ऐसे मामलों की फेहरिस्त बहुत लंबी है जब अपराधी किसी पैसे वाले, बड़े राजनेता या नामी परिवार का कुलदीपक होता है तो कितने भी गवाह क्यों न हों, आखिर तक टिके नहीं रहते। अपने बयान से मुकर जाते हैं। बार-बार बयान बदलते हैं। साफ जाहिर है कि उन्हें मुंह मांगी रकम देकर खरीद लिया जाता है या उन्हें डरा धमकाकर खामोश कर दिया जाता है। इसलिए अब सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामले में संवेदनशील हो गया है। हाल ही में माननीय न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘हमारे देश में गवाहों की सुरक्षा की बहुत जरूरत है।’’
संजीव नंदा के बी.एम.डब्ल्यू मामले में चश्मदीद गवाह सुनील कुलकर्णी को न्यायालय में कड़ी फटकार लगाई गई और उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने के आदेश दिये गये। अदालत को इस बात पर नाराजगी है कि सुनील कुलकर्णी ने इस मामले में बार-बार बयान बदले हैं। भारतीय नौसेना के पूर्व एडमिरल के पोते संजीव नंदा पर आरोप है कि उसने 10 जुलाई, 1999 की रात अपनी बी.एम.डब्ल्यू कार से दिल्ली की लोदी रोड पर 6 लोगों को कुचल कर मार डाला। हथियारों के सौदे में बडे स्तर का अंतर्राष्ट्रीय कारोबार करने वाले नंदा परिवार के इस नौनिहाल को लेकर देश में बहुत बहस चली। गवाह के मुकर जाने से अब संजीव के बरी होने का समय आ गया है।
दक्षिणी दिल्ली के एक पाॅश इलाके में जैसिका लाल की हत्या कुलीन लोगों की शराब पार्टी के बीच दर्जनों चश्मदीद गवाहों की मौजूदगी में हुई। जिनमें राजनेता, पुलिस आधिकारी, नामी वकील व दिल्ली की मशहूर हस्तियां शामिल थीं। पर 29 गवाहों के मुकर जाने से इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति का पोता मनु शर्मा बरी हो गया। यही बात 2002 के वदोदरा के साम्प्रदायिक दंगे के मशहूर बेस्ट बेकरी केस में भी हुई। पूर्व सांसद अहसान जाफरी की हत्या के मामले में चश्मदीद गवाह जाहिरा शेख ने बार-बार बयान बदल कर मामले को पेचीदा बना दिया। उसे अदालत की खासी फटकार मिली। इतना ही नहीं दिल्ली के एक छोटे व्यापारी ललित सुनेजा की पत्नी वीना सलूजा अपने ही पति की हत्या के मामले में अपने बयान से मुकर गई। नतीजतन अंडर वल्र्ड सरगना बबलू श्रीवास्तव इस मामले में बरी हो गया।
इस देश में बेगुनाह गरीबों को बरसों जेल के सीखचों में डालकर रखा जाता है। उनके खिलाफ आरोप पत्र तक दाखिल नहीं होते। आम आदमी को न्याय के लिए बरसों अदालतो ंके धक्के खाने पड़ते हैं। पर रईसजादों के अपराधों पर पर्दा डालकर उन्हें जल्दी से जल्दी बरी करा लिया जाता है। क्योंकि इन मुकदमों के गवाहों को अपराधी पक्ष द्वारा ‘मैनेज’ कर लिया जाता है। चूंकि इन गवाहों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए भी कुछ गवाह मुकर जाते हैं। कुछ बरस पहले मैं एक व्याख्यान देने कोलकाता गया। मेरे मेजबान का भतीजा चार्टड एकाउंटेंड था और बेहद भयभीत था। उसे धनबाद के कोयला खान माफिया के खिलाफ रांची की अदालत में सीबीआई की तरफ से गवाही देनी थी। वो जाने से घबरा रहा था। क्योंकि खान माफिया ने उसे फोन पर जान से मारने की धमकी दी थी। इधर सीबीआई अदालत में पेश न होने पर उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की धमकी दे रही थी। उसकी पत्नी रो-रोकर बेहाल थी। मैंने सीबीआई के तत्कालीन निदेशक श्री त्रिनाथ मिश्रा से वहीं से बात की और उनसे अनुरोध किया कि इस व्यक्ति को कोलकाता से रांची सुरक्षित लाने ले जाने की जिम्मेदारी उनके क्षेत्रीय अधिकारी सुनिश्चित कर दें। यह व्यवस्था हो गई और वह अगली तारीख पर गवाही दे आया। पर ऐसी व्यवस्था हर उस गवाह के लिए नहीं होती जिसे ऐसी विषम परिस्थतियों का सामना करना पड़ता है। एक तरफ कुंआ दूसरी तरफ खाई। गवाह करे तो क्या करे?
आपराधिक कानून में गवाह एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष होता है। हत्या व बलात्कार जैसे संगीन जुर्मों के अपराधी भी गवाह के अभाव में अक्सर छूट जाते हैं। जांच ऐजेंसियों को मुकदमे को अंतिम परिणाम तक ले जाने के लिए अपराध के सबूतों के साथ गवाहों को भी ढू़ंढने की भारी कवायद करनी पड़ती है। कानून की प्रक्रिया की जटिलता के चलते आसानी से कोई गवाह बनने को तैयार नहीं होता। उसे डर होता है कि गवाह बनकर उसकी जिंदगी बरबाद हो जायेगी। उसके लिए मुश्किलें बढ़ जायेंगी। ऐसे में अगर कुछ लोग हिम्मत करके अपनी अंतरआत्मा की आवाज पर गवाही देने को तैयार हो जाते हैं तो समाज को उनका आभार मानना चाहिए। कानून की प्रक्रिया को चलाने में मदद देने वाले इन लोगों को यह आश्वासन मिलना चाहिए कि उन्हें गवाही देकर परेशानी में नहीं डाला जायेगा। इतना भी न हो तो कम से कम उनकी सुरक्षा की व्यवस्था तो सरकार को करनी ही चाहिए।
ऐसा नहीं है कि देश के न्यायविद्ों को इस समस्या का अहसास नहीं है। भारत के विधि आयोग की 14वीं, 154वीं व 172 वीं रिपोर्ट में गवाहों की सुरक्षा को लेकर कई सुझाव दिये गये। जिन पर कायदे से अमल नहीं किया गया। 2003 में एक मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इस देश में गवाहों की सुरक्षा के लिए न तो कोई कानून है और न ही केन्द्र और राज्य सरकारों ने कोई नीति ही बनाई है।
कई बार यह बात उठी कि ऐसे संनसनीखेज मामलों में, जिनमें ताकतवर लोग अपराधी हों, गवाहों की पहचान को छिपा दिया जाए। पर न्यायाविद् इससे सहमत नहीं है। कानून के मुताबिक अपराधी को भी गवाह से अदालत में सवाल पूछने को हक होता है। अगर गवाह की पहचान छिपा दी जायेगी तो कानून की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होगी। इसलिए मौजूदा व्यवस्था में ही गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के कानूनी और प्रशासनिक कदम उठाने की जरूरत है। हाई प्रोफाइल मुकदमों में देश की जनता के सामने व मीडिया में हो रही ऐसे मुकदमों की किरकिरी से सबक लेकर व सर्वोच्च न्यायालय की इस पहल से केन्द्र व राज्य सरकारें अब इस गंभीर मुद्दे की उपेक्षा नहीं कर सकती। उन्हें गवाहों की सुरक्षा के लिए कानून बनाना ही होगा। यह बात दीगर है कि कानून बनने के बाद उसे लागू करवाना भी आसान नहीं होगा। पर पहले आगाज़ तो हो, अंजाम फिर देखा जायेगा।