Friday, August 2, 2002

गुजरात की नौकरशाही के सामने धर्म-संकट

गुजरात में चुनाव होने को है। दोनों ओर से तलवारें तनी हैं। ऐसे में गुजरात की नौकरशाही की स्थिति बड़ी नाजुक है। अगर प्रचार की हवा में बह कर वे कुछ ऐसा करते हैं जिससे उनके निष्पक्ष आचरण पर आंच आए , तो उन्हें इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। यूं भाजपा पूरे उत्साह में है और बहुमत मिलने के प्रति आश्वस्त है। ये बात दूसरी है कि पिछली बार मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में भी भाजपा इसी तरह अपनी सफलता के प्रति आश्वस्त थी। पर परिणाम विपरीत ही आए। मजेदार बात ये है कि मध्य प्रदेश में तो परिणाम आने से पहले ही भाजपा के पटवा गुट व दूसरे गुटों में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर संघर्ष भी छिड़ गया था। उधर उत्तर प्रदेश में स्थानीय अखबारों ने जम कर भाजपा का प्रचार किया। इन अखबारों को पढ़कर लगता था कि उत्तर प्रदेश में श्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा पुनः सरकार बनाने जा रही है। श्री राजनाथ सिंह भी बढ़चढ़ कर स्पष्ट बहुमत की सरकार बनने का दावा कर रहे थे। उधर भाजपा द्वारा प्रायोजित तमाम चुनावी सर्वेक्षण भी बार-बार मतदाताओं को गुमराह करने की कोशिश कर रहे थे। इन सभी सर्वेक्षणों में भाजपा को उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत मिलने की जोर-शोर से घोषणा की थी। पर जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो भाजपा चारो खाने चित गिर गई।

उत्तर प्रदेश का मतदाता भाजपा की धार्मिक नाटकबाजी से तंग आ चुका था। उसने देखा कि 1990 से 2002 तक भाजपा ने रामजन्म भूमि को लेकर कितने पैंतरे बदले ? हर बार चुनाव से पहले राममंदिर का निर्माण करने के तमाम दावे किए गए। विहिप और संघ से जम कर माहौल बनवाया। पर हर बार मतदाता ठगा गया। नतिजतन पिछले कुछ वर्षों में भगवान् राम और श्री कृष्ण की जन्मभूमि वाले राज्य उत्तर प्रदेश में यह हालत हो गई कि लोगांे ने संघ के प्रचारकों पर विश्वास ही करना छोड़ दिया। उनके तमाम कार्यक्रम उत्तर प्रदेश में लगातार असफल होते गए। विहिप द्वारा मथुरा में आयोजित यज्ञ बुरी तरह विफल हुआ। साधु संतों ने विहिप के कार्यक्रमों का बहिष्कार कर दिया। मतदाताओं ने देख लिया कि संघ और विहिप वाले चुनाव के पहले तो भाजपा के लिए माहौल बनाने में जुट जाते हैं, पर जब चुनाव हो जाता है, तो मतदाताओं के आक्रोश से बचने के लिए, यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि हम तो गैर राजनैतिक संगठन हैं जबकि भाजपा एक राजनैतिक दल। जिसकी नीतियों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। उनकी यह दोहरी चाल जनता की समझ में आ गई। इसलिए जब विहिप ने उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के कई महीने पहले 2001 में फिर से राममंदिर के निर्माण के नाम पर माहौल बनाना शुरू किया तो उसे जनता ने गंभीरता से नहीं लिया। अयोध्या के लिए जब कार सेवकों का बुलावा आया तो अन्य शहरों को छोड़ हिंदू धर्म के केन्द्र माने जाने वाले तीर्थ नगरों से भी 10-15 कार सेवक जुटाना भारी पड़ गया। जनता की ऐसी उपेक्षा देखकर घबराए विहिप ने संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिरों के अध्यापकों को कार सेवक के रूप में बटोरना शुरू किया। मरता क्या न करता। बेचारे जिसकी नौकरी करते हैं उसकी अवहेलना तो कर नहीं सकते थे। मजबूरन उन्हें जाना पड़ा। फिर भी अयोध्या में कार सेवकों की उपस्थिति नगण्य ही थी। टीवी चैनलों पर अयोध्या में शिलादान कार्यक्रम की आंखों देखी रिपोर्ट देखने वाले दर्शकों को याद होगा कि अयोध्या की सड़कें सुनी पड़ी थीं। जबकि माहौल ऐसा बनाया जा रहा था मानो कार सेवकों का तूफान टूट पड़ेगा। कार सेवकों की इतनी कम उपस्थिति का कारण खिसियाये विहिप और संघ ने पुलिस के सख्त इंतजाम का होना बताया। ये सरासर गलत बयानी थी। जब किसी राजनेता की रैली असफल हो जाती है। वो श्रोताओं की भीड़ नहीं जुटा पाता तो यही सफाई देता है कि पुलिस ने लोगों को आने नहीं दिया। अगर पुलिस बंदोबस्त के कारण विहिप और संघ का शिलादान कार्यक्रम असफल हुआ तो ऐसा कैसे हुआ कि 1990 में, श्री मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में, केन्द्र और राज्य में गैर भाजपाई सरकार होने के बावजूद लाखों की तादाद में देश भर से कार सेवक अयोध्या में टूट पड़े थे। उन्होेंने पुलिस की गोली तक की परवाह नहीं की। सैकड़ों नौजवान और साधु तक शहीद हो गए। तब संघ और विहिप ने लोगों की भावनाएं भड़काने को नारा दिया था, ‘बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का।’ पर पिछले कुछ वर्षों में इस देश की जनता ने देखा कि किस तरह विहिप और संघ को केवल हर चुनाव के पहले ही राममंदिर के निर्माण की याद आती है। इसलिए वो उसके बहकावे में नहीं आएं। भाजपा को समझ में आ गया कि राममंदिर का मुद्दा अब वोट नहीं जुटा पा रहा है। हड़बड़ाहाट में नया मुद्दा तलाशना था। ऐसे में गुजरात की हिंसा को भुनाना ही उसे सबसे आसान रास्ता लगा। विहिप और संघ वाले भावनाएं भड़काने में माहिर हैं। तय किया गया कि गुजरात के हिंदुओं को डराओं ताकि वोट पक्के हो जाएं। उन्हें बताओं कि भारत को सबसे बड़ा खतरा मुसलमानों से हैं। आतंकवाद के लिए भी मुसलमान ही जिम्मेदार है।

कोई संघ, विहिप और भाजपा वालों से पूछे कि अगर उन्हें देश में आतंकवाद की इतनी ही चिंता है तो क्या वजह है कि जैन हवाला कांड की जांच में हुई कोताही के खिलाफ उन्होंने आज तक आवाज नहीं उठाई ? जबकि सब जानते हैं कि इस कांड में ही पहली बार कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को मिल रही विदेशी मदद का पर्दाफाश हुआ था। सीबीआई के पास सारे सबूत मौजूद थे। फिर भी इस कांड की जांच को बड़ी बेशर्माई से दबा दिया गया। संघ और विहिप सिर्फ इसलिए चुप रहे क्यांेकि भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं के नाम इस कांड में शामिल थे इसलिए संघ और विहिप ने राष्ट्र के हितों का बलिदान कर दिया। उन्हें न तो इस बात की चिंता हुई कि अगर जैन हवाला कांड की जांच न हुई तो कश्मीर के आतंकवादियों को विदेशों से हवाला के जरिए मदद जारी रहेगी। न उन्हें कश्मीर के विस्थापित हिंदुओं पर तरस आया जो हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवाद के कारण घाटी छोड़ने पर मजबूर हो गए थे। जो आज भी जम्मू और देश के दूसरे हिस्सों में शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार जी ने कहा था कि व्यक्ति से संगठन का हित बड़ा है और संगठन से राष्ट्र का हित बड़ा है। पर भाजपा के चंद बड़े नेताओं को बचाने के धृतराष्ट्र मोह में संघ और विहिप ने अपना राष्ट्र धर्म भी भुला दिया। उस समय श्री नरेन्द्र मोदी, डा. प्रवीण तोगडि़या या श्री अरूण जेटली जैसे महारथी कहां थे ? क्या ये हवाला कांड के बारे में झूठा प्रचार करके देश को गुमराह करने में नहीं जुटे थे ? क्या यह राष्ट्रहित के विरूद्ध काम नहीं था ? तब ये बताना चाहते थे कि हवाला कांड में इनके नेताओं पर झूठे आरोप लगाए गए हैं । पर जब इनसे तथ्यात्मक प्रश्न किए गए तो इनके पास कोई जवाब नहीं था। आज भी इस कांड के सारे प्रमाण मौजूद हैं। पर ये उन सवालों को नहीं उठाएंगे। हम भी गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ना चाहते। पर यह जान लेना जरूरी है कि जो ये कहते हैं वो अक्सर सच नहीं होता। इनके भी दो चेहरे हैं। दरअसल संघ के कार्यकर्ता अपना दिमाग गिरवी रख कर आते हैं और झूठ प्रसारित करने की कला में माहिर हैं। इसका उदाहारण हमने जैन हवाला कांड के संघर्ष के दौरान खूब देखा है।

एक ताजा उदाहारण बहुत रोचक है। पिछले दिनो कानून मंत्री के रूप में श्री अरूण जेटली ने घोषणा की कि लंदन से आतंकवादियों को पैसा भेजने वाले डा. अय्यूब ठाकुर को गिरफ्तार कर भारत लाने की पूरी कोशिश की जाएगी। उनका और केंद्रीय गृहमंत्री का यह बयान सारे देश के अखबारों में छपा। दिल्ली के प्रतिष्ठित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक व्याख्यान के दौरान जब जेटली ने यही गर्वोक्ति पुनः की तो एक श्रोता पत्रकार ने खड़े होकर याद दिलाया कि यह वही डा. अय्यूब ठाकुर है जिसका नाम हवाला कांड में हिजबुल मुजाहिद्दीन को लंदन से पैसा भेजने वालों में सामने आया था। हवाला केस के प्रमुख याचिकाकर्ता के शपथ पत्र सर्वोच्च न्यायलय में दाखिल पड़े हैं, जिनमें इस जांच की कोताही का पूरा ब्यौरा है। पर तब श्री जेटली ने इस मामले को रफा-दफा करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नतीजतन डा. ठाकुर के खिलाफ कोई जांच नहीं हुई और वो आज तक आतंकवादियों को पैसा भेज रहा है। ये सुन कर श्री जेटली बगले झांकने लगे। उनसे जवाब देते नहीं बना। पाठकों को सोचना पड़ेगा कि देश को खतरा किससे है ? आज जो लोग हिंदुओं के धर्मरक्षक या देश रक्षक होने का दावा कर रहे हैं उन्हें ऐसे सवालों के जवाब गुजरात की जनता को देने चाहिए। 

वैसे, गुजरात की जनता भी यह समझती है कि संघ और विहिप केवल भाजपा को सत्ता में लाने के लिए ही सारे नाटक करते हैं। भाजपा के सत्ता में आ जान के बाद बड़ी आसानी से यह कह कर कंधा झाड़ लेते हैं कि उनके नेताओं पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। ऐसा उन्होंने बार-बार किया है। बार-बार मतदाताओं ने उनसे धोखा खाया है। अब देश की जनता को यह साफ हो गया है कि भाजपा को सरकार चलाना तो आता नहीं, धर्म जैसे बाकी मामलों में भी उसके असली इरादे जनता के सामने आ चुके हैं। इसलिए भाजपा वाले हर चुनाव में अपनी जीत का दावा तो बढ़-चढ़ कर करते हैं, पर पराजय का मुख ही देखते हैं। गुजरात में फिलहाल जो माहौल बनाया जा रहा है वह इस क्रम की आखिरी कड़ी है। गुजरात के नागरिक काफी समझदार हैं। वे जानते हैं कि सच्चाई क्या है ? सामने से वे कुछ भी बोलें पर वोट देते वक्त उनका फैसला चैका देने वाला होगा। ऐसे में गुजरात की नौकरशाही के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। अगर वह अपना कर्तव्य भूलकर किसी एक राजनैतिक दल के प्रभाव में काम करती है तो उसे भविष्य में काफी संकट का सामना करना पड़ सकता है। ऐसी बातें छिपी नहीं रहती हैं। यूं नौकरशाही और पुलिस में ज्यादातार लोग चुनाव के समय तटस्थ रहने की ही कोशिश करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि आज जो दल सत्ता में है कल उसका विरोधी दल सत्ता पर काबिज हो सकता है। ऐसे में किसी के भी पक्ष में काम करना उनके कैरियार के लिए घातक हो सकता है। फिर भी कुछ महत्वाकांक्षी नौकरशाह और पुलिसवाले ऐसे जरूर होते हैं जो औकात से ज्यादा लाभ लेने के लालच में अपनी सीमाओं के परे जा कर हुक्मरानों के राजनैतिक हित साधने में संकोच नहीं करते। ऐसे लोगों के लिए गुजरात जैसी स्थिति कभी-कभी बड़ी खतरनाक हो सकती है। वो सोचें कुछ और नतीजा आए कुछ , तो मामला टेढ़ा पड़ सकता है। सरकारी नौकरी का तकाजा यही है कि नौकरशाही चुनाव के दौर में पूरी तटस्थता बरते ताकि जनता स्वतंत्रता पूर्वक अपने मताधिकार का प्रयोग कर सके। फिर चाहे चुनाव भाजपा शासित राज्यों में हो, इंका शासित राज्यों में हो या कम्युनिस्ट शासित राज्यों में हो। नौकरशाही को खरगोश और कछुए की दौड़ वाली कहानी नहीं भूलनी चाहिए। तेजी दिखाने के चक्कर में खरगोश दौड़ हार गया, जबकि धीमी गति से चलने वाला कछुआ जीत गया।

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