Rajasthan Patarika 15 Mar 2009 |
कहने को तो भाजपा हिन्दुओं की हिमायती पार्टी है। जिसका मूल एजेंडा भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना था और दबे स्वर में उसके समर्थक आज भी यही मानते हैं। पर वास्तव में भाजपा का नेतृत्व काफी भ्रमित है। राम जन्मभूमि आन्दोलन के बाद से भाजपा का नेतृत्व अपनी दृष्टि और नीति स्पष्ट नहीं कर पाया है। कभी हिन्दुत्व की तरफ झुकता है तो कभी धर्मनिरपेक्षता की भाषा बोलता है। अपने ही बयानों को बार-बार बदलता है। इससे दोनों पक्ष नाराज होते हैं। हिन्दुओं को लगता है कि भाजपा का नेतृत्व ईमानदार नहीं है और धर्मनिरपेक्षतावादियों को लगता है कि यह उसका छद्म रूप है। असली चेहरा तो वही है जो रामजन्मभूमि आन्दोलन के समय दिखा था। बजरंग दल, विहिप और संघ से जुड़े दूसरे कई संगठन अक्सर देश में हिन्दुत्व के नाम पर जो हंगामे खड़े करते हैं उससे न तो हिन्दुत्व का भला होता है और न ही भाजपा का। इसके विपरीत भाजपा की छवि हर बार बदरंग हो जाती है। संदेश यही जाता है कि इन सब हंगामों के पीछे भाजपा नेतृत्व की मूक सहमति है।
दरअसल भाजपा नेतृत्व ने कभी भी हिन्दुत्व की मूल भावना और वैदिक सिद्धांतों का न तो गहराई से पालन किया और न ही उनके प्रति उसके मन में कोई आस्था है। क्या वजह है कि जिस वैदिक सिद्धांत को रूस के कम्यूनिस्ट, अमरीका के यहूदी और यहाँ तक कि मुस्लिम देशों के भी तमाम पढ़े-लिखे नौजवान सहजता से स्वीकार लेते हैं और कुछ तो उनका आचरण भी करने लगते हैं, फिर वही सिद्धांत इतने सतही कैसे हो जाते हैं कि उन पर देश में हिंसा और बवेला मच जाए। पिछले दिनों मेरी चर्चा कोयम्बटूर में रहने वाले फ्रांसीसी मूल के यहूदी भारतविद् श्री मिशेल से हो रही थी। श्री मिशेल अरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी से 1977 से जुड़े हैं और भारत के अतीत के प्रति उनकी गहरी आस्था है, गहरा शोध है। उनका भी यह मानना था कि भाजपा वैदिक मूल्यों को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत न कर पाने के कारण बार-बार आलोचना का शिकार होती है। भारत की सनातन परंपरा को पुनस्र्थापित करने के लिए कुछ ठोस नहीं कर पाती। अगर सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों को सहजता से आगे बढ़ाया जाये तो सारी दुनिया उनका पालन करने लगेगी।
क्या वजह है कि बिना तलवार, बिना प्रचार व बिना मिशनरी भावना के अमरीका के पाँच करोड़ लोग नियमित योगाभ्यास करते हैं? यूरोप के हर शहर में योग की कक्षायें चलती हैं? बाबा रामदेव के प्रवचनों को पाकिस्तान के लाखों नागरिक सुनते और पालन करते हैं? आयुर्वेद हो, खगोलशास्त्र हो, पाकशास्त्र हो या विज्ञान के अनेक अन्य क्षेत्र, अमरीका, जर्मनी, जापान, रूस, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देश दशाब्दियों से इनके गहन अध्ययन में जुटे हैं? धीरे-धीरे सनातन धर्म की अवधारणाओं और सिद्धांतों को विश्व स्वीकार करता जा रहा है? यहाँ तक कि आज विश्वभर में फैली आर्थिक मंदी का समाधान भी वैदिक जीवन पद्धति में उपलब्ध है। अगर इस ज्ञान को राजनैतिक महत्वकांक्षा से अलग रखकर बहुजन हिताय समाज के आगे प्रस्तुत किया जाता तो भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों का जनाधार देश की भौगोलिक और राजनैतिक सीमाओं से पार भी पहुँच जाता।
भाजपा कहेगी कि वे समाज सुधारक नहीं हैं, राजनैतिक दल हैं। राजनीति का उद्देश्य सत्ता हासिल करना होता है। जिसके लिए हर हथकंडा जायज है। तो फिर प्रश्न उठेगा कि सत्ता उसे मिल कहाँ पाती है? बड़ी मुश्किल से 1998 में सत्ता मिली तो ऐसी कि कुछ भी करने की आजादी नहीं थी। अबकी बार चुनाव में वैसे हालात भी नजर नहीं आते। फिर तो वही हाल हुआ कि दुविधा में दोउ गये, माया मिली न राम!
जो बात भाजपा पर लागू होती है, वही इस देश के बुद्धिजीवियों और मीडिया पर भी लागू होती है। जो कुछ सनातन है, वह पोंगापंथी है, साम्प्रदायिक है और आधुनिक भारत के लिए निरर्थक है। अंग्रेजों की दी इस सोच से भारत का बुद्धिजीवी आजादी के 60 वर्ष बाद भी मुक्त नहीं हो पाया है। हाँ इतना अंतर जरूर आया है कि जैसे-जैसे पश्चिम भारतीय परंपराओं पर स्वीकृति की मोहर लगाता जा रहा है, यह वर्ग उन परंपराओं केे प्रति क्रमशः आकर्षित हो रहा है। दस वर्ष पहले के साम्यवादियों या धर्मनिरपेक्षवादियों के लेखों को ढूंढकर पढि़ये और आज उन्हीं के द्वारा उन्हीं मुद्दों पर लिखे जा रहे लेख पढि़ये तो आपको यह अन्तर स्पष्ट दिखाई देगा। मुझे याद है, गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव से पहले धर्मनिरपेक्ष टी.वी. चैनलों का सुर क्या था और चुनाव के बाद इन चैनलों के संपादकों ने किस तरह अपने का¡लमों में स्वीकारा कि वे जमीनी हकीकत का सही आंकलन नहीं कर पाये। पाठकों को याद होगा कि इसी का¡लम में हमने जो इस चुनाव से पहले कहा था, वही चुनाव के बाद भी सही निकला। दरअसल जब हम अपने राग द्वेष के चश्मे से हालात को देखने लगते हैं तो आंकलन गलत होता ही है। जरूरत इस बात की है कि बुद्धिजीवी हों, राजनैतिक दल हों या खुद भाजपा का नेतृत्व भारत के सनातन मूल्यों का खुले दिमाग से मूल्यांकन करे और जो कुछ समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी हो, उसे अपनाने में कोई संकोच नहीं करे।
पर शायद यह हमारी सद्इच्छा से बढ़कर कुछ नहीं है। क्योंकि यदि राजनेता वास्तव में समाज की चिंता करते तो सोने की चिडि़या बनने की क्षमता रखने वाला यह देश विकास के नाम पर आत्मघाती विनाश की ओर इस तेजी से न बढ़ता। इस होली पर देश के अनेक शहरों में गरीब ही नहीं अमीरों ने भी पानी की होली नहीं खेली। क्योंकि पानी उपलब्ध ही नहीं था। यह कैसा विकास है कि हम पानी, साफ जमीन और साफ हवा के लिए मोहताज होते जा रहे हैं? जो पश्चिम अपने ही मकड़जाल में फंसकर त्राहि-त्राहि कर रहा है, उसके विकास का मा¡डल अपनाकर हम अपने गाँव और कस्बों की सदियों से चली आ रही आत्मनिर्भर अर्थ व्यवस्था को तोड़कर बेरोजगारी, हताशा और संताप पैदा करते जा रहे हैं। भाजपा इसलिए दोषी है कि अपने ही संस्थापकों के सपनों के विपरीत इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर भी वह नहीं कर पा रही जो इस देश और संस्कृति के लिए कर सकती थी। कुर्सी की जोड़तोड़ में उसने अपनी अस्मिता को खो दिया है। विडम्बना ये कि कुर्सी भी उसे मिलती नहीं दिखती।