Friday, February 16, 2001

क्या थे सीबीआई निदेशक के चयन में खोट ?


सीबीआई के निदेशक आरके राघवन की नियुक्ति को कैटने निरस्त कर दिया। भारत सरकार इस निर्णय के विरूद्ध कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील दर्ज करने जा रही है। जब तक न्यायालय का फैसला आएगा तक तब श्री राघवन अपना कार्यकाल पूरा कर चुके होंगे। इसलिए कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक श्री सी. दिनाकर की मेहनत का वांछित फल देश को नहीं मिलेगा। पर इस पूरे विवाद ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े कर दिए हैं। पाठकों को याद होगा कि इस स्तंभ में हमने पहले भी इस बात का उल्लेख किया है कि सार्वजनिक महत्व के महत्वपूर्ण पदों पर लोगों को चुनने की मौजूदा प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। इसीलिए लोकतंत्र की महत्वपूर्ण संस्थाओं का तेजी से पतन होता जा रहा है। राजनैतिक प्राथमिकताओं के मद्देनजर जब नियुक्तियां की जाएंगी तो कम योग्यता वाले, चापलूस या भ्रष्ट लोग ही वरियता पाएंगे। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि ऐसे पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया चंद लोगों के हाथ में सीमित न रहे। चाहे वे लोग प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और केंद्रीय सतर्कता आयुक्तनुमा लोग ही क्यों न हों। मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य चुनाव आयुक्त ,भारत के महालेखाकार, भारत के महालेखा नियंत्रक, सेबी के निदेशक, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के जज कुछ ऐसे महत्वपूर्ण पद हैं जिन पर बैठने वाले व्यक्ति से पूरी पारदर्शिता की अपेक्षा की जाती है। इसलिए ऐसे पदों के लिए चयन करने का वही तरीका सर्वश्रेष्ठ होगा जिसमें प्रस्तावित व्यक्ति के नाम व योग्यता का व्यापक प्रचार मीडिया पर किया जाना चाहिए। उसके व्यक्तित्व और आचरण को लेकर अगर किसी को भी कोई भी आपत्ति हो तो उसे यह छूट होनी चाहिए कि वह अपनी आपत्ति को चयनकर्ताओं तक दर्ज करा सके। चयनकर्ताओं का यह फर्ज होना चाहिए कि वे इन आपत्तियों की पूरी पड़ताल करवाए बिना उस व्यक्ति के नाम की संस्तुति न करें। कई लोकतांत्रिक देशों में यह प्रक्रिया पहले से ही चल रही है और सफल है। भारत में जब चालीस से ज्यादा टीवी चैनल चल रहे हैं। दर्जनों किस्म के समाचार आधारित कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं तो फिर इस व्यवस्था को बनाने में क्या दिक्कत हो सकती है ? जब देश के हर कोने में बैठे दर्शक किसी व्यक्ति का चेहरा टीवी पर देखकर और उसका बाॅयोडेटा जानकर यह उद्घोषणा सुनेंगे तो जाहिरन उनमें से कुछ तो ऐसे लोग होंगे ही जो उस व्यक्ति को अच्छी तरह जानते होंगे। उसकी अच्छाइयां और बुराइयां उन्हें पता होंगी। नतीजतन ऐसे लोग किसी गलत व्यक्ति के नाम प्रचारित होते ही उसका विरोध करेंगे। वे बता देंगे कि फलां व्यक्ति ने किस राज्य में जमीन घोटाले किए या अन्य बड़े कांड किए। तथ्यों पर आधारित ऐसे आरोपों की फिर उपेक्षा करना चयनकर्ताओं के लिए सरल न होगा। इसलिए विनीत नारायण व अन्य बनाम भारत सरकार व अन्यनामक मुकदमे के दौरान जब सर्वोच्च न्यायालय में सीबीआई के निदेशक के चयन की प्रक्रिया निर्धारित की जा रही थी तब भी इस मुकदमे का मुख्य याचिकाकर्ता होने के नाते मैंने सर्वोच्च अदालत को लिखकर विरोध किया था। मेरा तर्क था कि बड़े पदों पर बैठे लोगों की जांच के लिए जिम्मेदार व्यक्ति का चयन अगर उसी जमात के लोगों द्वारा होगा तो यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे लोग अपने लिए खतरे की घंटी बांध लें ? खैर सर्वोच्च न्यायालय ने 18 दिसंबंर 1997 को उक्त मुकदमे का फैसला सुना दिया, जिसे हवाला कांडका ऐतिहासिक फैसला कहा गया। पर इस तथाकथित ऐतिहासिक फैसले के आने के बाद ही इसकी धज्जियां उड़ा दी गई हैं। चाहे वह केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के कर्तव्यों या अधिकार का निर्धारण हो या सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति का।

इसीलिए जब जनवरी 1999 में श्री आरके राघवन की नियुक्ति सीबीआई के निदेशक के पद पर की गई तो मैंने इसका डट कर विरोध किया। यहां तक कि मैंने ही मार्च 1999 में सर्वोच्च न्यायालय में इस नियुक्ति के विरूद्ध एक जनहित याचिका भी दायर की थी। जिसे दुर्भाग्यवश सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया। अलबत्ता इस याचिका में जिन मुद्दों को लेकर मैंने यह याचिका दायर की थी उन्हीं के आधार पर कैटकी बंग्लूर ईकाई ने पिछले हफ्ते सीबीआई के मौजूदा निदेशक श्री आरके राघवन की नियुक्ति को निरस्त किया है। कैटमें यह मुकदमा श्री दिनाकर ले गए थे। जब कैटने इतना बड़ा निर्णय दिया है तो जाहिर है कि कैटको इस नियुक्ति में खोट नजर आया। श्री राघवन की चयन प्रक्रिया में मुख्यतः तीन लोग शामिल थे। भारत सरकार के गृह सचिव, सचिव (कार्मिक) व इस समिति के अध्यक्ष केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल। इस लेख में आगे प्रस्तुत किए गए तथ्यों को जानने के बाद आप स्वयं ही समझ जाएंगे कि श्री राघवन की नियुक्ति में किस किस्म का पक्षपात और गैर-जिम्मेदाराना आचरण किया गया ?

सबसे पहली बात तो यह है कि श्री राघवन को आपराधिक जांच का अनुभव नग्णय था। भारतीय पुलिस सेवा के अपने कार्यकाल में ज्यादातर समय उन्होंने इंटेलिजेंस ब्यूरोया खुफियागिरी में ही गुजारा। जबकि सीबीआई देश की सर्वोच्च आपराधिक जांच एजेंसी है जो न सिर्फ छोटे अपराधों की जांच करती है बल्कि बड़े-बड़े घोटालों और देशदा्रेह के कांडों की भी जांच करती है। इसलिए इसे विशेष रूप से प्रशिक्षित अधिकारियों की जरूरत होती है। श्री राघवन एक भले आदमी बेशक हों पर वे सीबीआई निदेशके के पद लिए उपयुक्त पात्र नहीं हैं। जैसा सबको मालूम है कि राजग की केंद्र में बनी वाजपेयी सरकार के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में एआईडीएमके की नेता सुश्री जयललिता भी थीं। जिनपर तमाम तरह के मुकदमें सीबीआई में लंबित थे। उनसे निपटने के लिए उन्हें सीबीआई के निदेशक के पद पर अपने प्रति वफादार अधिकारी की  जरूरत थी। चुकी श्री राघवन दक्षिण भारत के ही हैं और उन्होंने एक लंबा अरसा तमिलनाडु में ही बिताया है, जहां जाहिरन उनके राजनैतिक संपर्क काफी गहरे हैं। इसलिए उनकी नियुक्ति के समय इस बात की चर्चा जोरों पर थी कि उनकी नियुक्ति सुश्री जयललिता ने दबाव डाल कर करवाई है।

यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस आदेश के तहत श्री राघवन को चुनने का नाटक किया गया उस आदेश को देने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री जेएस वर्मा ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने राजीव गांधी हत्या कांड की जांच के लिए बने वर्मा आयोग की अध्यक्षता की थी। इस आयोग की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति वर्मा ने श्री आरके राघवन की कार्यक्षमता पर गंभीर आपत्ति जताते हुए उनके खिलाफ कई टिप्पणियां दर्ज की थीं। जिनसे श्री राघवन के अकुशल, लापरवाह व कर्तव्य के प्रति सजग न होने का प्रमाण मिलता है। वर्मा आयोग की इस रिपोर्ट के बाद भारत सरकार ने तमिलनाडु सरकार को यह सुझाव भेजा था कि वह श्री राघवन के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाही करे। पर तमिलनाडु की सरकार ने ऐसा नहीं किया बल्कि श्री राघवन का नाम राष्ट्रपति के पास इस सिफारिश के साथे भेज दिया कि उन्हें राष्ट्रपति द्वारा शौर्य पदक दिया जाए। गनीमत है कि भारत के राष्ट्रपति ने यह पदक देना स्वीकार नहीं किया। जिस व्यक्ति के खिलाफ भारत सरकार के पास सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की ऐसी कठोर टिप्पणी रिकार्ड में थीं और जिसके खिलाफ खुद भारत सरकार ने अनुशासनात्मक कार्रवाही की सिफारिश की थीं उस व्यक्ति में अचानक ऐसी कौन सी योग्यता रातो-रात पैदा हो गई कि उसे इतने महत्वपूर्ण पद पर बिठा दिया गया?

ऐसा लगता है कि श्री राघवन के चयन में प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी ने राष्ट्र के हित से ज्यादा तमिलनाडु के नेताओं के हित को तरजीह दी। क्योंकि उन्हें अपनी सरकार बचानी थी। इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि तमिलनाडु की सरकार ने उनकी तमाम कमजोरियों के बावजूद श्री आरके राघवन का अनेक बार अंधा समर्थन किया। उन्हें पुलिस महानिदेशक बनाना हो या राजीव गांधी हत्या कांड में सजा देने से बचाना हर जगह यह स्पष्ट होता है कि श्री राघवन पर सुश्री जयललिता की कृपा हमेशा बनी रही। सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक के पद पर नियुक्ति के लिए जो मापदंड स्थापित किए थे उनमें योग्यता व वरियता दोनों को महत्व देना था। इस बात के अनेक प्रमाण है कि श्री राघवन कहीं अधिक काबिल और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की उपेक्षा करके श्री राघवन को यह महत्वपूर्ण पद सौंपा गया। शायद इसके पीछे मंशा राजनैतिक रूप से संवेदनशील कई मामलों को रफा-दफा करवाने की रही होगी। क्यांेकि श्री राघवन को यह पद बड़े ही महत्वपूर्ण दौर में दिया गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्टल ने इन सब तथ्यों को जानते हुए भी श्री राघवन की नियुक्ति की। दोनों ही तमिलनाडु राज्य से हैं। क्या यह भी इसकी वजह थीं ? यहां यह महत्वपूर्ण है कि 28 मार्च 1999 को इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक साक्षात्कार में श्री राघवन ने स्वयं स्वीकारा है कि सीबीआई के निदेशक के पद पर नियुक्ति के प्रस्तावित नामों की सूची में उनका नहीं था, पर उसे बाद में जोड़ा गया, क्यों ? कर्नाटक उच्च न्यायालय में जाने से पहले भारत सरकार को ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर देश को देने चाहिए। मेरी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने तब ध्यान भले ही न दिया हो पर कैटके निर्णय से यह स्पष्ट हो गया है कि अपनी इस याचिका में मैंने गंभीर प्रश्न उठाए थे। जिनकी अगर उपेक्षा न की गई होती तो एक अयोग्य व्यक्ति तीन वर्ष तक सीबीआई का निदेशक न रह पाता। क्या श्री एन. विट्टल व भारत सरकार भविष्य के लिए जागने को तैयार है ?

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