दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से समलैंगिकता को लेकर देश में एक नई बहस छिड़ गई है। नाज़ फाउण्डेशन वाले और समलैंगिक जीवन जीने वाले इस निर्णय से बेहद उत्साहित हैं। उन्हें खुशी है कि अब वे अपने सम्बन्धों को खुलकर जी सकेंगे। दूसरी तरफ अनेक धर्माचार्य इसके विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं। बाबा रामदेव से लेकर मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई सभी सम्प्रदायों के धर्म गुरूओं ने साझे मंच से इसका विरोध शुरू कर दिया है। उनका तर्क है कि अप्राकृतिक यौनाचर अनैतिक कृत्य है जिसे वैधानिक छूट नहीं दी जा सकती। दूसरे भी अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों व कुछ राजनेताओं ने दिल्ली उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरूद्ध जोरदार हमला बोला है। रोचक बात यह है कि हमला बोलने वाले इन लोगों में एक बड़े नेता ऐसे भी हैं जिन्हें कुछ दशक पहले अप्राकृतिक यौनाचार के कारण अपने दल के जयपुर कार्यालय से निकाल दिया गया था। सार्वजनिक जीवन में दोहरे मापदंड रखना आम बात है। सारी दुनिया में अगर अप्राकृतिक मामलों की जाँच गहराई से जाँच की जाए तो उसमें धर्माचार्यों की संख्या कम नहीं रहेगी। एक कृष्णभक्त संस्था के धर्मगुरू किशोरों के साथ यौनाचार के आरोप में अमरीका में एक बड़ा मुकदमा हार चुके हैं और उन्हें सैंकड़ों करोड़ रूपए का मुआवजा देना पड़ रहा है। फौज, पुलिस और जल सेना में जहाँ स्त्री संग संभव नहीं होता, इस तरह के यौनाचार के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या अप्राकृतिक यौनाचार नैतिक रूप से उचित है? क्या इसे कानूनी मान्यता दी जा सकती है? क्या इस विषय पर इस तरह खुली बहस की आवश्यकता है? क्या अप्राकृतिक यौनाचार से समाज में एड्स जैसी बीमारी बढ़ रही है?
जहाँ तक नैतिकता का सवाल है, इसके मापदंड अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होते हैं। फिर भी यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अप्राकृतिक यौनाचार एक स्वस्थ मानसिकता का परिचायक नहीं। किसी व्यक्ति के इस तरफ झुकने के कारण जो भी रहे हों पर इस तरह की मानसिकता वाले लोग समाज में अटपटे तो लगते ही हैं। भले ही उसका असर बहुत सीमित रहता हो। हाँ, इस कृत्य को नैतिक बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। पर जिस तरह समाज में ज्यादातर लोग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग स्तर पर नैतिक या अनैतिक आचरण करते हैं, ऐसे ही सैक्स के मामले में भी अलग-अलग स्तर हो सकते हैं। सवाल है कि कोई समलैंगिक है या विषम लैंगिक यह समाज में मुक्त चर्चा का विषय क्यों होना चाहिए? क्या पति-पत्नी के शयन कक्ष के रिश्तों पर सड़कों पर बहस होती है? अगर नहीं तो दो युवकों या युवतियों के निजी सम्बन्ध को लेकर इतना बवाल मचाने की क्या जरूरत है?
दरअसल यह उसी पश्चिमी मानसिकता की देन है जो 364 दिन तो अपने माँ-बाप को ‘ओल्ड ऐज होम’ में पटक देती है और एक दिन ‘मदर्स डे’ या ‘फादर्स डे’ का जश्न मनाकर अपने मातृ या पितृ प्रेम का इजहार करती है। उनके पोस्टरों पर छपा होता है ‘इफ यू लव समवन - शो इट’। हमारे देश में भी समलैंगिकता को लेकर साहित्य, चित्र व वास्तुकला उपलब्ध है। खुजराहो के मन्दिर में ही इस तरह का एक शिल्प है जहाँ गाइड बताते हैं कि यह गुरू व शिष्य में और एक सिपाही व घोड़े में अप्राकृतिक यौनाचार हो रहा है। पर इस विषय पर चर्चा करने की या उस पर शोर मचाने की हमारे यहाँ कभी प्रथा नहीं रही। आज भी अगर सर्वेक्षण किया जाए तो इस तरह का यौनाचार करने वालों की संख्या नगण्य है।
जहाँ तक अप्राकृतिक यौनाचार से एड्स फैलने का खतरा है तो इस भ्रम को बार-बार वैज्ञानिक रूप से झूठ सिद्ध किया जा चुका है। कुन्नूर (केरल) की एक संस्था ने तो नाको को बार-बार नाकों चने चबवाए हैं। नाको का भारत में एड्स मरीजों की संख्या के सम्बन्ध में बार-बार अपने आँकड़ों का बदलना इसे सिद्ध करता है।
नाज़ फाउण्डेशन ने जब यह याचिका दाखिल की तो उनका कहना था कि वे समलैंगिकों पर हो रहे पुलिस अत्याचार को रोकने के लिए यह कोशिश कर रहे हैं। अगर यह कोशिश संजीदगी से अपने मकसद को हासिल कर लेती है तो शायद इतना बवाल न मचता। पर अब तो ऐसा लगता है कि यह विषय काफी दिनों तक चर्चा में रहेगा और सैक्स को उद्योग की तरह चलाने वाले लोग इस माहौल का फायदा उठाते रहेंगे।
जरूरत इस बात की है कि इस पूरे मामले पर समाज कल्याण मन्त्रालय एक गहन अध्ययन करवाकर इन लोगों की समस्याओं का व्यवहारिक निदान खोजने का प्रयास करे। जो जैसे जीना चाहता है जिए, पर उसका भौंडा प्रदर्शन न हो। वैसे भी लोग अपने निजी जीवन में क्या करते हैं, यह कोई सड़क पर बताने नहीं आता। इसे सामाजिक दायरों में बहस का विषय न बनाया जाए। यह ठीक वही बात हुई कि देश में 80 फीसदी लोग पीने के गन्दे पानी के कारण बीमार पड़ते हैं पर देशभर में हल्ला एड्स का मचा हुआ है। न जाने कैसी महामारी आ गई जो पिछले 10 वर्षों से स्वास्थ्य मन्त्रालय की सबसे बड़ी प्राथमिकता बनी हुई है। मजाक ये कि अगर नाको के 10 साल पुराने आँकड़े देखें तो अब तक भारत में सारी आबादी को एड्स से मर जाना चाहिए था। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और न होगा। सारा खेल कुछ और ही है। इसी तरह समाज में बढ़ते सैक्स और हिंसा पर मीडिया में बवाल मचाकर एक पूरा उद्योग फल-फूल रहा है। वह उद्योग एड्स जैसे मुद्दों को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करता रहता है।
इसलिए इस पूरे मामले को भी इसी दृष्टि से समझना चाहिए। हमारे सामने इससे कहीं गंभीर समस्याऐं मुँह बाएँ खड़ी हैं और हम उनकी तरफ देख भी नहीं रहे।
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