Friday, March 23, 2001

तहलका का शोर और कानूनी असलियत


तहलका के टेप क्या जारी हुए पूरे देश में तूफान मच गया।  निःसन्देह रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की प्रक्रिया को जिसतरीके से इन वीडियो टेपों में उतारा गया है उन्हें देखकर हर दर्शक हैरान  रह जाता है। रक्षा सौदों में दलाली ली और दी जाती है। यह बात वर्षों से सबको पता है। पर उसका प्रसार इतना व्यापक है यह आम जनता को पहली बार देखने को मिला । जिसके लिए तहलका की टीम बधाई की पात्र है। इसके साथ ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का प्रकरण भी आम दर्शक को झकझोर देता है। जबसे तहलका का तहलका मचा है, तब से टेलीवीजन पर जो बहस हो रही है उसमें अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों को जानबूझ कर दबा दिया गया। पूरी बहस बड़े सतहीय मुद्दों को लेकर चैंचें लड़ाने की मुद्रा में हो रही है। जिसे देखकर आम दर्शक के मन में बहस के करने वाले राजनैतिक दलों के प्रति घृणा बड़ ही रही है। चाहे वो आरोप लगाने वाले विपक्षी दल हों या सत्तारूढ़ दल। इस शोर के पीछे की असलियत कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसपर समझदार पाठकों का ध्यान जाना जरूरी है।

बंगारू लक्ष्मण के खिलाफ केवल एक ही सबूत बनता है वह है एक लाख रूपये खुले आम स्वीकार करना, पर यह रूपया लेते वक्त रूपया देने वाला और लेने वाला दोनों ही मान रहे हैं कि यह पैसा पार्टी फण्ड में जा रहा है। गया या नहीं वह अलग बात है, पर कानून की नजर में इससे ज्यादा सबूत उस प्रकरण में नहीं है। चूँकि पार्टी के लिए चन्दा जमा करना एक आम रिवाज है इसलिए बंगारू लक्ष्मण की पैरवी करने वाले वकील उन्हें किसी मुकदमे में फंसने नहीं देंगे। जहाँ तक बंगारू लक्ष्मण से रक्षा सौदों की चर्चा की बात है, तो उसे कोरी गप्पबाजी मानकर अदालत खारिज कर देगी। क्योंकि उसमें कोई भी तथ्य या सबूत ऐसा नहीं है जिसपर सजा दी जा सकें। यही स्थिति जया जेटली के साथ भी है, श्रीमती जेटली ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि जो पैसा उन्हें दिया जा रहा है। वह पार्टी के सम्मेलन के इंतजाम में काम आयगा। हा, रक्षामंत्री के घर में बैठकर हथियारों के सौदागरों से एक गैर-सरकारी व्यक्ति का बात करना कानून की नजर में आपŸिाजनक जरूर हो सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि तहलका टेप में जो दिखाया गया है। उससे उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं होता। बात कानूनी आधार की है जिसपर तहलका की खोज बहुत सतही स्तर पर समाप्त हो जाती है। जिसके कोई दूरगामी परिणाम सामने नहीं आयेंगे। तहलका के निर्माता का यह दावा करना कि उनके पास गृहमंत्री के खिलाफ 350 करोड़ के घोटाले का सबूत है और फिर अगले ही दिन इससे मुकर जाना व श्री आडवाणी से लिखित मांफी मांगना अनेक सन्देहों को जन्म देता है। इतना ही नहीं तहलका टेप जारी करते समय यह भी कहा गया था कि कुल फुटेज 100 से भी ज्यादा घण्टे का है और उसमें संचार मंत्री रामविलास पासवान व वित्तमंत्री यशवन्त सिन्हा के विरूद्ध भी काफी सबूत हैं पर बाद में तहलका वाले इससे भी मुकर गये। पत्रकारिता से जुड़े लोग समझते हैं कि इस किस्म की घटनाओं का क्या मतलब होता है? शायद इसलिए भाजपाई तहलका के पूरे प्रकरण को लेकर तमाम सवाल खड़े कर रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो राजधानी के गलियारों में पूछा जा रहा है वह यह कि जब पूरी दुनिया में ज्यादातर डाटकाॅम कम्पनियाँ घाटे में चल रही हैं या बन्द होती जा रही है तो तहलका डाट काॅम को इस रिपोर्ट को करने के लिए लाखों रूपया खर्च करने को किसने दिया? 11 लाख रूपया तो केवल रिशवत में बांटा गया फिर आठ महीना जांच की भागादौड़ी, पांच सितारा होटलों में दावतें और कमरों की बुकिंग जैसे लाखों रूपये के खर्चे और भी किये गये। हालांकि तहलका के निर्माताआंे ने अपनी कम्पनी की वित्तीय स्थिति को प्रेस में जारी किया है। फिर भी लोग यह गले नहीं उतार पा रहे हैं कि घाटा उठाकर भी कोई इतनी बड़ी रकम बिना स्वार्थ के क्यों खर्च करेगा? इसके साथ ही जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह यह है कि तहलका के टेपों में ज्यादातर बयान गपबाजी के स्तर के हैं। पत्रकार का धर्म है कि वह किसी के ऊपर आरोप लगाने से पहले तथ्यों की पड़ताल कर लें और जिसके विरूद्ध आरोप लगाये जा रहे हैं उसे भी सफाई का मौका दें। तहलका की टीम ने पत्रकारिता के यह दोनों ही बुनियादी सिद्धान्त भुला दिये। आर. के. जैन या गुप्ता ने रक्षा सौदों को लेकर जो लम्बी-लम्बी डींग हांकी उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने से पहले तहलका के निर्माताओं को परख लेना चाहिए था। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो उन्हें यह न कहना पड़ता कि आप हमारी रिपोर्ट की विषय वस्तु पर न जाय केवल उसके सन्दर्भ पर ध्यान दें। तरूण तेजपाल का ऐसा बयान यह सिद्ध करता है कि उनकी इस रिपोर्ट के तथ्यों को लेकर जब भाजपा के नेताओं ने आक्रामक रूख अपनाया तब उन्हें बचाव की मुद्रा में यह कहना पड़ा किसी पत्रकार के लिए यह स्थिति बहुत प्रशन्सनीय नहीं होती कि वह अपने आरोपों से मुकर जाय और क्षमा मांगे। खासकर जबकि रिपोर्ट किसी दैनिक अखबार के लिए कुछ घण्टों में तैयार नहीं की गयी बल्कि बड़ी गम्भीरता से आठ महीने लगाकर तैयार की गयी बताते हैं। फिर ऐसी तथ्यात्मक भूलेें क्यों? यहां जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो वह है कि एक खोजी रिपोर्ट की कई खूबियों के बावजूद तहलका की इस रिपोर्ट पर जितना बड़ा तूफान एकदम देश में मचा क्या वह स्वाभाविक तूफान था? या उसके पीछे भी कुछ राजनैतिक निहित स्वार्थ छिपे थे। इस सन्दर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि 2 सितम्बर, 1993 को जब जैन हवाला काण्ड  को उजागर करने वाली कालचक्र वीडियो पत्रकारों को दिखाई गयी थी, तो महीनों तक देश के मीडिया में इस घोटाले पर सन्नाटा छाया रहा। जब कि कालचक्र की वीडियो कैसेट में जो कुछ कहा गया वह शत प्रतिशत तथ्यों पर आधारित था। उसमें भी शरद यादव और देवीलाल ने सुरेन्द्र जैन से रकम स्वीकारने की बात मानी थी। भारतीय टी.वी.पत्रकारिता के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। इतना ही नहीं जो दस्तावेज कालचक्र ने इस वीडियो में दिखाये थे उनकी वैद्यता को आजतक कोई चुनौती नहीं दे पाया। इतना ही नहीं उन्हीं दस्तावेजों के आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय को हवाला काण्ड की जांच अपनी निगरानी में करवानी पड़ी। यह दूसरी बात है कि भ्रष्टाचार में लिप्त और राजनैतिक दबाव से जकड़ी सी.बी.आई. ने हवाला काण्ड की जांच नहीं की और राजनेताओं के छूटने के रास्ते खोल दिये। पर कालचक्र के निर्माताओं को इस पूरी प्रक्रिया में एक बार भी यह नहीं कहना पड़ा कि हमारे तथ्यों पर न जाय सन्दर्भों को देखें या हमने गलत दावा किया था हम आडवाणीजी से क्षमा मांगते हैं। कालचक्र में उठाये गये तथ्य आज भी सच्चाई की कसौटी पर खरे खड़े हैं। कालचक्र की उस रिपोर्ट के बाद दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्री व राज्यपालों को गद्दी छोड़नी पड़ी। फिर क्या वजह है कि तहलका की रिपोर्ट जारी होते ही तो मीडिया और विपक्ष में आसमान सिर पर उठा लिया जबकि कालचक्र की हवाला काण्ड वाली वीडियो कैसेट के जारी होते ही पूरे राजनैतिक हलके में सन्नाटा छा गया था। एक दिन भी संसद का बहिष्कार नहीं किया गया। एक दिन भी सांसदों ने खड़े होकर जांच की मांग में शोर नहीं मचाया। महीनों तक टी.वी. और अखबार के मीडिया के ज्यादातर लोग हवाला को लेकर गूंगे और बहरे हो गये, क्यों? क्या इसलिए कि हवाला काण्ड में देश के 115 बड़े राजनेताओं और अफसरों के नाम शामिल थे। जो हर प्रमुख राजनैतिक दल के सदस्य थे इसलिए शोर कौन मचाए? कौन किसके विरूद्ध जांच की मांग करें? कौन किसके विरूद्ध संसद का बहिष्कार करें? कौन किससे इस्तीफे मांगे? जब सभी उस घोटाले में शामिल हैं तो भलाई इसी में थी कि सब खामोश रहें। तहलका के टेप में जो आरोप लगे हैं वे सत्ताधारी दलों के लोगों को लेकर हैं। इसलिए विपक्ष इतना उत्तेजित है। ठीक वैसे ही जैसे बोफोर्स, चारा घोटाला और बैंक घोटाले जैसे काण्डों को लेकर भाजपाई, या समता पार्टी वाले उत्तेजित रहे हैं। आज अगर इंकाई बोफोर्स का बदला चुकाने के लिए तहलका के नाम पर देश की गलियों और गांवों में प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो इसमें गलत क्या है? जैसे को तैसा। जो कल तक भाजपा ने किया आज इंकाई करेंगे। पर इससे निकलना कुछ भी नहीं है। न तो भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था सुधरेगी और न ही देश की जनता को राहत मिलेगी। दरअसल राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि किसी भी घोटाले की ईमानदारी से जांच हो और दोशियों को सजा मिलें। हर दल की यही मंशा होती है कि वे अपने विरोधी दल के भ्रष्टाचार के काण्ड को जनता के बीच उछाल कर ज्यादा से ज्यादा वोटों का इन्तजाम कर लें। इस प्रक्रिया में मूर्ख जनता ही बनती है। आज नैतिकता पर शोर मचाने वाले हर दल से पूछना चाहिए कि जिस काण्ड में सबूत न के बराबर हैं उसपर तो आप इतने उत्तेजित हैं पर जिस हवाला काण्ड में आज भी हजारों सबूत मौजूद हैं उसकी जांच की मांग के नाम पर आपका हलक क्यों सूख जाता है, आपको तहलका के शोर की हकीकत खुद ब खुद पता चल जाएगी।

Friday, March 16, 2001

सांसद ध्यान दें जार्ज फर्नाडीज़ ने ऐसा क्यों किया ?


पिछले दिनों भारत और रूस के बीच हुए रक्षा समझौते को लेकर कुछ रक्षा विशेषज्ञों मे भारी नाराजगी है। इनका मानना है कि इस समझौते में जानबूझ कर एक भारी गलती की गई है। नई संधि के अनुसार अब भारत किसी खतरे या हमले की स्थिति में रूस की सलाह नहीं ले पायेगा। जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1971 में जो  भारत रूस मैत्री संधि की थी उसमें इसका पूरा ध्यान रखा था। तब उस संधि को चीन और अमेरिका ने भारत की आणविक ढाल माना था। इन विशेषज्ञों को लगता है कि शायद बाजपेयी सरकार की याददाश्त कमजोर है। तभी तो वह हिमालय के उत्तर में चीन से बने रक्षा दबाव या दियागो गार्शिया के कब्जे और उस पर आणविक आधार तैयार करने की अमरीकी  कार्रवाई को भूल गई। यह कार्रवाई अमरीका ने भारत-पाक युद्ध के दौरान की थी। चूंकि सोवियत यूनियन का विघटन हो चुका है और रूसी संघ में विशेष उत्साह नहीं है। इसीलिए जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा के दौरान नई संधी की गई तो रूस  संधी की उस पुरानी शर्त को बनाए रखने के लिए बहुत उत्साही नहीं था। उधर अमरीका इस फिराक में था ही कि किसी तरह से भारत और रूस के बीच युद्ध के दौरान पारस्परिक सलाह लेने के इस प्रावधान को खत्म कराया जा सके। ऐसा रक्षा विशेषज्ञों का मानना है। इनका आरोप है कि अमरीका ने भारत के रक्षा मंत्रालय में खूब लाबिंग करवा कर नई संधी से उस महत्वपूर्ण प्रावधान को हटवा दिया। इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अमरीका ने पहले तो भारत को आणविक शक्ति बनने से रोका, फिर कारगिल युद्ध में भारत की आणविक क्षमता की कलई खुलवा दी। इस तरह भारत के आणविक कार्यक्रम को बन्द करके भारत को आणविक युग में रक्षाहीन कर दिया।दूसरी तरफ अमरीका ने पाकिस्तान को जो इसी तरह का रक्षा कवच दे रखा है उसे आजतक समाप्त नहीं किया। बल्कि अपने ही आणविक बमों का पाकिस्तान मे परीक्षण करवा कर पाकिस्तान को मिली हुई सुरक्षा की यह गारन्टी बरकरार रखी है। यदि भारत के सांसद इस गम्भीर मामले को समझे होते तो उन्होंने संसद में शोर जरूर मचाया होता। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इस मामले में कुछ सवालों पर गौर करने की जरूरत है।

हम सबको यह बताया गया और प्रचारित भी किया गया कि हमने अपने सैकड़ों जवानों और अफसरों को कारगिल युद्ध में भले ही बलि कर दिया हो किन्तु हमारी विजय शानदार रही। अलबत्ता कारगिल युद्ध के बारे में के. सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट बहस के लिए संसद में प्रस्तुत किए जाने का इन्तजार कर रही है। जबकि इस गंभीर मुद्दे में सांसदों की शायद कोई रुचि नहीं हैं। हालांकि यह रिपोर्ट बहुत उच्च कोटि की नहीं है, फिर भी इसका सारांश पढ़ने से कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं। क्या इस समिति ने राॅ के प्रमुख श्री अरविन्द दवे को ठीक से तलब किया था। यह सर्वविदित है कि कारगिल के मामले में ख्ुाफिया ऐजेंसी राॅ अनजान थी और इस अचानक हमले से हड़बड़ा गयी थी। जबकि इस तरह की सम्भावना की उसे पूर्व जानकारी होनी चाहिए थी। बावजूद इस बड़ी विफलता के, क्या वजह है कि श्री दवे को बजाए अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने के अरुणाचल प्रदेश का उप राज्यपाल बना दिया गया ?

जानकारों का यह भी कहना है कि जिस समय कारगिल युद्ध चरम पर था उस दौरान अमरीका की सरकारी रक्षा संस्था सेंटकाॅमके एक अधिकारी पाकिस्तान यात्रा पर आये थे। पर हमारी खुफिया ऐजेंसियों को भनक तक न पड़ी। क्या हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों ने रक्षामंत्री श्री फर्नाडीज़ को यह बताया था या नहीं कि उक्त अमरीकी सैनिक अधिकारी को भेजने की मांग पाकिस्तान ने ही की थी। शायद श्री फर्नाडीज़ को पता हो कि पाकिस्तान ने सेंटकाॅमके साथ पारस्परिक रक्षा की संधि कर रखी है जिसके तहत पाकिस्तान की सुरक्षा को ज़रा सा भी खतरा होते ही यह ऐजेंसी दौड़कर उसकी मदद को आयेगी। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि कारगिल युद्ध के दौरान अमरीका से आए सैनिक अधिकारियों ने पाकिस्तान को यह समझाया कि चूंकि उसकी वायु सेना भारत के इलाके में बहुत प्रभावशाली नहीं हो पायेगी जिससे पाकिस्तान की थल सेना को भारत से जीतना मुश्किल होगा। इन अमरीकी अधिकारियों ने पाकिस्तान को सलाह दी कि किसी भी कीमत पर भारत को हवाई हमले करने से रोका जाए। यदि यह भी न हो सके तो कम से कम अमरीका इतना तो करे कि जब पाकिस्तान अचानक दिल्ली और मुम्बई पर परमाणु हथियारों से हमला कर चुके तब भारत को ऐसा जवाबी हमला करने से रोका जाए। हालांकि अमरीका के इन अधिकारियों को यह बताया गया था कि भारत के पास सुरक्षित तरीके से आणविक हथियारों को ले जाने और उनके प्रयोग करने की क्षमता नहीं है। पर साथ ही यह भी आशंका व्यक्त की गई कि यदि भारत हवाई हमला करता है तो पाकिस्तान के भारी आबादी वाले इलाकों को ध्वस्त कर देगा। इसलिए कुछ ऐसी चाल चली जाए कि भारत की वायु सेना को नियंत्रण रेखा को पार न करने दिया जाए। भारत के रक्षा विशेषज्ञों को इस बात पर आश्चर्य है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कारगिल युद्ध में हमारी थल सेना को दुर्गम पहाडि़यों पर मरते खपते हुए आगे भेजा गया । जबकि परम्परा यह है कि पहले वायु सेना आगे के इलाके में जाकर बमबारी करके दुश्मन के ठिकाने को ध्वस्त करती है तब थल सेना आगे बढ़ती है। पर कारगिल में ऐसा नहीं हुआ। नतीजतन हमारी थल सेना को भारी मात्रा में नौजवान अधिकारियों और जवानों को खोना पड़ा।

इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि कारगिल युद्ध के दौरान इस तरह एक तरफ बिठा कर रखी गई भारतीय वायु सेना इस व्यवस्था से प्रसन्न ही थी । सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट के अनुसार उसकी तैयारी कारगिल जैसे दुर्गम ऊंचे पहाड़ों वाले क्षेत्र में युद्ध करने की नहीं थी। इन विशेषज्ञों के अनुसार इस पूरे युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना ने औसत से भी बेहद कम संख्या में उड़ाने भरींए जोकि राष्ट्र के हित में नहीं था।

इन विशेषज्ञों का सवाल है कि क्या भारतीय वायु सेना और भारत सरकार को इस प्रकार नियंत्रण रेखा को पार न करने का श्रेय लेना चाहिए ? जबकि नियंत्रण रेखा भारत की सीमा के भीतर ही पड़ती है। यह रक्षा विशेषज्ञ सवाल पूछते हैं कि भारत की सीमाओं की रक्षा में इस तरह लापरवाही कर देने के लिए क्या रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडीज़ व संघ सरकार का मंत्रीमंडल संविधान का उल्लंघन करने के दोषी नहीं हैं ? अगर ऐसा नहीं है और यह निर्णय किन्हीं अन्य कारणों से लिया गया तो क्या रक्षामंत्री देश को यह बताऐंगे कि क्या वजह है कि सैकड़ों करोड़ रूपए खर्च करके जो उपग्रह भारत के भूखण्ड पर निगाह रखने के लिए तैनात किए गए हैं उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया ? भारतीय वायु सेना, ‘राॅसर्वे आॅफ इण्डियाके हवाई जहाज 1997-98 में क्या कर रहे थे जो उन्होंने सीमापार की हलचल को अनदेखा कर दिया ? कारगिल युद्ध में थल सेना के जवानों को मौत के मुंह में भेजने से पहले वायु सेना का प्रयोग  क्यों नहीं किया गया ? क्या रक्षामंत्री बताऐंगे कि दुनिया के किस युद्ध में ऐसी गलती की गई ? ऐसी दूसरी कौन सी आणविक शक्ति दुनिया में है जिसने अपने पड़ौसी से अघोषित युद्ध में अपने 500 से ज्यादा अफसरों और जवानों को शहीद कर दिया ? ऐसी कौन सी आणविक शक्ति वाला देश है जो सीमापार से होने वाले हमलों में अपने नागरिकों और सैनिकों की लगातार हत्या करवाता रहे और कड़े कदम न उठाए ? इन विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के पास प्रयोग में लाए जा सकने योग्य परमाणु हथियार नहीं हैं और इसीलिए भारत ने इस युद्ध में पाकिस्तान की धमकी और अमरीकी दबाव के आगे घुटने टेक दिए।

विडम्बना यह है कि इस युद्ध के बाद भी जो टास्कफोर्स बनी उसमें सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को नहीं लिया गया। जबतक नौकरशाही और राजनेता राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में ऐसी गल्तियां करते रहेंगे तब तक हम अपनी गल्तियों से कोई सबक नहीं सीख पाऐंगे। इसलिए इन विशेषज्ञों का सुझाव है कि भारत को वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को लेकर ही टास्कफोर्स का गठन करना चाहिए। कम से कम यह लोग ऐसी परिस्थितियों में समुचित निर्णय लेने की स्थिति में तो होंगे।

चूंकि सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट फिलहाल ठन्डे बस्ते में पड़ी है और उस पर संसद के चालू सत्र में बहस होने की संभावना नहीं दिखाई दे रही इसलिए इन मुद्दों पर विपक्ष के सांसदों का ध्यान देना देश हित में रहेगा।

Friday, February 23, 2001

राहत की रकम पर ऐश


ये बड़े शर्म की बात है कि देश की मशहूर संस्थाएं और कुछ नामी अखबार प्राकृतिक आपदाओं के मारे लोगों की लाश पर तिजारत कर रहे हैं। 14 फरवरी के अखबारों में खबर छपी कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने लाटूर में आए भूकंप के बाद जो राहत कोश बनाया था उसमें पैसा आज तक पड़ा है। यह पैसा लाटूर के मुसीबतजदा लोगों तक नहीं पहुंचा। जबकि इस पैसे को शिक्षकों, छात्रों, कर्मचारियों व अभिभावकों से यह कह कर लिया गया था कि इसे लाटूर के लाचार लोगों तक भेजा जाएगा। दुख की बात तो यह है कि देश की एक मशहूर अंग्रेजी अखबार श्रृंखला ने भी लाटूर के भूकंप की राहत के नाम पर अपने पाठकों से 18 करोड़ रूपया जमा किया और उसे 7 वर्ष तक बैंक में जमा कर उस पर ब्याज खाया। इस ब्याज की रकम बाजार की दर से 25 करोड़ रूपया बैठती है। जब ब्याज की यह रकम कमा ली गई तब बडे बेमन से इस अखबार समूह ने 18 करोड़ रूपए को प्रधानमंत्री राहत कोश में जमा करवाया। इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जब लोग भूकंप के प्रकोप से तबाह हो चुके हों जब उनकी बदहाली के चित्र छापकर पाठकों के मन में करूणा पैदा की जाए और जब पाठक द्रवित होकर दान भेजें तो उस पर ब्याज कमाया जाए ? यह अत्यंत गंभीर मामला है। केवल घोटाला ही नहीं बल्कि संवेदनशून्यता और मानवीय बर्बरता का जीवंत उदाहरण है। कौन जाने कितने संगठन और कितनी कंपनियां इस धंधे में लगी हों ? कौन जाने कितने सफेदपोश लोग एैसे पाश्विक घोटालों के खलनायक हों ? कौन जाने उड़ीसा के चक्रवात के बाद भी ऐसा ही हुआ हो ? कौन जाने कारगिल के शहीदों के नाम पर जमा किए गए पैसे भी किसी ऐसे ही सफेदपोश  अपराधी की आमदनी का जरिया बने हों ? यह एक गहरी जांच का विषय है। यह कांड कई सवाल भी खड़े करता है।

गुजरात में जो विनाश हुआ उसकी भरपाई राहत की सामग्री कभी नहीं कर पाएगी। कितनी भी बड़ी राहत क्यों न हो वह अनाथ बच्चों को फिर से मां-बाप का प्यार भरा साया नहीं दे पाएगी। किसी नववधु के भूचाल में दब कर मर गए पति को कोई भी राहत सामग्री लौटा नहीं पाएगी। जिनके बुढ़ापे का सहारा उनका जवान बेटा इस हादसे का शिकार हो गया उनकी शेष जिंदगी आंसू बहाते ही बीतेगी। राहत इन जख्मों को भर नहीं पाएगी। राहत कच्छ के खंडहर हो चुके पुराने मकानों को फिर उन यादों के साथ लौटा नहीं पाएगी जो सदियों से इनके साथ जुड़ी थीं। फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि 26 जनवरी के भूकंप के बाद चारो तरफ से राहत की बरसात हो रही है। जिस दरियादिली से देश और विदेश के लोगों ने राहत भेजी उससे गुजरात के घायल मन को मरहम जरूर लगा है। यह वक्त सेवा में जुटने का है। पर भूचाल से हुए विनाश के बाद जैसे गुजरात में जिंदगी फिर लौटने लगी है वैसे ही आपदा के इस दौर में कुछ बुनियादी सवालों पर चिंतन करना निरर्थक न होगा। क्योंकि उससे भविष्य की ऐसी स्थिति में निपटने और निर्णय लेने की बेहतर समझ पैदा होगी।

जबसे देश में मीडिया का प्रसार तेजी से हुआ है तब से सूचनाएं आशातीत गति से एक कोने से दूसरे कोने में पहुंचने लगी हैं। कारगिल का युद्ध हो या गुजरात का विनाश लोग हर क्षण किसी न किसी टीवी चैनल पर मौकाए-वारदात की जीती जागती तस्वीर देखते रहते हैं। टीवी के सक्रिय कैमरों के सामने अब असलियत छिपाना स्थानीय प्रशासन के लिए भी संभव नहीं होता। इसलिए हर आपदा या दुर्घटना से पूरे देश के दर्शकों का प्रशिक्षण होता है। वे ऐसी अप्रत्याशित स्थितियों से निपटने के लिए मानसिक रूप से तैयार होते जाते हैं। मसलन, गुजरात के भूकंप के बाद दिल्ली और मुंबई जैसे नगरों के लोग अब बहुमंजिली इमारतों की मजबूती को लेकर काफी चिंतित हैं और इस दिशा में सुधार के प्रयास कर रहे हैं। तो यह तो हुआ मीडिया के प्रसार का सकारात्मक पक्ष। पर इसका एक दूसरा पक्ष भी है, वह यह कि मीडिया पर हर घटना और दुर्घटना का इतना ज्यादा चित्रण, वर्णन, मूल्यांकन व विवरण दिया जाने लगा है कि लोग उब जाते हैं। इस प्रक्रिया का पहला अनुभव तब हुआ था जब 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्राी श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दूरदर्शन कई दिनों तक उनके शव और अंतिम क्रियाओं को विस्तार से दिखाता रहा था। कारिगल के दौरान भी ऐसा ही हुआ और अब गुजरात के भूकंप के बाद भी। लोगों में मीडिया की मार्फत उत्सुकता जगाना और उन्हें सूचना देना तो ठीक है पर उनकी भावनाओं को उभार कर उनकी जेब से पैसे निकलवाना और फिर उस पैसे को सही पात्रों तक न पहुंचाना धोखाधड़ी है, फर्रेब है, जघन्य अपराध है। चूंकि मीडिया का प्रसार तेजी से हो रहा है तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया का इस तरह से दुरूपयोग भविष्य में बढ़ेगा नहीं। इससे पहले कि लोग इस कटु सत्य को जान कर हिल जाएं या उनकी संवेदनशीलता समाप्त हो जाए या वे विपदा की ऐसी स्थिति में भी मदद करने को आगे न बढ़े तो दोष किसका होगा  लोगों का या उन्हें मूर्ख बनाने वाली संस्थाओं का ? इसलिए जरूरी है कि इस नई उपजती परिस्थिति को इसके अंकुरण के समय ही नष्ट कर दिया जाए। इसके कई तरीके हो सकते हैं।

यह तय कर दिया जाए कि ऐसी असमान्य हालत में जो भी संस्थाएं धन संग्रह करेंगी वह सब प्रधानमंत्री राहत कोष के नाम पर ही लिया जाएगा और उसी खाते में जमा करा दिया जाएगा। यह भी किया जा सकता है कि धन संग्रह करने वालों पर कानूनी पाबंदी हो कि वे इस तरह से इकट्ठा किया गया धन तीस दिन से ज्यादा अपने खाते में नहीं रख पाएंगे। उन्हें हर तीस दिन बाद यह धन अपने खाते से प्रधानमंत्री राहत कोष या ऐसे ही दूसरे प्रतिष्ठित कोष में अनिवार्य रूप से जमा करवाना होगा। ऐसा न करने पर कड़े आर्थिक व आपराधिक दंड का प्रावधान भी बनाया जाए। इसके अलावा भी कई तरीके हो सकते हैं राहत के धन को संभाल कर रखने और बांटने के लिए।

जैसाकि हमने पिछले दिनों इसी स्तंभ में चर्चा की थी कि सरकार के बस का ही नहीं है राहत को ठीक से अंजाम देना। क्यों न राष्ट्रीय स्तर पर योग्य, अनुभवी और विशेषज्ञ लोगों का एक आपदा प्रबंधन बोर्ड बनाया जाए। इस तरह की व्यवस्था की जाए कि किसी भी आपदा की स्थिति में राहत लेने और उसे बांटने का काम यही बोर्ड करे। इसके कई लाभ होंगे। एक तो अनुभवी लोगों के नेतृत्व में राहत सामग्री को लेकर दुर्घटनाग्रस्त क्षेत्र में अफरा-तफरी नहीं फैलेगी। दूसरा हर आपदा के समय देशवासियों को और विदेशों में रहने वाले लोगों को यह पता होगा कि राहत कहां और किसे भेजी जानी है। अनेक किस्म की समस्याओं से घिरे प्रधानमंत्री कार्यालय के राजनैतिक माहौल से भिन्न यह आपदा प्रबंधन बोर्ड ठंडे दिमाग से सोच-समझ कर राहत कार्यों को अंजाम देगा। चूंकि राहत कार्य का इस बोर्ड को लगातार अनुभव होगा इसलिए इसे पता होगा कि कहां, कितनी, कैसी राहत भेजी जानी है, न ज्यादा न कम। इससे आपातकालिक स्थितियां नियंत्रण में रह सकेंगी और राहत सामग्री की बर्बादी और लूट भी नहीं होगी। इतना ही नहीं एक आपदा के लिए इकट्ठा हुए राहत धन में से जो राशि बच जाएगी वह बोर्ड के अधीन सुरक्षित रहेगी और अगली आपदा के समय तेजी से उपलब्ध होगी।

ऐसा नहीं है कि राजनेता और अफसर यह सब जानते समझते नहीं हैं। पर सत्ता को अपने हाथों में रखकर उसमें से अपने फायदे ढूंढना इनके खून में इतना रच-बस गया है कि इन्हें स्वार्थ के आगे  जनहित सूझता ही नहीं। इसीलिए भारत संपन्नता के बावजूद विपन्नता का देश है। इसलिए यह उम्मीद करना कि हुक्मरानों की यह जमात ऐसे व्यवहारिक निर्णय लेगी ख्याली पुलाव पकाने से ज्यादा कुछ नहीं होगा। अगर ऐसा कोई बोर्ड बनाने का सरकार ने निर्णय लिया भी तो उसके सदस्य बनने के लिए एक से एक बढ़कर भ्रष्ट राजनेता और अफसर लाबिंग करेंगे, पैरवी करेंगे और अपने मकसद में कामयाब भी हो जाएंगे। देश में खेलों की दुर्दशा हो या सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की बद्दइंतजामी, उसकी जड़ में है यही  दूषित प्रवृत्ति। इससे पार पाए बिना जनता का भला नहीं हो सकता।

देश में सेवानिवृत्त लोगों की एक लंबी फौज खाली बैठी है। यह उनका फर्ज है कि वे हर स्तर पर संगठित होकर सरकार पर दबाव बनाएं ताकि सरकार अपने कामकाज के तरीके में बुनियादी बदलाव लाए। सत्ता में बैठने वाले राजनैतिक दलों के बदलने से समस्याओं के हल नहीं निकल रहे यह हमने पिछले दो दशकों में खूब देखा है। क्रांति की भारत में कोई संभावना नजर नहीं आती। ऐसे में समस्याओं का हल निकले तो कैसे निकले ? इसलिए जरूरी है कि जो लोग देश और जनता के हित में सोचते हैं वे ये मान कर चलें कि सत्ता में जो भी होगा ऐसा ही करेगा। अगर हमें उनसे कुछ अच्छा करवाना है तो उसके लिए हमें अपनी साझी ताकत लगा कर उन्हें मजबूर करना होगा। एक बार करने से काम नहीं चलेगा हर बार उसी तरह से दबाव बनाना होगा क्योंकि नकारात्मक शक्यिां आसानी से निर्मूल नहीं होतीं। रावण के सिर की तरह बार बार उभर कर आती हैं। राहत के धन को पचा जाने की यह दुष्प्रवृत्त् िभी आसानी से मरेगी नहीं। इसका जितना खुलासा होगा और जितनी ज्यादा इसकी सार्वजनिक चर्चा व भत्र्सना होगी उतना ही इस पर अंकुश लगेगा।

Friday, February 16, 2001

क्या थे सीबीआई निदेशक के चयन में खोट ?


सीबीआई के निदेशक आरके राघवन की नियुक्ति को कैटने निरस्त कर दिया। भारत सरकार इस निर्णय के विरूद्ध कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील दर्ज करने जा रही है। जब तक न्यायालय का फैसला आएगा तक तब श्री राघवन अपना कार्यकाल पूरा कर चुके होंगे। इसलिए कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक श्री सी. दिनाकर की मेहनत का वांछित फल देश को नहीं मिलेगा। पर इस पूरे विवाद ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े कर दिए हैं। पाठकों को याद होगा कि इस स्तंभ में हमने पहले भी इस बात का उल्लेख किया है कि सार्वजनिक महत्व के महत्वपूर्ण पदों पर लोगों को चुनने की मौजूदा प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। इसीलिए लोकतंत्र की महत्वपूर्ण संस्थाओं का तेजी से पतन होता जा रहा है। राजनैतिक प्राथमिकताओं के मद्देनजर जब नियुक्तियां की जाएंगी तो कम योग्यता वाले, चापलूस या भ्रष्ट लोग ही वरियता पाएंगे। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि ऐसे पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया चंद लोगों के हाथ में सीमित न रहे। चाहे वे लोग प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और केंद्रीय सतर्कता आयुक्तनुमा लोग ही क्यों न हों। मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य चुनाव आयुक्त ,भारत के महालेखाकार, भारत के महालेखा नियंत्रक, सेबी के निदेशक, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के जज कुछ ऐसे महत्वपूर्ण पद हैं जिन पर बैठने वाले व्यक्ति से पूरी पारदर्शिता की अपेक्षा की जाती है। इसलिए ऐसे पदों के लिए चयन करने का वही तरीका सर्वश्रेष्ठ होगा जिसमें प्रस्तावित व्यक्ति के नाम व योग्यता का व्यापक प्रचार मीडिया पर किया जाना चाहिए। उसके व्यक्तित्व और आचरण को लेकर अगर किसी को भी कोई भी आपत्ति हो तो उसे यह छूट होनी चाहिए कि वह अपनी आपत्ति को चयनकर्ताओं तक दर्ज करा सके। चयनकर्ताओं का यह फर्ज होना चाहिए कि वे इन आपत्तियों की पूरी पड़ताल करवाए बिना उस व्यक्ति के नाम की संस्तुति न करें। कई लोकतांत्रिक देशों में यह प्रक्रिया पहले से ही चल रही है और सफल है। भारत में जब चालीस से ज्यादा टीवी चैनल चल रहे हैं। दर्जनों किस्म के समाचार आधारित कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं तो फिर इस व्यवस्था को बनाने में क्या दिक्कत हो सकती है ? जब देश के हर कोने में बैठे दर्शक किसी व्यक्ति का चेहरा टीवी पर देखकर और उसका बाॅयोडेटा जानकर यह उद्घोषणा सुनेंगे तो जाहिरन उनमें से कुछ तो ऐसे लोग होंगे ही जो उस व्यक्ति को अच्छी तरह जानते होंगे। उसकी अच्छाइयां और बुराइयां उन्हें पता होंगी। नतीजतन ऐसे लोग किसी गलत व्यक्ति के नाम प्रचारित होते ही उसका विरोध करेंगे। वे बता देंगे कि फलां व्यक्ति ने किस राज्य में जमीन घोटाले किए या अन्य बड़े कांड किए। तथ्यों पर आधारित ऐसे आरोपों की फिर उपेक्षा करना चयनकर्ताओं के लिए सरल न होगा। इसलिए विनीत नारायण व अन्य बनाम भारत सरकार व अन्यनामक मुकदमे के दौरान जब सर्वोच्च न्यायालय में सीबीआई के निदेशक के चयन की प्रक्रिया निर्धारित की जा रही थी तब भी इस मुकदमे का मुख्य याचिकाकर्ता होने के नाते मैंने सर्वोच्च अदालत को लिखकर विरोध किया था। मेरा तर्क था कि बड़े पदों पर बैठे लोगों की जांच के लिए जिम्मेदार व्यक्ति का चयन अगर उसी जमात के लोगों द्वारा होगा तो यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे लोग अपने लिए खतरे की घंटी बांध लें ? खैर सर्वोच्च न्यायालय ने 18 दिसंबंर 1997 को उक्त मुकदमे का फैसला सुना दिया, जिसे हवाला कांडका ऐतिहासिक फैसला कहा गया। पर इस तथाकथित ऐतिहासिक फैसले के आने के बाद ही इसकी धज्जियां उड़ा दी गई हैं। चाहे वह केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के कर्तव्यों या अधिकार का निर्धारण हो या सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति का।

इसीलिए जब जनवरी 1999 में श्री आरके राघवन की नियुक्ति सीबीआई के निदेशक के पद पर की गई तो मैंने इसका डट कर विरोध किया। यहां तक कि मैंने ही मार्च 1999 में सर्वोच्च न्यायालय में इस नियुक्ति के विरूद्ध एक जनहित याचिका भी दायर की थी। जिसे दुर्भाग्यवश सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया। अलबत्ता इस याचिका में जिन मुद्दों को लेकर मैंने यह याचिका दायर की थी उन्हीं के आधार पर कैटकी बंग्लूर ईकाई ने पिछले हफ्ते सीबीआई के मौजूदा निदेशक श्री आरके राघवन की नियुक्ति को निरस्त किया है। कैटमें यह मुकदमा श्री दिनाकर ले गए थे। जब कैटने इतना बड़ा निर्णय दिया है तो जाहिर है कि कैटको इस नियुक्ति में खोट नजर आया। श्री राघवन की चयन प्रक्रिया में मुख्यतः तीन लोग शामिल थे। भारत सरकार के गृह सचिव, सचिव (कार्मिक) व इस समिति के अध्यक्ष केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल। इस लेख में आगे प्रस्तुत किए गए तथ्यों को जानने के बाद आप स्वयं ही समझ जाएंगे कि श्री राघवन की नियुक्ति में किस किस्म का पक्षपात और गैर-जिम्मेदाराना आचरण किया गया ?

सबसे पहली बात तो यह है कि श्री राघवन को आपराधिक जांच का अनुभव नग्णय था। भारतीय पुलिस सेवा के अपने कार्यकाल में ज्यादातर समय उन्होंने इंटेलिजेंस ब्यूरोया खुफियागिरी में ही गुजारा। जबकि सीबीआई देश की सर्वोच्च आपराधिक जांच एजेंसी है जो न सिर्फ छोटे अपराधों की जांच करती है बल्कि बड़े-बड़े घोटालों और देशदा्रेह के कांडों की भी जांच करती है। इसलिए इसे विशेष रूप से प्रशिक्षित अधिकारियों की जरूरत होती है। श्री राघवन एक भले आदमी बेशक हों पर वे सीबीआई निदेशके के पद लिए उपयुक्त पात्र नहीं हैं। जैसा सबको मालूम है कि राजग की केंद्र में बनी वाजपेयी सरकार के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में एआईडीएमके की नेता सुश्री जयललिता भी थीं। जिनपर तमाम तरह के मुकदमें सीबीआई में लंबित थे। उनसे निपटने के लिए उन्हें सीबीआई के निदेशक के पद पर अपने प्रति वफादार अधिकारी की  जरूरत थी। चुकी श्री राघवन दक्षिण भारत के ही हैं और उन्होंने एक लंबा अरसा तमिलनाडु में ही बिताया है, जहां जाहिरन उनके राजनैतिक संपर्क काफी गहरे हैं। इसलिए उनकी नियुक्ति के समय इस बात की चर्चा जोरों पर थी कि उनकी नियुक्ति सुश्री जयललिता ने दबाव डाल कर करवाई है।

यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस आदेश के तहत श्री राघवन को चुनने का नाटक किया गया उस आदेश को देने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री जेएस वर्मा ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने राजीव गांधी हत्या कांड की जांच के लिए बने वर्मा आयोग की अध्यक्षता की थी। इस आयोग की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति वर्मा ने श्री आरके राघवन की कार्यक्षमता पर गंभीर आपत्ति जताते हुए उनके खिलाफ कई टिप्पणियां दर्ज की थीं। जिनसे श्री राघवन के अकुशल, लापरवाह व कर्तव्य के प्रति सजग न होने का प्रमाण मिलता है। वर्मा आयोग की इस रिपोर्ट के बाद भारत सरकार ने तमिलनाडु सरकार को यह सुझाव भेजा था कि वह श्री राघवन के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाही करे। पर तमिलनाडु की सरकार ने ऐसा नहीं किया बल्कि श्री राघवन का नाम राष्ट्रपति के पास इस सिफारिश के साथे भेज दिया कि उन्हें राष्ट्रपति द्वारा शौर्य पदक दिया जाए। गनीमत है कि भारत के राष्ट्रपति ने यह पदक देना स्वीकार नहीं किया। जिस व्यक्ति के खिलाफ भारत सरकार के पास सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की ऐसी कठोर टिप्पणी रिकार्ड में थीं और जिसके खिलाफ खुद भारत सरकार ने अनुशासनात्मक कार्रवाही की सिफारिश की थीं उस व्यक्ति में अचानक ऐसी कौन सी योग्यता रातो-रात पैदा हो गई कि उसे इतने महत्वपूर्ण पद पर बिठा दिया गया?

ऐसा लगता है कि श्री राघवन के चयन में प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी ने राष्ट्र के हित से ज्यादा तमिलनाडु के नेताओं के हित को तरजीह दी। क्योंकि उन्हें अपनी सरकार बचानी थी। इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि तमिलनाडु की सरकार ने उनकी तमाम कमजोरियों के बावजूद श्री आरके राघवन का अनेक बार अंधा समर्थन किया। उन्हें पुलिस महानिदेशक बनाना हो या राजीव गांधी हत्या कांड में सजा देने से बचाना हर जगह यह स्पष्ट होता है कि श्री राघवन पर सुश्री जयललिता की कृपा हमेशा बनी रही। सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक के पद पर नियुक्ति के लिए जो मापदंड स्थापित किए थे उनमें योग्यता व वरियता दोनों को महत्व देना था। इस बात के अनेक प्रमाण है कि श्री राघवन कहीं अधिक काबिल और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की उपेक्षा करके श्री राघवन को यह महत्वपूर्ण पद सौंपा गया। शायद इसके पीछे मंशा राजनैतिक रूप से संवेदनशील कई मामलों को रफा-दफा करवाने की रही होगी। क्यांेकि श्री राघवन को यह पद बड़े ही महत्वपूर्ण दौर में दिया गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्टल ने इन सब तथ्यों को जानते हुए भी श्री राघवन की नियुक्ति की। दोनों ही तमिलनाडु राज्य से हैं। क्या यह भी इसकी वजह थीं ? यहां यह महत्वपूर्ण है कि 28 मार्च 1999 को इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक साक्षात्कार में श्री राघवन ने स्वयं स्वीकारा है कि सीबीआई के निदेशक के पद पर नियुक्ति के प्रस्तावित नामों की सूची में उनका नहीं था, पर उसे बाद में जोड़ा गया, क्यों ? कर्नाटक उच्च न्यायालय में जाने से पहले भारत सरकार को ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर देश को देने चाहिए। मेरी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने तब ध्यान भले ही न दिया हो पर कैटके निर्णय से यह स्पष्ट हो गया है कि अपनी इस याचिका में मैंने गंभीर प्रश्न उठाए थे। जिनकी अगर उपेक्षा न की गई होती तो एक अयोग्य व्यक्ति तीन वर्ष तक सीबीआई का निदेशक न रह पाता। क्या श्री एन. विट्टल व भारत सरकार भविष्य के लिए जागने को तैयार है ?

Friday, February 9, 2001

आपद प्रबंधन प्रधानमंत्री की कागजी घोषणाएं


गुजरात के भूकंप की भयावहता व जान व माल की भारी हानि से आतंकित सरकार और अधिकारी एक बार फिर देश को सुहाने सपने दिखाकर गुमराह करने में जुटे हैं। दिल्ली जैसे दूसरे महानगरों में रहने वालों को  आश्वस्त किया जा रहा है कि उन्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं है, सरकार और उसकी एजेंसियां यह सुनिश्चित करेंगी कि इन नगरों के भवन भूकंप से निपटने में कितने सक्षम हैं ? पर पिछले बीस साल का सरकारी इतिहास इस बात का गवाह है कि सरकार ने आपद स्थिति से निपटने के प्रबंधन के नाम पर केवल झूठे वायदे और नाटक किए हैं। यह कितने दुख की बात है कि जापान में कोबे नगर में 7.2 रिचर स्केल की तीव्रता के भूकंप के बावजूद केवल 5000 लोग मरे थे जबकि गुजरात में 6.9 रिचर स्केल की तीव्रता के भूकंप में मरने वालों की संख्या एक लाख के करीब बताई जा रही है। ऐसा जनसंख्या दबाव, खराब भवन निर्माण व राहत में समन्वय की कमी के कारण हुआ। पर फिर भी हम अपनी गलतियों से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। हमारे नौकरशाह जानते सब हैं पर उसे लागू करने में केंचुए की गति से चलते हैं। क्या भारत नहीं जानता कि 1997 में डा. ए.एस. आर्या को संयुक्त राष्ट्र का प्रतिष्ठित पुरस्कार डीएचए ससकोवा एवार्ड दिया गया था क्योंकि उन्होंने स्कूलों को भूचाल से सुरक्षित रखने के उपायइस पुस्तक में सुझाए थे। पर उनके सुझावों की उपेक्षा कर दी गई। आज से बीस वर्ष पहले 1980 में ज्वाइंट असिस्टेंस सेंटर ने ए गाइड टू रिलिफ वकर््र्सनाम से एक पुस्तक तैयार की थी ताकि आपदा के समय राहतकर्मी सलीके से काम कर सकें। पर तत्कालीन केंद्रीय राहत आयुक्त श्री आर.एन मुखर्जी ने तीन महीने तक किताब रख कर बिना कुछ किए सेंटर को लौटा दिया। हमारी नौकरशाही 1980 से 90 के दशक तक इसी तरह उदासीनता बरतती रही।

1977 के आंध्र प्रदेश के समुद्री तूफान के बाद केंद्र सरकार ने एक डिस्ट्रेस मिटिगेशन कमेटीकी स्थापना की थी। विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय के अधीन इसे काम करना था। पर कुछ नहीं हुआ। 1980 में शहरी विकास मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय भवन संगठन (एनबीओ) के अधीन एक टास्क फोर्सका भी गठन किया गया। ऐसी ही तमाम और भी समितियां और प्रयास कागजों पर किए जाते रहे। जिनकी रिपोर्ट धूल खा रहीं हैं। जबकि आए दिन देश किसी न किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होता रहता है।

भारत सरकार व स्वयंसेवी संगठनों के समन्वय के लिए भी एक समिति बहुत समय से बनी हुई है। पर इसे कभी सक्रिय नहीं किया गया, इस भूचाल में भी। यह समिति भी नौकरशाही की शिकार हो गई है, जो नौकशाही अपनी गलतियों से सबक सीखने को तैयार नहीं है। 1995 में भारी मशक्कत के बाद केयर इंडियाने सरकार को विस्तृत अध्ययन के बाद एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें बाढ़, तूफान या भूचाल जैसी आपातस्थिति में तैयार रहने के लिए प्रशिक्षण का तरीका सुझाया गया था। इस सार्थक रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए पहली बैठक बुलाने में ही संबंधित नौकरशाहों ने एक वर्ष गंवा दिया। फिर भी जो फैसले लिए गए उन पर आज तक अमल नहीं किया गया।

यह दुख की बात है कि भारत सरकार प्रशिक्षण व शिक्षा को प्राथमिकता की सूची मे काफी नीचे रखती है। 1980 के दशक में योजना आयोग ने आपातस्थिति में राहत के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं की भूमिका के महत्व को स्वीकार किया था। उसी दौरान विश्व युवक केंद्र, दिल्ली में जेएसीने एक सेमिनार करके आपद प्रबंधन के विभिन्न आयामों पर रोशनी डाली थी। ऐसे ही संस्थान की प्रयासों के बाद योजना आयोग ने छठी पंचवर्षीय योजना में आपद प्रबंधन संस्थान की स्थापना के लिए 15 करोड़ रूपए का प्रावधान रखा था। इस संस्थान की स्थापना की तैयार के दिशा में काफी काम किया गया। 1986 में इस संबंध में एक नोट कैबिनेट कमेटी को भेजा गया। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस पर विचार तो किया पर कोई फैसला नहीं लिया। जबकि 1986 में बंग्लौर में इस संस्थान की स्थापना की घोषणा भी कर दी गई थी, पर कुछ नहीं हुआ। इसकी स्थापना सातवीं योजना में करने की बात कह कर टाल दी गई। बाद में तो इसके लिए योजना में प्रावधान ही नहीं छोड़ा गया। मानो आपद प्रबंधन की इस देश को जरूरत ही न हो। फिर अचानक क्या हुआ कि मार्च 1994 में नौकशाही ने भारतीय जनप्रबंधन संस्थानदिल्ली के झंडे तले एक सेंटर फार डिजास्टर मैंनेजमेंटखोल दिया। मजाक देखिए कि अफसरों को प्रशासनिक प्रशिक्षण देने वाले संस्थान में ही आपद प्रबंधन जैसे अतिविशिष्ट क्षेत्र के प्रशिक्षण का इंतजाम कर दिया गया। यह सब खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं था। भोपाल गैस कांड के बाद भी दो वर्ष के भीतर दस करोड़ रूपए की लागत से एक संस्थान खोलने की बात की गई थी जिसे बाद में राज्य अकादमी का हिस्सा बना कर ठंडा कर दिया गया। ये नए केंद्र स्वयंसेवी संगठनों से जानकारी लेकर अपना काम चलाते रहे हैं फिर भी सरकार इस विशिष्ट क्षेत्र में अनुभवी लोगों की मदद लेने से हिचक रही है।
उत्तर काशी का भूचाल हो या बिहार की बाढ़, राजस्थान का सूखा हो या उड़ीसा का समुद्री तूफान बार-बार लगातार सरकार को आपद प्रबंधन के जरूरी कदम उठाने की मांग करने वाले शोध पत्र, रिपोर्ट व प्रस्ताव दिए जाते रहे हैं। पर अपने को तीसमारखां समझने वाली नौकशाही ने एक न चलने दी। आज राहत के नाम पर गुजरात में जो अफरा-तफरी मची है उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वे नौकरशाह हैं जिन्होंने पिछले बीस वर्ष में ऐसे सभी प्रयासों के रास्ते में रोड़े अटकाने का काम किया है। इसलिए आपद प्रबंधन के लिए प्रधानमंत्री ने जो हाल ही में स्पेशल सेलगठित की है उससे बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। क्योंकि यह सेल भी भारत सरकार की परंपरा अनुरूप नाटकीय घोषणाएं करके और तात्कालिक तत्परता दिखा कर जल्दी ही ठंडी पड़ जाएगी। तब तक कोई हरकत नहीं होगी जब तक कोई दूसरी विपदा न आन पड़े।

11वंे वित्त आयोग ने एक नेशनल सेंटर फार केलेमिटी मैंनेजमेंटकी सिफारिश की है और यह भी कि केंद्रीय कृषि मंत्रालय को हर साल 31 दिसंबर तक प्राकृतिक विपदाओं पर सालाना रिपोर्ट तैयार करके जनता के बीच जारी करनी चाहिए। वित्त आयोग की ये सिफारिशें जुलाई 2000 में संसदीय के सामने पेश की गई थीं। क्या नौकरशाही बताएगी कि उसने इस दिशा में आज तक क्या किया ? होना तो यह चाहिए था कि रेलवे बोर्ड की तरह आपद प्रबंधन के विशेषज्ञों का एक राष्ट्रीय संगठन या बोर्ड गठित कर दिया जाता जिसे इस दिशा में काम करने की छूट, अधिकार व साधन मुहैया करा दिए जाते। पर भारत की निखट्ठू नौकरशाही ऐसा कभी नहीं होने देगी। दरअसल, पर्दे के पीछे सक्रिय रह कर, राजनेताओं की आलोचना करवाने में माहिर नौकरशाही, इस देश में काहिली, बदहाली और बदइंतजामी के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। जब तक आम लोग, पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता व बुद्धिजीवी नौकरशाही को उसका फर्ज याद दिलाने के लिए ललकारेंगे नहीं, ये जमात देश में कुछ नहीं होने देगी। पिछले दस वर्षों में सरकार ने आपद प्रबंधन के बारे में जनजागृति पैदा करने के लिए दस करोड़ रूपया तो केवल अखबारों में विज्ञापन पर ही खर्च कर दिया है। पर जब गुजरात जैसी आपदा आती है तब सरकार के इन चोचलों की कलई खुलती है। 1944 में संयुक्त राष्ट्र ने आपद प्रबंधन पर एक विश्व सम्मेलन किया था। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने 1990 में इस विषय पर सेमिनार किया था। महाराष्ट्र सरकार ने 1980 में इस संबंध में कदम उठाने की घोषणा की थी। पर 1993 के लाटूर के भूकंप में सब कागजी सिर्फ हुआ। दिल्ली के उप राज्यपाल ने दिल्ली के लिए एक ऐसा मास्टर प्लान बनाने की घोषणा की थी जो सिद्ध कागजों पर रही। कर्नाटक ने भी अपने हर जिले के लिए आपद प्रबंधन योजना तैयार कने की घोषणा की थी, उसका क्या हुआ, नहीं पता ?

इसलिए यह बात निसंकोच कही जा सकती है कि आपद प्रबंधन के नाम पर प्रधानमंत्री ने जो कुछ घोषणाएं की हैं उनसे धरातल पर कुछ होने नहीं जा रहा है। देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी पर मंडराने वाले अप्रत्याशित खतरे को देखते हुए इस गंभीर मुद्दे पर एक राष्ट्र व्यापी बहस की जरूरत है। जिसके बाद एक राष्ट्रीय नीति की घोषणा की जाए और आपद प्रबंधन के काम को एक अलग मंत्रालय या राष्ट्रीय बोर्ड बना कर युद्ध स्तर पर खड़ा किया जाए। इसका काम सरकार और निजी क्षेत्र के बीच समन्वय स्थापित कर आपद प्रबंधन की समुचित व्यवस्था करना हो। इसमें नौकरशाही का दखल जितना कम होगा उतने ही सार्थक नतीजे सामने आएंगे। संसद का अधिवेशन 19 फरवरी को शुरू होने जा रहा है। हर संसदीय क्षेत्र के नागरिकों को अपने सांसद पर यह दबाव डालना चाहिए कि वे आगामी सत्र में पारस्परिक दोषारोपणों से ऊपर उठकर इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन करें ताकि इस दिशा में वांछित कदम उठाने की  जमीन तैयार हो सके।

Friday, February 2, 2001

गुजरात के भूचाल से सबक


किसी भी प्राकृतिक विपदा पर इंसान का बस नहीं है। इन आपदाओं को ना तो हम नियंत्रित कर सकते हैं और ना ही किसी को दोष दिया जा सकता है। हां विज्ञान और तकनीक का प्रयोग करके कई बार थोड़ा बहुत पूर्वानुमान कई विकसित देशों में लगा लिया जाता है। इससे जान व माल दोनों की सुरक्षा करने में आसानी हो जाती है। हालांकि भारत को बाढ़, भूकंप, तूफान, सूखा जैसी प्राकृतिक विपदाओं का सामना लगभग हर वर्ष ही करना पड़ता है फिर भी राहत कार्य नियोजित ढंग से नहीं हो पाते। ऐसी आपात स्थिति पैदा होते ही अफरा-तफरी सी मच जाती है। जैसा आज गुजरात में हो रहा है या पहले उड़ीसा में आए समुद्री तूफान के बाद हुआ था।

यूं तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, गृहमंत्री आदि भूचाल के आने के बाद से ही लगातार सक्रिय हैं और राहत कार्यों को अपनी निगरानी में करवा रहे हैं। सेना के जवान और अफसर रातदिन जुट कर राहत कार्य पूरा करने में लगे हैं। उधर गुजरात के आम नागरिक भारी तादाद में राहत कार्य में हाथ बंटाने सड़कों पर उतर आए हैं। विदेशों से भी मदद पहुंचनी शुरू हो गई है फिर भी यह जरूरत से बहुत कम है। इतने बड़े क्षेत्र में इतने सारे भवन अगर अचानक भूचाल से ध्वस्त हो जाएं तो कोई भी सरकारी मशीनरी एकदम राहत नहीं पहुंचा सकती। इसलिए तीन दिन बाद तक भी हजारों लोग जिंदा या मुर्दा मलबे के नीचे दबे रहे। अस्पतालों में डाक्टरी सेवाओं की भारी कमी महससू की जाती रही। जो डाक्टर वहां मौजूद है वे रातदिन घायलांे की तीमारदारी में जुटे हैं। पर अब वे भी थकने लगे हैं। श्मशानघाटों में चिता के लिए लाइनें लगी हैं। अपने प्रियजनों को कई-कई  के ढेर में भी जलाने को लोग मजबूर हुए। पीने के पानी की भारी किल्लत भी महससू की गई। यह सारी स्थिति भयावह तो है ही पर कुछ सोचने पर मजबूर करती है। एक तरफ तो हम सूचना क्रांति और आईटी जैसे न जाने कितने लंबे-चैड़े दावे करते हैं और दूसरी तरफ आपात स्थिति में फंसते ही हमारे हाथ-पांव फूल जाते हैं। डिजास्टर मैनेजमेंटया आपदा प्रबंधन एक विशिष्ट क्षेत्र है जिसकी तरफ हमारे देश में कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। इस क्षेत्र के विशेषज्ञ पिछले 25-30 वर्षो से सरकार के पीछे पड़े हैं कि भारत आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में गंभीरता से रूचि ले। इसलिए कि भारत पर प्राकृतिक आपदा की मार अक्सर पड़ती रहती है और इसलिए भी कि भारत में आज भी आधी आबादी अशिक्षित है व नितांत गरीबी में जी रही है। ऐसे में प्राकृतिक आपदा की मार उन पर और ज्यादा पड़ती है।

जिनके घर और कारोबार ही नहीं बच्चे और परिवारजन भी गुजरात के भूचाल की बलि चढ़ गए, वे करें तो क्या करें ? जाएं तो कहां जाएं ? कैसे करें नई जिंदगी की शुरूआत ? ऐसे तमाम सवाल उनके मन में हैं जिनके समाधन देने वाले लोग उनके ईर्द-गिर्द नहीं है। यह बड़ी दुख की बात है कि सौ करोड़ की आबादी वाले मुल्क में जहां चालीस करोड़ नौजवान हैं और उनमें भी ज्यादातार बेरोजगार, फिर क्यों ऐसी आपदा के समय हम इस नौजवान सेना की मदद नहीं ले पाते ? उत्तर साफ है कि आज तक इस युवा ऊर्जा को ठीक दिशा में प्रशिक्षित करने का कोई प्रयास ही नहीं किया गया। न तो समाज की तरफ से न तो सरकार की तरफ से। जो थोड़े-बहुत सरकारी या निजी स्तर पर प्रयास हुए भी हैं, उनसे इतने बड़े देश के हर हिस्से की सेवा करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए यह और भी जरूरी है कि व्यापक स्तर पर आपात प्रबंधन के प्रशिक्षण की मुहिम चलाई जाए। मसलन, हर शहर में नौकरी या निजी प्रेक्टिस करने वाले डाक्टरों में से उन डाक्टरों की सूची तैयार की जा सकती है जो हर आपदा के समय अपनी सेवाएं देने को तैयार हैं। यदि ऐसा हुआ होता तो गुजरात का भूचाल आने के कुछ घंटों के भीतर ही देश के कोने-कोने से योग्य डाक्टरों को वायुयानों में बैठाकर गुजरात ले जाया जा सकता था। इसी तरह स्वयं सेवी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं का भी प्रशिक्षित करने की जरूरत है। ताकि विपदा के समय वे कुशलता से राहत कार्य को अंजाम दे सकें। अभी हाल में गुजरात में क्या हुआ ? स्वयंसेवी तो हजारों की तादाद में सड़कों पर राहत कार्य करने उतर आए पर किसी प्रशिक्षण के अभाव में वे घायलों की सही देखभाल नहीं कर पाए। ऐसे में उत्साह से ज्यादा जरूरत संगठन और प्रशिक्षण की जरूरत होती है। मलबों के ढेर से घायलों को खींचकर बाहर निकालने वाले प्रशिक्षण के अभाव में यह नहीं समझ सके कि उनके इस सद्प्रयास से उन घायलों को कितना कष्ट हो रहा था ? जिसका प्रमाण उनकी लगातार बढ़ती चीखें थी। अंदर फंसा व्यक्ति किसी अवस्था में है ? उसे कितनी चोट आई है ? उसकी आयु क्या है ? यह सब जाने बिना एक ही लाठी से सब भैंसे नहीं हाॅकी जा सकती। लोग यह देखकर आश्चर्य चकित रह गए कि विदेश से आई एक राहत टीम ने किस तरह खोजी कुत्तों का और सेंसर उपकरणों का प्रयोग करके यह बताना शुरू कर दिया कि किस मलवे के नीचे जिंदा लोग दबे पड़े हैं। क्या इस तरह कुत्तों को भारत में प्रशिक्षित नहीं किया जा सकता ? अगर देश भर के अनुभवी लोग, विशेषज्ञ और युवा आपात प्रबंधन के मामले में एक राष्ट्रीय स्तर का नेटवर्क तैयार कर लें तो हर ऐसी प्राकृत विपदा से जूझने वालों की एक बड़ी फौज देश में हर समय उपलब्ध रहेगी और देश के किसी भी हिस्से में आपदा आने पर इस फौज के जवान तुरंत राहत कार्य करने पहुंच सकते हैं। 

इसके साथ ही कुछ बुनियादी सवाल भी खड़े हो गए हैं। सबसे अहम सवाल है कि भवन निर्माण में पूरी सावधानी का न बरता जाना। गढ़वाल के भूचाल के बाद कुछ वास्तुकारों ने वहां जाकर जब अध्ययन किया तो उन्हें इस बात पर भारी अचरज हुआ कि भूचाल में ध्वस्त होने वाले ज्यादातर भवन वे थे जिनका निर्माण पिछले बीस-तीस वर्षों में हुआ था और ये भवन आधुनिक तकनीकी से बने थे। जबकि गारे, पत्थर और लकड़ी के संयोग से बने पारंपरिक मकान यथावत खड़े रहे। अगर गिरे भी तो इस भयावह तरीके से नहीं कि जानोमाल की भारी तबाही हो। जबकि गुजरात में बनी आधुनिक बहुखंड़ी इमारतें ताश के घारों की तरह चरमरा कर गिर पड़ी। जाहिरन इनमें न सिर्फ सही मात्रा में लोहा व अन्य भवन निर्माण सामग्री लगाई गई थी और ना ही इनका बनाते वक्त भूचाल से निपटने के लिए समुचित सावधानियां बरती गई। जहां भूचाल की गति असामान्य रूप से तेज होती है वहां तो न अमीर का महल बचता है और न गरीब की झोपड़ी। पर जहां बचाव हो सकता था वहां भी नहीं हुआ, यह चिंता की बात है। जापान जैसे तमाम देश जो भूकंप के नियमित झटके झेलने के आदि हैं उन देशों ने भूचाल रोधी भवनों का निर्माण किया है। दिल्ली में हुए उपहार सिनेमा के अग्नि कांड से यह बात खुल कर सामने आई कि भवन निर्माता बिना पूरी सावधानी बर्ते ही स्थानीय प्रशासन से नोआबजेक्शनप्रमाण पत्र प्राप्त कर लेते हैं। जिसका खामियाजा भुगतना पड़ता है निरीह जनता को। गुजरात के इस भूचाल के साथ ही बड़े बांधों का विरोध करने वाले भी फिर सक्रिय हो गए हैं। वे यह आगाह कर देना चाहते हैं कि अगर समय रहते चेता नहीं गया तो कभी ये बड़े बांध भूचाल का शिकार होकर भारी तबाही मचाएंगे। इस सब जद्दोजहद के बीच फिलहाल गुजरात के लोगों को सिर्फ राहत की जरूरत है। जिसे अपनी क्षमतानुसार वहां पहुंचाना हम सबका राष्ट्रधर्म है।