राजनेताओं के साहेबजादे और साहेबजादियां बड़ी तादाद में चुनावी जंग में कूद पड़ें हैं। इनके नामांकन पत्र युवराजों के शाही सवारियों की तरह भरे जा रहे हैं। कोई दल इसमें पीछे नहीं हैं। लोकतंत्र के नाम पर हर राजनेता अपनी संतान को ही आगे बढ़ाना चाहते हैं। कार्यकर्ता तो सिर्फ नारे लगाने और भीड़ जुटाने के लिए होते हैं और विचारधारा केवल बयानबाजी करने के लिए।
दरअसल राजनीति इस देश में आज सबसे बड़ा उद्योग बन गई है। समय, धन, संसाधन और अक्ल का जितना विनियोग इस उद्योग में किया जाता है। उससे कई हजार गुना मुनाफा थोड़े ही समय में होता है। इसलिए राजनेता अपनी राजनैतिक कमाई अपने वारिसों को ही सौंपना चाहते हैं। वे ये सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि जिस तरह उन्होंने राजनीति में रह कर जनसेवा के नाम पर राजसी ठाट-बाट भोगे वैसे ही ठाट उनकी संतति के भी होने चाहिए। चाहे उसमें समाज को नेतृत्व देने का गुण हो या न हो। चाहे उसे इस देश की जमीनी हकीकत का पता हो या न हो। चाहे उसकी रूचि राजनीति में हो या न हो। बस इतना ही काफी है कि वह एक स्थापित राजनेता का पुत्र या पुत्री है। इस एक चीज के आगे सारे दुर्बलताएं छिप जाती हैं। मजे की बात ये हैं कि जो दल विचारधारा की दुहाई देकर वंशवाद के लिए नेहरू खानदान को गाली दिया करते थे वे ही आज वंशवाद के सबसे बड़े पोशक बने बैठे हैं। यह प्रवृत्ति घटने की बजाए बढ़ती जा रही है। यही हाल रहा तो अगले चुनावों में राजनैतिक दलों के मुख्यालयों पर से टिकटार्थियों की भीड़ गायब हो जाएगी। क्योंकि उन्हें भी पता चल चुका होगा कि टिकट किसी राजकुमार या राजकुमारी के लिए पहले से ही आरक्षित हैं।
इस तरह हर संसदीय क्षेत्र पर राजनेताओं का वंशानुगत आधिपत्य हो जाएगा और तब ये संसदीय क्षेत्र ठीक वैसे ही काम करेंगे जैसे भारतगण राज्य में विलय होने से पहले देश की सैकड़ों रियासतें चल रहीं थीं। इस बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर मतदाताओं के मन में ये प्रश्न आना स्वभाविक है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने महाराजाओं के प्रीवि पर्स क्यों समाप्ति किए ? उन बिचारों का क्या दोष था ? वे अपना राज खोने के बाद केवल पेंशन ही तो ले रहे थे। अगर इसी तरह राजनेताओं के साहिबज़ादों को राजनीति में स्थापित करने को ही लोकतंत्र कहते हैं तो फिर देशी रियासतों को ही फिर से जीवित क्यों न कर दिया जाए और उनके वर्तमान वंशजों को संसद के चुनाव में जीताकर राजाओं की संसद का गठन कर लिया जाए। तब कम से कम चुनाव का खर्चा और सैकड़ों राजनैतिक दलों की जहमत तो बच जाएगी। आम आदमी की चिंता न तो पहले के राजाओं को थी और ना ही आज के राजनेताओं को है।
इन परिस्थितियों में सबसे बड़ी भूमिका देश के नौजवानों की है। आज देश की आबादी का 40 फीसदी नौजवान हैं। जिनमें से अधिकांश बेरोजगार हैं। फिर क्या वजह हैं कि ये ऊर्जावान बेरोजगार युवा संगठित होकर अपना हक नहीं मांगते ? इन युवाओं में भी बहुसंख्यक देहात में रहते हैं। जो देहात में रहते हैं वे जानते हैं कि उनके परिवेश की आर्थिक हालत कैसी है और क्यों है ? आज रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं ने किसान की कमर तोड़कर रख दी हैं। हरित क्रांति के दौर में उपज बढ़ाने के लालच में देश के किसानों ने इन्हें आंख मीच कर अपना लिया। अब हालत ये है कि हर साल इनकी खपत बढ़ती जाती हैं और जमीन की उर्वरकता कम होती जा रही हैं। ज्यादा खाद डालने का मतलब ज्यादा लागत। किसान विषम चक्र में फंस चुका है। इस चक्र से निकलने का एक ही रास्ता है कि अपनी खेती को जैविक खाद की तरफ मोड़ा जाए। गाय और बैल के गोबर की खाद सर्वोत्तम सिद्ध हो चुकी है। विडंबना यह है कि आम आदमी को रासायनिक खादों में उलझा कर इस देश का सत्ताधीश और धनी वर्ग खुद गाय की तरफ मुड़ चुका हैं। ऐसी खाद की उपज का गेंहू, दाल, चावल आदि रासायनिक खादों की तुलना में चैगुने दामों पर बिक रहा है। इसे मुनाफे का सौदा मान कर अनेक संपन्न मारवाड़ी परिवारों ने गाय के गोबर पर आधारित खेती को बहुत बड़े स्तर पर करना शुरू कर दिया हैै। कई-कई सौ एकड़ जमीन पर यह खेती की जा रही है और इसकी उपज महानगरों और विदेशों में बेची जा रही हैं। पर कोई नेता या उसका साहिबज़ादा ये बात देहात के नौजवानों को नहीं बताएगा। ना टीवी चैनल ऐसे कार्यक्रम दिखाएंगे। अगर गाय के गोबर की खाद का प्रचलन फिर से हो गया तो टीवी वालों को विज्ञापन देने गाय तो आएंगी नहीं। करोड़ों रूपए का विज्ञापन तो रासायनिक खादों के निर्माता ही दे सकते हैं क्योंकि वे किसानों को मूर्ख बना कर हजारों करोड़ रूपए सालाना कमा भी रहे हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि जैविक खाद की उपज खाने से और देशी गाय का दूध पीने से काया निरोगी होती है और बुद्धि तेज होती है। इस तरह अंग्रेजी दवाओं का बाजार समाप्त होता है। अब भला कौन सी दवा कंपनी ये विज्ञापन देगी कि ‘गाय का दूध पीने से आदमी सेहतमंद होता है‘। यह सब जानकारी गांव के नौजवानों को ही आगे बढ़कर इकट्ठी करनी होगी। आज के युग में ज्ञान सबसे बड़ी शक्ति होता है। सही ज्ञान से देहात के नौजवान अपनी सेहत और अपनी आर्थिक स्थिति दोनों सुधार सकते हैं।
लोकतंत्र का जो स्वरूप आज हमारे सामने विकसित हो गया है उसमें कोई सच्चा ईमानदार और वास्तव में जनसेवी व्यक्ति तो चुनाव जीत ही नहीं सकता। चुनाव तो काले धन और डंडे के जोर पर ही जीते जाते हैं। चुनाव लड़ने और जीतने वालों का भी एक माफिया बन चुका है। कोई दल इसकी गिरफ्त के बाहर नहीं है। इसलिए एक भी सच्चा और ईमानदार आदमी इस चुनाव व्यवस्था में चुनाव नहीं जीत सकता। तो क्या करें ? लुटते रहे ? पिटते रहें ? बर्बाद होते रहें ? अपनी दुर्भाग्य को कोसते रहें या नक्सलवादियों की तरह शस्त्र उठा कर खूनी क्रांति की ओर बढ़ चलें ? नहीं, दूसरा रास्ता भी है। आर्थिक स्वावलंबन का रास्ता। देशी जीवन पद्धति का रास्ता। गांव के नौजवानों को इतना भर करना है कि अपनी दृष्टि साफ कर लेनी है। पारंपरिक और देशी जीवनपद्धती को अपना कर जहां तक संभव हो शहरी शक्तियों को अपने इलाके से उखाड़ फेंकना है। आजादी की लड़ाई में भी गांधी जी के आर्थिक आंदोलन ने अंग्रेज सरकार की कमर तोड़ दी थी। देश के देहाती नौजवान भी अगर अपने आर्थिक स्वावलंबन के लिए संगठित होकर ऐसा आंदोलन छेड़ दें तो सुख और संपन्नता उनके चरण चूमेंगे। इस आंदोलन के लिए अपना काम छोड़कर शहर की सड़कों पर नारे लगाने नहीं जाना पड़ेगा। पुलिस की लाठी भी नहीं खानी होगी। जेल भी नहीं भरनी होगी। केवल अपने घर और खेत पर नई सोच लागू करनी होगी। हमारे लोकतंत्र का चाहे कितना ही पतन क्यों न हो गया हो पर इतनी आजादी तो हर इंसान को है कि वो अपनी मर्जी का जीवन जी सके।
देश के क्रांतिकारियों और समाजसुधारकों को भी मीडिया का आकर्षण छोड़कर और विदेशी सेमिनारों का लालच छोड़कर पूरी तनमयता से इस काम में जुटना होगा और गांव में जाकर रहना होगा। यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो न सिर्फ हम अपने देश की नीतियों को प्रभावित कर सकेंगे बल्कि राजनीतिज्ञों को भी जनता के प्रति जवाबदेह बनने के लिए मजबूर कर देंगे।
पर जरूरत इस बात की है कि जो देशी पद्धति हम अपनाएं, उसमें हमारी पूर्ण निष्ठा और उस पर हमारा पूर्ण विश्वास हो तभी कामयाब हो पाएंगे। अधकचरे ज्ञान और अधमने मन से किए गए बदलाव वांछित फल नहीं दे पाएंगे। लोकतंत्र के इस महापर्व पर जब हर राजनैतिक दल बेसिरपैर के मुद्दे उछालने में लगा है तब देश के हर गांव के नौजवानों को ऐसे गंभीर और बहुजन कल्याणकारी विचारों पर ध्यान देना चाहिए। अगर यह विचार गांव में अपना लिया जाता है तो फिर न सिर्फ गांव की अर्थ व्यवस्था मजबूत होगी बल्कि देश की राजनैतिक सत्ता का भी विकेन्द्रीकरण होगा। फसल कटने के बाद का समय और चुनाव का ये दौर युवाओं के लिए नया सोचने का अवसर है। जो जाग गया वो सुख की नींद सोएगा और जो सो रहा है या चुनाव के हुड़दंग में बेगानी शादी का अब्दुल्ला बना जा रहा है वो जीवन भर रोएगा। चुनाव किसी गांव का नक्शा बदलने नहीं जा रहे हैं। ये काम तो देश के देहाती नौजवानों को ही करना होगा।