एक
तरफ तो हम बढ़ती आबादी का रोना रोते हैं। दूसरी तरफ हम अपनी खेती योग्य
जमीन को दैत्यों की तरह बर्बाद कर रहे हैं। इस आत्मघाती विकास से हम अपने
भविष्य के लिए भीषण खाद्य संकट पैदा होने के हालात बना रहे हैं। यूं तो
आजादी के बाद देश में कृषि, ग्रामीण विकास व जल संसाधन जैसे मंत्रालय बने,
जिनके मंत्री और अफसर विदेशों में ज्ञान लेने के बहाने भागते रहे। पर क्या
वजह है कि इन सबके होते हुए भी देश में कुल 33 करोड़ हेक्टेयर की तिहाई
भूमि बंजर है और लगातार बढ़ रही है। जैसे गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर
चीन से लेकर कोरिया के उपजाऊ मैदानों को ढक रही है, उसी तरह थार मरुस्थल की
रेत उत्तर भारत के उपजाऊ मैदानों को निगल रही है। अरावली पर्वत काफी हद तक
धूल भरी आंधियों को रोकने का काम करता है, लेकिन अंधाधुंध खनन की वजह से
इस पर्वतमाला को नुकसान पहुंच रहा है, जिससे यह धूल भरी आंधियों को पूरी
तरह नहीं रोक पा रही है। उधर हर साल 84 लाख टन भूमि के पोषक तत्व बाढ़ आदि
की वजह से बह जाते हैं। कीटनाशक भी हर साल 1.4 करोड़ वर्ग किमी भूमि की
उर्वरकता खत्म कर रहे हैं। इसी तरह लवणीयता और क्षारपन भी हर साल 270 हजार
वर्ग किमी क्षेत्र को बंजर बना रहे हैं।
अणुबम से भी घातक
कैमिकल्स, कीटनाशक दवाएं, रासायनिक खाद व जहरीली दवाओं के अमर्यादित प्रयोग
से भूमि बंजर बन रही हैं। साथ ही साथ उद्योगों से निकला प्रदूषित जल
वाष्पित होकर ऊपर जाता है। फिर प्रदूषित एवं क्षारीय जल की वर्षा से भूमि
पूर्णतया बंजर बन रही है। इसी प्रकार इन दवाओं का प्रयोग होता रहा तो अगले
50 वर्षों में सारे देशवासी भयानक रोगों से ग्रस्त जाएंगे।
हाल
के वर्षों में औद्योगिक कचरे से भी भूमि और जल प्रदूषण की गंभीर समस्या
उत्पन्न हो गई है। उद्योगों से निकले कचरे और प्रदूषित जल को नदियों में
छोड़े जाने से भूतलीय और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया है। इस तरह के प्रदूषित
जल का सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने से जमीन भी खराब हो गई है। ताजा
अनुमानों के अनुसार इस सबसे 34,500 हेक्टेयर भूमि बुरी तरह प्रभावित हुई
है। इसके साथ ही भारी मात्रा में पाॅलीथिन और प्लास्टिक का कचरा पृथ्वी की
उर्वरकता को तेजी से खत्म कर रहा है, क्योंकि यह कचरा गलता नहीं है। इसलिए
यह जमीन के लिए बहुत ही घातक है। जिस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगना चाहिए,
लेकिन न तो केंद्र सरकार ऐसा कर पा रही हैं और न राज्य सरकारें।
जमीन
में बोरिंग करके अंधाधुंध पानी खींचने से पृथ्वी के भीतर भूजल स्तर में
तेजी से गिरावट आई है। जिससे जमीन की नमी खत्म हुई है और रेगिस्तान बढ़ता
जा रहा है। फिर भी हमें अक्ल नहीं आ रही। 1947 में देश में एक हजार
ट्यूबवेल थे, जिनकी तादाद अब 2.10 करोड़ है। इससे भूमिगत पानी की सतह तेजी
से नीचे होती जा रही है। इसी तरह औद्योगिकरण के इस दौर में समुद्री तटों के
आसपास मनुष्यों के रहने लायक स्थिति नहीं बची है। क्योंकि आए दिन समुद्री
पानी से भूमि का कटाव होकर खारा पानी आबादी क्षेत्र में 30 से 100 किमी तक
प्रवेश करने लगा है। गुजरात के जामनगर, द्वारिका, जूनागढ़, भावनगर और
अमरैली के तटीय गांव उजड़ने की कगार पर हैं। जिसका एक मात्र कारण तटीय जमीन
का अत्यधिक कटाव किया जाना है। इतना ही नहीं बल्कि देश में हो रहे
बेरोकटोक अंधाधुंध खनन से जमीन पोली हो रही है। भूचाल के खतरे बढ़ रहे हैं
और इससे होने वाले प्रदूषण से भूमि बंजर हो रही है।
खानों का
कचरा खुले में फैलने से व सीमेंट उद्योग के लिए चूना-पत्थर और चीनी मिट्टी
उद्योग के लिए
कैल्साइट और खडि़या पत्थर की पिसाई से जो धूल उड़ती है, वह आसपास की उपजाऊ जमीन को बर्बाद कर देती है। नब्बे फीसदी खान मालिकों द्वारा खुली खदान प्रणाली के जरिये खनन कार्य किया जा रहा है। खनन पूरा हो जाने के बाद उस क्षेत्र को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। इसे फिर सही करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता। जिससे पूरा क्षेत्र हमेशा के लिए बर्बाद होकर रेगिस्तान बन जाता है।
कैल्साइट और खडि़या पत्थर की पिसाई से जो धूल उड़ती है, वह आसपास की उपजाऊ जमीन को बर्बाद कर देती है। नब्बे फीसदी खान मालिकों द्वारा खुली खदान प्रणाली के जरिये खनन कार्य किया जा रहा है। खनन पूरा हो जाने के बाद उस क्षेत्र को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। इसे फिर सही करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता। जिससे पूरा क्षेत्र हमेशा के लिए बर्बाद होकर रेगिस्तान बन जाता है।
वनस्पतियों का विनाश भी जमीन को बंजर
बनाने का कारण है। मरुस्थलीयकरण का सबसे पहला शिकार पेड़-पौधे और
वनस्पतियाँ होती हैं। जमीन पर बढ़ते दबाव से पेड़-पौधों और वनस्पतियों के
हृास में खतरनाक वृद्धि हो रही है। गाँवों के आस-पास चरागाहों की जमीन बुरी
तरह बर्बाद हुई है, क्योंकि उसकी सबसे अधिक उपेक्षा और सबसे ज्यादा दोहन
हुआ है। इस प्रकार उपजाऊ भूमि भी रेगिस्तान बनती जा रहे है।
हमारे
प्रधानमंत्री को भारत के किसानों और उनकी जमीनों की गिरती उर्वरकता की
गहरी चिंता रही है। ऐसा वे अपने वक्तव्यों से संकेत देते रहे हैं, लेकिन
अभी तक इस समस्या का कोई ठोस समाधान भारत सरकार आजादी के बाद से नहीं दे
पाई है। नतीजतन, यह विनाश बेरोकटोक जारी है। जिस पर प्रधानमंत्री और उनके
संबंधित मंत्रालयों को गंभीरता से सोचना चाहिए और कृषि योग्य भूमि के
संरक्षण को प्रोत्साहित करते हुए उसका विनाश करने वालों से कड़ाई से निपटना
चाहिए।
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