्य पैदा होगा उसे कौन भरेगा? जाहिर है कि अमरीका का विश्वास पाकिस्तान की फौज पर है। इसलिए अफगानिस्तान के राष्ट्रपति करजाई लगातार कयानी से मिल रहे हैं। जग जानता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी को कतई मंजूर नहीं करता। उसकी पहली शर्त होगी अफगानिस्तान से भारत के माल असबाब की रूखसती। मतलब यह की भारत ने करजाई को पढ़ाने लिखाने और बचाकर रखने की जो कवायद की वो बेकार गयी। भारत अफगानिस्तान को जो मदद दे रहा है वह भी गढ्ढे में गयी। अफगानिस्तान पर पाकिस्तानी फौज और उसकी ऐजेंट आईएसआई का कब्जा होगा। जिसके तालिबान से गहरे संबंध हैं। तालिबान आदतन लड़ाकू है। जब उन्हें अफगानिस्तान में लड़ने के लिए अमरीकी फौज नहीं मिलेगी तो वे कश्मीर की घाटी की तरफ रूख कर लेंगे। जैसा पहले होता आया है। ऐसे में पहले से ही आतंकवाद से धधकती कश्मीर की घाटी एक बार फिर आतंकवाद की आग में झौंक दी जायेगी। इस स्थिति से निपटने के लिए भारत को कई स्तरों पर तैयारी करनी होगी। इसलिए इन वार्ताओं से कुछ निकलने वाला नहीं है।
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