आखिरकार राष्ट्रपति को चुनाव सुधार अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने ही पड़े। उनका सुझाव न तो सरकार ने माना और न ही अन्य दलों ने। कैसा इत्फाक है कि राजनीति के अपराधिकरण के विरूद्ध बोलते तो सब बढ़-चढ़ कर हैं पर जब इसे रोकने के लिए कुछ ठोस करने की बात आती है तो सभी दल उसके विरूद्ध एकसाथ लांमबंद हो जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि ज्यादातर दलों के ज्यादातर राजनेता आपराधिक पृष्ठभूमि के नहीं हैं। इनके गौरवशाली अतीत है फिर क्यों ये राजनेता राजनीति के अपराधिकरण के विरूद्ध ठोस कदम नहीं उठाते ? हालत बद से बदतर होती जा रही है। पहले राजनीतिज्ञ अपराधियों से मिलने में कतराते थे। फिर उनसे लुकछिप कर मिलने लगे। फिर उन्हें अपने चुनाव में इस्तेमाल करने लगे। जब चुनावों में हिंसा और बाहुबल का बोलबाला हो गया तो अपराधियों को लगा कि जो काम वे राजनेताओं के लिए करते हैं वहीं अपने लिए क्यों नहीं करें ? अपराधियों ने राजनीति में अपने भाग्य आजमाने शुरू किए। नतीजा ये कि आज लोकसभा और विधानसभाओं में ऐसे लोगों की खासी संख्या है जिनपर लूट, हत्या, बलात्कार व अपहरण के दर्जनों मुकदमें चल रहे हैं। कानून तोड़ने वाले आज कानून निर्माता बन गए हैं। फिर भी विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता राजनीति के अपराधिकरण को रोकने को तैयार नहीं हैं। इस तरह क्रमशः लोकतंत्र का ह्रास होता जा रहा है। संसद, विधानसभा या आम सभाओं में भी अब विरोध के स्वर सुनने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। बाहुबल वाले अपने विरोधी को अगर तर्क से नहीं हरा पाते तो हिंसा से चुप करने का निर्लज्ज प्रयास करते हैं।
पिछले दिनों अलवर (राजस्थान) जिले के सूखाग्रस्त इलाके को हराभरा बनाने वाले मेगासेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में सिर की गंभीर चोटों का इलाज करवा रहे थे। उधर मुंबई विधानसभा में विश्वास मत हारने के बाद भाजपा-शिव सेना व सत्तारूढ़ दलों के कार्यकर्ताओं ने जम कर हिंसा की। उड़ीसा विधानसभा पर विहिप के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का हिंसात्मक हमला थोड़े ही दिन पहले हुआ था। राम-भक्तों पर गोधरा का नृशंस अग्निकांड और उसके बाद गुजरात की साम्प्रदायिक हिंसा ने पूरी दुनिया का ध्यान अकर्षित किया। उत्तर प्रदेश विधानसभा में तो कुछ वर्ष पहले विधायकों ने ही माइक और कुर्सी फेंक कर एक दूसरे को लहू-लुहान कर दिया था।
अपनी बात मनवाने का यह नया तरीका विकसित होता जा रहा है। कहने को तो यह लोकतंत्र है, जिसमें हर आदमी को अपनी बात कहने का हक है। हर आदमी तभी कुछ कह सकता है, जब दूसरा सुनने को तैयार हो। जिसे सुनना है वह सुने नहीं, जिसे कहना है वह कह जाए, तो वहीं होता है, जिसका नजारा देश टेलीविजन पर रोजाना संसद के भीतर देखता है। देश की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद के सम्मानित सदस्य जब पीठासीन अधिकारी द्वारा बार-बार की जा रही अपीलों की उपेक्षा करके शोर मचाना जारी रखते हैं, तो एक मछली बाजार से भी बदतर दृश्य सामने आता है। पीठासीन अधिकारी की उपेक्षा करके शोर मचाने वाले सांसद, करोड़ों स्कूली बच्चों और नौजवानों को क्या शिक्षा देंगे ? यही न कि कानून की धज्जियां उड़ाओं, नियम तोड़ो, जा और बेजा जो बोलना हो जम कर बोलो और फिर भी अगर तुम्हारी बात न सुनी जाए तो हिंसा का सहारा ले लो, ये कैसा लोकतंत्र है ? जहां बिहार में चुनाव के दौरान पर्यवेक्षण को गए अधिकारियों से बेलाग कहा जाता है कि ‘चुपचाप गेस्ट हाउस में बैठे रहो, पोलिंग बूथ पर जाने की हिम्मत मत करना, वरना जान से हाथ धो बैठोगे, क्योंकि स्थानीय पुलिस तुम्हें बचाने नहीं आएगी‘। फिर जबरन कब्जाए गए मतदान केंद्रों पर वोटों की छपाई चालू हो जाती है। अगर यही लोकतंत्र है तो जाहिरन इसमें जीत उसी की होगी जिसके पास बाहुबल, जनबल, धनबल या यूं कहें कि माफिया बल ज्यादा होगा। अगर बलपूर्वक ही अपनी जा और बेजा बात मनवानी है तो बेहतर होगा कि हम राजतंत्र की ओर लौट चलें। हर जिले का राजा एक शक्तिशाली माफिया हो, जिसके कारिदें तय करें कि वो जिला कैसे चलेगा ? उसकी मर्जी से कानून बने और उसकी इच्छा से लोगों पर हुुकूमत की जाए। वैसे भी कमोवेश ऐसा ही हो रहा है। कानून और पुलिस की पकड़ सिर्फ शरीफ या आम लोगों तक सीमित है। आज जो जितने बड़े अपराध करता है वह उतने ही बड़े पदों पर सुशोभित हो रहा है। फिर भी लोगों को यही बताया जाता है कि देश में कानून का शासन है। लोग हैरान है कि तमाम प्रमाणों के बावजूद एक से बढ़कर एक बड़े घोटालेबाज न्यायपालिका के हाथों से कैसे बच निकलते हैं ? उन्हें सजा क्यों नहीं मिल पाती ? हर घोटाले की परिणिति बाइज्जत बरी होकर कैसे होती है ? इस संदर्भ में भारत के, हाल ही में सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायधीश श्री एसपी भरूचा का यह कथन महत्वपूर्ण है कि उच्च न्यापालिका में बीस फीसदी न्यायधीश भ्रष्ट हैं और उनसे निपटने के मौजूदा कानून नाकाफी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि महत्वपूर्ण लोगों को, बड़े घोटाले से बरी करने वालों में ऐसे ही न्यायधीश सक्रिय हों ? यह बहुत चिंता की बात है। ऐसी व्यवस्था से ही समाज में असंतोष फूटता है जो हिंसा की राजनीति को जन्म देता है। नक्सलवाद इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
राजेन्द्र सिंह की पिटाई करने वाले अलीगढ़ के देहाती नेता राजवीर सिंह को इस बात पर गुस्सा आया कि राजेन्द्र सिंह ने उनसे असहमति क्यों व्यक्त की। पंचायत प्रमुख राजवीर सिंह ने देहाती क्षेत्र में पानी के संकट के लिए जब सरकार के अनुदान की कमी को कारण बताया तो राजेन्द्र सिंह ने यह कह कर उनकी बात काटी की सरकार पर निर्भर रहने की कोई जरूरत नहीं है। लोग अपने पुरूषार्थ से अपनी आवश्यकता का जल जमा कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें किसी बाहरी मदद की जरूरत नहीं हैं। चूंकि राजेन्द्र सिंह जैसे कई लोगों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थानीय सहयोग से और श्रमदान से प्राकृतिक जल का संग्रह किया इसीलिए उन्हें यह विश्वास है कि ऐसा करना संभव है। पर जिन राजनेताओं की राजनीति अनुदान, ठेके , कमीशन और दलाली पर टिकी होती है उन्हें सहयोग, सहकार्य और श्रमदान जैसी बातें कैसे समझ में आएंगी?
देश में आजादी के बाद विकास का जो माॅडल अपनाया गया उसमें सरकार पर निर्भरता बढ़ा दी गई। जनता से उसकी आत्मनिर्भर जीवनशैली को छीन लिया गया। उसे विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए। उसे सरकारी अनुदान पर निर्भर रहने की आदत डाल दी गई। सामुदायिक पहल और सहयोग की जगह वेतनभोगी सरकारी कर्मचारियों ने ले ली। जिनका उद्देश्य क्षेत्र का विकास करना नहीं मात्र अपना विकास करना है। नौकरशाही और विधायी संस्थाओं के रख-रखाव पर खर्चे, इस कदर बढ़ा दिए गए कि आज यह व्यवस्था पूरी तरह खस्ता हाल हो चुकी है। भारत सरकार से लेकर हर राज्य सरकार आकंठ कर्जों में डूबी है। हालत इतनी बुरी है कि मूल धन चुकाना तो दूर ब्याज तक चुकाने के लिए कर्जें लेने पड़ते हैं। सरकारी कर्मचारिर्यों को तनख्वाह देने को पैसे नहीं है। विकास के नाम पर सभी योजनाएं ठप्प पड़ी है। सरकारी मुलाजिम समय पर वेतन पाने के लिए कई राज्यों में आंदोलन कर रहे हैं। हड़ताले हों रही हैं और अल्पकालिक समझौते हो रहे हैं। इस सबसे समाज में अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। पिछले दशक में उदारीकरण के नाम पर जो कुछ किया गया उससे आम लोगों की तकलीफें बढ़ी है। फिर भी मुलम्मा चढ़ा कर विनाशकारी योजनाओं को, विकास की योजनाएं बता कर लोगों को गुमराह किया जाता है। राजेन्द्र सिंह जब अलवर पहुंचे और सरिस्का के जंगलों में पानी की कमी को दूर करने के लिए उन्होंने श्रमदान से और गांववालों के सहयोग से इस समस्या का हल ढूंढा तो उन्हें राजस्थान की सरकार ने सम्मानित नहीं किया बल्कि उसकी नौकरशाही ने बार-बार उनके काम में रोड़े अटकाए। पर जब राजेन्द्र सिंह की मेहनत को अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिल गई तो जाहिरन देश के अन्य हिस्सों में लोग, उन्हें बुलाकर पानी के संकट से उबरने के रास्ते पूछना चाहते हैं। अगर लोग अपने ही बूते पर वर्षा के जल को संग्रह करना सीख जाएं और जल की समस्या से निजात पा लें तो देश भर के लाखों दलालों और छूटभैए नेताओं की दुकानदारी उखड़ जाएगी। इसलिए जब कभी जनता की तरफ से बदलाव की ऐसी पहल होती है तो उसका डटकर विरोध किया जाता है। सत्ताधीश और उनके एजेंट ऐसी रचनात्मक प्रवृृत्तियों को पनपने नहीं देना चाहते हैं। उन्हें हाशिए पर चले जाने का डर होता है।
यही कारण है कि हर तरह के संसाधनों से युक्त भारत बदहाली की मार झेल रहा है। सूखा तो इस साल ही पड़ा है पर देश में पानी की भारी किल्लत हमेशा बनी रहती है। जबकि हकीकत यह है कि प्रकृति वर्षा की मार्फत जितना जल भारत पर बरसाती है उसका दस फीसदी भी हम इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। सारा जल नदियों के रास्ते समुद्र में जाकर खारा हो जाता है। यह तो तब है जब जल संसाधन के प्रबंधन में पिछले 52 वर्षों में अरबों रूपया खर्च किया जा चुका है। सारा पैसा किसकी जेब में गया यह सब जानते हैं। आज हर शहर में बिजली का भारी संकट है। नतीजतन जैनरेटरों का शोर और वायु-प्रदूषण झेलकर शहरी लोग किसी तरह जिंदगी घसीट रहे हैं। पर कम लोग ही जानते हैं कि भारत की मौजूदा ऊर्जा उत्पादन क्षमता का आधा हिस्सा भी प्रयोग नहीं होता। सारी बिजली कुप्रबंध, भ्रष्टाचार और चोरी के कारण बर्बाद हो जाती है। यही हाल अन्य सेवा क्षेत्रों का भी है।
न्यायपालिका से लेकर विधायिका और कार्यपालिका तक का जो आलम है, उसका नजारा देश की सौ करोड़ जनता रोज देख रही है। परेशान हो रही है। झुझलाती है। क्रोध करती है। पर कुछ ठोस कदम नहीं उठाती। अगर देशवासी चाहते है कि प्रशासनिक व्यवस्था कम खर्चीली, चुस्त-दुरूस्त और जनता के प्रति जवाबदेह हो तो उन्हें भी कुछ करना पड़ेगा। उन्हे हर जिले के स्तर पर ऐसे लोगों को चुनना होगा, जिनमें स्थानीय जनता को दिशा देने की क्षमता हो। जिनके अनुकरणीय जीवन का उस क्षेत्र में सम्मान होता हो। ऐसे लोग हर जिले में है। प्रसिद्ध भले ही न हुए हों पर इन निस्वार्थ लोगों के निर्देशन में स्थानीय नौजवानों की ऐसी फौज खड़ी हो जो जनाधारित विकास के काम में रोड़ा अटकाने वालों को उनकी औकात बताने की हिम्मत रखती हो। जो संगठन बनाएं। जिनमें काम करने वाले पद और अनुदान के लालच में नहीं बल्कि त्याग और तपस्या के बल पर समाज को दिशा देने की क्षमता रखते हों। प्रशासनिक ढांचा इस बुरी तरह और तेजी से चरमरा रहा है अगर हम अब भी नहीं जागे तो हालात दक्षिणी अमरीकी देशों, अफ्रिकी देशों और रूस से भी बद्दतर हो जाएंगे। प्रशासन पंगू हो जाएगा। सरकार के पास साधन नहीं रहेंगे। जनता में अराजकता फैलेगी और काफी मार-काट मचेगी। जिसके बाद वहीं लोग बचेंगे जो इस सबको झेलकर भी जिंदा रह जाएंगे। वह भयावह स्थिति होगी। इससे बचने का एक ही रास्ता है, हम कबूतर की तरह आंख बंद करना छोड़ दे। बिगड़ते हालात की बिल्ली हम पर झपट्टा मारने को तैयार बैठी है।