13-07-2008_RP |
इस तरह धरती का फटना और भवनों का जमीन में समाना कोई साधारण घटना नहीं है। यह संकेत है इस बात का कि हमारी धरती बीमार है। जिसका इलाज फौरन किया जाना है। नहीं तो मर्ज बढ़ जाएगा। धरती की इस बीमारी का कारण भू-जल का निरन्तर, अविवेकपूर्ण व आपराधिक दोहन है। आज शहर हो या गांव हर ओर सबमर्सिबल पंप लगाने की होड़ मची है। बहुत आसान उपाय है जल संकट से जूझने का। दो, चार, छः इंच चैड़ी और सौ-दो सौ फुट गहरी बोरिंग करवाओ उस पर सबमर्सिबल पंप लगा दो। फिर तो खेत खलियान और घर बैठे गंगा बहने लगती है। कहां तो एक-एक बाल्टी पानी की किल्लत और कहां पानी पर कोई रोक ही नहीं। चाहें जितना बर्बाद करो। बिना मेहनत के एक बटन दबाते ही आपके पानी की टंकी लबा-लब भर जाती है। इसलिए हमारा पानी का उपभोग पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया है। पर इस अविवेकपूर्ण दोहन ने पृथ्वी के भीतर जमा जल के विशाल भण्डारों को पिछले दशक में तेजी से खाली कर दिया है। जिस कारण पृथ्वी के भीतर बहुत बड़े-बड़े वैक्यूम पैदा हो गए हैं। यूं समझा जाए कि धरती की जिस परत पर हमारे घर और भवन खड़े हैं उसके कुछ नीचे ही गुब्बारेनुमा हवा के खोखले विशाल कक्ष बन गए हैं। पृथ्वी में थोड़ी सी भी भूगर्भीय हलचल होते ही ऊपर की सतह फट जाती है। उस पर बने भवन या तो सीधे सरक कर नीचे चले जाते हैं या टूट कर गिर जाते हैं। ऐसी घटनाएं अब तेजी से बढ़ेंगी। क्योंकि अभी तो इसका आगाज होना शुरू हुआ है।
पानी तो पहले भी पृथ्वी के अंदर से ही लिया जाता था। पर उसे निकालने के तरीके बहुत मानवीय थे जैसे कुंआ या रहट। मानवीय इसलिए कि मनुष्य अपनी आवश्यकतानुसार अपने या अपने पशुओं के श्रम से जल निकालता था और उसका किफायत से उपयोग करता था। पर अब बिजली या डीजल के पंप अन्धाधुंध पानी निकालते हैं। किसान भी कृषि की आवश्यकता से ज्यादा पानी खींच लेता है। रासायनिक उद्योग और शीतलपेय कंपनियां भी बहुत बेदर्दी से भू-जल का दोहन कर रहे है। इसलिए धरती कराह उठी है।
पहले धरती की सतह पर जो जल फैलता था उसका एक भाग भाप बनकर आकाश में चला जाता था और दूसरा रिस-रिस कर पृथ्वी के भीतर। इस तरह भू-जल की कुछ मात्रा वापिस स्रोत तक पहुंच जाती थी। पर रासायनिकों, साबुन, डिटर्जेंट, फर्टीलाइजर, रासायनिक खाद और कारखानों से बहकर नदी नालों में जाने वाले तेल युक्त गंदे पानी ने पृथ्वी की सतह पर एक ऐसी तबाही मचाई है जो पिछले हजारों सालों में नहीं मची थी। इस सब ने और इसके साथ ही प्लास्टिक की थैलियों ने पृथ्वी की सतह पर जितने भी स्वभाविक छिद्र थे उन सबको सील कर दिया है। पूरी तरह बंद कर दिया है। अब सतह का जल धरती के भीतर रिस कर नहीं पहुंचता। पहुंचता भी है तो बहुत थोड़ी मात्रा में।
पृथ्वी फटे न। सतह पर बने भवन उजड़े न। नगर और गांव पानी के संकट से जूझे न। भू-जल का स्तर घटे न। इसके लिए वही करना होगा जो इस समस्या का कारण है। यानी साबुन, रासायनिकों और फर्टीलाइजरों का प्रयोग बंद करना होगा। धरती के जल का दोहन तेजी से घटाना होगा। आधुनिक बाथरूमों की संरचना बदलनी होगी। जैसे जापान कर रहा है। वहां अब शौच के बाद पानी का फ्लश नहीं चलता बल्कि हवा के सक्शन से सीट साफ हो जाती है। यह सब करना ही होगा वरना अभी तो धरती ने बीमारी के लक्षण दिखाए हैं फिर प्रलय का तांडव भी दिखा देगी।
सवाल उठता है कि जानते सब है।ं लोग भी, कारखानेदार भी, किसान भी और सरकार भी। पर कोई पहल नहीं करता। विपक्षी दल परमाणुसंधि से लेकर घोटालों तक पे आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पर ऐसे बुनियादी सवालों की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। इसलिए पहल जनता को ही करनी होगी। आजकल लखनऊ के लोग और आला अफसर मिलकर गोमती नदी में उतर गए है और टोकरी, फावड़े व जाल लेकर इस प्रदूषित नदी का जल रोज साफ कर रहे हैं। कितने ही शहरों में प्लास्टिक के थैलों के इस्तेमाल पर स्थानीय समाजिक व व्यापारिक संगठनों व निकायों ने पाबंदी लगा दी है। जिससे उनका पर्यावरण तेजी से सुधरा है।
आज भारत में ही नहीं दुनिया में हर ओर पानी के बढ़ते संकट पर चिंता व्यक्त की जा रही है। पर ठोस कदम उठाने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। वक्त ऐसा आ गया है कि हर शहर और गांव के लोग इन सवालों पर संगठित होकर आगे आए और प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ को पूरी ताकत से रोकने का प्रयास करें। पहले कहा जाता था कि हम यह अच्छा कार्य अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए कर रहे हैं। पर अब जिस तेजी से विनाश हो रहा है उससे साफ जाहिर है कि हम जो भी सही कदम उठाएंगे उसका परिणाम अपने ही जीवन काल में देख लेंगे। लेख को पढ़कर दो मिनट का मौन चिंतन और जीने का वही ढर्रा-यह तो श्मशान वैराग्य हुआ। मजा तो तब है जब हम अपनी जिंदगी में पानी का इस्तेमाल घटाएं और अपने हाथ पानी के किसी भी स्रोत को प्रदूषित न होने दें। ’मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर लोग मिलते गए और कारवां बनता गया।’