Friday, April 9, 2004

लोकतंत्र या राजतंत्र


राजनेताओं के साहेबजादे और साहेबजादियां बड़ी तादाद में चुनावी जंग में कूद पड़ें हैं। इनके नामांकन पत्र युवराजों के शाही सवारियों की तरह भरे जा रहे हैं। कोई दल इसमें पीछे नहीं हैं। लोकतंत्र के नाम पर हर राजनेता अपनी संतान को ही आगे बढ़ाना चाहते हैं। कार्यकर्ता तो सिर्फ नारे लगाने और भीड़ जुटाने के लिए होते हैं और विचारधारा केवल बयानबाजी करने के लिए।

दरअसल राजनीति इस देश में आज सबसे बड़ा उद्योग बन गई है। समय, धन, संसाधन और अक्ल का जितना विनियोग इस उद्योग में किया जाता है। उससे कई हजार गुना मुनाफा थोड़े ही समय में होता है। इसलिए राजनेता अपनी राजनैतिक कमाई अपने वारिसों को ही सौंपना चाहते हैं। वे ये सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि जिस तरह उन्होंने राजनीति में रह कर जनसेवा के नाम पर राजसी ठाट-बाट भोगे वैसे ही ठाट उनकी संतति के भी होने चाहिए। चाहे उसमें समाज को नेतृत्व देने का गुण हो या न हो। चाहे उसे इस देश की जमीनी हकीकत का पता हो या न हो। चाहे उसकी रूचि राजनीति में हो या न हो। बस इतना ही काफी है कि वह एक स्थापित राजनेता का पुत्र या पुत्री है। इस एक चीज के आगे सारे दुर्बलताएं छिप जाती हैं। मजे की बात ये हैं कि जो दल विचारधारा की दुहाई देकर वंशवाद के लिए नेहरू खानदान को गाली दिया करते थे वे ही आज वंशवाद के सबसे बड़े पोशक बने बैठे हैं। यह प्रवृत्ति घटने की बजाए बढ़ती जा रही है। यही हाल रहा तो अगले चुनावों में राजनैतिक दलों के मुख्यालयों पर से टिकटार्थियों की भीड़ गायब हो जाएगी। क्योंकि उन्हें  भी पता चल चुका होगा कि टिकट किसी राजकुमार या राजकुमारी के लिए पहले से ही आरक्षित हैं।

इस तरह हर संसदीय क्षेत्र पर राजनेताओं का वंशानुगत आधिपत्य हो जाएगा और तब ये संसदीय क्षेत्र  ठीक वैसे ही काम करेंगे जैसे भारतगण राज्य में विलय होने से पहले देश की सैकड़ों रियासतें चल रहीं थीं।  इस बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर मतदाताओं के मन में ये प्रश्न आना स्वभाविक है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने महाराजाओं के प्रीवि पर्स क्यों समाप्ति किए ? उन बिचारों का क्या दोष था ? वे अपना राज खोने के बाद केवल पेंशन ही तो ले रहे थे। अगर इसी तरह राजनेताओं के साहिबज़ादों को राजनीति में स्थापित करने को ही लोकतंत्र कहते हैं तो फिर देशी रियासतों को ही फिर से जीवित क्यों न कर दिया जाए और उनके वर्तमान वंशजों को संसद के चुनाव में जीताकर राजाओं की संसद का गठन कर लिया जाए। तब कम से कम चुनाव का खर्चा और सैकड़ों राजनैतिक दलों की जहमत तो बच जाएगी। आम आदमी की चिंता न तो पहले के राजाओं को थी और ना ही आज के राजनेताओं को है।

इन परिस्थितियों में सबसे बड़ी भूमिका देश के नौजवानों की है। आज देश की आबादी का 40 फीसदी नौजवान हैं। जिनमें से अधिकांश बेरोजगार हैं। फिर क्या वजह हैं कि ये ऊर्जावान बेरोजगार युवा संगठित होकर अपना हक नहीं मांगते ? इन युवाओं में भी बहुसंख्यक देहात में रहते हैं। जो देहात में रहते हैं वे जानते हैं कि उनके परिवेश की आर्थिक हालत कैसी है और क्यों है ? आज रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं ने किसान की कमर तोड़कर रख दी हैं। हरित क्रांति के दौर में उपज बढ़ाने के लालच में देश के किसानों ने इन्हें आंख मीच कर अपना लिया। अब हालत ये है कि हर साल इनकी खपत बढ़ती जाती हैं और जमीन की उर्वरकता कम होती जा रही हैं। ज्यादा खाद डालने का मतलब ज्यादा लागत। किसान विषम चक्र में फंस चुका है। इस चक्र से निकलने का एक ही रास्ता है कि अपनी खेती को जैविक खाद की तरफ मोड़ा जाए। गाय और बैल के गोबर की खाद सर्वोत्तम सिद्ध हो चुकी है। विडंबना यह है कि आम आदमी को रासायनिक खादों में उलझा कर इस देश का सत्ताधीश और धनी वर्ग खुद गाय की तरफ मुड़ चुका हैं। ऐसी खाद की उपज का गेंहू, दाल, चावल आदि रासायनिक खादों की तुलना में चैगुने दामों पर बिक रहा है। इसे मुनाफे का सौदा मान कर अनेक संपन्न मारवाड़ी परिवारों ने गाय के गोबर पर आधारित खेती को बहुत बड़े स्तर पर करना शुरू कर दिया हैै। कई-कई सौ एकड़ जमीन पर यह खेती की जा रही है और इसकी उपज महानगरों और विदेशों में बेची जा रही हैं। पर कोई नेता या उसका साहिबज़ादा ये बात देहात के नौजवानों को नहीं बताएगा। ना टीवी चैनल ऐसे कार्यक्रम दिखाएंगे। अगर गाय के गोबर की खाद का प्रचलन फिर से हो गया तो टीवी वालों को विज्ञापन देने गाय तो आएंगी नहीं। करोड़ों रूपए का विज्ञापन तो रासायनिक खादों के निर्माता ही दे सकते हैं क्योंकि वे किसानों को मूर्ख बना कर हजारों करोड़ रूपए सालाना कमा भी रहे हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि जैविक खाद की उपज खाने से और देशी गाय का दूध पीने से काया निरोगी होती है और बुद्धि तेज होती है। इस तरह अंग्रेजी दवाओं का बाजार समाप्त होता है। अब भला कौन सी दवा कंपनी ये विज्ञापन देगी कि गाय का दूध पीने से आदमी सेहतमंद होता है। यह सब जानकारी गांव के नौजवानों को ही आगे बढ़कर इकट्ठी करनी होगी। आज के युग में ज्ञान सबसे बड़ी शक्ति होता है। सही ज्ञान से देहात के नौजवान अपनी सेहत और अपनी आर्थिक स्थिति दोनों सुधार सकते हैं।

लोकतंत्र का जो स्वरूप आज हमारे सामने विकसित हो गया है उसमें कोई सच्चा ईमानदार और वास्तव में जनसेवी व्यक्ति तो चुनाव जीत ही नहीं सकता। चुनाव तो काले धन और डंडे के जोर पर ही जीते जाते हैं। चुनाव लड़ने और जीतने वालों का भी एक माफिया बन चुका है। कोई दल इसकी गिरफ्त के बाहर नहीं है। इसलिए एक भी सच्चा और ईमानदार आदमी इस चुनाव व्यवस्था में चुनाव नहीं जीत सकता। तो क्या करें ? लुटते रहे ? पिटते रहें ? बर्बाद होते रहें ? अपनी दुर्भाग्य को कोसते रहें या नक्सलवादियों की तरह शस्त्र उठा कर खूनी क्रांति की ओर बढ़ चलें ? नहीं, दूसरा रास्ता भी है। आर्थिक स्वावलंबन का रास्ता। देशी जीवन पद्धति का रास्ता। गांव के नौजवानों को इतना भर करना है कि अपनी दृष्टि साफ कर लेनी है। पारंपरिक और देशी जीवनपद्धती को अपना कर जहां तक संभव हो शहरी शक्तियों को अपने इलाके से उखाड़ फेंकना है। आजादी की लड़ाई में भी गांधी जी के आर्थिक आंदोलन ने अंग्रेज सरकार की कमर तोड़ दी थी। देश के देहाती नौजवान भी अगर अपने आर्थिक स्वावलंबन के लिए संगठित होकर ऐसा आंदोलन छेड़ दें तो सुख और संपन्नता उनके चरण चूमेंगे। इस आंदोलन के लिए अपना काम छोड़कर शहर की सड़कों पर नारे लगाने नहीं जाना पड़ेगा। पुलिस की लाठी भी नहीं खानी होगी। जेल भी नहीं भरनी होगी। केवल अपने घर और खेत पर नई सोच लागू करनी होगी। हमारे लोकतंत्र का चाहे कितना ही पतन क्यों न हो गया हो पर इतनी आजादी तो हर इंसान को है कि वो अपनी मर्जी का जीवन जी सके।

देश के क्रांतिकारियों और समाजसुधारकों को भी मीडिया का आकर्षण छोड़कर और विदेशी सेमिनारों का लालच छोड़कर पूरी तनमयता से इस काम में जुटना होगा और गांव में जाकर रहना होगा। यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो न सिर्फ हम अपने देश की नीतियों को प्रभावित कर सकेंगे बल्कि राजनीतिज्ञों को भी जनता के प्रति जवाबदेह बनने के लिए मजबूर कर देंगे।

पर जरूरत इस बात की है कि जो देशी पद्धति हम अपनाएं, उसमें हमारी पूर्ण निष्ठा और उस पर हमारा पूर्ण विश्वास हो तभी कामयाब हो पाएंगे। अधकचरे ज्ञान और अधमने मन से किए गए बदलाव वांछित फल नहीं दे पाएंगे। लोकतंत्र के इस महापर्व पर जब हर राजनैतिक दल बेसिरपैर के मुद्दे उछालने में लगा है तब देश के हर गांव के नौजवानों को ऐसे गंभीर और बहुजन कल्याणकारी विचारों पर ध्यान देना चाहिए। अगर यह विचार गांव में अपना लिया जाता है तो फिर न सिर्फ गांव की अर्थ व्यवस्था मजबूत होगी बल्कि देश की राजनैतिक सत्ता का भी विकेन्द्रीकरण होगा। फसल कटने के बाद का समय और चुनाव का ये दौर युवाओं के लिए नया सोचने का अवसर है। जो जाग गया वो सुख की नींद सोएगा और जो सो रहा है या चुनाव के हुड़दंग में बेगानी शादी का अब्दुल्ला बना जा रहा है वो जीवन भर रोएगा। चुनाव किसी गांव का नक्शा बदलने नहीं जा रहे हैं। ये काम तो देश के देहाती नौजवानों को ही करना होगा।

Friday, April 2, 2004

भारत-पाक में जनमत करा लो


जो भी पाकिस्तान से क्रिकेट मैच देखकर लौटा है, उसने एक बात जरूर बताई और वो ये कि पाकिस्तान की जनता ने भारतीयों को खुले दिल से प्यार किया। इतना सम्मान और प्यार मिला कि यहां से गए लोग ये सोचने लगे कि आखिर पचास बरस तक इतना तनाव कैसे रह पाया? पाकिस्तान के लोगों ने एक सुर से यह कहा कि ये तनाव दोनों मुल्कों के सियासतदानों की देन है। उन्होंने वाजपेयी जी के लिए संदेश भेजा कि जल्दी से जल्दी दोनों मुल्कों के बीच की दीवार खत्म करने की कोशिश करें। जाहिर है कि आम आदमी चाहे वो भारत का हो या पाकिस्तान का, आपस में घुलमिलकर रहना चाहता है। व्यापार करना चाहता है। सांस्कृतिक आदान-प्रदान करना चाहता है। रिश्ते कायम करना चाहता है। पर भ्रष्ट राजनेता और उनसे भी ज्यादा दोनों देश की रक्षा व्यवस्था से जुड़े लोग ये नहीं होने देना चाहते। 

पड़ोसी देश का खतरा बताकर रक्षा व्यवस्था के नाम पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है और उसमें जमकर कमीशन मिलता है, जो अरबों रुपये साल होता है। दोनों देश एक-दूसरे पर अपना खौफ बनाए रखने के लिए अपनी सालाना इनकम का एक बड़ा हिस्सा सेना और सैनिक साजो-सामान पर खर्च करते हैं। करोड़ों रुपये के हथियार विदेशों से मंगवाए जाते हैं। परमाणु बम जैसे घातक हथियारों को बनाने में लाखों करोड़ रुपये पानी की तरह बहा दिए जाते हैं। सीमा पर सैनिकों की तैनाती में भी बेहिसाब पैसा खर्च कर दिया जाता है। यदि दोनों देशों के बीच की खाइयां मिट जाएं, तो फिर यह पूरा पैसा बच सकता है और इसका उपयोग दोनों देश अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने में कर सकते हैं। इस सैन्य खर्चें को यदि देश के विकास में लगाया जाए तो काया पलट सकती है। फिर दोनों देशों को किसी दूसरे के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। कर्जों के बोझ में दबी अर्थव्यवस्था फिर से नई सांसे ले सकेगी।
पिछले दिनों लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में जो कुछ हुआ, वह एक अद्भुत नजारे से कम नहीं था। हिन्दुस्तान के खिलाडि़यों ने जब-जब बढि़या प्रदर्शन किया उन्हें पाकिस्तान की जनता से भी वाहवाही मिली। यहां तक कि जब भारत की क्रिकेट टीम ने पाकिस्तानी टीम को हरा दिया, तब भी न तो गुस्से का प्रदर्शन किया गया और ना ही कोई हमला किया गया। ये अभूतपूर्व घटना थी। पाकिस्तान जाने से पहले अफसर भारत के खिलाडि़यों की सुरक्षा को लेकर चिंतित थे। सो इसके लिए सीरीज के सहमति पत्र पर भी यह लिखा गया कि जरा-सी भी गड़बड़ी होने पर दौरा रद्द कर दिया जाएगा। पर पाकिस्तान की आबोहवा देखकर भारतीय खिलाडि़यों की चिंता दूर हो गई। वहां मिले प्यार और स्नेह से वह गद्गद् हो गए। 

आलम यह था कि चैथा वनडे जीतने के बाद भारतीय टीम के कप्तान सौरभ गांगुली अपने कुछ दोस्तों के साथ बिना किसी सुरक्षा के पाकिस्तान के एक ढाबे पर खाना खाने के लिए पहंुच गए और उन्होंने सड़क किनारे बैठकर दोस्तों के साथ मस्ती की। रात के 2 बजे तक वे वहां रुके। जब उनसे पूछा गया कि क्या आपको डर नहीं लगा, तो गांगुली का कहना था कि जब लोग आपको इतना प्यार करते हों तो सुरक्षा घेरे के साथ निकलना पाकिस्तान के आम लोगों की भावनाओं को आहत करना होगा। कुछ समय पहले तक कहा जाता था कि भारत के खिलाफ आग उगलने वाला व्यक्ति ही पाकिस्तान की कमान संभाल सकता है। पर जनरल मुशर्रफ और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रयासों से यह मिथक भी अब टूटने लगा है। दोनों देशों के बीच दोस्ती की बयार फिर से बहने लगी है। दोनों देशों को इसका फायदा उठाना चाहिए। यह माना जाता है कि दोनों देशों की सरकारों के रवैये में आए इस बदलाव की वजह अमरीका का दबाव भी है। अपने व्यापारिक हितों को साधने के लिए अमरीका दक्षिण एशिया में शांति चाहता है। साथ ही वह दोनों देशों को इतना भी करीब नहीं आने देना चाहता कि भारत एक बड़ी ताकत बन जाए। रूस के विरुद्ध चीन की मदद करके अमरीका ने चीन की अर्थव्यवस्था को आज जहां पहंुचा दिया, वहां अब चीन खुद अमरीका के लिए एक चुनौती बन गया है। इस गलती को भारत के संदर्भ में अमरीका दोहराना नहीं चाहेगा। 

यूं तो यथा राजा तथा प्रजा वाली बात होती है, पर कभी-कभी लोकतंत्र में इसका उलट भी हो जाता है। प्रजा जब राजा के भ्रष्टाचार से आजिज आ जाती है तो सत्ता पलटने में उसे देर नहीं लगती। वोट उसके हाथ में एक ऐसा हथियार है जिससे वह हुक्मरानों को उनकी औकात बताती रहती है। भारत और पाकिस्तान के लोगों में कोई सामाजिक या सांस्कृतिक भेद नहीं है। बल्कि यूं कहा जाए कि बलूचिस्तान का इलाका छोड़कर शेष पाकिस्तान उत्तर भारत के प्रांतों का विस्तार ही है। ऐसे में दोनों देशों की जनता का यह चाहना कि दोनों मुल्कों के बीच की दीवार हट जाए, कोई असमान्य बात नहीं है। आखिर बर्लिन में ये हुआ ही है। फिर भारत और पाक के बीच की दीवार तो कोई पचास बरस पुरानी है। जबकि साझी विरासत पांच हजार वर्ष पुरानी है। इसलिए जनता के स्तर पर दोनों देशों में इसकी मांग उठनी चाहिए कि हम एक-दूसरे को दुश्मन नहीं, दोस्त समझते हैं। भाई समझते हैं या नातेदार समझते हैं। हम साथ रहना चाहते हैं। हम नफरत को मिटा देना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच की राजनैतिक दीवार खत्म कर दी जाए। फिर से भारत एक महासंघ बने। उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव अरसे से यह बात कहते आए हैं कि दक्षिण एशिया को अगर अपनी आर्थिक प्रगति करनी है तो उसे अमरीका की तरह एक संघीय गणराज्य बनना होगा। जिसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान जैसे देश जुड़ सकते हैं। दोनों देशों की जनता अपने देश में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जब इस मांग का जोरदार समर्थन करेगी और इस भावना के विरुद्ध उठाए गए हर कदम का पुरजोर विरोध करेगी, चाहे वो कदम भारत की सरकार उठाए या पाकिस्तान की, तो पूरी दुनिया में जनमत एकीकरण के पक्ष में तैयार होगा। फिर अमरीका भी अपनी सियासी चाल नहीं चल पाएगा। दोनों देशों के निहित स्वार्थ जनता की इस लोकप्रिय मांग के सैलाब को रोक नहीं पाएंगे। हम सर्वधर्म समभाव की भावना के साथ आगे बढ़ें। मुसलमान हिन्दुओं के प्रति व्यापक दृष्टिकोण अपनाएं, उनकी धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करें और हिन्दू मुसलमानों को दुश्मन न मानें, तो दक्षिण एशिया का यह मानवीय सागर आर्थिक विकास की नई ऊंचाइयों को छू सकता है। 

क्रिकेट श्रृंखला ने इस संभावना के लिए आधार तैयार किया है। खेल खेल की भावना से खेला गया और दोनों मुल्कों के दर्शकों ने खेल की गुणवत्ता के आधार पर देखा। यह एक स्वस्थ लक्षण है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में दोनों देशों की सरकारें खेल, व्यापार, शिक्षा व सांस्कृतिक आदान-प्रदान के मामले में और भी उदारता बरतेंगी। जब दिल से दिल मिलेंगे और खुलकर मिलेंगे तो ना तो शक का निशां रहेगा और ना ही एक-दूसरे का खौफ ही बचेगा। ये वक्त की मांग है। आजादी के समय पता नहीं इस मुल्क को किस शनिचर की नजर पड़ी कि बेवजह इतना खून-खराबा हुआ। लाखों परिवार तबाह हो गए, पर उस दुखद अतीत को एक भयावह सपने की तरह भूल जाने की जरूरत है। इस दिशा में वाजपेयी जी के प्रयास सराहनीय रहे हैं। उम्मीद की जाती है कि ये प्रयास आगे भी जारी रहेंगे और एक बार फिर दोनों मुल्कों की युवा पीढ़ी अपना परचम लहराकर कहेगी, सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, हम बुलबुले हैं इसके यह गुलिस्तां हमारा।

Friday, March 26, 2004

मतदाता पूछे बुनियादी सवाल


पिछले दस वर्षों में राजनेताओं की विश्वसनीयता में भारी कमी आई है। अब कोई उनकी बात सुनना नहीं चाहता। बड़े-बड़े नेताओं के लिए भी स्वेच्छा से भीड़ नहीं जुटती। पैसे खर्च करके किराए की भीड़ जुटानी पड़ती है। इसलिए चुनाव के समय उन्हें फिल्मी सितारों को पकड़कर लाना पड़ रहा है। इस स्थिति के लिए राजनेता स्वयं जिम्मेदार हैं। कोरे वादों से जनता को हमेशा मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। संचार क्रांति के युग में अब देश के हर नागरिक को अपने वोट की कीमत पता चल चुकी है। उसे यह भी दिखाई देता है कि तमाम वादों और योजनाओं की घोषणाओं के बावजूद उसकी आर्थिक स्थिति में बहुत मामूली सुधार हुआ है। जबकि हुक्मरानों का जीवन स्तर राजे-महाराजाओं से भी बढ़-चढ़कर हो गया है। 

टीवी चैनलों में होने वाले बहसों में जनहित के मुद्दों पर जब नेता उत्तेजित होकर बयानबाजी करते हैं तो उनके व्यक्तित्व का दोहरापन साफ दिखाई देता है। चुनाव के पहले जिन तेवरों में ये टीवी चैनलों पर एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, चुनाव के बाद तो वो तेवर भी ठंडे पड़ जाते हैं। साफ है कि आरोप भी केवल चुनावी फायदे के लिए लगाए जाते हैं। चुनाव के बाद आरोप लगाने वाले और आरोप सहने वाले सब गलबहियां डालकर आनंद उत्सव में जुट जाते हैं। मतदाता ठगा सा रह जाता है।
जनता के मन में जो बुनियादी सवाल उठते हैं, उन पर कोई राजनेता न तो टीवी चैनलों पर चर्चा करना चाहता है और ना ही  अपनी जनसभाओं में। क्योंकि अगर इन सवालों पर चर्चा होने लगी तो सब के सब नंगे हो जाएंगे। इसीलिए जानबूझकर ऐसे नए नए मुद्दे उछाले जाते हैं जिनके विवादों में मीडिया और मतदाता उलझा रहे और असली मुद्दों पर उसका ध्यान न जाए। इसके तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं। 

चुनाव के पहले हर दल दूसरे दल पर भ्रष्टाचारी होने का आरोप लगाता है। आजकल भी ऐसे आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है। ऐसे में मतदाताओं को हर चुनावी सभा में प्रचार करने आए नेताओं से पूछना चाहिए कि अगर आप देश में बढ़ते भ्रष्टाचार से इतने ही दुखी हैं, तो कृपया यह बताइए कि आपके दल ने आज तक अपनी आमदनी और खर्चे का सही हिसाब आयकर विभाग को क्यों नहीं दिया? क्या आपके दल ने ऐसे सर्वेक्षण कराए हैं जिससे यह पता चले कि मंत्री बनने से पहले आपके दल के नेताओं की आर्थिक स्थिति क्या थी और मंत्री पद पर कुछ वर्ष रहने के बाद वह क्या हो गई? यह भी पूछना चाहिए कि प्रायः हर बड़े राजनेता के पास अरबों रुपये की बेनामी संपत्ति होती है। फिर भी आज तक उसे भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ा क्यों नहीं गया? पूछना चाहिए कि देश में पिछले पचास वर्षों में इतने घोटाले उछले, तमाम सबूत जुटाए गए, सीबीआई के अफसरों ने जांच के नाम पर करोड़ों रुपया खर्च किया, संसद के हजारों घंटे घोटालों पर शोर मचाने में बर्बाद हुए, वर्षों मुकदमे चले और सरकार ने बड़े वकीलों को करोड़ों रुपया फीस भी दी, फिर भी आज तक किसी बड़े नेता या अफसर को भ्रष्टाचार के मामले में सजा क्यों नहीं मिली? मतदाताओं को हर दल के नेता से पूछना चाहिए कि क्या वजह है कि वे केवल उन्हीं घोटालों पर शोर मचाते हैं जिनमें उनके विरोधी दल के नेता फंसे होते हैं? हवाला कांड जैसे घोटाले में सभी बड़े दलों के नेता फंसे थे इसलिए किसी ने भी इसकी ईमानदारी से जांच की मांग नहीं की। अगर वे वास्तव में भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं तो दल की दलदल से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में सभी घोटालेबाजों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए और उन्हें सजा दिलवाने तक चुप नहीं बैठना चाहिए। क्या वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद किसी भी दल ने न तो केंद्रीय सतर्कता आयोग को बड़े पदों पर बैठे नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने की छूट देने दी और ना ही सीबीआई को स्वायत्ता ही मिलने दी? देशी मूल का हो या विदेशी मूल का, क्या देश का एक भी नेता ऐसा है जिसने लगातार तत्परता से भ्रष्टाचार से विरुद्ध लड़ाई लड़ी हो? जब एक भी नेता ऐसा नहीं है तो किसी भी दल के नेता को देश के सामने यह नहीं कहना चाहिए कि मेरी कमीज उसकी कमीज से सफेद है। 

चुनाव के इस दौर में जब कोई रोड शो पर निकला हो और कोई रथ पर सवार हो तो फुटपाथ पर खड़ी बदहाल जनता को पूछना चाहिए कि क्या वजह है कि जनता के बीच में इस तरह आने की फुर्सत आपको चुनाव के पहले ही मिलती है। चुनाव के बाद क्यों नहीं ये राजनेता हर महीने देश के किसी न किसी हिस्से में रोड शो या रथयात्रा पर निकलते हैं? तब तो इन्हें उद्घाटन करने से ही फुर्सत नहीं मिलती। वे जानते हैं कि अगर जनता के बीच जाकर उसकी शिकायत सुनेंगे तो उसके शब्द बाणों की बौछार झेल नहीं पाएंगे। बेहतर है कि अपने महलनुमा सरकारी बंगलों और किलेनुमा दफ्तरों में सुरक्षा गार्डों से घिरे बैठे रहो और जनता को गेट से ही दुत्कार कर लौटा दो। फिर इन रोड शो और रथयात्राओं से जनता को क्या मिलने वाला है? वह जानती है कि यह सारा नाटक केवल उसके वोट बटोरने के लिए है। उसे सब्जबाग दिखाने के लिए है। उसे भविष्य के झूठे सपने दिखाने के लिए है। हर दल सत्ता में आने के लिए कहता है कि बीस साल बाद वो देश को गरीबी से मुक्त कर देगा, बेरोजगारी खत्म कर देगा या देश को आर्थिक रूप से मजबूत बना देगा। पर पूत के पांव तो पालने में देखे जाते हैं। आगाज तो अभी देख लिया, फिर बीस साल तक कौन इंतजार करे? आदमी की याद्दाश्त भी इतनी लंबी नहीं होती। वो तो जिसे जोशोखरोश से सत्ता में लाता है, छह महीने बाद ही उसे गाली देने लगता है। ऐसी जनता को बीस साल बाद के विकास के सपने दिखाकर राजनेता पिछले पचास वर्षों से मूर्ख बनाते आए हैं। इसलिए जनता अब ना तो किसी विचारधारा से प्रभावित होती है और ना ही किसी राजनेता से। वो वोट देती है तो जाति के आधार पर, या स्थानीय मुद्दों के आधार पर। यही कारण है कि बड़े से बड़े अपराधी तक आसानी से चुनाव जीतकर आ जाते हैं।
अगर कोई भी दल भारत को वास्तव में सशक्त राष्ट्र बनाना चाहता है तो उसे पहले अपने आचरण से ऐसा करके दिखाना होगा। गरीबी और धीमी गति से आर्थिक विकास का करण साधनों की कमी नहीं है। सुजलाम् सुफलाम् शस्य श्यामलाम् इस देश में न तो साधनों की कमी है और ना ही मेहनती और चतुर लोगों की, पर विकास का सारा पैसा भ्रष्टाचार की जेब में चला जाता है या सरकारी तामझाम पर बर्बाद हो जाता है। बिना सरकारी खर्च कम किए या बिना उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को नियंत्रित किए नीचे के स्तर का भ्रष्टाचार कम नहीं किया जा सकता। जब तक यह नहीं होगा, तब तक आम जनता को कुछ नहीं मिलेगा। भ्रष्टाचार दूर करने के लिए जरूरी है कि सीबीआई और सीवीसी जैसी संस्थाओं को स्वायत्ता दी जाए। इनके सर्वोच्च पदों पर पारदर्शी व्यक्तित्व वाले लोगों को ही नियुक्त किया जाए। उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया भी यथासंभव जनतांत्रिक और पारदर्शी हो। इन उच्च पदों पर बैठने वालों से एक लिखित शपथपत्र जारी करवाया जाए कि वे सेवानिवृत्त होने के बाद सरकार में कभी कोई पद ग्रहण नहीं करेंगे। इनके दैनिक काम का मूल्यांकन करने के लिए देश में कई स्तर पर ऐसी जनसमितियां बनाई जाएं जिनके प्रति ये जवाबदेह हों। इन समितियों में सरकार द्वारा नामांकित लोग नहीं, बल्कि वो लोग आगे आएं जिन्होंने जनहित में काम करने के मानदंड खड़े किए हैं। 

भ्रष्टाचार दूर करने के लिए जरूरी है कि न्यायपालिका भी पारदर्शी हो। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए यह स्वीकार कर चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। भारत के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने हाल ही में कहा कि निचली अदालतों में भारी भ्रष्टाचार है और वे इससे निपटने में असहाय हैं। जब भारत का मुख्य न्यायाधीश ही असहाय हो, तो न्यायपालिका पारदर्शी कैसे रह पाएगी? यही वजह है कि न्यायपालिका के शिकंजे से भ्रष्टाचारी हंसते हुए बाहर निकल आते हैं और हर बार जनता की हताशा बढ़ती जाती है। न्यायपालिका में सुधार के लिए आवश्यक है कि अदालत की अवमानना कानूनमें व्यापक संशोधन किया जाए, ताकि भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ मीडिया सतर्क रहे और न्यायपालिका की जनता के प्रति जवाबदेही बनी रहे। इसी तरह पुलिस आयोग की सिफारिशें लागू करके पुलिस व्यवस्था में भी पूरे सुधार की जरूरत है। इन तीन बुनियादी सुधारों को लाए बिना कोई भी   राजनैतिक दल जनता के दुख दूर नहीं कर सकता। पर ऐसे बुनियादी सवालों पर कोई बोलना नहीं चाहता। इसलिए जो कुछ बोला जा रहा है, उसके कोई मायने नहीं हैं।

Friday, March 19, 2004

धार्मिक टीवी चैनल और धर्मगुरू


देश में धार्मिक टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई है। आस्था, संस्कार, अहिंसा, साधना और अब जागरण। अब तक आए ये पांच टीवी चैनल दर्शकों को आध्यात्मिक ज्ञान, वैदिक संस्कार या भक्ति देने का दावा करते हैं। कुछ हद तक ये ऐसा कर भी रहे हैं। पर कुल मिलाकर पांच चैनल भी वो प्रभाव नहीं पैदा कर पा रहे, जो इतने सशक्त माध्यम से पैदा किया जा सकता है। भारत जैसे धर्म प्रधान देश में लोगांे की धार्मिक जिज्ञासओं और भावनाओं के अनुरूप बहुत कुछ दिखाया जा सकता है। उसके लिए निर्माताओं का जिज्ञासू दिल और दिमाग चाहिए। समस्या ये है कि अच्छा कार्यक्रम बनाने के लिए धन की जरूरत होती है और धन केवल विज्ञापनों से आता है। विज्ञापन तभी मिलते हैं, जब कार्यक्रम लोकप्रिय हों और कार्यक्रम लोकप्रिय तब होगा जब उसमें गुणवत्ता होगी। गुणवत्ता तब आएगी, जब उसमें सही लागत लगेगी। जितना गुड़ डालोगो, उतना ही मीठा होगा। समस्या वही मुर्गी और अण्डे वाली है। पहले मुर्गी या पहले अण्डा। नतीजा ये कि धूमधड़ाके के साथ बड़े-बड़े लंबे-चैड़े दावे करके धार्मिक चैनल शुरू तो कर दिए गए, पर उनमें दिखाने के लिए कुछ ठोस प्रोग्रामिंग की नहीं गई। नतीजतन बाजार में पहले से उपलब्ध वीडियो कवरेज को ही दिखाकर चैनलों ने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। फिर चाहे वो किसी के घर का निजी उत्सव हो, या कोई भौंडा भजन गायक, रेट बांध दिया गया। पांच हजार रूपए से लेकर 15 हजार रूपए रोज का रेट। इतने रूपए दो तो अपना कार्यक्रम चैनल पर प्रसारित करवा लो। जब कार्यक्रम चयन का आधार कार्यक्रम लाने वाले की आर्थिक क्षमता ही हो, तो कार्यक्रम की गुणवत्ता पर कौन ध्यान देगा। जो भी मुंहमांगे पैसे देता है, उसका कार्यक्रम प्रसारित कर दिया जाता है। इस तरह के दर्जनों प्रवचन और कार्यक्रम आजकल धार्मिक टीवी चैनलों पर आ रहे हैं। कोई सहज प्रश्न कर सकता है कि इतने सारे पैसे फीस के रूप में देकर अपने प्रवचन धार्मिक टीवी चैनलों पर प्रसारित करने से धर्म गुरू को क्या लाभ मिलता है? विशेषकर तब जबकि टीवी चैनल प्रवचन देने वाले को न तो कोई फीस देता है और न ही ऐसे कार्यक्रम के निर्माण के लागत ही। अगर 25 मिनट के एक प्रवचन आधारित कार्यक्रम की उत्पादन लागत 15 हजार रुपया प्रतिदिन मानी जाए और उसे प्रसारण करने की फीस 10 हजार रुपया प्रतिदिन हो तो 30 दिन में साढ़े सात लाख रुपया खर्च करके कोई भागवतवक्ता या दूसरा आत्मघोषित महात्मा धार्मिक टीवी चैनलों पर अपना प्रवचन प्रसारित करवा सकता है।
साफ जाहिर है कि जिस पर जितना फालतू धन होगा, उतना उसे प्रसारण का समय ज्यादा मिलेगा। अब जरा गौर करें। आध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला न तो संग्रही होगा और ना ही उसे लोक प्रतिष्ठा के प्रति कोई आकर्षण ही होगा। आध्यात्मिक प्रगति की पहली शर्त है- व्यक्ति भौतिकता से विरक्त होता जाए। पर भागवत प्रवचन करने वाले ना तो शुकदेव महाराज जैसे विरक्त संत है और ना ही परीक्षित महाराज जैसे एकनिष्ठ श्रोता। बड़े-बड़े वातानुकूलित महलों में रहने वाले या धन कमाने के लिए भागवत कहने वाले आत्मघोषित भागवताचार्य तथ्य की बात कैसे बता सकते हैं? जो खुद ही माया में अटके हों, वो भक्तों में प्रेम कैसे जगा सकते हैंै ? दुर्भाग्य से आज ऐसे भागवताचार्य की संख्या सैकड़ों में है। भागवत कहना एक धंधा बन गया है। उसे तथ्यात्मक कम और मनोरंजन से भरपूर ज्यादा बनाया जा रहा है। पर फिर सवाल उठता है कि साढ़े सात लाख रूपया महीना खर्च करके कोई क्यों अपना प्रवचन टीवी चैनल पर प्रसारित करवाना चाहता है? साफ जाहिर है कि ऐसा करना घाटे का नहीं, मुनाफे का सौदा है। जितनी ज्यादा बार और जितने ज्यादा टीवी चैनलों पर आपका चेहरा बार-बार आएगा, उतनी ही आपकी प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी। चेले भी बढ़ेंगे और आमदनी भी बढ़ेगी। फिर यह आध्यात्म कहां हुआ ? ये तो धर्म का व्यापार हो गया और ये व्यापार आजकल पूरे जोशोखरोश से चल रहा है। इसका बहुत बड़ा नुकसान समाज को हो रहा है। अगर प्रवचन कहने वाला विरक्त नहीं है तो उसके उपदेश में स्वार्थपरता होगी। ऐसा व्यक्ति जो भी बोलेगा, उसे सुनने वाले का आध्यात्मिक कल्याण होना तो मुश्किल है, आर्थिक दोहन जरूर हो जाएगा। क्योंकि टीवी का दर्शक उस प्रवचनकर्ता को गुरू मान बैठेगा और उसके प्रवचन को प्रभु की वाणी। इस तरह करोड़ों दर्शकों का भावनात्मक और आर्थिक दोहन तो हो जाएगा पर आध्यात्मिक कल्याण नहीं होगा।
दूसरी तरफ धार्मिक टीवी चैनल चलाने वालों की भी एक कठिनाई है। अच्छा कार्यक्रम दिखाने के लिए उनके पास साधनों की कमी है। इसलिए सब कुछ जानते हुए भी ये टीवी चैनल मालिक वो नहीं दिखा पा रहे, जो उन्हें बहुजन हिताए दिखाना चाहिए। ऐसे में ये जिम्मेदारी उन सेठों और संस्थाओं की है, जो वास्तव में समाज में धार्मिक जीवन मूल्यों की स्थापना करना चाहते है। ऐसे सभी सक्षम लोगों को आगे आना चाहिए। अपने धन और साधन मुहैया कराकर देश में अच्छे संतों की खोज करनी चाहिए और उनके प्रवचनों को या भजनों को रिकार्ड करने की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। इसके बाद सैटेलाइट टीवी चैनल मालिक को उसकी कीमत देकर ऐसे शुद्ध हृदय वाले संतों की वाणी प्रसारित करनी चाहिए। उससे जन कल्याण तो होगा ही, पुण्य भी मिलेगा।
जो वास्तव में ऊंचे दर्जे का संत होगा, वो किसी से कहने नहीं आएगा कि मेरी रिकाॅर्डिंग करो। वो तो जंगल में बैठकर भजन करेगा। पर उसकी वाणी में जो तेज होगा, उसका मुकाबला आत्मघोषित भगवताचार्य नहीं कर पाएंगे। गहवरवन बरसाना में पिछले 52 वर्षों से भजन गाकर साधना करने वाले विरक्त संत श्री रमेश बाबा का गायन जो एक बार सुन ले, वो बार-बार सुनने को उस जंगल में जाता है। पर बाबा ने आज तक किसी टीवी वाले को पास नहीं फटकने दिया। वे न तो किसी को शिष्य बनाते हैं, न किसी से पैसा लेते हैं और न किसी बड़े-छोटे के बीच भेदभाव करते हैं। केवल अपनी साधना के रूप में भजन गाते हैं, इसीलिए उनके भजनों में जो कशिश है, वो कहीं और देखने को नहीं मिलती। पर रमेश बाबा जैसे विरक्त संत जो अपने अच्छे कामों का भी प्रचार नहीं चाहते, गुमनाम ही रहना चाहते हैं, पैसे देकर तो अपना प्रवचन टीवी पर दिखाने से रहे। नतीजा यह होगा कि नकली लोग तो अपना आडंबर दिखाकर जनता के दिलो-दिमाग पर छा जाएंगे और फिर उसका दोहन करेंगे और दूसरी तरफ शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान देने वालों की सारगर्भित वाणी कभी आध्यात्म के पिपासुओं को मिल नहीं पाएगी। इसलिए अपने-अपने धर्म में आस्था रखने वाले साधन संपन्न लोगों को चाहिए कि वे लोग धर्म को व्यापार बनाने वालों से दूर रहे और ऐसे ज्ञान और अनुभव को खोजकर देश के सामने प्रस्तुत करवाएं, जो आम आदमी को उपलब्ध नहीं हो। इससे पुण्य तो मिलेगा ही, यह कार्य बहुजन हिताय भी होगा। दूसरी तरफ धार्मिक टीवी चैनलों को भी यह सोचना चाहिए कि वे ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत करें जिससे लोगों का धार्मिक मनोरंजन भी हो और आध्यात्मिक कल्याण भी।
धार्मिक टीवी चैनलों को कुछ ऐसी नीति बनानी चाहिए कि वे अपने प्रसारण समय के 70 फीसदी समय में तो पैसा देकर खुद का प्रचार करवाने वाले धर्माचार्यों के कार्यक्रम दिखाएंगे और 30 फीसदी कार्यक्रम ऐसे धर्माचार्यों पर प्रसारित हो, जिन्हें प्रतिष्ठा, शिष्य और धन इन तीनों में रुचि न हो और वे जो भी बोले ंवो भगवान की प्रसन्नता के लिए बोलें। ऐसे संतों की वाणी का जनता पर असर पड़ेगा और देश में आध्यात्मिकता की लहर आएगी, तभी धार्मिक टीवी चैनल अपने उद्देश्यों में सफल हो जाएंगे।