सरकार
का सबसे मुश्किल काम बजट बनाना होता है। और जब माली हालत पतली हो तो और भी
ज्यादा मुश्किल। लेकिन जैसे तैसे यह काम निपट गया। सरकार के लिए एक अच्छी
बात यह रही कि इस बार कोई भी क्रांतिकारी कदम न उठाने के कारण इसके अच्छे
बुरे असर पर ज्यादा अटकल लगाई नहीं जा सकी। यहां तक कि बजट पेश हुए पांच
दिन गुजर गए फिर भी बजट के लोग बजट का ऐसा कोई बड़ा झोल निकाल कर नहीं दिखा
पाए। लेकिन बजट की अच्छाई की तारीफ करने करने के काम पर लगाए जाने वाले लोग
भी ज्यादा कुछ नहीं बता पाए।
यानी पूरी तसल्ली से देखने के बाद कोई विश्लेषण किया जाए तो कहा जा सकता है कि कई साल बाद हमें यथास्थिति बनाए रखने वाला बजट देखने को मिला है। चूंकि आमतौर पर पहले ऐसा नहीं होता रहा है सो यह अंदेशा भी है कि इसके कई वैसे असर भी दिख सकते हैं जिन्हें हमने सोचकर नहीं रखा है। मसलन देश में यथास्थिति बनाए रखने में सबसे ज्यादा बाधक कारक है जनसंख्या वृद्धि। हर साल देश में आबादी दो करोड़ बढ़ जाती है। देश की योजना बनाने वाला योजनाकर इस तथ्य से आंख चुराने की कितनी भी कोशिश कर ले इसके असर से बचा नहीं जा सकता।
दो करोड़ आबादी बढ़ने का यह मतलब नहीं है कि हमें नवजात शिशुओं की संख्या ही बढ़ेगी। इसको यथास्थिति बताने वाले यह तर्क दे सकते हैं कि इतने नवजात तो हर साल बढ़ते हैं। लेकिन यहां यह बताने की जरूरत है कि जो युवा पिछले साल नौकरी या कामधंधा नहीं मांग रहा था वह इस साल कामधंधा मांगने वालों की कतार में आकर खड़ा हो गया। इन युवाओं की संख्या भी लगभग दो करोड़ ही बैठती है। वैसे यह भी इस बार होने वाली कोई नई बात नहीं है। इतने युवा हर साल ही रोजगार पाने के आंकाक्षी बनते ही हैं। इस तरह यह निष्कर्ष निकलता है कि पिछले साल जितने बेरोजगार थे उनमें दो करोड़ की बढ़ोतरी और हो गई है। यही तथ्य बजट के आकार में बढ़ोतरी की मांग कर रहा था।
देश की माली हालत का अंदाजा लगाना आसान काम नहीं है। सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को लगातार बढ़ाते चलने की जरूरत हमें इसीलिए पड़ती है क्योंकि आबादी के लिहाज से देश का आकार बढ़ने की मात्रा बढ़ती है। इसके अलावा देश के नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता बढ़ाते चलना हमारा मकसद होता ही है। इसीलिए हर देश की तमन्ना रहती है कि उसकी आर्थिक वृद्धि दर किसी तरह दस फीसद हो जाए। अब क्योंकि वैश्वीकरण युग है सो सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं में तुलना होने लगी है सो हम इस बात को लेकर खुश होते रहते है कि दूसरों की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से उभरती व्यवस्था है। लेकिन क्या यह तेजी से उभरती व्यवस्था हमारी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति को सुनिश्चित कर पा रही है? इसी बात को देखने के लिए देश में बढ़ती बेरोजगारी पर ध्यान देना जरूरी माना जाना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी सरकार के पास जादू की छड़ी नहीं होती। उसे अपने संसाधनों में ही काम चलाना पड़ता है। और हमारी नवीनतम स्थिति यह है कि हम अपने सारे उपायों के बावजूद 21 लाख 47 हजार करोड़ रूप्ए से ज्यादा खर्च कर सकने की हालत नहीं बना पाए। यह रकम पिछले साल की तुलना में सिर्फ डेढ लाख करोड़ ज्यादा है। जबकि उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप् में हमें अपनी यथास्थिति बनाए रखने के लिए ही कम से कम आठ फीसद बढोतरी की जरूरत पड़ती है। यानी लगभग बीस लाख करोड़ के आकर वाले बजट में न्यूनतम एक लाख 60 हजार करोड़ रूप्ए बढ़ाने की जरूरत थी। लगभग इतना ही हम बढ़ा पाए। यानी यथास्थिति बनाए रखने का ही प्रबंध कर पाए।
अगर यह मान लें कि सरकार के पास इस साल आमदनी बढ़ाने का और कोई जरिया बचा नहीं था तो एक ही गुजाइश बचती थी कि जहां जहां खर्च कम हो सकता था वहां कटौती कर दें और अपनी प्राथमिकता वाले क्षेत्र पर घ्यान लगा दें। लेकिन संतुलित बजट के पारंपरिक उपाय अपनाने के कारण अपनी प्राथमिकताओं का काम होने से रह गया। अब सवाल उठता है कि प्राथमिकता का वह क्षेत्र हो क्या सकता था।
जैसा पहले साबित किया जा चुका है कि बढ़ती आबादी और बढ़ती बेरोजगारी के कारण हमारे सामने एक ही काम बचता है कि हम अपना उत्पादन या सेवा क्षेत्र कैसे बढ़ाएं। अब तक के अनुभव से हम जान चुके हैं कि उत्पादन बढ़ाने में बड़ी बाधाएं हैं। कृषि और विनिर्माण के क्षेत्र में पूरी ताकत लगाने के बाद भी उसमें अपेक्षित बढ़ोतरी की गुंजाइश बन नहीं पा रही है। इसीलिए हमने एक विशेष क्षेत्र तलाशा था कि हमारा देश बहुमूल्य विरासत का देश है और इसका लाभ उठाते हुए हम पर्यटन उद्योग पर जोर लगा सकते हैं। ये कोई नई बात भी नहीं है। मौजूदा सरकार ने आने के पहले और आने के बहुत बाद तक प्र्यटन को एक बड़ा उद्यम माना भी था। लेकिन इस बार के बजट में चैतरफा दबाव के कारण प्र्यटन क्षेत्र को प्राथमिकता सूची में सबसे उपर रखने का काम रह गया। और हो सकता है इसलिए रह गया हो कि प्र्यटन उद्योग को बढ़ाने के लिए भी संसाधनों का प्रबंध करना उतना ही बड़ा काम था।
यहां यह ध्यान दिलाने की जरूरत पड़ रही है कि पर्यटन ऐसा क्षे़त्र है जिसमें उद्योग और व्यापार जगत की जबर्दस्त रूचि रही है। इस कारपोरेट जगत के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व नाम का कानून भी हमने पहले से ही बना कर रखा हुआ है। मोटा अनुमान है कि इस कानून के तहत जमा होने वाली रकम एक से दो लाख करोड़ रूप्ए के लपेटे में बैठती है। भले ही सरकार खुद इसे अपना राजस्व नहीं मान सकती लेकिन अगर इस रकम का बड़ा हिस्सा पर्यटन विकास के लिए प्रोत्साहित कर दिया जाए तो रोजगारी पैदा करने का हिमालयी लक्ष्य साधने के बारे में सोचा जरूर जा सकता है।
यानी पूरी तसल्ली से देखने के बाद कोई विश्लेषण किया जाए तो कहा जा सकता है कि कई साल बाद हमें यथास्थिति बनाए रखने वाला बजट देखने को मिला है। चूंकि आमतौर पर पहले ऐसा नहीं होता रहा है सो यह अंदेशा भी है कि इसके कई वैसे असर भी दिख सकते हैं जिन्हें हमने सोचकर नहीं रखा है। मसलन देश में यथास्थिति बनाए रखने में सबसे ज्यादा बाधक कारक है जनसंख्या वृद्धि। हर साल देश में आबादी दो करोड़ बढ़ जाती है। देश की योजना बनाने वाला योजनाकर इस तथ्य से आंख चुराने की कितनी भी कोशिश कर ले इसके असर से बचा नहीं जा सकता।
दो करोड़ आबादी बढ़ने का यह मतलब नहीं है कि हमें नवजात शिशुओं की संख्या ही बढ़ेगी। इसको यथास्थिति बताने वाले यह तर्क दे सकते हैं कि इतने नवजात तो हर साल बढ़ते हैं। लेकिन यहां यह बताने की जरूरत है कि जो युवा पिछले साल नौकरी या कामधंधा नहीं मांग रहा था वह इस साल कामधंधा मांगने वालों की कतार में आकर खड़ा हो गया। इन युवाओं की संख्या भी लगभग दो करोड़ ही बैठती है। वैसे यह भी इस बार होने वाली कोई नई बात नहीं है। इतने युवा हर साल ही रोजगार पाने के आंकाक्षी बनते ही हैं। इस तरह यह निष्कर्ष निकलता है कि पिछले साल जितने बेरोजगार थे उनमें दो करोड़ की बढ़ोतरी और हो गई है। यही तथ्य बजट के आकार में बढ़ोतरी की मांग कर रहा था।
देश की माली हालत का अंदाजा लगाना आसान काम नहीं है। सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को लगातार बढ़ाते चलने की जरूरत हमें इसीलिए पड़ती है क्योंकि आबादी के लिहाज से देश का आकार बढ़ने की मात्रा बढ़ती है। इसके अलावा देश के नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता बढ़ाते चलना हमारा मकसद होता ही है। इसीलिए हर देश की तमन्ना रहती है कि उसकी आर्थिक वृद्धि दर किसी तरह दस फीसद हो जाए। अब क्योंकि वैश्वीकरण युग है सो सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं में तुलना होने लगी है सो हम इस बात को लेकर खुश होते रहते है कि दूसरों की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से उभरती व्यवस्था है। लेकिन क्या यह तेजी से उभरती व्यवस्था हमारी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति को सुनिश्चित कर पा रही है? इसी बात को देखने के लिए देश में बढ़ती बेरोजगारी पर ध्यान देना जरूरी माना जाना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी सरकार के पास जादू की छड़ी नहीं होती। उसे अपने संसाधनों में ही काम चलाना पड़ता है। और हमारी नवीनतम स्थिति यह है कि हम अपने सारे उपायों के बावजूद 21 लाख 47 हजार करोड़ रूप्ए से ज्यादा खर्च कर सकने की हालत नहीं बना पाए। यह रकम पिछले साल की तुलना में सिर्फ डेढ लाख करोड़ ज्यादा है। जबकि उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप् में हमें अपनी यथास्थिति बनाए रखने के लिए ही कम से कम आठ फीसद बढोतरी की जरूरत पड़ती है। यानी लगभग बीस लाख करोड़ के आकर वाले बजट में न्यूनतम एक लाख 60 हजार करोड़ रूप्ए बढ़ाने की जरूरत थी। लगभग इतना ही हम बढ़ा पाए। यानी यथास्थिति बनाए रखने का ही प्रबंध कर पाए।
अगर यह मान लें कि सरकार के पास इस साल आमदनी बढ़ाने का और कोई जरिया बचा नहीं था तो एक ही गुजाइश बचती थी कि जहां जहां खर्च कम हो सकता था वहां कटौती कर दें और अपनी प्राथमिकता वाले क्षेत्र पर घ्यान लगा दें। लेकिन संतुलित बजट के पारंपरिक उपाय अपनाने के कारण अपनी प्राथमिकताओं का काम होने से रह गया। अब सवाल उठता है कि प्राथमिकता का वह क्षेत्र हो क्या सकता था।
जैसा पहले साबित किया जा चुका है कि बढ़ती आबादी और बढ़ती बेरोजगारी के कारण हमारे सामने एक ही काम बचता है कि हम अपना उत्पादन या सेवा क्षेत्र कैसे बढ़ाएं। अब तक के अनुभव से हम जान चुके हैं कि उत्पादन बढ़ाने में बड़ी बाधाएं हैं। कृषि और विनिर्माण के क्षेत्र में पूरी ताकत लगाने के बाद भी उसमें अपेक्षित बढ़ोतरी की गुंजाइश बन नहीं पा रही है। इसीलिए हमने एक विशेष क्षेत्र तलाशा था कि हमारा देश बहुमूल्य विरासत का देश है और इसका लाभ उठाते हुए हम पर्यटन उद्योग पर जोर लगा सकते हैं। ये कोई नई बात भी नहीं है। मौजूदा सरकार ने आने के पहले और आने के बहुत बाद तक प्र्यटन को एक बड़ा उद्यम माना भी था। लेकिन इस बार के बजट में चैतरफा दबाव के कारण प्र्यटन क्षेत्र को प्राथमिकता सूची में सबसे उपर रखने का काम रह गया। और हो सकता है इसलिए रह गया हो कि प्र्यटन उद्योग को बढ़ाने के लिए भी संसाधनों का प्रबंध करना उतना ही बड़ा काम था।
यहां यह ध्यान दिलाने की जरूरत पड़ रही है कि पर्यटन ऐसा क्षे़त्र है जिसमें उद्योग और व्यापार जगत की जबर्दस्त रूचि रही है। इस कारपोरेट जगत के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व नाम का कानून भी हमने पहले से ही बना कर रखा हुआ है। मोटा अनुमान है कि इस कानून के तहत जमा होने वाली रकम एक से दो लाख करोड़ रूप्ए के लपेटे में बैठती है। भले ही सरकार खुद इसे अपना राजस्व नहीं मान सकती लेकिन अगर इस रकम का बड़ा हिस्सा पर्यटन विकास के लिए प्रोत्साहित कर दिया जाए तो रोजगारी पैदा करने का हिमालयी लक्ष्य साधने के बारे में सोचा जरूर जा सकता है।
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